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उड़नखटोला

वो अपनी साईकिल में बैठी तेज़ी से चली जा रही है। उसने सबको पीछे छोड़ दिया है। ऐसा लगता है मानो हवा के रथ पर सवार हो। जब भी कोई सामने आता दिखाई देता तो ' ट्रिन ट्रिन ' साईकिल की घंटी बजा देती। वो बहुत खुश है। " चंदा उठ आज इस्कूल नहीं जाना है क्या ? " उसकी माँ ने उसे झिंझोड़ कर जगाया। चंदा ने आँखें खोलीं। चारों तरफ देखा। वो अपनी खटिया पर थी। वो सपना देख रही थी। " क्यों आज इस्कूल की छुट्टी है क्या ? " उसकी माँ ने सवाल किया। चंदा ने ना में सर हिलाया और उठ कर तैयार होने चली गई। चंदा रोज़ एक लंबी दूरी तय करके स्कूल जाती है। कोई साधन न होने के कारण उसे पैदल ही जाना पड़ता है। आने जाने में बहुत वक़्त लगता है और वह थक भी जाती है। उसके पिता एक छोटे किसान थे। उनकी इच्छा थी कि वह खूब पढ़े। उनके जाने के बाद चंदा की माँ अब अपने पति की इस इच्छा पूरा करना चाहती है। अतः तकलीफें उठा कर भी उसे पढ़ा रही है। आठवीं तक की पढ़ाई उसने गाँव के स्कूल से की। किंतु आगे की पढ़ाई के लिए उसे दूसरे गाँव जाना पड़ता है। उसकी ही नहीं गाँव के हर बच्चे की जो आगे पढ़ना चाहता है यही समस्या है। चंदा प

अंतिम इच्छा

अस्पताल के कॉरिडोर में  कुर्सी पर बैठी मिसेज बाजपेई छत को ताक रही थीं। अपने बेटे के शब्द उनके कान में गूँज रहे थे " माँ मैं ऐसा कुछ करना चाहता हूँ जिससे समाज का भला हो। जिसके द्वारा मरने के बाद भी मैं किसी न किसी रूप में ज़िंदा रहूँ। " किंतु जिस बेटे को मुसीबतें झेल कर पाला था वह २५ वर्ष की उम्र में ही सड़क हादसे का शिकार हो गया।  कुछ क्षणों पहले ही डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। अपने बेटे की इच्छा पूरी करने के लिए वो उठीं और डाक्टर को अपना फैसला बताया। उनका बेटा अब दूसरों को जीवन देगा। अपनी मृत्यु के बाद भी जीवित रहेगा।  

परवाज़

मिसेज़ सेठ ने उसे उसका कमरा दिखाया। गायत्री ने कमरे को ध्यान से देखा। कमरे में एक बेड, एक अलमारी और एक राइटिंग डेस्क थी। कमरे की खिड़की घर के गार्डन में खुलती थी। ताज़ी हवा के साथ साथ अच्छा नज़ारा भी मिल रहा था। मिसेज़ सेठ जाते हुए बोल गईं कि नौ बजे तक ब्रेकफ़ास्ट के लिए नीचे आ जाना। गायत्री खिड़की पर आकर खड़ी हो गई। आज से उसकी ज़िंदगी की नई शुरुआत हो रही थी। अब वह अपने दम पर अपनी शर्तों के हिसाब से जियेगी। जब पहली बार उसने माँ को अपना निर्णय सुनाया तो उन्होंने इसका विरोध किया। " ये कैसी बात कर रही हो तुम । कहीं पति पत्नी का रिश्ता भी टूटता है। पागल मत बन। धैर्य रख समय के साथ सब ठीक हो जायेगा। " माँ ने उसे समझाया उसने एक प्रश्न भरी नज़र  माँ पर डाली " तुमने भी तो पैंतीस वर्ष धैर्य रखा न, क्या मिला। समय के साथ कुछ नहीं बदला बस तुमने सब कुछ चुपचाप सहने की आदत डाल ली है। " माँ कुछ बोल नहीं पाईं। उन्होंने बस सजल नेत्रों से गायत्री को देखा। गायत्री उनका दिल नहीं दुखना चाहती थी। उसे अपनी गलती का आभास हुआ।  वह बोली " सॉरी माँ मैंने तुम्हारा दिल दुखाया।  लेकिन अब और नही

