सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जुलाई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मंज़िल

दीपक जल्दी जल्दी कपड़ों में प्रेस कर रहा था। अपने पापा के आने से पहले वह सब काम खत्म कर देना चाहता था। पहले इस दुकान पर उसके पापा ही कपड़े प्रेस करते थे। पर उनकी बीमारी के कारण पिछले दो महीनों से वह भी उनकी मदद करता था। वह फुटबॉल का दीवाना था। फुटबॉल के ज़रिए एक दिन दुनिया जीतना चाहता था। वह इसके लिए जी तोड़ मेहनत कर रहा था। उसे सामने से पापा आते दिखाई दिए। उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई। अब वह फुटबॉल प्रैक्टिस के लिए जा सकेगा। भले ही उसकी राह में कई रोड़े हों पर उसकी मंज़िल स्पष्ट थी।

सूबे का मुखिया

अपने राज्य में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त करने के बाद सूबे के मुखिया अब सुदूर राज्यों में पार्टी का जनाधार बढ़ाने में व्यस्त थे। एक पत्रकार ने सवाल किया। "सर आप अपना राज्य छोड़ कर सुदूर राज्यों में पार्टी का प्रचार क्यों कर रहे हैं?" मुखिया जी ने जवाब दिया। "मैं पार्टी का एक कर्मठ कार्यकर्ता हूँ। जो पार्टी फैसला करे वही करता हूँ।" "तो सर जनता का फैसला..." "हम उसका सम्मान करते हैं।" कह कर मुखिया जी चले गए।

मन की दूरी

लता मौसी चलने लगीं तो मुकेश और रचना भावुक हो गए। मौसी दोनों को आशीर्वाद देकर अपने घर लौट गईं। हफ्ते भर पहले जब वह आईं थीं तो पति पत्नी किसी को भी उनका आना अच्छा नहीं लगा था। दोनों के रिश्ता उस समय बहुत तल्ख था। आपस में बाततीत बंद थी। लेकिन मौसी के सामने सामान्य रहना पड़ता था। अनुभवी मौसी भी सब भांप गईं। जानबूझ कर दोनों को एक दूसरे के सामने कर देती थीं। एक दिन दोनों को यह कह कर कमरे में बिठा दिया कि जो मन में दबा रखा  है एक दूसरे से कह दो। करीब दो घंटे तक दोनों एक दूसरे से अपनी अपनी शिकायत करते रहे। अगले दिन से दोनों सचमुच सामान्य हो गए। अपनी ज़िंदगी में दोनों इस कदर खो गए थे कि आपस में लड़ने का भी समय नहीं रह गया था। यह दोनों के मन में दूरी पैदा कर रहा था। मौसी ने अचानक आकर दूरी कम कर दी थी।

ट्रेनिंग

ट्रेनिंग के अंत में रूपेश को बेस्ट पर्फार्मर का खिताब मिला। उसे लेते हुए उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया। ब उसे ट्रेनिंग के लिए चुना गया था तब वह बहुत परेशान था। उसे लग रहा था कि कंपनी ने उसे ये किस बवाल में फंसा दिया। इस उम्र में यह कठिन ट्रेनिंग वह कैसे करेगा। पर कंपनी की बात तो माननी ही थी। इसलिए उसने मन पक्का कर ट्रेनिंग शुरू की। उसके धैर्य और परिश्रम ने हवाओं का रुख मोड़ दिया। आरंभ में कठिन लगने वाली ट्रेनिंग में उसने सबसे बढ़िया प्रदर्शन किया।

स्कूटी

नीरजा ने अपने फोन पर तस्वीर दिखाते हुए कहा। "देखिए पापा वर्मा अंकल की बेटी ने डांस में यह कप जीता है। मेरा भी बहुत मन था कि मैं भी सोसाइटी के फंक्शन में भाग लूं।" उसके पापा ने सवाल किया। "तो फिर भाग क्यों नहीं लिया? तुमने भी तो कथक सीखा है।" नीरजा ने एक आह भर कर जवाब दिया। "समय कहाँ रहता है पापा। पहले बस में धक्के खाते कॉलेज जाओ। फिर बस से कोचिंग। कितना समय तो बस में ही बेकार हो जाता है। प्रैक्टिस के लिए समय नहीं बचता। उसके पास तो स्कूटी है। बहुत समय बचता है।" नीरजा के पापा कुछ सोंच कर बोले। "कितने तक की आएगी स्कूटी? कौन सी स्कूटी लोगी?" सुनते ही नीरजा अखबार का वह पन्ना ले आई जिसमें उसकी मनपसंद स्कूटी का विज्ञापन था।

