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फ़रवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दस्तक

सकीना अपनी आपा के घर से निकली। अस्र की नमाज़ का वक्त होने वाला था। अतः सही समय पर घर पहुँचना चाहती थी। आपा उसे सिलाई का काम दिलवा देती थीं। आज भी इसी सिलसिले में आई थी। पाँच साल की आयशा और आठ साल का इमरान अपनी अम्मी के साथ थे। अभी कुछ ही दूर चले थे कि नन्हीं आयशा पूँछ बैठी। "अम्मी खाला क्या कह रही थीं कि अब्बा भाग गए। अब नहीं लौटेंगे।" उसकी बात सुनकर परेशान सकीना चिल्ला पड़ी। "चुप कर बहुत ज़ुबान चलने लगी है तेरी।" आयशा सहम गई। इमरान अपनी अम्मी का दर्द समझता था। वह छोटी बहन को बहलाने लगा। आयशा पेट में थी तभी शाहिद काम के लिए खाड़ी के मुल्क चला गया था। कह गया था कि जल्दी ही सही इंतज़ाम कर उसे और इमरान को भी ले जाएगा। लेकिन आयशा के जन्म के पाँच साल बाद भी वह नहीं लौटा। एक मोबाइल नंबर दिया था। जो कभी नहीं लगा। सब सकीना को ही दोष देते। सही से पूँछताछ भी नहीं की कि शौहर कहाँ जा रहा है। कहाँ ठहरेगा। लेकिन सकीना तो उसके प्यार में दीवानी थी। तभी तो अब्बा अम्मी सबकी मर्ज़ी के खिलाफ जाकर उससे निकाह किया था। अचानक ना जाने कहाँ से आकर उसके मोहल्ले में रहने लगा था। बताता था कि द

उम्मीद

सतपाल अपने घर के मोड़ पर आकर रुक गया। उसे लग रहा था कि आज वह कुछ जल्दी ही घर पहुँच गया। लेकिन मन ने कहा कि समय तो उतना ही लगा है पर वक्त ठीक नहीं चल रहा। तभी तो वह अपने ही घर जाने से कतरा रहा है। रोज़ वह सुबह काम के लिए निकलता और शाम को घर लौट आता था। किंतु आज पगार मिलनी थी। वह डर रहा था कि किस प्रकार घर में उम्मीद से राह देखते लोगों का सामना करेगा। कैसे उन्हें बताएगा कि उसकी नौकरी चली गई थी। पिछले एक महीने से वह काम पर नहीं बल्कि काम की तलाश में जा रहा था। जो आज भी नहीं मिला।

दो पंक्षी

लीला का ध्यान कमरे के रौशनदान पर तिनका तिनका जोड़ कर बनाए गए घोंसले पर गया। उसने राकेश से कहा कि उसे यह मकान पसंद है। राकेश को कमरा कुछ ठीक नहीं लगा। कुछ बंद सा था। रसोई के लिए कमरे के कोने में ही एक छोटा सा प्लेटफार्म था। धुआं निकलने की भी सही व्यवस्था नहीं थी। लेकिन अभी जेब के लिए यही बहुत अधिक था। उसने नम आँखों से लीला को देखा। लीला ने घोंसले की तरफ इशारा कर कहा। "देखो उस पक्षी ने तिनका तिनका जमा कर अपना आशियाना बना लिया है। एक दिन हम भी बना लेंगे।" समान जाति ना होने के कारण पति पत्नी को अपना गांव छोड़ आशियाने के लिए भटकना पड़ रहा था।