वरदान

सुमित्रा देवी बड़े उत्साह से कन्याओं को भोजन करा रही थीं। स्वयं ही यह देख रही थीं कि किसी को कुछ चाहिए तो नहीं। जब सभी कन्यायें भोजन कर चुकीं तो वे सभी के पाँव छू कर उन्हें दक्षिणा देने लगीं।  अब सिर्फ एक ही कन्या बची थी जो उम्र में सबसे कम थी। सुमित्रा देवी ने उसके पाँव छू कर कहा " माता मेरी बहू उम्मीद से है। इस बार मेरी झोली में एक पोता डाल दो। " नन्ही बच्ची खिलखिला कर हंस पड़ी। शायद समाज के दोगले आचरण पर हंस रही थी।

प्रगति

मिस्टर शर्मा के ड्राइंगरूम में मेहफिल जमा थी। चाय की चुस्कियों के बीच भारत के एक विश्व शक्ति के रूप में उभरने की चर्चा चल रही थी।  दुबे जी ने एक बिस्किट चाय में डुबाते हुए कहा " अजी अब हम किसी चीज़ में पीछे नहीं रहे। बात चाहें अंतरिक्ष विज्ञान की हो या फिर व्यापार की किसी भी बात में हम अब टक्कर ले सकते हैं। वो दिन दूर नहीं जब हम विश्व की महान शक्तियों में गिने जायेंगे। " इस परिचर्चा के बीच में अचानक ही घंटी बजी और एक स्वर सुनाई दिया " आंटी जी कूड़ा " मिसेज शर्मा को बीच में यूँ उठना पसंद नहीं आया। झुंझलाकर बोलीं " इस कूड़ा लेने वाले का भी कोई वक़्त नहीं। असमय चला आता है। " बाहर आकर उन्होंने गेट खोला। दस साल का एक लड़का भीतर आया और कूड़े की बाल्टी से कूड़ा  निकाल कर एक प्लास्टिक के थैले में भरने लगा। " आस पास जो बिखरा है वह भी बटोर लो। " मिसेज शर्मा ने कहा। फिर एक प्लास्टिक का थैला ज़मीन पर रख कर बोलीं " इसमें कुछ कपड़े हैं ले लो। " बच्चे ने थैला ऐसे उठाया मानो कोई खज़ाना हो। बाहर चिलचिलाती धुप में देश का बचपन फटे पुराने में ख़ुशी तलाश रहा था।

अधूरी बाज़ी

मेरे सामने मेज़ पर शतरंज पड़ा था जो एक बाज़ी के अधूरे रह जाने की गवाही दे रहा था। मैं अभी भी जतिन दा की उपस्तिथि को महसूस कर सकता हूँ। वो पूरे उत्साह के साथ  मुझे हरा देने का दावा कर रहे हैं। शतरंज पर पड़े मोहरे उनके स्पर्श को आकुल प्रतीत हो रहे हैं जैसे वे भी उनकी तरह मुझे हराना चाहते हों। जतिन दा मेरे मौसेरे भाई थे। उम्र में मुझ से कुछ ही महीने बड़े थे किंतु उनका मेरे प्रति प्यार एक बड़े भाई की भांति था। इसीलिए मैं उन्हें जतिन 'दा' कह कर बुलाता था। वैसे हमारी मित्रता कालेज के दिनों से आरम्भ हुई थी।  हम साथ साथ घूमते, फिल्में देखते खूब मस्ती करते थे।  उन दिनों हमारे भीतर बहुत जोश था। हम अक्सर राजनीति, धर्म, सामाजिक कुरीतियों पर गर्मागर्म बहस करते। हममें उन दिनों बहुत कुछ बदलने का जूनून था। उन्हीं दिनों मुझे एक नया शौक लगा था। फोटोग्राफी का। मैं अपना कैमरा लेकर निकल जाता और जो कुछ पसंद आता उसकी तस्वीर खींच लेता। जतिन दा इन तस्वीरों को देख कर कहते कि तुम्हें फोटोग्राफी की अच्छी समझ है। इसे छोड़ना नहीं। हँसते खेलते ना जाने कब कालेज के दिन ख़त्म हो गए। कालेज की पढ़ाई के बाद हम दोन

