सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मई, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जंग

सुदीप आडिटोरियम में बैनर्स एवं पोस्टर्स लगा रहा था। आज सुबह ही उसने कालेज की प्रिंसिपल श्रीमती कृष्णमूर्ति से इस बात की इज़ाज़त ले ली थी। वह जल्दी जल्दी अपना काम कर रहा था। कुछ ही देर में विद्यार्थी आडिटोरियम में एकत्रित होने वाले थे। आडिटोरियम में विद्यार्थी जुटने लगे थे और कुछ ही समय में वह खाचाखच भर गया। सुदीप ने एक नज़र आडिटोरियम के एक सिरे से दूसरे सिरे तक डाली। ज़िन्दगी से लबरेज हंसते मुस्कुराते युवाओं का जमावड़ा था। सबकी आँखों में कुछ कर दिखाने के सपने थे। 'एक ज़रा सी असावधानी इनके सारे सपने तोड़ सकती है' सुदीप के मन में विचार उठा। नहीं वह ऐसा नहीं होने देगा वह इन्हें उस खतरे से आगाह करेगा। जब सब बैठ गए तो सुदीप ने बोलना आरम्भ किया " दोस्तों आज हम उस खतरे के बारे में बात करने को एकत्र हुए हैं जो मानव समाज के लिए एक चुनौती बना हुआ है।  यह खतरा है  'एड्स' जो मानव समाज को निगल जाना चाहता है।" उसने एक स्लाइड शो के ज़रिये उन्हें एड्स क्या है, कैसे फैलता है, क्या सावधानियां बरतनी चाहिए इत्यादि बातों के बारे में बताया। उसके बाद विद्यार्थियों के सवालों क

मातृ शक्ति

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - मातृ शक्ति आज राम नवमी का दिन था। श्रीमती शर्मा अपने पति के साथ देवी के दर्शन करने आयीं थीं। इस मंदिर की प्रसिद्धि दूर दूर तक थी। पहले तो वो हर महीने ही यहाँ आती थीं किन्तु नौकरी में व्यस्तता बढ़ जाने  के कारण पिछले शारदीय नवरात्री के बाद आज आ पायीं थीं। मंदिर में बहुत भीड़ थी। दर्शन करने वाले भक्तों का ताँता लगा था। माँ के दर्शन करने के बाद वो अपने साथ लाये हुए पूरी और हलवे के पैकेट बाहर बैठे भिखारियों में बाटने लगीं। उनकी नज़रें इधर उधर भटक रही थीं। दरअसल वो गौरी को ढूंढ रही थीं। गौरी चौदह पंद्रह साल की एक अनाथ लड़की थी। वो गूंगी थी। जब वह करीब छह वर्ष की होगी तब कोई उसे मंदिर में छोड़ गया था। पुजारी जी ने उसका नाम गौरी रख दिया। गौरी मंदिर की सीढ़ियों पर ही बैठती थी। आने वाले भक्त जो दे देते थे उसी से गुजारा कर लेती थी। श्रीमती शर्मा को उसकी जो बात सबसे अच्छी लगती थी वह थी उसकी वो प्यारी सी मुस्कान जो इतनी तकलीफों के बाद भी हमेशा उसके चहरे पर खिली रहती थी। श्रीमती शर्मा उसे ढूंढ रही थीं ताकि वे उसे भी प्रसाद दे सकें। तलाशते तलाशते उनकी निगाह

