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अगस्त, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भरपाई

मंगल उदास सा बैठा अपने बेटे को देख रहा था। बेटा भी किताब में मुंह छिपाए बैठा था। कभी कभी कनखियों से उसे देख लेता था।  गैर इरादतन हत्या के मामले में मंगल को सात साल की सजा हो गई थी। वह कल ही जेल से छूट कर आया था।  उसकी पत्नी संतो उसके बेटे को गोद में लेकर उससे मिलने जेल जाती थी। लेकिन जब बेटा समझने लायक हो गया तो मंगल ने उसे हिदायत दी कि वह उसे लेकर ना आया करे। जेल में वह बेटे को देखने के लिए तरसता था। किंतु जब से वह घर लौट कर आया था उसने महसूस किया था कि बेटे के व्यवहार में उसके लिए एक अजनबीपन था। "क्या है जी बहुत उदास हो।" संतो ने पूँछा। "छह महीने का छोड़ कर गया था बिट्टू को। अब बड़ा हो गया है। इसे बढ़ते हुए नहीं देख पाया। अब चाह कर भी बीता समय लौटा नहीं सकता हूँ।" संतो ने उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे आश्वासन दिया "बीता समय तो नहीं लौटेगा लेकिन समय के साथ रिश्ते में मज़बूती आ सकती है।" संतो ने बेटे को बुला कर कहा "बिट्टू अपने पापा को बताओ कि तुमने स्कूल में क्या सीखा है।" बिट्टू कुछ संकोच के साथ मंगल के पास आया। मंगल ने उसे प्रेम से अपनी गोद में

तारीफ

उर्मिला अपने पापा के सामने खड़ी थी। "पापा देखिए मुझे ड्रामा के लिए फिर कप मिला।"  कप देख कर पापा की आँखों में चमक आ गई "वाह..!" "मेरे हर सीन पर बहुत तालियां बजीं। चीफ गेस्ट ने भी मेरी खूब तारीफ की है।" उर्मिला इतराते हुए बोली। "मुझे पता है। मेरी बेटी एक्टिंग में मेरा नाम रौशन करेगी।" पापा ने उसे सीने से लगा लिया। उर्मिला खुशी से फूली नहीं समा रही थी। "क्या बात है?" गुस्से और झुंझलाहट से भरा स्वर सुन कर उर्मिला अपने खयालों से बाहर आ गई। "तुम्हें पता है ना कि मैं इस समय अपने ज़रूरी केसेज़ को पढ़ता हूँ।" उर्मिला बिना कुछ बोले कप लिए हुए वापस लौट गई।

दलदल

"पैसे दो।" अजय ने अपनी पत्नी को धमकाया। "नहीं दूंगी। बंटी बीमार है। दवा लानी है।" कह कर उसकी पत्नी ने मुठ्ठी कस कर भींच ली। नशे की लत के चलते अजय के जीवन में अब रिश्ते नाते किसी के लिए भी जगह नहीं बची थी। नशे ने उसे इस तरह जकड़ा कि सब छूट गया था। ज़िंदगी तो बस शराब की बोतल में बंद हो गई थी। ना आगे जाने की राह थी ना पीछे लौट सकता था। पांव के नीचे दलदल था जो धीरे धीरे उसे निगल रहा था। बेटे की बीमारी का भी अजय पर कोई असर नहीं हुआ। उसने जबरन पत्नी से पैसे छीने और ठेके की तरफ बढ़ गया।