छोटी बेगम

नवाब साहब की हवेली में बहुत चहल पहल थी।  आज नवाब साहब अपनी नई बेगम को विदा करा कर ला रहे थे। हवेली भी दुल्हन की तरह सजी थी। सभी अपने अपने काम में लगे थे। दिलरुबा भी अपने काम में लगा था। किंतु आज उसका मन कुछ उदास था। अब तक वह बड़ी बेगम की ख़िदमत में था। अब उसे छोटी बेगम के हुज़ूर में रहने का हुक्म मिला है। बड़ी बेगम के निक़ाह के वक्त वह उनके साथ इस हवेली में आया था। तब से उनकी ही सेवा कर रहा था। हालाँकि उसके जैसे ख्वाजसरा का काम तो खिदमत करना  था। चाहें बेगम कोई भी हो। उसकी उदासी का कारण कुछ और ही था। आज उसे अपने पिछले जीवन की याद आ रही थी। उन अपनों की जो वक़्त के बहाव में कहीं खो गए थे। अजय का गौना हुए तीन माह बीत चुके थे। उसकी पत्नी लक्ष्मी बेहद खूबसूरत थी। उसे अपने रंग रूप पर बहुत गुमान था। अजय से अपने नख़रे उठवाना उसे बहुत अच्छा लगता था। दरअसल अजय के नाक नक़्श स्त्रियों की भांति थे। उसके हाव भाव में एक स्त्री सुलभ कोमलता थी। अतः अपने मित्रों के बीच अक्सर वह उपहास का पात्र बनता था। किंतु अपनी स्त्री के सम्मुख वह किसी भी प्रकार कम नहीं पड़ना चाहता था। इसीलिए उसके हर नख़रे उठाता था। आम

एक टुकड़ा आसमान

बटलर ने फूलों का एक गुलदस्ता लाकर समीर को दिया। समीर ने कार्ड निकाल कर पढ़ा। उसके एक मित्र ने भेजा था। " हैप्पी बर्थ डे सर। आज आप बहुत हैंडसम लग रहे हैं। " बटलर ने अदब के साथ कहा। " सारी तैयारियां हो गईं। " " जी सर " " ठीक है तुम जाओ " समीर मारिया का इंतज़ार कर रहा था। मारिया उस समय उसके जीवन में आई थी जब वह अपने जीवन के सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा था। कभी रफ़्तार के पहियों पर भागती उसकी ज़िन्दगी अस्पताल के बिस्तर पर आकर ठहर गई थी। फॉर्मूला 1 रेसर अब बिस्तर पर हिल डुल भी नहीं सकता था। सारा वक़्त वह ईश्वर से इस जीवन को समाप्त कर देने की प्रार्थना करता रहता था। निराशा के उस समय में मारिया उम्मीद की किरण बन कर आई। मारिया भारतीय नृत्य शैलियों पार शोध करने भारत आई थी। इसी दौरान उसने एक N.G.O को ज्वाइन किया जो ऐसे लोगों की सहायता एवं प्रोत्साहन के लिये काम करती थी जो रीढ़ की हड्डी में चोट लग जाने के कारण चलने फिरने में असमर्थ हो गए थे। मारिया एक ज़िंदादिल एवं साकारत्मक विचारों वाली लड़की थी। मारिया की मेहनत और लगन ने समीर में फिर से जीवन जीने की