दिल की राहत

जैसे तैसे एक प्याला चाय पीकर लता रसोई में चली गई। कुछ देर में उसका पति आ जाएगा। उसे आते ही खाना चाहिए। फिर उसे दूसरे काम पर जाना होगा। जहाँ से आधी रात गए लौटेगा। वह स्वयं भी कुछ देर पहले काम से लौटी थी। दोनों पति पत्नी की ज़िंदगी भाग दौड़ में उलझी थी। पर मजबूरी थी। अपना घर खरीदने के लिए कर्ज़ लिया था। अब उसकी किस्तें चुकाने के लिए तो मेहनत करनी ही पड़ेगी। फिर अपनी छह महीने की बच्ची का भविष्य भी देखना है। उसे संभालने के लिए सास साथ में रहती हैं। रोज़ लता को उलाहना सुनना पड़ता है कि बुढ़ापे में बहू का सुख तो मिलता नहीं है। बच्ची की ज़िम्मेदारी अलग से उठानी पड़ती है। काम करते हुए लता ने पालने में खेलती अपनी बच्ची को देखा। वह उसकी ओर देख कर मुस्कुरा रही थी। लता उसके पास गई और झुक कर उसका माथा चूम लिया। बच्ची की मुस्कान ही तो थी जो इस आपाधापी में दिल को राहत देती थी।

.मौका

नरेश ऑफिस में उससे मिलने आए अपने रिश्तेदार से बात कर रहा था। "कहिए क्या हाल चाल हैं? सब ठीक है।" "ठीक ही है सब। बस मयंक की फिक्र होती है। उसी सिलसिले में तुमसे मिलने यहाँ आया था। तुम देख लो अगर अपने ऑफिस में कोई काम दे सको।" नरेश कुछ सोंचने लगा। उसे सोंच में पड़ा देख कर उसके मेहमान ने कहा। "भइया गलती तो इंसान से ही होती है। कुछ देर के लिए वह राह भटक गया था। पर सुबह का भूला गर शाम को लौट आए तो उसे माफ कर देना चाहिए।" नरेश ने इंटरकॉम पर दो कप चाय भिजवाने का आदेश देने के बाद कहा। "मुझसे जो हो सकेगा ज़रूर करूँगा।" कुछ ही देर में ऑफिस ब्वाय चाय लेकर आया। नरेश के मेहमान ने उसे ध्यान से देखा। ऑफिस ब्वाय के जाते ही वह बोले। "शायद तुम नहीं जानते। यह जेल की सज़ा काट चुका है। इसका हिसाब कर दो।" उनकी बात सुनकर नरेश बोला। "जानता हूँ। पर वह भी शाम होते ही घर लौट आया है।"

ख़ूनी लाल

होली के दिन सुबह से ही चहल पहल थी। शादी के बाद परंपरा के मुताबिक़ रश्मी की पहली होली मायके में हुई थी। अतः इस बार ससुराल में उसका पहला अवसर था। यहाँ होली बहुत धूम धाम के साथ मनाई जाती थी। सारी तैयारियां हो चुकी थीं।   बंगले के लॉन में होली का जश्न चल रहा था। लोग रंग खेल रहे थे। ढोल बज रहा था।   रश्मी  अपने कमरे में  चुप चाप बैठी थी तभी उसके पति ने गुलाल लगा कर उसे होली की बधाई दी।  "तुम यहाँ क्यों हो ? बाहर चल कर होली खेलो। " रश्मी समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। ढोल के शोर में भी उसके कानों में बरसों पुरानी अपनी असहाय चीखें गूँज रही थीं।  होली के हुड़दंग का लाभ उठाकर उसके करीबी ने सदा के लिए गुलाल का रंग ख़ूनी लाल कर दिया था। 

मानदंड

"भइया आप को कभी अफसोस नहीं होता है। यदि आप चाहते तो बहुत कुछ हासिल कर सकते थे। पर इन लोगों के लिए आपने पूरा जीवन खपा दिया।" अपने फुफेरे भाई का सवाल सुन कर शैलेश ने गंभीर स्वर में जवाब दिया। "दुनिया के मानदंड के हिसाब से यकीनन मैं एक नाकामयाब व्यक्ति हूँ। पर यदि मेरे मन की बात सुनो तो मैं खुद को सबसे सफल इंसान मानता हूँ।" कुछ ठहर कर आगे बोले। "इन नन्हें बच्चों के हंसते मुस्कुराते चेहरे मेरी कामयाबी का ईनाम हैं। अन्यथा इनका बचपन छीनने में समाज ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।" यह बात कहते हुए शैलेश के चेहरे पर छाया संतोष देख कर उनके भाई को अपना सवाल बेमानी लगा।