गंदी आंटी

दो साल के स्पर्श ने अपनी माँ से कहा "मैं नहीं जाऊँगा वहाँ। आंटी बहुत गंदी है।"  उसे तैयार करते हुए मानसी बोली "बेटा अच्छे बच्चे ऐसा नहीं कहते। तुम आंटी को परेशान मत करना उनकी बात मानना।" क्रेच में पहुँच कर जब मानसी जाने को मुड़ी तो स्पर्श ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी आँखें कह रही थीं कि मुझे यहाँ छोड़ कर मत जाओ। मानसी का दिल पसीज गया। हाथ में पकड़ा मोबाइल और बैग पास पड़ी कुर्सी पर रख उसने स्पर्श को गले लगा लिया। "बेटा ऐसा मत करो। मम्मी ऑफिस कैसे जाएगी। शाम को मम्मी तुम्हारे लिए रिमोट कार लेकर आएगी।" रिमोट कार की बात सुन कर भी स्पर्श उसे छोड़ नहीं रहा था। मानसी ने उसके गाल को चूमा और बैग लेकर चली गई। कुछ दूर जाने के बाद उसे याद आया कि मोबाइल तो वहीं छूट गया। वह फौरन वापस लौट पड़ी। मानसी भीतर घुसी ही थी कि 'चटाक...' आवाज़ सुन कर सहम गई। स्पर्श आँखों में आंसू भरे खड़ा था।  क्रेच की मालकिन स्पर्श को धमका रही थी।

हितैषी

विपिन की फरमाइश पर रीमा उसके लिए अदरक वाली चाय बना रही थी। रीमा के पति की मृत्यु अभी दो महीने पहले ही हुई थी। विपिन उसके पति का चचेरा भाई था। कॉलेज में दोनों एक साथ पढ़ते थे इसलिए वह रीमा को भाभी कहने की जगह नाम से बुलाता था। रीमा ट्रे लेकर आई तो केवल एक प्याला देख कर विपिन बोला "ये क्या? तुम नहीं पिओगी।" रीमा ने कहा कि उसकी इच्छा नहीं है। "भइया के फंड वगैरह का काम कहाँ तक पहुँचा।" विपिन ने घूंट भरते हुए पूंछा।  "चल रहा है।" रीमा ने धीरे से कहा। ऐसा लग रहा था कि वह मन ही मन किसी सोंच में उलझी थी। विपिन को लगा कि वह अपने आप को अकेला महसूस कर रही है।  "तुम परेशान मत हो मैं छुट्टी लेकर तुम्हारे साथ चलूँगा।" रीमा कुछ क्षण चुप रहने के बाद बोली "विपिन तुम यहाँ ना आया करो।" चाय का प्याला होठों तक जाकर लौट आया। विपिन के मुंह से केवल इतना निकल सका "क्यों?" रीमा ने सर झुकाए हुए कहा "मैं लोगों को यह नहीं समझा सकती कि तुम केवल मेरे हितैषी हो। रिश्ते स्वार्थ से परे भी हो सकते हैं।" उसके बाद विपिन के लिए बची हुई चाय पी सकना भी कठ

लंबी छुट्टी

मदनलाल आईने के सामने खड़े खुद को देख रहे थे।  बेटे ने व्यापार की सारी बारीकियां समझ ली थीं। वह अच्छी तरह से उनका सहयोग कर रहा था। मदनलाल कुछ दिनों की छुट्टी लेने का विचार कर रहे थे। तभी बीमारी की वजह से कुछ दिन अस्पताल में बिताने पड़े। उसके बाद वह अघोषित अवकाश ग्रहण पर चले जाते। आरंभ में बेटा उन्हें हर बात की जानकारी देता था। वह भी उचित परामर्श देते थे। उसके बाद सब बंद हो गया। अब तो पूछने पर भी बेटा 'परेशान ना हों सब ठीक है' कह कर टाल देता था। उन्हें खुशी थी कि बेटा अपनी ज़िम्मेदारी समझ रहा है। लेकिन जिस व्यापार को उन्होंने अपने खून पसीने से सींचा था उसमें अपनी उपियोगिता कम हो यह उन्हें अच्छा नहीं लगता था। वह बाहर आए तो बेटा उन्हें देख कर हैरान रह गया। "पापा आप कहाँ जा रहे हैं?" "दफ्तर, कुछ दिन बीमार हुआ था। लेकिन शरीर अभी काम कर रहा है।"

