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वजूद

मंजू स्वयं को ठगा सा महसूस कर रही थी। उसने कभी नहीं सोंचा था की उसके साथ कभी ऐसा भी होगा। अपना सब कुछ तो दिया था उसने। यहाँ तक की स्वयं का भी को वजूद है यह भी भूल गयी थी वह। सिर्फ घर और पति इन्हीं दोनों के बीच ही उसकी सारी दुनिया थी। पूरे पांच साल दिए थे उसने। उसने तो अपने माँ बनने की इच्छा तक को अपने ह्रदय में दबा लिया क्योंकि सुधाकर अभी बच्चों की ज़िम्मेंदारी नहीं उठाना चाहता था। किन्तु उसे मिला क्या। अपना सर्वस्व दे दिया था उसने सुधाकर को।।उसकी  की हर इच्छा का वह पूरा सम्मान करती थी। वही सब कुछ था उसके लिए। किन्तु कितनी आसानी से उसने कह दिया की वह उससे तलाक चाहता है। कुछ देर तक वह उसके चहरे को ताकती रही। शायद कहीं कोई पीड़ा या पछतावा दिखाई दे किन्तु वहां उसे कुछ नहीं मिला। इतने सपाट शब्दों में उसने यह बात कह दी जैसे उससे एक गिलास पानी मांग रहा हो। पिछले दो वर्षों से वह किसी और को चाहता था। उसे भनक तक नहीं लगी। कितना भरोसा किया था उसने सुधाकर  पर। उसे तो लगता था कि उसका पति अपने नए बिजनेस को सही प्रकार से स्थापित करने में लगा है। तभी देर रात तक बाहर रहता है। गल्ती उसी की है उसका

आत्म बल

देर रात जब ऑफिस कैब ने उसे छोड़ा तो वह अपने साथियों से विदा लेकर तेज़ कदमों  अपने घर की ओर चल दी।  बस कुछ और कदम और वह अपने घर की सुरक्षा में होगी। तभी एक वैन आकर उसके बगल में रुकी। जब तक वह कुछ समझती दो हाथों ने बलात उसे वैन के भीतर खींच लिया। भीतर वासना से लबरेज़ आँखें उसे घूर रही थीं। वो मदद के लिए चीखी चिल्लाई किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। वैन सूनी सड़क पर दौड़ रही थी। वैन के अन्दर  सांप  और बिच्छू उसके जिस्म पर रेंग रहे थे। उसकी जलन वह अपनी आत्मा में महसूस कर रही थी। एक मोड़ पर वैन रुकी और उसे बहार फ़ेंक दिया गया। वह पड़ी थी उस सियाह रात में उस ठंडी सड़क पर। तन और मन दोनों घायल थे। उसकी आँखों में अपने प्रियजनों के चहरे घूमने लगे। उसे अपनी माँ की याद आ रही थी। वह होती तो उसे सीने से लगा कर उसकी सारी पीड़ा हर लेती। उसके ह्रदय में विचारों का झंझावात उमड़ने लगा।क्या होगा जब सब लोगों को इस बात का पता चलेगा। क्या बीतेगी उसके परिवार पर। कैसे करेंगे वो लोगों का सामना। जब वह अपने छोटे से शहर से यहाँ आ  रही थी तो उसके ताऊ ने उसके पिता से कहा था " तू बहुत छूट  दे रहा है इसे शहर में अकेली रहेगी उस

अनोखा संता

मिस्टर मैसी बाहर से आये तो उन्होंने देखा की उनकी पत्नी ने फिर से सारे खिलोने बिस्तर पर सजा रखे हैं। वो एक  टक उन्हें निहार रही हैं। मिस्टर मैसी ने उनके कंधे पर हाथ रखा तो वो जोर जोर से सुबकने लगीं। यह सरे खिलोने उन लोगों ने अपने पोते टोनी के लिए खरीदे थे। उसे इनके साथ खेलते देखने की बड़ी तमन्ना थी। उनका इकलौता बेटा जॉन उनके जीवन का केंद्र था। जॉन एक अच्छी नौकरी पर था। उसकी पसंद की लड़की से उसका विवाह हो गया और एक साल के भीतर ही टोनी उनके जीवन में ढेरों खुशियाँ लेकर आया। मिस्टर और मिसेज मैसी बहुत खुश थे। प्रभु ने उनकी सारी मुरादें पूरी कर दी थीं। जीवन आनंद से गुजर रहा था। तभी एक दिन जॉन ने उन्हें दुबई जाने का फैसला सुनाया " पापा मुझे बहुत अच्छा ऑफर मिला है। मैं सोंचता हूँ की कुछ साल वहाँ रह कर कुछ पैसे जमा कर लूं। फिर यहाँ लौट कर अपना कोई कारोबार करूंगा।" मिस्टर मैसी ने समझाना चाहा की उसे यहाँ की अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर जाने की क्या ज़रूरत है। यदि वह चाहे तो वह उसे अपना कारोबार शरू करने के लिए पूंजी दे सकते हैं किन्तु जॉन ने कहा की वह अपने दम पर कुछ करना चाहता है। मिस्टर मैसी न

