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मार्च, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

खुशियों का खजाना

  रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - खुशियों का खजाना बात तकरीबन बीस वर्ष पुरानी है। यह मोहल्ला लोअर मिडिल क्लास लोगों का था। जिनकी आमदनी छोटी किन्तु ख्वाहिशें बड़ी थीं। मोहल्ले में एक चीज़ की चर्चा बड़े ज़ोरों पर थी। 'सबरीना ट्रेडर्स' जिसका नारा था 'खुशियाँ अब आपके बजट में' सभी बस इसी विषय में बात  रहे  थे। सबरीना ट्रेडर्स सभी को आधी कीमत पर उनकी ज़रुरत का सामान जैसे टी .वी . फ्रिज सोफा टू -इन -वन इत्यादि  दिलाने का वादा कर रहे थे। बस शर्त यह थी की सामन की  १५ दिन पहले एडवांस बुकिंग करानी होगी और पूरे पैसे बुकिंग के समय ही देने होंगे। पहले तो लोग झिझक रहे थे किन्तु वर्मा जो कुछ ही दिन पूर्व मोहल्ले में रहने आया था ने पहल की और  सामन की बुकिंग कराई। १५ दिन बाद उसका घर सामन से भर गया। वह औरों को अपना उदहारण देकर सामान की बुकिंग कराने के लिए प्रेरित करने लगा। उससे प्रेरणा पाकर कुछ और लोगों ने भी हिम्मत दिखाई और उनका घर भी मनचाहे सामान से भर गया। अब तो बात जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी। सबरीना ट्रेडर्स के दफ्तर में बुकिंग कराने वालों का तांता लग गया। दूर दूर से लोग ब

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - सुबह की सैर

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - सुबह की सैर शाम के समय मि . मलिक बाहर बरामदे में बैठ कर  अखबार पढ़  रहे थे तभी उनकी बेटी रश्मी चाय लेकर आई। चाय का प्याला पकड़ते हुए उन्होंने पूछा " कुछ सोंचा आगे क्या करना है।" रश्मी वहीं कुर्सी पर बैठ गई   " सोचना क्या है अब मैं वहाँ वापस नहीं जाऊंगी। सोच रही थी कि अपने पुराने ऑफिस जाकर पता करूं शायद कोई काम बन जाए।"    "पूरी ज़िन्दगी का सवाल है जो भी फैसला लेना सोच समझ कर लेना।"  मि . मालिक ने समझाया। " "इस बार फैसला मेरे हाथ में है पापा सोच समझकर ही लूंगी।" यह कह कर रश्मी चली गई। मि . मलिक सोच में पड़ गए। रश्मी क्या कहना चाहती थी। क्या वो अपनी इस स्तिथि के लिए उन्हें दोष दे रही थी। उन्होंने तो सब कुछ देख परख कर ही किया था। रश्मी और दामाद के बीच सब सही चल रहा था। किन्तु पिछले एक वर्ष से उनके बीच तनाव बढ़ गया। वजह क्या थी रश्मी ने कभी खुल कर नहीं बताया। बस एक दिन अचानक घर छोड़ कर मायके आ गई। मि . मलिक और संघर्ष का पुराना सम्बन्ध था। पिता के असामायिक निधन के कारण छोटी उम्र में ही घर की ज़िम्मेदारी

जीवन धारा

 http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:329985 जब मि .  गुप्ता ने कैफे में प्रवेश किया तब मि . खान और मसंद का ठहाका उनके कानों में पड़ा। उन्हें देखकर मि  .खान बोले " आओ भाई सुभाष आज देर कर दी।"  मि . गुप्ता ने बैठते हुए कहा " अभी तक रघु नहीं आया, वो तो हमेशा सबसे पहले आ जाता है।"  मि . मसंद बोले " हाँ हर बार सबसे पहले आता है और हमें देर से आने के लिए आँखें दिखाता है, आज आने दो उसे सब मिलकर उसकी क्लास लेंगे।"  एक और संयुक्त ठहाका कैफे में गूंज उठा। तीनों मित्र मि . मेहता का इंतज़ार कर रहे थे। मि . मेहता ही थे जिन्होंने चारों मित्रों को फिर से एकजुट किया था। चारों कॉलेज के ज़माने के अच्छे मित्र थे। कॉलेज में उनका ग्रुप मशहूर था। किन्तु वक़्त के बहाव ने इन्हें अलग कर दिया। रिटायरमेंट के बाद मि . मेहता ने खोज बीन कर बाकी तीनों को इक्कठा किया। इत्तेफाक से सभी मित्र एक ही शहर में थे। सभी पहली बार इसी कैफे में मिले थे। उसके बाद यह कैफे ही उनका अड्डा बन गया। हर माह की बीस तारीख को सभी यहीं मिलते। आपस में हंसी मजाक करते। कुछ पुरानी यादें ताज़ा

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - तुम बिन

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - तुम बिन सुनीता जल्दी जल्दी काम निपटा कर अपने कमरे में आ गयी। अपना फ़ोन उसने अपने पास रख लिया। वह अजय के फ़ोन का इन्तजार करने लगी। फ़ोन की घंटी बजते ही उसने फ़ोन उठा लिया। दोनों पति पत्नी एक दूसरे से अपने मन की बात करने लगे। उनके विवाह को चार महीने ही हुए थे कि अजय को काम के लिए मुंबई जाना पड़ा। एक मोबाइल फ़ोन ही था जो उनके बीच संपर्क का सूत्र था। जिसके ज़रिये वो दोनों  एक दूसरे का सुख दुःख बांट लेते थे। अक्सर अजय सुनीता को बताता की मुंबई में जीवन कितना कठिन है। आपाधापी और घुटन से भरी ज़िंदगी में अक्सर उसका मन गाँव के खुले वातावरण और सुकून भरी ज़िन्दगी के लिए तड़प उठता है। अकेलापन उसे काटने को दौड़ता है और वह चाहता है की वह उड़ कर सुनीता के पास पहुँच जाये। सुनीता का भी यही हाल था। अजय के बिना उसे  सब कुछ बेरंग लगता था। दिन भर वह स्वयं को घर के कार्यों में व्यस्त रखती किन्तु सारा काम निपटा कर जब रात को वह अपने कमरे में आती तो एक अजीब सा सूनापन उसे घेर लेता। जब भी अजय फ़ोन पर बहुत उदास होता सुनीता उसे ढाढस बंधाती। उस से कहती कि वह परेशान न हो