तिरंगा

ऊषा ने अपने पाँच साल के बेटे रोहित को तिरंगा खरीद कर दिया तो बड़ी शान से उसने उसे ऊपर उठाया। उसकी वह अदा ऊषा को बहुत भली लगी। उसने बेटे से उसी प्रकार रहने को कहा और उसकी फोटो खींच ली। तुरंत ही वह उसे सोशल एकांउट पर पोस्ट करने लगी। "मम्मी देखो उस बच्चे के पास कितने सारे तिरंगे हैं।" रोहित उत्साह से चिल्लाया। मैसेज टाइप करते हुए ऊषा ने उस तरफ देखा। "अरे वह तो तिरंगे बेंच रहा है।" "क्यों मम्मी?" रोहित ने अचरज से पूँछा। "पैसे कमाने के लिए। नहीं तो खाएगा क्या।" ऊषा ने जवाब दिया और रोहित को कार में बैठा कर चल दी।

धूप छांव

विमला ने छत पर मसाले सूखने को डाले तो कुछ ही देर में बदली छा गई। कुछ ठहर कर वह उन्हें उठाने गई तो फिर तेज़ धूप निकल आई। वह परेशान हो गई। समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। उसने एक बार अपना मोबाइल चेक किया। ना कोई कॉल थी ना ही मैसेज।  विमला मन ही मन बड़बड़ाई। यह क्या बात हुई। उसे पूरी उम्मीद थी कि आज वह लोग अपना फैसला दे देंगे। अगर उन लोगों ने हाँ कर दी तो उसकी सबसे बड़ी चिंता खत्म हो जाएगी। बादल छंट गए थे। कड़ी धूप निकल आई थी। उसने मसाले शाम तक पड़े रहने दिए। शाम को जब वह मसाले लेकर नीचे आई तो बेटी घर आ गई थी। विमला ने चाय बनाई और बेटी के साथ पीने लगी। "क्या है मम्मी कई दिनों से परेशान लग रही हो?"  विमला ने बेटी के सामने मन खोल दिया "अनुज के मम्मी पापा का कुछ समझ नहीं आ रहा। हर बार आश्वासन देते हैं। कोई फैसला नहीं करते।" "बस इतनी सी बात। तो तुम फैसला कर दो। उन्हें खुद मना कर दो।" बेटी ने फोन मिला कर विमला को पकड़ा दिया।

गुलाबजामुन

आज पानी पीने के बहाने सरिता बार बार फ्रिज खोल रही थी। हर बार वह गुलाब जामुन के बॉउल पर ललचाई दृष्टि डालती फिर फ्रिज का दरवाज़ा बंद कर देती।  मीठा उसकी कमज़ोरी था। मीठा खाने के लिए उसे ना किसी खास समय की ज़रूरत थी और ना ही अवसर की। दिन में कुछ ना कुछ मीठा खाती ही रहती थी।  कुछ दिन पहले जब उसे एक फुंसी ने परेशान किया तो डॉक्टर ने शुगर टेस्ट कराने को कहा। परिणाम उसके अनुकूल नहीं आया। मीठा खाना मना हो गया। यह गुलाबजामुन उसने टेस्ट कराने से पहले बनाए थे। उसे उम्मीद नहीं थी कि उसे डायबिटीज़ होगी। पर अब सच सामने था। जब उससे रहा नहीं गया तो उसने एक कटोरी में दो गुलाबजामुन निकाले। वह खाने ही जा रही थी कि मन ने विरोध किया। 'यह तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं। कुछ हुआ तो तुम्हें और परिवार दोनों को तकलीफ होगी।' सरिता ने गुलाबजामुन वापस बॉउल में डाल दिए।