जलन

रेश्मा ने आखिरी वक्त में गोली चला रहे सुखबीर को धक्का दे दिया। गोली लक्ष्य से चूक गई।  "ये क्या किया भाभी। इसी नामुराद ने तुम्हारी मांग उजाड़ी थी।" "तो अब तुम इसकी नई ब्याहता को विधवा बनाना चाहते हो।" "भाभी तुम्हारा दुख देख कर कलेजा फटता है।" "जानती हूँ पर यह घाव दूसरे को घाव देकर नहीं भरेगा। जिस आग में मैं जल रही हूँ भइया मैं नहीं चाहती कि एक और निर्दोष उसमें जले।"

छुट्टी

भाटिया साहब अभी अभी अपने बेटे के स्कूल से लौटे थे। वही पुरानी शिकायत कि पढ़ता नहीं है। यही हाल रहा तो पास होना मुश्किल है। भाटिया साहब परेशान थे। ट्यूशन भी लगा रखा है फिर भी नतीजा वही। तभी उनका ड्राइवर आकर खड़ा हो गया।  "सर दो दिनों की छुट्टी चाहिए।" "छुट्टी किस लिए।" भाटिया साहब ने सवाल किया। "वो मेरी बेटी का पौलीटेक्निक में दाखिला हो गया है। उसे ही भेजने जाना है।" "तुम्हारी बेटी इतना पढ़ गई।" "जी बस आप लोगों का आशीर्वाद इसी तरह बना रहे तो कुछ समय में अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी।" भाटिया साहब ने बेमन से छुट्टी दे दी। ड्राइवर के जाने के बाद उन्होंने अपने दोस्त को फोन किया। "कोई अच्छा ड्राइवर बताओ।" "पर तुम्हारा ड्राइवर तो इतने सालों से अच्छा काम कर रहा है।" दोस्त ने फोन पर प्रश्न किया। "काहे का अच्छा। बूढ़ा हो गया है। काम ठीक से करता नहीं है। ऊपर से आए दिन छुट्टी मांगता रहता है।"

दिया

गुप्ता जी पार्क में आए तो अभी भी वह नहीं आई थीं। पहले दो दिन भी वह प्रतीक्षा कर लौट गए थे। वह बैठ कर इंतज़ार करने लगे। पत्नी की मृत्यु को एक वर्ष होने वाला था। पहले हर शाम वह अपनी पत्नी के साथ घर में लगाए हुए छोटे से बागीचे में बैठ कर चाय पीते थे। पर पत्नी के ना रहने पर शाम का वह समय जैसे काटने को दौड़ता था। अतः उन्होंने घर के पास बने इस पार्क में आना शुरू किया। यहीं उनकी मुलाकात सविता जी से हुई। दोनों ने ही एक दूसरे के एकाकीपन को पहचान लिया। हमदर्दी उन्हें एक दूसरे के समीप ले आई। रोज़ शाम वह इसी पार्क में एक दूसरे के साथ कुछ समय बताते थे। कभी कुछ बातचीत करते तो कभी बिना कुछ बोले एक दूसरे के साथ को महसूस करते। गुप्ता जी ने घड़ी देखी। प्रतीक्षा करते हुए आधा घंटा निकल गया था। उन्हें चिंता होने लगी। कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई। बेचैनी में वह इधर उधर टहलने लगे। तभी सविता जी आती दिखाई दीं। "कहाँ रह गई थीं आप। दो दिनों से आई भी नहीं।" गुप्ता जी ने परेशान होकर पूँछा। बेंच पर बैठते हुए सविता जी बोलीं। "दरअसल पोते को बुखार था। इसलिए नहीं आ पाई। आज कुछ ठीक था तो आ गई।"