नया आसमान

उसकी गोद में किताब यूँ है खुली पड़ी थी। प्याले में पड़ी पड़ी चाय भी ठंडी हो गई थी। किंतु ऊषा अपने विचारों में खोई हुई थी। एक कश्मकश उसके दिल में चल रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि हाँ करे या ना। वैसे  कोई बड़ी बात नहीं थी। उसके सहकर्मी अनुज ने उसके सामने डिनर पर चलने का प्रस्ताव रखा था। यह पहली बार था जब उसे अपने बारे में कोई फैसला करना था। अब तक तो उसका जीवन दूसरों के बारे में सोचने में ही गुज़र गया। पिता के ना रहने पर परिवार क़ा बोझ उसके कन्धों पर आ गया। जब तक ज़िम्मेदारियाँ पूरी हुईं उम्र का एक हिस्सा गुजर चुका था। उसके पास उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं था। वह एकदम अकेली थी। उसने अपने इर्द गिर्द एक मज़बूत दीवार सी खड़ी कर ली थी। कोई भी उस दीवार के पार झांक नहीं सकता था। उसने अपनी सारी भावनाओं को कुचल कर स्वयं को रुटीन में बंधी ज़िन्दगी के सुपुर्द कर दिया था। इस साल के एकेडेमिक सेसन की शुरुआत में अनुज ने स्कूल ज्वाइन किया। उसके आने से स्टाफ़रूम के माहौल में एक ताज़गी सी आ गई। उसका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक था। सभी से खुल कर मिलना, हंस कर बात करना, सबके सुख दुःख में शामिल होना ये सारी बातें सब

ताना बाना

चुनाव के मौसम में  वाद विवाद चर्चाओं का दौर शबाब पर था। टी.वी. स्क्रीन पर एक गोले में समाज को हिन्दू, मुस्लिम, दलित सवर्ण कई वर्गों में बाँट कर किसके कितने वोट हैं इस पर चर्चा चल रही थी। विभा ने टी.वी. बंद कर दिया। उसकी परेशानी कुछ और ही थी। दो दिन पहले ही वह अपनी ससुराल में शादी का एक कार्यक्रम निपटा कर लौटी थी। वापस आई तो पता चला कि उसकी ग़ैरहाज़िरी में उसके महिला क्लब के सदस्यों ने बच्चों के एक फैंसी ड्रेस कम्पटीशन की योजना बना डाली। जिसका आयोजन परसों शाम ही होना है। वक़्त काम था इसलिए उसने तय किया कि वह अपने चार साल के बेटे आयुष को इस बार प्रतियोगिता में शामिल नहीं करेगी। किंतु उस गोल मटोल से नठखट बालक ने अपनी शैतानियों से सबका मन मोह रखा था। इसलिए उसकी सभी सहेलियां पीछे पड़ गईं कि चाहें जो हो आयुष को प्रतियोगिता के लिए तैयार करना ही होगा। विभा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे।  बहुत सोंचने पर एक विचार उसके मन में आया। पिछली बार जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण मंदिर समिति की ओर से भी ऐसी ही प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। उसने आयुष को कृष्ण की तरह सजाया था। इस बार भी उसे कृष्ण की तरह सजाएग

रिमझिम रिमझिम

मौसम की पहली बारिश थी। कभी तेज़ तो कभी धीमी लेकिन सुबह से जो झड़ी लगी वो थमी नहीं थी। रीना का फ़ोन बज उठा। दिवाकर का फ़ोन था। रीना ने फ़ोन उठाया " हैलो दिवाकर क्या हुआ " " होना क्या है, तुम्हारी याद आ रही थी। तुम जानती नहीं मुझे बारिश कितनी पसंद है। आज अगर ज़रूरी न होता तो मैं छुट्टी ले लेता। दिन भर तुम्हारे साथ रहता। ज़रा सोंचो कितना रोमांटिक होता। पर क्या करूँ।" रीना कुछ बोल नहीं पाई सिर्फ हल्के से हाँ ही कह सकी। " और क्या कर रही थीं तुम। " " कुछ नहीं बस यूं ही बैठी थी।  " " अच्छा रखता हूँ। काम ज़्यादा है।  टेक केयर। " रीना और दिवाकर की शादी को अभी डेढ़ महीना ही हुआ था। अक्सर वो दफ्तर से उसे फ़ोन करता रहता था। रीना अपने कमरे में आ गई। खिड़कियां बंद कर परदे गिरा दिए। अभी भी बूंदों का शोर कानों में पड़ रहा था। कान में लीड लगा कर वह म्यूज़िक सुनने लगी। वो मुकुंद अंकल के घर पर थी। मुकुंद अंकल उसके पड़ोसी थे। अक्सर शाम को वो उसके घर आ जाते थे। पापा और अंकल देर तक बातें किया करते थे। अंकल विधुर थे। उनके परिवार में कोई भी नहीं था। पाप

