आज कुछ बच्चों को कागज़ की नाव चलाते देख कर मुझे मेरा बचपन याद आ गया. मेरा गांव का घर और उसका आंगन. आंगन में भागता मैं और मुझे पकड़ने का प्रयास करती मेरी बड़ी बहन. उनका वह गोल चेहरा मेरी आंखों में तैरने लगा. कस कर बांधी गई दो चोटियां, कान में पहनी हुई सोने की छोटी छोटी बालियां तथा होंठों पर खेलने वाली सदाबहार मुस्कान सब कुछ साफ साफ दिखाई देने लगा. मेरे तथा मुझसे बड़े दोनों भाइयों के लिए वह माँ थीं. खासकर मेरे लिए क्योंकी दस माह की अवस्था में माँ मुझे उन्हें सौंप कर चल बसीं. हम लोग उन्हें जिज्जी कह कर बुलाते थे. एक उम्र तक जिज्जी की गोद ही मेरा सबसे आरामदायक बिस्तर था. उनके सीने से चिपट कर मुझे सबसे अच्छी नींद आती थी. जिज्जी ने अकेले दम ही घर की सारी ज़िम्मेदारी उठा रखी थी. घर के सारे कामों के साथ साथ अपनी पढ़ाई भी करती थीं. सुबह जल्दी उठ कर पिताजी तथा हम सबका टिफिन तैयार करतीं. उसके बाद स्कूल जातीं. बड़े तथा मंझले भैय्या तो अपने काम स्वयं कर लेते थे किंतु मैं बहुत चंचल था. मुझे स्कूल के लिए तैयार करने के लिए जिज्जी को मेरे पीछे भागना पड़ता था. मैं उनसे अपनी सारी मांगें पूरी करा लेता
नमस्ते मेरे Blog 'कथा संसार' में आपका स्वागत है। यह कहानियां मेरे अंतर्मन की अभिव्यक्ति हैं। मेरे मन की सीपी में विकसित मोती हैं।