वापसी

" तो क्या हो गया अगर उसके जन्मदिन पर एक छोटा सा उपहार दे दिया। बेचारी विधवा है। खुश हो जाएगी।" वृंदा अपने भाई भाभी के कमरे का दरवाज़ा खटखटाने ही जा रही थी की ये शब्द उसके कानों में पड़े। उसका दिल धक् से रह गया। वह उल्टे पाँव अपने कमरे में आ गयी। तीन माह पूर्व अपने पति की मृत्यु  के बाद वृंदा अपनी  एक वर्ष की  बेटी  को लेकर अपने मायके आई थी। बचपन से ही अपने पिता और बड़े भाई की लाडली थी वह। शादी के बाद उसे ससुराल में भी वही प्यार और सम्मान मिला। अपनी गृहस्ती की रानी थी वह। हर काम उसकी इच्छा के हिसाब से ही होता था। उसके पति अक्सर उसे अपने बैंक बैलेंस तथा अन्य विनियोगों की जानकारी देते रहते थे। वे चाहते थे की वृंदा बहार की दुनिया से भी परिचित हो। अक्सर उसे समझाते की वक़्त का कोई भरोसा नहीं। उसे हर स्तिथि के लिए तैयार रहना चाहिए ताकि वक़्त पड़ने पर उसे दूसरों का मुह न देखना पड़े। किन्तु वृंदा उन्हें अपने तर्क देकर टाल देती थी। जीवन में हम जो सोंचते हैं वही हमेशा नहीं होता है। वृंदा को भी वैधव्य का सामना करना पड़ा। दुःख के इस अवसर पर उसे अपने प्रियजनों की याद आई। पिता तो रहे नहीं किन्त

बन्दर का नाच

दफ्तर से निकल कर निखिल टहलते हुए बस स्टैंड की तरफ चल दिया। बस के आने में अभी समय था। सड़क के किनारे मज़मा लगा देख कर वह भीड़ में घुस गया। एक मदारी बन्दर का नाच  दिखा रहा था। मदारी डुग डुगी बजाता था और रस्सी से बंधा बन्दर बंदरिया का जोड़ा उसके इशारे पर ठुमक ठुमक कर नाच रहा था। बच्चे ताली बजाकर इस तमाशे का आनंद ले रहे थे। थोड़ी देर में तमाशा ख़त्म हो गया। सबने मदारी को पैसे दिए और अपनी अपनी राह चल दिए। निखिल ने भी दस रुपये का नोट मदारी को दिया और बस स्टैंड पर खड़ा होकर बस की प्रतीक्षा करने लगा। वहां खड़े खड़े एक अजीब सा ख्याल उसके मन में आया। उस में और मदारी के बन्दर में फ़र्क  ही क्या है। बन्दर की तरह वह भी तो कभी घरवालों तो कभी अपने बॉस के इशारे पर नाचता रहता है। यह विचार आते ही बन्दर के लिए उसके मन में सहानुभूति जाग उठी।