अतिथि देवो भव

आज कल हॉलीवुड से आई एक जोड़ी चर्चा में थी। अभिनेत्री जेसिका ब्राउन और उनके निर्माता निर्देशक पति स्टीव हेमिल्टन। दोनों कुछ ही दिन पहले विवाह बंधन में बंधे थे और लंबी छुट्टी पर भारत भ्रमण के लिए आये थे।  अपने भारत प्रेम के कारण मीडिया में उन्हें बहुत कवरेज़ मिल रही थी। कई शहरों का  भ्रमण करने के बाद वो दोनों अपनी अनोखी तहज़ीब के लिए मशहूर नवाबों के इस शहर में आये थे। यहाँ  बहुत कुछ हैं जो हमें उस पुराने इतिहास की याद दिलाता है। शहर की ऐतिहासिक इमारतें आज भी आकर्षण का केंद्र हैं। इनके साथ साथ शहर में आज भी चलने वाले तांगे उस दौर की याद दिलाते हैं जो अब इतिहास का हिस्सा है।इस शहर का मिज़ाज बहुत बदल गया है।  फुर्सत तो जैसे शब्कोष में दफ़न  एक लफ्ज़ बन गया है। सभी एक अजीब सी भागम भाग में मशगूल हैं। ऐसे में तांगे की सवारी उन्हें बहुत बोरिंग जान पड़ती है। इसलिए इस धंधे में आमदनी घटती जा रही है। अब बहुत कम तांगेवाले इस काम में रह गए हैं। अब्दुल उन चंद बचे हुए तांगेवालों में से एक है। कल रात फिर उसका अपनी बीवी फातिमा से झगड़ा हुआ। फातिमा चाहती है कि वह औरों की तरह यह क़ाम छोड़कर कुछ और करे।  अब्दु

पिंजरा

एक प्रसिद्ध न्यूज़ चैनल के स्टूडियो में बैठी हुई जेनिफ़र के दिल में बहुत कुछ उमड़ घुमड़ रहा था। कुछ ही देर में इस चैनल के माध्यम से वह दुनिया से रुबरु होगी। एक बार उसने आईने में खुद को देखा। काली ड्रेस में वह बहुत खूबसुरत लग रही थी। एरॉन और सारा बहुत खुश थे। क्रिसमस पर डैड उनके लिए ढेर सारे गिफ्ट्स लेकर आये थे। एरॉन की ड्रेस बहुत सुन्दर थी। उसे देखते ही मॉम ख़ुशी से बोल पड़ी " इसे पहन कर तो तुम एकदम प्रिंस लगोगे"। क्रिसमस पार्टी में भी हर कोई उसकी तारीफ़ कर रहा था। किन्तु उसकी नज़र तो सारा की उस पिंक फ़्रॉक पर थी। उसकी सुन्दर फ्रिल उसे ललचा रहीं थीं। कुछ था जो अपने बारे में उसे सही नहीं लगता था।  जो तालमेल के बाहर था। वह जो था उसे भीतर से महसूस नहीं करता था। जैसे जैसे वह बड़ा होता गया भीतर और बाहर का संतुलन और बिगड़ता गया। कालेज तक पहुंचते पहुंचते उसे लगने लगा कि जैसे वह किसी पिंजरे में क़ैद है। एक अजीब सी छटपटाहट  उसके  दिल में घर कर गई थी। ऐसे में डैड की तंज़ करती निगाहे उसे और घायल करती थीं। किसी भी तरह वह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता था। उसका मन पढ़ाई में अधिक नहीं लगता था। इसलि