अपना फर्ज़

सुमित्रा ने रोज़ की तरह भगवद् गीता के पाँच श्लोक पढ़ कर पुस्तक रख दी। यह उनका बरसों पुराना नियम था। इस तरह वह कई बार पूरी गीता समाप्त कर चुकी थीं।  उनके उठने पर रामदेई ने कहा। "अम्मा जी सारा काम हो गया। वह हमारे पैसे दे दो। लड़के की फीस देनी है।" सुमित्रा ने भीतर से लाकर पैसे दे दिए। पैसे देते हुए वह बोलीं। "तू इतना कष्ट सह कर बेटे को पढ़ा रही है। एक दिन वह तुझे भूल जाएगा। मेरे बेटे को ही देखो। बहू के आते ही मतवाला हो गया।" रामदेई कुछ दार्शनिक अंदाज़ में बोली। "उसकी वह जाने अम्मा। हम तो अपना फरज निभा रहे हैं। बाकी तो देने वाला ईश्वर है।" यह कह कर वह चली गई।

बुलबुले

अशोक को देखते ही नीरजा भावुक होकर उसके गले से लग कर रोने लगी। उसे पूरी उम्मीद थी कि अशोक उसे अपनी बाहों में जकड़ लेगा। प्यार से सर पर हाथ फेर कर कहेगा कि घबराओ मत, मैं हूँ ना।  पर अशोक ने उसे अपने से अलग कर दिया। खुली हुई खिड़की के बाहर देखते हुए बोला। "मैं मानता हूँ कि जो तुम्हारे साथ हुआ उसमें तुम्हारा दोष नहीं है। किंतु हमारा समाज ऐसी चीज़ों को सही नज़र से नहीं देखता है। मुझ पर मेरी छोटी बहन के ब्याह की भी ज़िम्मेदारी है।" नीरजा ने उसके चेहरे की तरफ देखा। एक पल में ही प्यार, विश्वास, अपनेपन के बुलबुले कठिन समय की धूप पाकर फूट गए। बिना कुछ कहे नीरजा ने सगाई की अंगूठी निकाल कर मेज़ पर रख दी।

गिनती

मंजरी ने दूध का बर्तन आगे बढ़ाते हुए कहा।  "भइया आज से सिर्फ आधा लीटर दूध दिया करो।" दूध वाले भैया ने बिना दूध दिए ही कहा।  "दीदी दो महीने का हिसाब बाकी है। वो मिल जाता तो। हमारे भी बाल बच्चे हैं। " मंजरी ने दूध का बर्तन वापस खींच लिया।  "कल आकर हिसाब ले जाना।" कमरे में आकर मंजरी ने अलमारी से बटुआ निकाल कर पैसे गिने। उसने सोंचा कि इतने पैसों में तो दूध कर पूरा हिसाब भी नहीं हो पायेगा। बाकी महीना कैसे चलेगा। कुछ समझ न आने पर उसने दोबारा पैसे गिने। यह जानते हुए भी की इससे पैसे बढ़ नहीं जाएंगे। 

चुभन

नितिन ने बॉस के केबिन में प्रवेश किया तो उन्होंने कहा। "आज फिर तुम देर से ऑफिस आए। मैं जानता हूँ कि तुम आजकल तुम मुश्किल में हो। पर मैं भी एक हद तक ही मदद कर सकता हूँ।" नितिन खामोश रहा। बॉस ने आगे कहा। "तुम्हारा काम भी पेंडिंग है। आज तुम काम पूरा करके ही घर जाओगे।" "यस सर" कह कर नितिन वापस आ गया। पिछले एक महीने से बेटा अस्पताल में भर्ती था। दिनभर उसकी पत्नी अस्पताल में रहती थी। रात में ऑफिस के बाद वह ठहरता था। लेकिन आज रात पत्नी को ही ठहरना होगा। इस बात की सूचना देने के लिए उसने पत्नी को फोन लगाया।

दर्प

ट्रेकिंग पर जाने की सारी तैयारी हो चुकी थी। कुछ ही समय में दल निकलने वाला था। सुभाष बहुत उत्साहित था। वह उस उँचे पहाड़ को ऐसे देख रहा था मानो चुनौती दे रहा हो। उसके साथी उसका उत्साह बढ़ा रहे थे किंतु उसे लेकर फिक्रमंद भी थे। पिछली ट्रेकिंग पर हुए हादसे में सुभाष का एक पांव कट गया था। लेकिन इससे वह तनिक भी डरा हुआ नहीं था। उसका हौंसला अपने  कृत्रिम पैर से पहाड़ का दर्प चूर करने को तैयार था।