आपनाथ सापनाथ

  एक राज्य था। वहां की प्रजा को पहली बार यह अधिकार मिला की वह अपना राजा  स्वयं चुने। प्रजा बहुत प्रसन्न थी। राज्य के दो उत्तराधिकारी थे एक "आपनाथ" और दूजे "सांपनाथ"। पहले चुनाव का समय आया दोनों प्रत्याशियों ने जनता को रिझाने की पुरजोर कोशिश की। जनता से बड़े बड़े वादे किये किन्तु आपनाथ ने बाजी मार ली। जनता बेहद खुश थी की अब उसके दिन बदलेंगे किन्तु गद्दी पर बैठते ही आपनाथ प्रजा को भूल गए। आपनाथ  की नज़र राजकीय कोष पर पड़ी। उन्होंने दोनों हाथों से उसे लुटाना आरम्भ कर दिया। आपनाथ और उनके सगे सम्बन्धियों के दिन बदल गए। सूखी रोटी को तरसने वाले मलाई खाने लगे। जनता दो वक़्त की रोटी को त्राहि त्राहि करने लगी। सांपनाथ ने जनता के हित में बहुत आंसू बहाए और आपनाथ  और उनकी नीतियों का कड़ा विरोध किया। प्रजा को लगा की उनसे भारी भूल हो गयी। उनका परम हितैषी तो सांपनाथ है। जनता उस दिन की प्रतीक्षा करने लगी जब आपनाथ को हटा कर सांपनाथ को गद्दी पर बिठा सके। जल्द ही वो समय भी आया। इस बार प्रजा ने सांपनाथ को चुना। एक बार फिर प्रजा सुखद भविष्य के सपने देखने लगी। गद्दी पर बैठत

भोर

    घर के आँगन में एक नन्ही सी लड़की किलकारियां मार रही थी. ठुमक ठुमक कर पूरे आँगन में घूम रही थी. अचानक ही प्रश्न भरी निगाहों से देखते हुए बोली " ऐसा क्यों कर रही हो ? क्या मैं तुम्हारा अंश नहीं ? मुझे भी तो तुमने अपने रक्त से सींचा है . तो फिर क्यों ? सिर्फ इसलिए की मैं एक लड़की हूँ." वसुधा की आँख खुल गयी. पसीने से पूरी तरह भीगी हुई थी. कुछ देर तक बिस्तर में बैठी सपने के बारे में सोंचती रही.फिर ताज़ी हवा खाने बालकनी में आ गयी.  चिड़ियाँ चह चहा रही थीं  . आसमान  में एक रक्तिम लकीर जल्द ही सवेरा होने की सूचना दे रही थी. किन्तु उसके मन में निर्णय का सूर्य निकल आया था वह अपनी बच्ची को जन्म देगी.

इंतज़ार

सब कहते हैं की वो नहीं आएगा. उसने वहां किसी गोरी मेम से ब्याह कर लिया है, अच्छी नौकरी है, अपना घर है, वहां का एशो आराम छोड़कर यहाँ क्या करने आएगा? फिर भी हर आहट पर इस बूढ़े जिस्म में झुर झुरी सी दौड़ जाती है. मन छोटे बच्चे सा उछलने लगता है जिसे खिलौना लेकर बाज़ार से लौटते पिता का इंतजार हो. दस बरसों से आँखें उसे देखने को तरस रही हैं. उसका माथा चूमने को होठ प्यासे हैं जिसे सहलाकर उसकी पीड़ा हर लेती थी. हथेलियाँ उन गालों को भर लेने को बेताब हैं जिन पर कभी पांचों उँगलियों की छाप बनाई थी ताकि उसे भटकने से रोक सकूं. उसे छाती से लगाने की चाह है जिसका दूध पिलाकर उसे पाला था. दुनिया का क्या है कुछ भी बोलती है. पर मैंने तो कोख से जना है फिर मैं क्यों आस छोड़ दूं? इंतज़ार Hindiikuunj

माँ

  बहुत देर तक फैशन टीवी पर नपे तुले कदमों से चलती सांचे में ढले हुए अंगो वाली माडलों को देखता रहा. दिमाग में वासना का एक सागर हिलोरें मार रहा था. सोंचा चलो कुछ देर चहल कदमी कर लूं . घर  से निकल कर बाजार की तरफ चल दिया. चलते हुए सड़क के किनारे बैठी 18 ,19 साल की एक भिखारिन  पर नज़र पड़ी. तंग फटे हुए कपड़ों से सारा शारीर झांक रहा था. मन में फिर वही तरंगें जोर मारने लगीं. नज़र उसकी खुली हुई छाती पर पड़ी. एक बच्चा छाती से चिपका हुआ बड़े इत्मिनान से दूध पी रहा था. वो लड़की भी सारी  दुनिया से बेखबर पूर्ण संतोष से उस बच्चे का मुख देख रही थी. अचानक सारी वासना आंख के रस्ते पानी बनकर  बह गयी. बेसाख्ता मुह से निकल पड़ा  "माँ"