सनकी

सुबह साढ़े चार बजे का अलार्म बजते ही विनय उठ गया। बाहर बूंदा बांदी हो रही थी। इस सब की परवाह किए बिना वह घर से बाहर जाने के लिए तैयार होने लगा। "पागल हो गया है। इस मौसम में जाएगा। तभी सब तुझे सनकी कहते हैं।" बड़ी बहन ने डांटा।  रोज़ वह तड़के उठ कर दौड़ लगाने तथा कसरत करने जाता था। सेना में भर्ती होना उसका लक्ष्य था।  पहले और भी लड़कों ने उसके साथ अभ्यास शुरू किया था। किंतु पहली विफलता ने ही उनके हौंसले को कम कर दिया। धीरे धीरे सबने सुबह का नियम समाप्त कर दिया। पर विनय ने हिम्मत नहीं हारी थी। "दीदी लोग क्या कहते हैं मुझे परवाह नहीं। यह मेरे लिए तपस्या है। अपने लक्ष्य को पाए बिना मैं नहीं रुकूँगा।" कह कर वह निकल गया।

घरौंदा

घर मे नया सोफा आने पर बबलू और पिंकी बहुत खुश थे। दोनों अपने मम्मी पापा के साथ नए सोफे पर बैठे थे। बबलू अपने पापा से बोला "यह तो बहुत कीमती है। इससे घर की शान बढ़ गई।" उसके पापा ने समझाया "बेट घर की शान तो बच्चों से होती है। अगर तुम दोनों तरक्की करोगे। प्यार से एक साथ मिलकर रहोगे तो मुझे और तुम्हारी मम्मी को बहुत खुशी होगी। लेकिन अगर तुम आपस में लड़ोगे तो हम दुखी होंगे।" कुछ सोंच कर पिंकी बोली "ओह तभी दादी इतनी दुखी रहती हैं क्योंकी आप चाचा जी से मुकदमा लड़ रहे हैं।" उसके मम्मी पापा बगलें झांकने लगे।

आसुओं के मोती

राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार जीत कर लौटे संगीतज्ञ प्रदीप के स्वागत में प्रशंसकों ने विशेष तैयारी की थी। खुली जीप में जैसे ही उन्होंने अपनी गली में प्रवेश किया एक ज़ोरदार हर्षनाद हुआ। सभी तरफ से उन पर व साथ बैठी उनकी पत्नी पर पुष्प बरस रहे थे। गली के एक मकान के ऊपरी तल्ले की खिड़की खुली थी। प्रभा वहाँ से झाँक रही थी। वह प्रदीप के बचपन की सखी जो उसे बहुत प्रेम करती थी। लेकिन जाति के बंधन के कारण रिश्ता नहीं हो सका। उसने आजीवन कुंवारी रहने का निश्चय कर लिया। प्रभा स्नेह भरी दृष्टि से सब देख रही थी। उसके पास पुष्प नहीं थे किंतु नेत्रों से मोती झर रहे थे।

हल

मनोज की शराब की लत छुड़ाने के लिए उसके डॉक्टर ने कांउसलर के पास भेजा था।  उसके सामने तेइस चौबीस साल की एक आकर्षक लड़की बैठी थी। पिछले बीस मिनटों से वह उसे समझाने की कोशिश कर रही थी कि शराब उसके लिए ज़हर है। शराब पीकर वह सच्चाई से दूर भागने का प्रयास कर रहा है। मनोज अपने तर्क दे रहा था। उसका कहना था कि कई बार सच्चाई बहुत दुखदाई होती है। उसका सामना करना आसान नहीं होता। जिस पर बीतती है वही समझता है।  वह बोला "मैं शराब ना पिऊँ तो पागल हो जाऊँगा।" तभी चपरासी ने आकर कांउसलर से कुछ कहा। वह बोली "माफ कीजिएगा मनोज जी आज मुझे ज़रूरी काम से जाना है। बाकी का सेशन कल करते हैं।" एक आदमी व्हीलचेयर लेकर कमरे में दाखिल हुआ। उसने उसे उठा कर व्हीलचेयर पर बैठा दिया। मनोज बहुत ध्यान से सब देख रहा था। स्वयं को व्हीलचेयर पर व्यवस्थित कर काउंसलर बोली "मनोज जी जब ज़िंदगी में बिखराव आए तो हिम्मत रख कर उसे समेटना ही सबसे अच्छा हल है।"

