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दिसंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मेरे गीत

सरगम के गांव लौट आने की खबर सुन कर छबीली बहुत खुश थी। कितने महीनों से वह उसकी राह देख रही थी। जब से वह गया था उसके जीवन में खामोशी सी आ गई थी। जो उसे बहुत अखरती थी। सरगम ही तो उसके जीवन का संगीत था। उसके नेत्रहीन जीवन की रौशनी। सरगम उसके बचपन का साथी था।बहुत मीठा गला था उसका। वह उसे मीठे मीठे गीत सुना कर उसका मन बहलाता था। उसके गीत छबीली की सबसे बड़ी पूंजी थे। एक दिन सरगम एक म्यूज़िकल ग्रुप के साथ गांव छोड़ कर चला गया। छबीली उसकी प्रतीक्षा करने लगी। उसे यकीन था कि जब भी वह आएगा उसके लिए गीत गाएगा।  आहट सुन कर वह खिल उठी "सरगम तुम..." "तुमने कैसे जान लिया?" सरगम ने अचरज से पूँछा। "तुम्हारा ही तो इंतज़ार कर रही थी। कैसे हो?" "अच्छा हूँ। तुम कैसी हो?" "मैं ठीक हूँ। तुमने तो वहाँ भी सबका दिल जीत लिया होगा।" "हाँ लोग मेरे गीतों को पसंद करते हैं।" "मुझे भी कोई गीत सुनाओ।" "ऐसे कैसे। बिना साज़ों के मूड नहीं बनता है।" "पर पहले तो मेरे लिए यूं ही गाते थे।" सरगम हंस कर बोला। "तब की बात और थी। अब तो लो

गोद

महेंद्र शांती से बैठा अस्त होते हुए सूरज को देख रहा था। कितने समय के बाद उसने शाम को महसूस किया था। अन्यथा तो आपाधापी में पूरा दिन कैसे निकल जाता था पता ही नहीं चलता था। आसपास के शांत मनोरम वातावरण से उसका मन प्रफुल्लित था। आज फिर वह एक नन्हा बच्चा बन कर माँ प्रकृति की गोद में बैठा कौतुहल से उसकी खूबसूरती निहार रहा था। तभी उसका चचेरा भाई वंश उसके पास आकर बोला। "यार कैसी बोरिंग जगह पर ले आए हो। कुछ है ही नहीं यहाँ। नेटवर्क भी गायब है। शाम बर्बाद हो गई।" महेंद्र को लगा जैसे वंश ने उसे माँ की गोद से जबरन खींच कर निकाल दिया हो।

खर्च का हिसाब

"दीपक ये मोबाइल फोन किसलिए खरीदा। तुमने तो कुछ ही महीनों पहले फोन लिया था।" वाणी ने बिल चेक करते हुए पूँछा। "वो स्नेहा दीदी के जन्मदिन के लिए।" "पर इतना महंगा फोन?" वाणी ने बिल दिखाते हुए कहा। "उनका पचासवां जन्मदिन था। फिर कौन सा रोज़ रोज़ देते हैं।" "वो ठीक है। पर पैसा खर्च करते समय सोंचना भी चाहिए।" दीपक सन्न रह गया। वाणी के सिंगिंग कैरियर को आगे बढ़ाने के लिए उसने अपना कैरियर छोड़ दिया। पर आज वाणी के लिए वह मैनेजर से अधिक कुछ नहीं था।

नया साल

साल के पहले दिन सुबह सुबह नहा धोकर गरिमा घर से निकल गई। कहते हैं कि साल के पहले दिन जो होता है वह पूरे साल होता है। अतः गरिमा भी आशीर्वाद लेना चाहती थी। ताकि वर्ष भर उसे आशीर्वाद मिलता रहे। मंदिर पहुँच कर वह इधर उधर देखने लगी। कुछ ही समय में उसका भाई विपिन खाने का सामान लेकर पहुँच गया। दोनों भाई बहन ने मिलकर मंदिर के पास बने वृद्धाश्रम में जाकर वृद्धजनों के साथ नया साल मना कर उनका आशीर्वाद लिया। नर नारायण की सेवा के बाद उन्होंने ईश्वर के दर्शन कर सबके लिए सुख शांति की प्रार्थना की।