हम तुम

मनु ने दरवाज़ा खोला और बिना कुछ बोले जाकर अपना होमवर्क करने लगा। शिव कुछ क्षण उसे देखता रहा। किन्तु मनु अपने काम में तल्लीन था।  शिव ने हाथ में पकड़ा हुआ पैकेट डाइनिंग टेबल पर रखा और भीतर चला गया। आज फिर वो अपना वादा पूरा नहीं कर सका। आज दफ्तर से जल्दी लौट कर उसे सर्कस दिखाने का वादा किया था। क्या करे वह, परिस्तिथियाँ उसके वश में नहीं हैं। उसकी नज़र दीवार पर लटके फ़ोटो फ्रेम पर पड़ी  'काश निशा होती, तो यह ज़िंदगी कितनी आसान होती।' पर ऐसा हो नहीं सकता। उसे ही मनु के माँ और बाप दोनों का फ़र्ज़ निभाना है। वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश करता है किन्तु कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। पांच वर्ष पूर्व निशा चार वर्ष के उसके बेटे को छोड़ कर चल बसी। उसे लगा जैसे उसका अपना बचपन अब उसके बेटे के सामने है। उसकी माँ भी उसे यूँ ही छोड़ कर चल बसी थीं। पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया ताकि उसे माँ कि कमी न खले। नई माँ ने अपने सारे फ़र्ज़ निभाए किंतु उसे वो प्रेम न दे सकीं जो सिर्फ एक माँ दे सकती है। पिताजी भी दो धड़ों में उलझ कर रह गए।  अतः उसने तय किया कि वह मनु को इस परिस्तिथि का सामना नहीं करने देगा। सब कुछ अकेले

डायरी

मैं अपनी यह पुश्तैनी हवेली बेंचने आया हूँ। कुछ कागज़ात पर दस्तखत करने के बाद यह सौ साल पुरानी हवेली बिक जायेगी। मुझे बताया गया कि एक बंद कमरे से कुछ सामान मिला है। कुछ पुराना फर्नीचर था। उनमें एक आराम कुर्सी थी। इसे मैंने अपने दादाजी  की तस्वीर में देखा था। एक छोटा सा संदूक भी था। जिसमें एक कपडे में लिपटी डायरी राखी थी। पापा ने बताया था दादाजी को डायरी लिखने कि आदत थी। अपने दादाजी के विषय में मैं बहुत कम जानता था। सिर्फ इतना ही कि वह गांधी जी से बहुत प्रभावित थे और उन्होनें देश एवं समाज कि सेवा का प्रण लिया था। कुछ घंटे मुझे इसी हवेली में बिताने थे।  मैंने वह आराम कुर्सी आँगन में रखवा दी। उस पर बैठ कर मैं डायरी के पन्ने पलटने लगा। डायरी लगातार नहीं लिखी गई थी। कभी कभी छह माह का अंतराल था। जिस पहले पन्ने पर नज़र टिकी उस पर तारीख थी.… 7  जून 1942 कभी कभी सोंचता हूँ क्या मेरा जीवन सिर्फ इस लिए है कि मैं धन दौलत स्त्री पुत्र का सुख भोगूं  और चला जाऊं। एक अजीब सी उत्कंठा मन में रहती है। जी करता है कि सब कुछ छोड़ दूं। जब अपने आस पास गरीब अनपढ़ लोगों को कष्ट भोगते देखता हूँ तो स्वयं के संपन्