एहसास

कुणाल ने अपने राइटिंग पैड से एक और कागज़ फाड़ा फिर उसकी गेंद बनाकर हवा में उछाल दिया। उसका कमरा इन गेंदों से भरा हुआ था। पिछले चार दिनों से वह एक कहानी लिखने की सोंच रहा था। किन्तु जो भी लिखता था खोखला सा मालूम पड़ता था। शब्द थे लेकिन एहसास नहीं। लेखन के क्षेत्र में तेज़ी से कदम बढ़ा रहे कुणाल ने कभी नहीं सोंचा था की प्रेम के विषय पर कहानी लिखना उसके लिए इतना मुश्किल होगा। वह शुरू से ही बहुत रोमांटिक रहा था। प्रेम के विषय में उसने कितना कुछ पढ़ा था। उपन्यास, कहानियां, कवितायेँ लेकिन आज जब लिखने बैठा तो स्वयं को इतना असमर्थ पा रहा था। कल रात यह निश्चय करके बैठा था कि कुछ लिख कर ही उठेगा। बहुत कोशिश की पर कुछ नहीं हुआ। हार कर उसने पैड पटक दिया ' बस अब दिमाग काम नहीं कर रहा है। कुछ देर बाहर घूम कर आता हूँ।' यह सोंच कर उसने अपना जॉगिंग सूट पहना और बाहर आ गया। सुबह होने में अभी वक़्त था। चारों ओर सन्नाटा था। अच्छी खासी ठंड थी। फिर भी ताज़ी हवा ने उसे बहुत सुकून पहुँचाया। जॉग करते हुए वह उस होटल तक आया जहाँ वह अक्सर चाय पीने आता था। उसकी नज़र सामने फुटपाथ पर सोये बूढ़े दंपत्ति पर

नयी कोपलें

उसका नाम आरती था। किन्तु न तो वह यह नाम किसी को बता सकती थी और न ही पुकारे जाने पर कोई जवाब दे सकती थी। कुदरत ने उसे बोलने और सुनने की शक्ति नहीं दी थी । कुदरत जब हमसे कुछ लेती है तो उसकी भरपाई भी करती है। बचपन से ही उसके मन में बहुत कुछ था जो वह दूसरों के साथ बाटना चाहती थी। वह कागज़ पर आकृतियाँ बनाकर अपने ह्रदय की बात लोगों तक पहुंचाती थी। जो भी उसके बनाये स्केच देखता वाह वाह कर उठता। जब वो बड़ी हुई तो कागज़ की जगह कैनवास पर रंगों से स्वयं को व्यक्त करने लगी। वह उम्र के उस पड़ाव पर थी जब सब कुछ बहुत रंगीन लगता है। उसके कैनवास पर बिखरे रंग भी इन दिनों बहुत शोख थे। इन्हीं दिनों में उसने उस अकादमी में दाखिला लिया जो उसके जैसे लोगों के लिए ही बनायी गयी थी। यहीं उसकी मुलाक़ात अनुराग से हुई। जब वह पहले दिन अकादमी पहुंची उस वक़्त अनुराग हाथ के इशारे से किसी से कुछ कह रहा था जिसे देख वह मुस्कुराने लगी। ठीक उसी वक़्त अनुराग की नज़र उस पर पड़ी। वह भी मुस्कुरा दिया। वहीँ से उन दोनों की दोस्ती शुरू हो गई। वो दोनों एक दूजे से अपने मन की बात कहने लगे। नजदीकियां इतनी बढ़ गयीं कि दोनों एक द

कहानी एक पेड़ की

मेलाराम के आँगन में एक आम का पेड़ लगा था। यह पेड़ बहुत पुराना था। मेलाराम का परिवार बढ़ जाने के कारण घर में जगह कम पड़ने लगी थी। अतः मेलाराम ने सोंचा की इस पेड़ को कटवा कर उस जगह एक कमरा बना लिया जाये। कल ही वह  इस पेड़ को कटवा देगा यह सोंच कर वह आँगन में चारपाई डाल कर सो गया। आधी रात के समय मेलाराम को किसी की सिसकियाँ सुनाई पड़ी।  वह  इधर उधर देखने लगा। कहीं कोई नहीं था किन्तु रोने की आवाज़ आ रही थी। उसने ध्यान से सुना तो आवाज़ आम के पेड़ से आ रही थी। वह पेड़ के पास जाकर सुनने का प्रयास करने लगा। तभी पेड़ से आवाज़ आई " मेलाराम तुम मुझे कटवा देना चाहते हो। आखिर क्यों? मेरा कुसूर क्या है? तुम्हारे जन्म से भी पहले तुम्हारे पिता ने आगन के कोने में मुझे लगाया था। मैंने तुम्हें बढ़ते हुए देखा है। याद है बचपन में कैसे तुम मेरी शाखों पर झूलते थे। गर्मियों के दिनों में मेरी शीतल छाया में आराम करते थे। मेरे रसदार फल तुम्हें आज भी अच्छे लगते हैं। सावन में जब तुम और तुम्हारे भाई बहन मेरी डाल पर झूला डाल कर झूलते थे तो मैं तुम सब को खुश देखकर और हरा हो जाता था। बचपन से मैंने तुम्हें कितना