वीर का बलिदान

रत्ना भाग कर अपने खेत पहुँची तो देखा कि उसके पति का चचेरा भाई मंगलू उस पर कब्ज़ा कर रहा है। रत्ना ने रोका तो वह बोला। "खेत गिरवी रख कर कर्ज़ा लिया था। अभी तक चुकाया नहीं है।" "अबकी फसल पर चुका देंगे।" मंगलू कुटिल हंसी हंसते हुए बोला। "तुम क्या चुकाओगी। जिसने लिया था वह तो बिना चुकाए सिधार गया।" रत्ना ने तमाशबीन गांव वालों की तरफ उम्मीद से देखा। सब चुप खड़े रहे। उसे वह दिन याद आ गया जब सरहद पर शहीद उसके पति की अर्थी उठाते हुए यही गांव वाले नारा लगा रहे थे। 'हे वीर तेरा बलिदान याद रखेगा हिंदुस्तान'

खुद से वादा

पार्टी में सारी चीज़ें योगिता के मनपसंद थीं। लज़ीज़ पकवानों की खुशबू नथुनों के ज़रिए उसके मन पर हावी हो रही थी। सामने सजे पकवानों को देख कर उसने झट से एक प्लेट उठा ली। उसने समोसे की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि वापस खींच लिया। प्लेट वापस रख दी। वज़न कम करने के अपने वादे को वह यूं नहीं तोड़ सकती।

आने वाला समय

तरुण को परेशान देख उसके चाचा ने पूँछा। "क्या बात है? किस सोंच में हो?" "अरे चाचा क्या बताएं। बड़ा बुरा वक्त आ गया है। अच्छाई तो जैसे रही ही नहीं।" चाचा ने पूँछा। "क्यों ऐसा क्या हो गया?" "अब देखिए ना वर्मा जी जैसे भले आदमी को उनके अपनों ने धोखा दिया। आज गैर उन्हें सहारा दे रहे हैं। लगता है कि आने वाला समय इससे भी खराब होगा।" चाचा ने गंभीरता से कहा। "बेटा ना बीता कल बहुत अच्छा था और ना आज बहुत खराब है। गैरों ने ही सही पर वर्मा जी को किसी ने सहारा दिया है ना। अच्छाई और बुराई तो हर समय में होते हैं। ऐसे ही हम अच्छाई को बना कर रखेंगे तो आने वाला समय भी अच्छा होगा।"

खाली हाथ

विभा ने कॉलबेल बजाई। कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। बहन ने एक फीकी मुस्काने से स्वागत किया। वह भीतर जाकर बैठ गई। बैग नीचे अपने पैर के पास रख लिया। बच्चे नहीं दिख रहे थे। पहले जब भी वह आती थी तो बच्चे दरवाज़े पर ही राह देखते मिलते थे। "दीदी बच्चे घर पर नहीं हैं क्या?" "वो टेस्ट हो रहे हैं। इसलिए पढ़ रहे थे।" बहन के बुलाने पर बच्चे आए। दोनों की नजरें कुछ खोजती हुई विभा के पाँव के पास रखे बैग पर टिक गईं। विभा ने बैग से दो चॉकलेट्स निकाल कर उनकी तरफ बढ़ा दिए। 'थैंक्यू' कह कर दोनों अपने कमरे में चले गए। बहन चाय बनाने चली गई। पहले जब वह आती थी तब एक सूटकेस तो केवल तोहफों से भरा होता था। तब वह अमीर घर की बहू थी। आज अपना वजूद तलाशती एक तलाकशुदा।