हैप्पी दिवाली

मन्नू के घर के पास खाली पड़े प्लाट में कुछ मजदूरों ने झोपड़े बना लिए थे। वे आस पास बन रहे मकानों में  मजदूरी करते थे। कोई भी उनका वहां रहना पसंद नहीं करता था। सभी उन्हें वहां से हटाने की फिराक में थे। दिवाली आने वाली थी मन्नू की माँ ने घर की साफ़ सफाई के लिए मज़दूर परिवार की एक लड़की को बुला लिया था। उसकी उम्र मन्नू के इतनी ही थी। लड़की बड़े मन से घर की सफाई कर रही थी। जब मन्नू के कमरे की सफाई हो गयी तो मन्नू कमरे के भीतर जाकर उसका निरिक्षण करने लगा। उसने देखा की उसका एक महंगा विडिओ गेम गायब था। उस ने अपनी माँ से इसकी शिकायत की। वहीँ पड़ोस की आंटी भी बैठीं थीं वो बोलीं " हो न हो यह इस लड़की का ही काम है। ये  लोग एक नंबर के चोर होते हैं। इसी ने गेम  चुराकर कहीं छिपा दिया होगा। इससे ही पूंछो।" मन्नू की माँ ने लड़की को बुलाकर पूंछतांछ की। लड़की ने कोई भी चीज़ चुराने की बात से साफ़ इनकार कर दिया। पड़ोस की आंटी बोलीं "ये यूँ नहीं मानेगी दो चार लगाओ तो सब बक देगी। " यह कह कर उन्होंने उसे एक  झांपड़ लगा दिया। लड़की रोने लगी। तभी फोन की घंटी बजी। मन्नू न

बचपन

आज ज़ोया का मूड फिर ख़राब है. कारण वही आज आदिल का रिजल्ट आया है. उसे क्लास में चौथी रैंक मिली है. ज़ोया चाहती है की वह हमेशा पहले नंबर पर रहे. इसके लिए  उसने कोई कसर  भी नहीं छोड़ी है. आदिल को पढ़ाने के लिए ट्यूटर लगा रखा है. दफ्तर और घर की जिम्मेदारियों के साथ साथ खुद भी उसे पढ़ाती है. आदिल की हर ख्वाहिश पूरी करती  है ताकि वह मन लगा कर पढ़ सके. मैंने तसल्ली देनी चाही तो वही पुराना जवाब " आप समझते नहीं हैं हमारा और आपका वक़्त नहीं है. आज कम्पटीशन का ज़माना है. मेहनत नहीं करेगा तो पीछे रह जाएगा . " मैंने आदिल को समझाया " क्या बात है बेटा सब कुछ तो मिलाता है तुम्हें .  किस बात की कमी है .  हम तो बस इतना ही चाहते हैं की तुम मन लगाकर पढ़ो, फिर क्यों . "   आदिल ने कोई जवाब नहीं दिया किन्तु मैंने उसकी आँखों में एक खामोश शिकायत पढ़ ली " क्या करूं कितनी मेहनत तो करता हूँ . " मैं स्टडी में आ गया .  एक क़िताब  लेकर पढ़ने की कोशिश करने लगा .  किन्तु मन नहीं लग रहा था .  बार बार आदिल का ख्याल आता है .  सही तो है उसकी शिकायत .  कितनी मेहनत करता  है .  सुबह स्कू

चाँद और वो

  आज डिनर के समय मेरे बच्चों में प्रेम संबंधों को लेकर बहस छिड़ी थी। मैं उनकी बातें बहुत गौर से सुन रहा था। उनकी बहस को सुन कर मैं मन ही मन सोंचने लगा 'यह आज की पीढ़ी कितनी बेबाकी से आपने ख़याल रखती है।' इसी बहस में अचानक मेरी बेटी ने मुझ से पूंछा " डैड क्या आप ने भी कभी प्यार किया है।" मैं हैरान रह गया। कुछ बोलता उस से पहले मेरा बेटा बोला " मॉम से हैं न डैड।" मैं मुस्कुरा कर रह गया। खाना खा कर मैं टेरेस पर आ गया। मोबाइल पर अपनी पसंदीदा गज़लें सुनने लगा। आकाश पर पूनम का चाँद खिला था। इस चाँद को देख कर मन में सोए कुछ एहसास जाग उठे। चाँद से मुझे किसी का चेहरा झांकता नज़र आया। मेरा पहला प्यार जो दिल की गहराईयों में कहीं छुपा था। मैं बी . ए . पास कर सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए दिल्ली आया था। अपने पिता के एक पुराने मित्र के घर मुझे एक कमरा मिल गया था। किराया तो कुछ नहीं था मुझे उनकी बेटी जो उस वर्ष बाहरवीं में थी को अंग्रेजी पढाना था।  पहले ही दिन उसने मुझसे कह दिया " देखिये मुझे उतना ही पढ़ाइयेगा जिस से मेरे अच्छे