ना मे हाँ

सब तरफ चर्चा थी कि गीता पुलिस थाने के सामने धरने पर बैठी थी। उसने अजय के खिलाफ जो शिकायत की थी उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई थी।  पिछले कई महीनों से गीता बहुत परेशान थी। कॉलेज आते जाते अजय उसे तंग करता था। वह उससे प्रेम करने का दावा करता था। गीता उसे समझाती थी कि उसे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। वह सिर्फ पढ़ना चाहती है। लेकिन अजय हंस कर कहता कि लड़की की ना में ही उसकी हाँ होती है।  गीता ने बहुत कोशिश की कि बात अजय की समझ में आ जाए कि उसकी ना का मतलब ना ही है। पर अजय नहीं समझा। पुलिस भी कछ नहीं कर रही थी। हार कर गीता यह तख्ती लेकर धरने पर बैठ गई कि 'लड़की की ना का सम्मान करो।'  सभी उसकी तारीफ कर रहे थे।

ठहराव

"चलो ना भाभी। पार्टी में सब जान पहचान के ही होंगे। आपको अच्छा लगेगा।" सुमन ने उदास बैठी संध्या से कहा। जब से संध्या के पति की मृत्यु हुई थी तब से वह कहीं आती जाती नहीं थी। बस अपने में खोई रहती थी। इस बात को लेकर घर वाले बहुत चिंतित थे। सब उसे इस दुख से बाहर लाना चाहते थे। सुमन अक्सर ही इस बात का प्रयास करती रहती थी। आज उनके परिचित परिवार में पार्टी थी। सुमन चाहती थी कि संध्या वहाँ जाए ताकि उसका मन बदल सके। लेकिन संघ्या मान नहीं रही थी। "तुम जानती हो ना सुमन मैं अब कहीं नहीं आती जाती हूँ। मुझसे ज़िद मत करो।" उसी समय उसकी सास भीतर आई। उसके बगल में बैठ कर प्यार से समझाते हुए बोली। "बेटा जीवन को बहती नदी की तरह होना चाहिए। जो कठिनाइयों में भी बहती रहे। इसे एक दायरे में बाँधने से इसमें निष्क्रियता आ जाती है। भले ही वह दायरा हमारे सबसे बड़े दुख का हो। हमें उसमें नहीं बँधना चाहिए।" अपनी बात कह कर वह कमरे से चली गईं। सुमन भी उनके साथ चली गई। संध्या उनकी बात पर विचार करने लगी। सच में उसने अपने जीवन को इस तरह अपने दुख में डूबो दिया था कि अब उसके लिए कुछ

स्वयं की संतुष्टि

वसुदेवजी को देखते ही बच्चे उनकी तरफ भागे। सब उन्हें घेर कर खड़े हो गए। वसुदेवजी साथ लाई हुई वस्तुएं उनके बीच बांटने लगे। बच्चों के मुस्कुराते देख कर वसुदेवजी के चेहरे पर संतोष झलक रहा था। वह हर महीने इस अनाथालय में आकर इसी प्रकार बच्चों में कुछ उपहार बांट जाते थे। लौटते समय उनके साथ आए उनके मित्र ने कहा। "यदि बुरा ना मानें तो एक बात पूँछूं।" "अवश्य पूँछिए" "कभी कभार आकर बच्चों को कुछ दे जाना तो समझ आता है। लेकिन हर महीने आना। क्या कोई विशेष बात है।" कुछ सोंच कर वसुदेवजी बोले। "बस यह समझ लीजिए कि आभावों में बीते अपने बचपन को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ।" साथ आए मित्र उनकी बात समझने का प्रयास करने लगे।

डाली

उस बड़े से घर के बरामदे में रामरती फर्श पर सकुचाई सी बैठी थी। निगाहें दरवाज़े पर लगी थीं। किसी भी समय उसके कलेजे का टुकड़ा उसकी बच्ची बाहर निकल कर आएगी और उससे लिपट जाएगी। । दिल पर पत्थर रख कर उसने अपनी बिटिया को यहाँ काम करने के लिए भेजा था। क्या करती परिस्थितियां कभी गरीब के साथ नहीं होती हैं। दरवाज़ा खुला उसकी बच्ची उसके सामने खड़ी थी। रामरती का दिल धक् से रह गया। गरीबी और भूख में भी जो खिवखिला कर हंसती थी उसके मुर्झाए चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान थी।