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जनवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गाँठ

बहुत कश्मकश के बाद विनीता ने फोन मिलाया। उधर से आवाज़ आई 'हैलो'। विनीता ने कुछ कहना चाहा किन्तु कह नहीं पाई। उसका गला रुंध गया।  " हैलो, विनीता क्या हुआ, कुछ बोलती क्यों नहीं? तुम ठीक तो हो न? "  विनीता ने बहुत रोका किन्तु बाँध टूट गया। वह फोन पर रोने लगी।  " विनीता तुम रो क्यों रही हो? क्या बात है? बताओ न। अच्छा ठहरो मैं वहाँ आता हूँ। " दो साल पहले उसने और रंजन ने अपनी राहें जुदा कर ली थीं। न जाने क्यों हालात उनके खिलाफ हो गए थे।एक राह पर चलते हुए उनके बीच तल्खियां पैदा हो गयी थीं। इसलिए दोनों अलग हो गए।  अभी कुछ दिन पहले ही उसने अपने वक्ष पर एक गाँठ देखी थी।  जांच कराने पर पता चला कि उसे ब्रेस्ट कैंसर है। यूँ तो ज़िन्दगी में उसने कई संघर्ष अकेले ही जीते थे। किन्तु इस समय जीवन मुट्ठी में फँसी रेत की  तरह था जो तेजी से फिसलती जा रही थी। अतः वह धैर्य नहीं रख सकी। इस समय उसे किसी के साथ की बहुत ज़रुरत थी।  विनीता जानती थी कि सच्चे प्रेम का अर्थ यदि उसने किसी के साथ जाना है तो वह रंजन ही है। अतः दुःख  की इस घड़ी  में उसने रंजन को ही पुकारा। दरवाज़े कि घंटी बज

चुभन

" मॉम मैं जा रहा हूँ। बाय। " दरवाजा खुला और वो बाहर चला गया। उसका बैकपैक और लाल जैकेट दिखाई दिया। शैला की आँख खुल गई। वह उठ कर बैठ गई। सुबह के छह बजे थे। अखिल सोये हुए थे।  कल रात भी देर से आये। काम का बोझ बहुत बढ़ गया है। वह पूरे एहतियात के साथ उठी ताकी अखिल की  नींद न टूट जाए। तैयार होकर वह हाथ में चाय का प्याला पकड़े बालकनी में आ गयी।  यूनिफार्म पहने स्कूल जाते बच्चों को देखने लगी। पीछे से आकर अखिल ने धीरे से उसका कंधा पकड़ा। दोनों ने एक दूसरे को देखा और आँखों ही आँखों में दिल का दर्द समझ लिया। " उठ गए आप, कल भी बहुत देर हो गयी " " हाँ आजकल काम बहुत बढ़ गया है। आज भी मुझे जल्दी निकलना है। एक मीटिंग है। " " ठीक है आप तैयार हों मैं नाश्ता बनाती हूँ। " कहकर शैला रसोई में चली गयी। अखिल के जाने के बाद शैला ने अपना पर्स उठाया, एक बार खुद को आईने में देखा और बाहर निकल गई। ट्राफिक बहुत ज़यादा था। सिग्नल पर जाम लगा था। आटो बहुत धीरे धीरे बढ़ रहा था। शैला यादों के गलियारे में भटकने लगी। " मॉम मुझे दोस्तों के साथ मैच खेलने जाना है।" "