मर्यादा

महारानी अरुंधती अपने महल  की खिड़की पर खड़ी थीं। बसंत ऋतु थी। पवन के मंद मंद झोंके उन्हें स्पर्श कर रहे थे। उनके ह्रदय में रोमांच और उद्विग्नता के मिले जुले भाव थे। उन्होंने जो राह चुनी थी वह काँटों से भरी हुई थी किन्तु अपने ह्रदय पर अब उनका वश नहीं रहा था। उन्हें बेसब्री से अर्ध रात्रि का इंतज़ार था। उन्होंने पास में सोये हुए कुंवर का माथा चूमा। एक मुस्कान उनके चहरे पर खिल उठी। युवावस्था में अभी प्रवेश ही किया था कि उनका विवाह अपने से दोगुनी उम्र के महाराज अजित सिंह के साथ हो गया।  उनकी बड़ी रानी उन्हें संतान का सुख दिए बिना ही चल बसी थीं। अतः सभी की अपेक्षाएं नई रानी से जुड़ी थीं। किन्तु बहुत समय बीत जाने पर भी कोई खुश खबरी नहीं मिली। लोगों में राज्य के उत्तराधिकार को लेकर तरह तरह की बातें  होने लगीं। । राज्य वैद्य ने बताया की खोट महारानी में नहीं थी। महाराज बहुत चिंतित रहने लगे थे। किसी को गोद लेना एक समाधान  था किन्तु स्वयं की कमी को वह दूसरों के सामने नहीं लाना चाहते थे। एक रात्रि वो एक निर्णय के साथ अंतःपुर में आये। कुछ क्षण शांत रहने के बाद गंभीर स्वर में बोले " महारान

क्या होता गर..........

जसवंत कमरे में अकेला था। वो सारी आवाज़ें धीरे धीरे तेज़ होती जा रही थीं। सब कुछ उसकी आँखों के सामने नाच रहा था। जैसे परदे पर कोई चलचित्र  चल रहा हो। सन 84 की वह दोपहर आज भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। बलवाइयों की भीड़ उसके घर में घुस आई थी। वह अपने कमरे में था। उसके पापाजी, बीजी और छोटी बहन को उन्होंने अपने कब्ज़े में कर लिया था। कोई चिल्लाया " अरे वो जसवंत नहीं है। ढूंढो साले को यही कहीं छिपा होगा।" जसवंत ने जब अपनी तरफ बढ़ते कदमों की आवाज़ सुनी तो वह डर से थर थर कांपने लगा। अपनी जान बचाने के लिए वो बेसमेंट में बने स्टोररूम कि तरफ भागा। वहाँ एक पुराने ट्रंक में छिप गया। बलवाइयों ने उसे बहुत खोजा लेकिन सामान के पीछे छिपे उस पुराने ट्रंक पर किसी का ध्यान नहीं गया। जो कुछ भी हो रहा था उसकी आवाज़ उस तक पहुँच रही थी। " कहीं नहीं मिला साला। लगता है बाहर भाग गया। " " कोई बात नहीं उसे बाद में देख लेंगे। अभी सब को यहाँ आँगन में ले आओ। इन्होने हमारी प्रधानमन्त्री को मारा है। इन्हें ऐसा सबक सिखाएंगे कि इनकी कई नस्लें याद रखेंगी।"  " क्या बिगाड़ा है हमने तुम्हारा। क्यो

रंगीन टी.वी

बात उन दिनों की है जब हमारे मुल्क में टी.वी. का प्रसारण कुछ ही  वर्ष पूर्व शुरू हुआ था। रंगीन प्रसारण शुरू हुए तो कुछ माह ही हुए थे। तब घर में ब्लैक एंड वाइट टी.वी. होना ही बहुत शान की बात थी। रंगीन टी.वी. तो बिरले घरों में ही था। उन्हीं दिनों में आया था मेरा रंगीन टी.वी.। मेरे पिता एक सर्राफ की दुकान में एकॉउंटेंट थे। उनकी तनख्वा छोटी थी किन्तु मुझे लेकर उनके सपने बहुत बड़े थे। अतः मेरा दाखिला शहर के महंगे अंग्रेजी स्कूल में कराया था। उस स्कूल में अधिकतर धनाड्य परिवारों के लड़के ही पढ़ते थे। मेरे ग्रेड्स हमेशा ही सबसे अच्छे रहते थे। इसलिए शिक्षकों और सहपाठियों के बीच मैं बहुत लोकप्रिय था। किंतु जब वो अपने घर में खरीदे गए किसी महंगे सामान का ज़िक्र करते तो मैं उनसे कतराता था। क्योंकि मेरे पास उन्हें बताने के लिए कुछ नहीं होता था। उनमें से एक था बृजेश। उसके पिता एक बड़े कारोबारी थे। अक्सर विदेश आते जाते रहते थे। हर बार वहाँ से उसके लिए कोई न कोई महंगा खिलौना ज़रूर लाते थे।  बृजेश बहुत शान से उनके बारे में बताता था। ऐसे ही एक दिन रिसेस में ब्रजेश ने सब को सुनाते हुए कहा " परसों मे

