होली का दिन था. दिवाकर कुर्सी पर बैठे पुराने दिनों को याद कर रहा था. बचपन से ही होली उसका पसंदीदा त्यौहार रहा है. यह कहना भी गलत नही होगा कि वह होली का दीवाना है. बचपन में होली के त्यौहार के दो दिन पहले से ही वह अपनी पिचकारी में पानी भर कर लोगों को भिंगोने लगता था. इस बात के लिए माँ से उसे बहुत डांट पड़ती थी लेकिन वह बाज नहीं आता था. होली के दिन तो सुबह से ही वह रंग खेलने लगता था और तब तक खेलता रहता था जब तक माँ उसे जबरदस्ती पकड़ कर घर नही ले जाती थीं. जब वह दसवीं में था तो होली के समय बोर्ड परीक्षा चल रही थी. माँ ने सख्त हिदायत दी थी कि इस बार बोर्ड परीक्षा है अतः होली नही खेलनी है. लेकिन वह सुबह सुबह ही निकल गया. जब दोपहर में वह घर लौटा तो माँ बहुत नाराज़ हुईं. उनका गुस्सा तब तक शांत नही हुआ जब तक परीक्षा में उसके अच्छे अंक नही आ गए. कॉलेज के दिनों में भी होली का ख़ुमार उसके सर चढ़ कर बोलता रहा. वह और उसके दोस्तों की मंडली मोटरसइकिलों पर काफिला बना कर निकलते थे. देर शाम तक खूब मस्ती करते थे. शादी के बाद परिवार की जिम्मेदारियों के बावजूद भी उसका होली पर हुड़दंग बदस्तूर जारी रहा.
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