अब मेरी बारी

आज हमारी शादी की पैतीसवीं वर्षगांठ है। मैं तुम्हारे मन पसंद फूलों का गुलदस्ता लाया हूँ। तुमने एक उचटी सी निगाह फूलों पर डाली और फिर शून्य में जाने क्या ताकने लगीं। मेरा ह्रदय विदीर्ण हो गया। इस अल्जाइमर्स  के रोग ने तुम्हें मुझसे कितना दूर कर दिया है। एक साथ रह कर भी  मैं तुम्हारे लिए अजनबी हो गया हूँ। एक बच्चे की तरह तुम्हारी देख भाल करनी पड़ती है।  तुम्हें खिलाना, तुम्हारी दवाओं का ख़याल रखना।अकेले सब कुछ सँभालते सँभालते कभी कभी परेशान हो जाता हूँ। मैं चाहता हूँ की तुम बस एक नज़र भर मुझे देख लो। तुम देखती भी हो तो तुम्हारी नज़रों में एक अपरिचय का भाव होता है। जब भी मैं टूटने लगता हूँ तो तुम्हारा वो पहले वाला मुस्कुराता हुआ चेहरा याद करता हूँ। कठिन से कठिन समय में भी कैसे तुम मुस्कुरा कर मेरा हौंसला बढाती थीं। तुम्हारी मुस्कान मुझे मेरी सारी परेशानी भुला देती थी।  हमारी शादी के समय तुमने जो वचन दिए थे उन्हें तुमने तीस वर्षों तक बखूबी निभाया। अब मेरी बारी है अपने वचन निभाने की। http://www.tumbhi.com/writing/short-stories/ab-meri-baari/ashish-trivedi/37955#.U6-msdAfKps.g

पार्क की बेंच

  मिस्टर बंसल बेचैनी से उनकी राह देख रहे थे। दो दिन हो गए वो पार्क नहीं आईं। हर बीतते क्षण के साथ उनके आने की उम्मीद घटती जा रही थी। तकरीबन एक वर्ष  पूर्व  उनसे इसी पार्क में मुलाक़ात हुई थी। उम्र के इस पड़ाव में जब साथी की सबसे अधिक ज़रूरत  होती है मिस्टर बंसल की तरह वह भी अकेली थीं। कुछ औपचारिक मुलाकातें हमदर्दी के रिश्ते में बदल गईं। रोज़ सुबह पार्क की बेंच पर बैठ कर एक दूसरे का सुख दुःख बांटना उनकी दिनचर्या का अहम् हिस्सा बन गया था जो उन्हें पूरे दिन तरोताज़ा रखती थी। मिस्टर बंसल के मन में कई बार इस रिश्ते को कोई नाम देने की बात  आयी। किन्तु कभी भी "मिसेज गुप्ता" का संबोधन "सुजाता" में नहीं बदल सका। अक्सर मिसेज गुप्ता उनके लिए कुछ न कुछ बना कर लाती थीं। हर बार मिस्टर बंसल कहते " आप इतनी तकलीफ क्यों करती हैं।" हर बार मिसेज गुप्ता वही वही पुराना जवाब देतीं " क्या मैं इतना भी नहीं कर सकती हूँ।" पिछले कुछ दिनों से मिसेज गुप्ता कुछ परेशान लग रही थीं। मिस्टर बंसल के पूछने पर " कुछ ख़ास नहीं " कह कर टाल द

