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मई, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

निरीह

चिड़िया के घोंसले से अचानक ही उसका चूज़ा गिर गया. चिड़िया उसे ऊपर ले जाने का प्रयास करने लगी. मैं दूर से खड़ा देख रहा था. तभी वहाँ बिल्ली आ गई. खतरा भांप कर दहशत से चिड़िया चूं चूं करने लगी. बिल्ली चूज़े पर झपटती उससे पहले ही मैंने चप्पल से उस पर वार किया. बिल्ली डर कर भाग गई. खतरा टल जाने पर चिड़िया शांत हो कर मेरी ओर कृतज्ञता से देख रही थी.

संतुष्टि

इस बाजार में महेशजी की कपड़े की दुकान प्रसिद्ध थी. पिछले तीस सालों से वह यहाँ कारोबार कर रहे हैं. उनके मृदु स्वभाव तथा ईमानदारी के कारण सभी उनकी इज़्जत करते हैं. महेशजी बहुत ही धार्मिक व्यक्ति हैं. भगवान कृष्ण के उपासक हैं. आए दिन कोई ना कोई धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन करते रहते हैं. धर्म के उत्थान में बहुत सक्रिय रहते हैं. इन दिनों शहर का माहौल कुछ ठीक नही है. आज व्यापार संघ के मुखिया चंदूलाल से भेंट हुई. चिंता व्यक्त करते हुए वो बोले "जिस तरह से ये लोग बढ़ रहे हैं धर्म की रक्षा के लिए अच्छा संकेत नही है. अब कुछ करने की आवश्यक्ता है." "चिंता क्या करना कान्हाजी संभाल लेंगे." महेशजी ने अपने हाथ जोड़ते हुए कहा. "बस यही तो हमारी कमज़ोरी है. हमें स्वयं ही करना होगा. श्रीकृष्ण ने भी तो धर्म की रक्षा का आदेश दिया है." महेशजी कुछ नही बोले. दुकान के सामने पहुँच कर विदा ली और भीतर आ गए. आज काम कुछ अधिक रहा. नौकर संजय को भी किसी काम से बाहर भेजना पड़ा. शाम हो रही थी. महेशजी अपने नौकर के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह आए तो छुट्टी पाकर वह कान्हाजी के सामने दिय

ज़हर

चेकअप के बाद डॉक्टर ने फिर वही सलाह दी 'कुछ दिनों के लिए इसे किसी पहाड़ी जगह पर ले जाएं.' दवाओं का पर्चा ले कर विपुल अपने दस साल के बेटे का हाथ थाम कर बाहर आ गया. सड़क पर आते ही शोर मचाती धुंआं उगलती गाड़ियों के रेले से उसका सामना हुआ. इन सबने मिल कर उसके खिलते हुए इंद्रधनुष को मैला कर दिया है.

बैरंग चिठ्ठी

बैरंग चिठ्ठी की तरह एक दिन अचानक बिट्टो बुआ आ धमकीं. परिवार का माहौल अच्छा नही चल रहा था. पति पत्नी के बीच तनाव था. इसका असर बच्चों पर भी पड़ रहा था. वंश कुछ कह भी नही सकता था. बचपन में बुआ की ममता और सेवा ही उसे मौत के मुंह से खींच लाई थी. आते ही बुआ ने घर पर जैसे नियंत्रण कर लिया. अपनी इच्छा से रोज़ कुछ नया पका लेती. सबको एक साथ बैठ कर खाना पड़ता. साथ में कोई पुराना किस्सा ले बैठतीं. आरंभ में यह सब बहुत उबाऊ प्रतीत होता था. किंतु धीरे धीरे फिज़ा बदलने लगी. बच्चे इस सब से खुश होने लगे. पति पत्नी भी एक दूसरे को देख मुस्कुराने लगे. और एक दिन बिट्टो बुआ जैसे आईं थीं वैसे ही अचानक चली गईं. किंतु परिवार की सारी आंखें नम थीं.

आखिरी पड़ाव

एक ही शहर में उनका अपने बेटे के साथ ना रह कर अकेले रहना लोगों के गले नही उतर रहा था. लेकिन अपने निर्णय से वह पूरी तरह संतुष्ट थीं. इसे नियति का चक्र कहें किंतु जीवन में सदैव ही संघर्ष से घिरी रहीं. जब पिता की सबसे अधिक आवश्यक्ता थी वह संसार से कूच कर गए. संघर्ष कर स्वयं को स्थापित किया तथा यथोचित भाई बहनों की भी सहायता की. अभी संतान के जन्म में कुछ समय शेष था तभी पति ज़िम्मेदारियां उन पर छोड़ किसी सत्य के अन्वेषण में निकल गए. अकेले जीवन के झंझावातों का सामना किया.  हाँ अब संघर्ष कम है. बेटे के फलते फूलते जीवन को देख गर्व होता है. उन्हें सबसे प्रेम भी है. लेकिन जीवन के ऊंचे नीचे रास्तों पर जो सदैव साथ रहा उस आत्मनिर्भरता को इस पड़ाव में आकर नही त्याग सकती हैं.