नई राह

प्रसिद्ध धार्मिक स्थान के एक विधवा आश्रम में अलग अलग उम्र की औरतें दियों के लिए बाती बना रही थीं।  एक वृद्धा पास बैठी तरुण विधवा से बोली "बिटिया अपने भाग्य को स्वीकार कर ले। करम की गति टाली नहीं जा सकती है।" तरुणी बिना कुछ बोले वैसे ही बातियां बनाती रही। शादी के दो साल के भीतर वह विधवा हो गई। ससुराल वालों ने रखने से इंकार कर दिया तो बूढ़ा पिता यहाँ छोड़ गया। यहाँ उसकी दिनचर्या सुबह उठ कर मंदिर की सफाई करना व सबके साथ मिलकर दियों के लिए बाती बनाना थी। इसके अतरिक्त छोटे मोटे काम भी करने पड़ते थे। इस सबके बदले उसे थोड़े से चावल मिलते थे पेट भरने के लिए। वह इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। वृद्धा ने फिर समझाया "हमारे लिए अब कुछ नहीं बचा। मैं तो पिछले चालीस साल से यहाँ हूँ।" "अजिया मैं अपनी तकदीर से समझौता नहीं करूँगी। उस दिन जो दीदी आईं थीं कह रही थीं कि हिम्मत करो तो नई राह मिलेगी। मैं उनसे सिलाई सीख कर पैरों पर खड़ी होऊँगी।" तरुणी निश्चय के साथ बोली।

ह्रदय परिवर्तन

चार साल का बच्चा सहमा हुआ सा अरुणा की गोद में घुसा हुआ था। वह भी उसके सर पर हाथ फेर कर ढांढस बंधा रही थी। "देखो अरुणा हम इसे अपने साथ नहीं रख सकते। इसके और हमारे परिवार के बीच कई सालों से झगड़ा चल रहा है।" रतन ने समझाया। "लेकिन अब इस अनाथ का कोई नहीं बचा। क्या इससे दुश्मनी करेंगे। मैं इसे बेसहारा नहीं होने दूँगी।" अरुणा ने बच्चे को कस कर सीने से लगा लिया। "पापा इसके लिए तैयार नहीं होंगे। मैं उनके खिलाफ नहीं जाऊँगा।" रतन के पिता कमरे के बाहर खड़े सब सुन रहे थे। थोड़ी सी ज़मीन के लिए इतने सालों तक अपने ही भाई से झगड़ा रहा। वह अपने बेटे बहू के साथ दुर्घटना में मारा गया। अब उसका नन्हा सा पोता ही बचा था। पिछले दो दिनों से वह आत्म चिंतन कर रहे थे। इस झगड़े से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। एक निर्णय कर रतन के पिता कमरे में आए। "बहू जो कर रही है सही है।" रतन ने आश्चर्य से उनकी तरफ देखा। "बेटा जानवर भी अपने आप को बदल लेते हैं। फिर हम क्यों ज़िद में आकर इस बच्चे को अनाथ करें।" अरुणा की आँखों में आंसू थे और रतन इस ह्रदय परिवर्तन से हैरान।

जैकी

रिटायर्ड मेजर सिंह के घर पर शोक व्यक्त करने वालों का तांता लगा था। किसी के आने पर रुदन के कुछ स्वर तेज़ हो जाते फिर आपसी फुसफुसाहट में बदल जाते। मेजर साहब रोज़ सुबह जल्दी उठ कर सैर के लिए जाते थे। साथ में उनका साथी जैकी भी होता था। आज जब वह नहीं उठे तो जैकी ने पहले तो खुद उन्हें उठाने के प्रयास किए। बाद में भौंक कर घर वालों को चेताया। मेजर साहब का शरीर भीतर रखा था। जैकी चुपचाप गार्डन में उस जगह बैठा था जहाँ मेजर साहब अखबार पढ़ते हुए चाय पीते थे।