सामने वाली बालकनी

मैं अपनी व्हीलचेयर को खिड़की के पास ले गया। खिड़की खोलकर सामने वाली बालकनी की तरफ देखने लगा। किसी भी समय वो दोनों आकर बालकनी में बैठेंगे। पहले पति आयेगा और उस के पीछे चाय की ट्रे लिए पत्नी आयेगी। दोनों चाय की चुस्कियां लेते हुए एक दूसरे से बातें करेंगे। कभी हसेंगे तो कभी ख़ामोशी से एक दूसरे के साथ का आनंद लेंगे। सुबह शाम दोनों वक़्त का यही सिलसिला है। दोनों की उम्र 65 से 70 के बीच होगी। मेरी नौकरानी ने बताया था की दंपति निसंतान हैं। उनका एक भतीजा कुछ वर्षों तक इनके घर पर रह कर पढ़ा था वही कभी कभी मिलने  आ जाता है। इस उम्र में पति पत्नी ही एक दूसरे के सुख दुःख के साथी हैं। दो वर्ष पूर्व एक सड़क दुर्घटना में मैंने अपनी पत्नी को खो दिया। रीढ़ की हड्डी में लगी चोट ने मुझे इस व्हीलचेयर पर बिठा दिया। अकेलेपन की पीड़ा को मैंने बहुत शिद्दत से महसूस किया है। किसी के संग अपने मन की बात कह सकने की आकुलता को मैं समझता हूँ। यही कारण है की उन्हें एक दूसरे के साथ बात करते देख मन को सुकून मिलता है। कभी कभी मन में एक अपराधबोध भी होता है की मैं उनके इन अन्तरंग पलों को दूर से बैठ कर देख

दर्द का रिश्ता

  शहर में सन्नाटा पसरा है। ऐसा लगता है की पिछले दिनों हुए मानवता के नंगे नाच को देखकर वक़्त भी थम कर रह गया है। यूं तो शहर शांत है किन्तु राख के ढेर में अभी भी चिंगारियां दबी हैं। ज़रा सा कुरेदने पर धधक उठेंगी। लोगों में तनाव है। दोनों पक्षों की ओर से आरोप प्रत्यारोप जारी हैं। मेरी ड्यूटी शहर के अस्पताल के शवगृह में लगी है। अपने परिजनों के शव तलाश करने वालों का ताँता लगा है। मेरे सामने दो महिलाएं बैठी हैं। एक कुछ स्थूल शरीर की मुस्लिम महिला है जो अपने दुपट्टे से अपने आंसू पोंछ रही है। दूसरी सफ़ेद साड़ी में एक हिन्दू महिला है जो आंसुओं से अपना आंचल भिगो रही है। दोनों ही फसाद में मारे गए अपने पुत्रों का शव लेने आई हैं। औरों की तरह मेरे मन में भी दूसरे पक्ष के प्रति क्रोध है। मैंने एक हिकारत भरी दृष्टि उस मुस्लिम महिला पर डाली और फिर सहानुभूति से हिन्दू स्त्री को देखने लगा। उन दोनों महिलाओं की दृष्टि एक दूसरे पर पड़ी। कुछ देर तक एक दूसरे को देखती रहीं। जैसे आँखों ही आँखों में एक दूसरे से कुछ कह रही हों। फिर मुस्लिम महिला अपनी जगह से उठी। हिन्दू स्त्री भी कु

एक नई शुरुआत

  फैज़ान  के लिए यह स्कूल ही नहीं बल्कि यह शहर, यह माहौल सब कुछ  नया था। उसके पापा का ट्रान्सफर इस शहर में हो गया था। अतः उसे अपना स्कूल, अपने मित्र सब कुछ छोड़ कर आना पड़ा। वह बहुत अकेलापन महसूस कर रहा था। सब अपने अपने ग्रुप में बंटे आपस में हंसी मजाक कर रहे थे। एक वही सबसे अलग थलग खड़ा था। क्लास शुरू हुई तो वह आकर अपनी सीट पर बैठ गया। उसने अपने साथ बैठे लडके को एक स्माइल दी। वह भी उसे देख कर हल्के  से मुस्कुरा दिया और अपने काम में लग गया। उसके बाद उनमें कोई बात नहीं हुई।  रीसेस में वह ग्राउंड में आकर बैठ गया। वह अपने पुराने स्कूल को याद कर रहा था। कितना पॉपुलर  था वह अपने पुराने स्कूल में। स्पोर्ट्स, डिबेट, एस्से राइटिंग सब में अव्वल रहता था। टीचर्स स्टूडेंट्स सब का चहेता था। सब उससे दोस्ती करना चाहते थे। यहाँ तो कोई उस की तरफ देख भी नहीं रहा। फैज़ान के मन में आया    " काश की पापा का ट्रान्सफर न हुआ होता। उसे यहाँ ना  आना पड़ता। " " क्या मैं यहाँ बैठ सकता  हूँ " फैज़ान ने देखा एक लड़का उसके सामने खड़ा मुस्कुरा रहा है। " ज़रूर " क