एक पुख़्ता सवाल

पंद्रह साल की ज्योती के लिए पैंतीस साल के रामसजीवन का रिश्ता आया था. पहली पत्नी प्रसूति के समय चल बसी थी. ज्योती ने अपनी माँ से कहा "अम्मा अभी तो हमारी उम्र भी नही हुई. फिर जल्दी किस बात की है." उसकी माँ ने जवाब दिया "बिटिया हम गरीबों की छाती से बेटी का भार जितनी जल्दी उतर जाए अच्छा है." अपनी माँ का जवाब उसके दिल में चुभ गया "क्यों अम्मा घर के हर काम में मैं हाथ बटाती हूँ. तुम्हारे साथ बापू का हाथ बंटाने खेत पर भी जाती हूँ. फिर मैं भार कैसे." उसकी माँ मौन थी. यह तो वह पुख़्ता सवाल था जो इस समाज की बेटियां सदियों से पूंछ रही हैं. एक पुख़्ता सवाल

आख़िर कब तक

न्यूज चैनल पर समाचार चल रहा था. एक पिछड़े वर्ग के व्यक्ति को कुछ दबंगों ने पीट पीट कर मार डाला. चैनल को बताते हुए थाना प्रभारी ने कहा "दोषियों को छोड़ा नही जाएगा. कैमरा उस मृतक की विधवा पर गया. उसकी ख़ामोश आंखें बोल रही थीं "आख़िर कब तक". मैं भी मौन था. लगा जैसे मुझसे इतने वर्षों का हिसाब मांग रही थी.

जूनून

[पागलपन] उसके मित्रों रिश्तेदारों और बड़े से सर्किल में जिसने भी सुना वह चौंक गया. सभी केवल एक ही बात कह रहे थे 'भला यह भी कोई निर्णय हैं.' सबसे अधिक दुखी और नाराज़ उसकी माँ थीं. होतीं भी क्यों नही. पति की मृत्यु के बाद कितनी तकलीफें सह कर उसे बड़ा किया था.  "इसे निरा पागलपन नही तो और क्या कहेंगे. इस उम्र में इतनी सफलता यह ऊपर वाले की कृपा ही तो है." "तभी तो उसकी संतानों की सेवा कर उसका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ." "सारी दुनिया के गरीब बेसहारा लोगों के लिए एक तुम ही तो बचे हो." वह नही जानता था कि वह अकेला है या और भी इस राह के राही हैं. यह तो उसके भीतर का कीड़ा है जो उसे पिछले कई दिनों से कुछ करने को उकसा रहा था. पीछे हटना अपने आप को धोखा देना होगा. अब कुछ भी उसे विचलित नही करता है. सारे तानों उपहासों को अनसुना कर वह अपने पागलपन में मस्त जो ठाना है उसे पूरा करने के लिए आगे बढ़ रहा है.

अहम

प्रतिष्ठित साहित्यकार पुष्करनाथ साहित्य जगत का सर्वोच्च पुरस्कार गृहण करने जा रहे थे. यह पुरस्कार उनके उपन्यास 'स्वयंसिद्धा' के लिए दिया जा रहा था. नायिका ने धैर्य और साहस के साथ अपने पति का विपरीत परिस्थितियों मे साथ निभा कर स्वयं को सिद्ध किया था. उनकी सहधर्मिणी भी इस महत्वपूर्ण समारोह में जाने के लिए पूरे उत्साह से तैयार हुई थीं. कार में बैठते समय पुष्करनाथ ने हाथ के इशारे से उन्हें रोक दिया "तुम क्या करोगी चल कर. भीतर जाकर घर संभालो."  अपने उपन्यासों में स्त्री चरित्रों को महिमामंडित करने वाले पुष्करनाथ अपनी स्त्री को ना समझ सके जिसने उनके उपन्यास की नायिका से अधिक स्वयं को सिद्ध किया था.

झेंप

जानी मानी समाज सेविका निर्मलाजी चाय की चुस्कियां ले रही थीं. उनका बारह साल का पोता बड़े उत्साह से समाचारपत्र में छपा उनका साक्षात्कार पढ़ कर सुना रहा था. सभी बच्चों के शिक्षा के अधिकार पर उनके विचार पढ़ कर उसने सवाल किया "क्या बबलू अब घर के काम छोड़ कर पढ़ने जाएगा." पास ही खड़े बबलू ने आशा से उनकी ओर देखा. इस सवाल पर निर्मलाजी झेंप गईं. अपने पोते को पढ़ने भेज कर उन्होंने बबलू को बैठक की सफाई का आदेश दिया.

पूंजी

कहने को तो वह इस दुनिया में अकेला था. अस्पताल के निजी कक्ष में अपने बिस्तर के चारों ओर रखे फूलों के गुलदस्तों तथा उसके शीघ्र स्वस्थ हो जाने की प्रार्थना वाले संदेश कार्ड्स पर जब उसकी नज़र पड़ी तो खुशी से आंखे भर आईं. कोई संबंध ना होते हुए जिन रिश्तों में उसने भावना की पूंजी लगाई थी यह उसी का ब्याज था.