गाँठ

बहुत कश्मकश के बाद विनीता ने फोन मिलाया। उधर से आवाज़ आई 'हैलो'। विनीता ने कुछ कहना चाहा किन्तु कह नहीं पाई। उसका गला रुंध गया।  " हैलो, विनीता क्या हुआ, कुछ बोलती क्यों नहीं? तुम ठीक तो हो न? "  विनीता ने बहुत रोका किन्तु बाँध टूट गया। वह फोन पर रोने लगी।  " विनीता तुम रो क्यों रही हो? क्या बात है? बताओ न। अच्छा ठहरो मैं वहाँ आता हूँ। " दो साल पहले उसने और रंजन ने अपनी राहें जुदा कर ली थीं। न जाने क्यों हालात उनके खिलाफ हो गए थे।एक राह पर चलते हुए उनके बीच तल्खियां पैदा हो गयी थीं। इसलिए दोनों अलग हो गए।  अभी कुछ दिन पहले ही उसने अपने वक्ष पर एक गाँठ देखी थी।  जांच कराने पर पता चला कि उसे ब्रेस्ट कैंसर है। यूँ तो ज़िन्दगी में उसने कई संघर्ष अकेले ही जीते थे। किन्तु इस समय जीवन मुट्ठी में फँसी रेत की  तरह था जो तेजी से फिसलती जा रही थी। अतः वह धैर्य नहीं रख सकी। इस समय उसे किसी के साथ की बहुत ज़रुरत थी।  विनीता जानती थी कि सच्चे प्रेम का अर्थ यदि उसने किसी के साथ जाना है तो वह रंजन ही है। अतः दुःख  की इस घड़ी  में उसने रंजन को ही पुकारा। दरवाज़े कि घंटी बज

चुभन

" मॉम मैं जा रहा हूँ। बाय। " दरवाजा खुला और वो बाहर चला गया। उसका बैकपैक और लाल जैकेट दिखाई दिया। शैला की आँख खुल गई। वह उठ कर बैठ गई। सुबह के छह बजे थे। अखिल सोये हुए थे।  कल रात भी देर से आये। काम का बोझ बहुत बढ़ गया है। वह पूरे एहतियात के साथ उठी ताकी अखिल की  नींद न टूट जाए। तैयार होकर वह हाथ में चाय का प्याला पकड़े बालकनी में आ गयी।  यूनिफार्म पहने स्कूल जाते बच्चों को देखने लगी। पीछे से आकर अखिल ने धीरे से उसका कंधा पकड़ा। दोनों ने एक दूसरे को देखा और आँखों ही आँखों में दिल का दर्द समझ लिया। " उठ गए आप, कल भी बहुत देर हो गयी " " हाँ आजकल काम बहुत बढ़ गया है। आज भी मुझे जल्दी निकलना है। एक मीटिंग है। " " ठीक है आप तैयार हों मैं नाश्ता बनाती हूँ। " कहकर शैला रसोई में चली गयी। अखिल के जाने के बाद शैला ने अपना पर्स उठाया, एक बार खुद को आईने में देखा और बाहर निकल गई। ट्राफिक बहुत ज़यादा था। सिग्नल पर जाम लगा था। आटो बहुत धीरे धीरे बढ़ रहा था। शैला यादों के गलियारे में भटकने लगी। " मॉम मुझे दोस्तों के साथ मैच खेलने जाना है।" "