तुम्हारा दर्द

  विभा ने रिपोर्ट को गौर से देखा। उसका चेहरा दमक उठा। उसने अपना मोबाइल उठा कर कर नंबर मिलाया     " हैलो नकुल ....मुझे तुमसे खास बात करनी है ......नहीं फ़ोन पर नहीं ......ठीक है तो शाम को मिलते हैं।" विभा ने फ़ोन रख दिया और गुनगुनाने लगी। यह उसका मनपसंद गाना है। जब भी वह बहुत खुश होती है यही गीत गुनगुनाती है। आज दो वर्षों में पहली बार उसे इतना खुश देखा। पिछले दो वर्ष तो उसके लिए किसी सजा के सामान थे। उसके कॉलेज के दिनों का  प्रेमी जिस के साथ वह ज़ल्द ही घर बसाने वाली थी एक सड़क दुर्घटना में मारा गया। विभा पूरी तरह टूट गयी। उसने स्वयं को एक दायरे में बंद कर लिया। न किसी से मिलाना, जुलना न कहीं आना जाना, बस घर से दफ्तर दफ्तर से घर। उसे इस दायरे से निकला नकुल ने। उसने छः महीने पहले उसकी कंपनी ज्वाइन की थी। नकुल एक आकर्षक,मिलनसार, सौम्य और हंसमुख व्यक्ति था। धीरे धीरे विभा उससे खुलने लगी। शुरूआती दोस्ती धीरे धीरे प्यार में बदल गयी। दोनों हर जगह साथ साथ जाते। उन्हें साथ देख सभी खुश थे और ज़ल्द ही उनके विवाह बंधन में बंधने की प्रतीक्षा कर रहे थ

वेलकम होम

कार तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। कार की पिछली सीट पर रोहन उदास बैठा था। वह अपने दादा जी के घर जा रहा था। उन दादा जी के घर जिनसे उसकी पहचान घर में रखे उनके फोटो और अपने पापा के मुख से उनके बारे में सुनी हुई बातों तक ही सीमित थी। उसके दादा जी की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर उस के पापा ने उस की मम्मी  से शादी की थी इस बात से  रोहन के दादा जी उस के पापा से नाराज़ थे। यही कारण है की वो उनसे पहले कभी नहीं मिला था। रोहन अपने बीते जीवन को याद कर रहा था। कितने सुंदर दिन थे। वो और उसे दिलोजान से चाहने वाले उस के मम्मी पापा। एक सुखी परिवार। उस के मम्मी पापा उस की हर ख्वाहिश पूरी करते थे। वह भी उन्हें सदैव खुश रखने का प्रयास करता था। किन्तु एक सड़क दुर्घटना ने उस का सब कुछ छीन लिया। उस के मम्मी पापा उस दुर्घटना में मारे गए। उसे कुछ मामूली चोटों के आलावा कुछ नहीं हुआ। अब वह इस दुनिया में अकेला था। सिवा उसके दादा जी के उसका अन्य कोई रिश्तेदार नहीं था अतः वह अपने दादा जी के पास जा रहा था। पिछले बारह  वर्षों में उसके दादा जी ने उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखा। जब रोहन के पिता ने उन्हें