स्पर्श

इस बार फिर वह अपने माता पिता की उम्मीद पर खरा नही उतर सका. आत्मग्लानि के कारण नींद की गोलियां खाकर उसने चिरनिद्रा में लीन होने का प्रयास किया. आई सी यू में जीवन और मृत्यु के बीच झूलते हुए जब पिता ने प्यार से उसके माथे का स्पर्श किया तो जीवन की जीत हो गई. वह स्पर्श संजीवनी साबित हुआ.

कैद

एक सुखद भविष्य का सपना दिखा कर वह उसे इस नर्क में झोंक गया. यहाँ वह एक उपभोग की वस्तु बनकर रह गई है. इस तंग कोठरी के अंधेरे में भी उसे उम्मीद है कि एक दिन वह गांव जा सकेगी. मैला ही सही उसके मन के आकाश में एक इंद्रधनुष खिलता है.

शतरंज

नेताजी हतप्रद थे. स्वयं को वह राजनीति का माहिर खिलाड़ी समझते थे. विरोधी खेमे के विभीषण को यह सोंच कर शामिल किया था कि उसके ज़रिए रावण को परास्त करेंगे. किंतु इस आधुनिक विभीषण ने कुछ इस तरह मोहरे चले कि राम और रावण दोनो को मुंह की खानी पड़ी. दोनो के कंधों पर चढ़ कर वह राजनीति की ऊंचाइयां छू रहा था.

पहली कमाई

उसने अपनी पहली कमाई लाकर अपने माता पिता को सौंप दी. अब तक वो दोनों मिलकर गृहस्ती की गाड़ी खींच रहे थे. आज उनकी बिटिया उस तीसरे पहिए की तरह जुड़ गई जो बिना रुकावट डाले बाकी के दो पहियों को संतुलन प्रदान करता है.

आज़ादी

इस बड़े से मैदान का उपयोग धरना प्रदर्शन के लिए होता है. इसके एक कोने में एक शहीद सैनिक की विधवा अनशन पर बैठी है. मुआवजे में मिली ज़मीन पर गुंडों ने कब्ज़ा कर लिया है और कोई सुनने वाला नही. दूसरी तरफ कुछ सरकारी शिक्षक अपने वेतन की मांग को लेकर धरने पर हैं. कहीं छात्रों का शोर है तो कहीं बूढ़े माता पिता अपनी उस बच्ची के लिए इंसाफ मांग रहे हैं जिसकी अस्मत लूट कर मार दिया गया. मैदान के एक कोने में उस क्रातिकारी का पुतला लगा है जिसने एक समतापूरक सुखी देश के लिए अपने प्राण गंवाए थे. यह सब देख कर उसके मन में उठने वाले दर्द को कोई नही देखता.

आत्मसम्मान

वह बोल नही सकता था. टूरिस्ट स्थान पर वह कागज़ पेंसिल लेकर बैठा था. कुछ ही मिनटों में आपका चेहरा कागज़ पर उकेर देता था. उसकी गरीबी पर तरस खाकर मैने दस रूपये पकड़ाए और आगे बढ़ने लगा. उसने बढ़ कर हाथ पकड़ लिया. मेरी ओर वह खमोशी से देख रहा था. उसकी खामोशी मुखर थी. मैने उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाई थी.

अरमान

मार्निंग वॉक से लौटते हुए वह फिर मिल गया. "क्या फैसला किया मैडम आपने. मैं अस्सी हजार तक दिला दूंगा. सौदा बुरा नही है. छह महिने और निकल गए तो कोई तीस भी नही देगा. " बिना कोई जवाब दिए नीलिमा ने अपनी चाल तेज़ कर दी. पीछे से उसने आवाज़ लगाई " सोंच कर देखिएगा. " घर पहुँच कर वह सीधे पोर्च में खड़ी कार के पास गई. कवर हटा कर देखा बहुत धूल जमा थी. वह उसे पोंछने लगी. यह कार उसके पति का अरमान थी. वह अरमान जो कई साल तक गृहस्ती की ज़िम्मेदारियों बच्चों की पढ़ाई और उनकी जरूरतों के नीचे दबा रहा. फिर जब सारे दायित्वों से मुक्ति मिली तो उन्होंने वर्षों से दबाए इस अरमान को पूरा किया. वह बहुत खुश थे. नीलिमा के जेहन में वह क्षण अभी भी ताजा है जब वह दोनों कार लेकर पहली बार मंदिर गए थे ईश्वर को धन्यवाद करने के लिए.  लगभग हर रोज़ ही दोनों शाम को कार से घूमने निकलते थे. कभी किसी मित्र के घर तो कभी पार्क में कुछ देर ताज़ी हवा खाने के लिए. लेकिन नौ माह पूर्व दिल के दौरे के कारण उसके पति चल बसे. तब से इस कार के पहिए भी थम गए हैं. अब तो हर कोई इसे बेंच देने की सलाह देता है. उसके पति अक्सर कहत