मेरी राह

जेम्स ने अपने पिता की स्टडी में प्रवेश किया। वो कोई किताब पढ़ रहे थे। जेम्स ने धीरे से कहा " डैड मुझे आप से कुछ बात करनी है।" उसके पिता ने नज़रें उठाए बिना  कहा " बोलो क्या बात है।"  " डैड  मैं  एन . डी . ऐ . के एग्जाम में नहीं बैठना चाहता।" जेम्स ने सहमते हुए जवाब दिया। उसके पिता ने किताब बंद कर दी। उसे गौर से देख कर कहा " क्यों इस बार तैयारी नहीं हो पायी।"  जेम्स ने हिम्मत जुटा कर कहा " जी नहीं दरअसल मैं एन . डी . ऐ . में नहीं जाना चाहता हूँ। डैड, म्यूजिक मेरा पैशन है। मैं म्यूजिक के फील्ड में जाना चाहता हूँ।" उसके पिता ने तंज़  किया " तो अब एक एक्स आर्मीमैन का बेटा पार्टियों में गाना गायेगा।" जेम्स को अपने पिता का तंज़ चुभ गया " डैड म्यूजिक फील्ड में भी बहुत सारी करीअर ऑपरच्यूनिटीज़ हैं।" जेम्स के पिता ने अपना फैसला सूनाते हुए कहा " मुझे कोई बहस नहीं करनी है। मुझे मेरे घर में कोई गाने वाला नहीं चाहिए।" यह कह कर वह फिर से पढ़ने लगे। जेम्स बिना कुछ बोले कमरे से बाहर आ गया। वह बहुत दुखी

रिटर्न गिफ्ट

  कुनाल की बर्थ डे पार्टी चल रही थी। उसके सारे दोस्त बहुत मज़ा कर रहे थे। किन्तु कुनाल को चिंटू का वहां उपस्थित होना आखर रहा था। चिंटू उस के घर काम करने वाली कमला का बेटा था। कुनाल की मम्मी ने उसे  हाथ बटाने के लिए बुलाया था। वह अपने साथ चिंटू को भी ले आई। चिंटू बहुत कौतुहल से सब देख रहा था। कुनाल ने दो एक बार आँखों ही आँखों में उसे घुड़का किन्तु वह बार बार उन लोगों के बीच आ जाता था। पार्टी ख़त्म होने पर सब अपने अपने घर चले गए। कमला भी चिंटू को लेकर चली गई। सबके जाने के बाद कुनाल अपने गिफ्ट्स देखने लगा। उसकी नज़र सब से अलग पड़े एक गिफ्ट पर पड़ी। यह गिफ्ट एक लाल कागज़ में लिपटा था। कुनाल ने उसे खोला तो उसमें बहुत साधारण सा एक खिलौना था। " देखो मम्मी ये गिफ्ट कितना घटिया है। किसने दिया।" उसने गिफ्ट ऐसे पकड़ा था जैसे कोई गन्दी सी वस्तु हो। " यह गिफ्ट चिंटू ने दिया है।" उसकी मम्मी ने बताया। " ऐसे बकवास खिलौनों से मैं नहीं खेलता। देखो मेरे दोस्तों ने कितने शानदार गिफ्ट्स दिए हैं।" कुनाल की मम्मी को उसका यह बर्ताव बुरा लगा &quo

पहचान

रजत ने घड़ी की तरफ देखा। अभी पूरा एक घंटा बाकी था।वह फिर इधर उधर टहलने लगा। अब बच्चों में वह आकर्षण नहीं था।फिर भी वह उनका ध्यान खीचने का प्रयास कर रहा था। पर बच्चे अब उतने उत्साहित नहीं थे। उनका ध्यान खाने पीने एवं अन्य गतिविधियों में था। रजत इस काम से बहुत खुश नहीं था। परन्तु उसके पास अन्य कोई चारा भी नहीं था। उसे और कोई काम मिल नहीं रहा था। वैसे काम कुछ खास नहीं था। बस चहरे पर लाल पीला रंग लगाकर और जोकर का कास्टुयूम पहन कर बच्चों का मनोरंजन करना था। रजत ने अर्थशास्त्र में एम . ऐ . किया था। किन्तु बिना किसी प्रोफेशनल डिग्री के उसे कोई ढंग का काम नहीं मिल रहा था। वह एम . बी . ऐ . करना चाहता था। किन्तु पिता की बीमारी में उनके सारे जीवन की जमा पूंजी ख़त्म हो गयी। उसका सपना सपना ही रह गया। घर की माली हालत ठीक न होने के कारण उसे काम की तलाश में निकलना पड़ा। कई जगह भटकने के बाद भी उसे कोई ढंग का काम नहीं मिला। उन्हीं दिनों उसके एक दोस्त ने यह काम सुझाया " एक काम है करोगे। रोज़ सिर्फ कुछ ही घंटों का काम और पैसे भी अच्छे मिलेंगे।"  " कोई गैरकानूनी काम तो नही