अजिया

स्टोर रूम में पड़े पुराने एल्बम के पन्ने पलते हुए एक तस्वीर पर मेरी निगाह अटक गयी। झुर्रियों वाला एक चेहरा मुझे देख रहा था। मेरा मन वर्षों की दूरियां पार कर कुछ ही क्षणों में मुझे मेरे बचपन में ले गया। जहाँ छोटा सा मैं अपनी बूढी दादी की गोद में बैठा हुआ उसके हाथ से दूध भात खा रहा था। मैं भाई बहनों में सबसे छोटा था। अतः अजिया का बड़ा दुलारा था। रात को उसके साथ उसकी खटोली पर लेट कर उनसे कहानी सुनाने की जिद करता था। अपनी कहानियों के द्वारा  वह मुझे एक अनोखे संसार की सैर कराती थीं। मेरा बाल मन उन कथाओं के चरित्रों के साथ कभी डर कर सहम जाता तो कभी ख़ुशी से झूमने लगता। कितनी कुशलता से वह उन कहानियों में नीति की बातों को गूँथ  देती थीं। अक्सर ही मैं कहानी पूरी होने से पहले  सो जाता था। अगले दिन कक्षा में बैठे बैठे मैं सोंचता रहता की राजकुमारी उस दुष्ट राक्षस के चंगुल से बच पाई या नहीं। मेरा मन बेचैन होने लगता और मैं सोंचता की कब घर पहुँचूँ और अजिया से कहानी का अंत सुनूँ। अजिया नाराज़ होतीं " तू कभी कहानी पूरी नहीं सुनता फिर मेरी जान खाता है।" फिर दोपहर को आराम करते समय मुझे अपने स

मेरा वो मतलब नहीं था

विमला देवी अपने बेटे के नए घर के सजे संवरे ड्राइंगरूम में बैठी उसकी तरक्की के लिए ईश्वर को धन्यवाद दे रहीं थीं। भीतर बेटे बहू में कुछ कानाफूसी चल रही थी। कुछ देर में बेटा बाहर आया।  " कैसी हो अम्मा" उसने सोफे पर बैठते हुए पूंछा। "ठीक हूँ,  डाक्टर को दिखा कर लौट रही थी, सोंचा तुमसे मिल लूं।"  बेटे ने उनके चहरे की तरफ देखा फिर कुछ सोंच कर बोला " तुम तो जानती हो अम्मा कितनी महंगाई है। नए घर की साज सजावट पर भारी खर्च आया। उस पर बच्चों का नया सेशन भी शुरू हो गया है।" विमला देवी बेटे की बात का मतलब समझ गईं। " तुम बहुत दिनों से नहीं आये थे इसलिए मिलने चली आई। मेरे लिए तो पेंशन ही बहुत है।"  यह कह कर वो उठ कर चल दीं। पीछे से बेटे का खिसिआया स्वर सुनाई पड़ा ' मेरा वो मतलब नहीं था।' 

रौशनी

जिस तरह चिराग तले  अँधेरा होता है उसी तरह ऊंची ऊंची इमारतों वाले शहरों में झोपड़पट्टियाँ होती हैं। ऐसी ही एक झोपड़पट्टी की एक तंग गली है। गली इतनी तंग है की अकेले व्यक्ति को भी भीड़ का एहसास होता है। इसी गली के अंत में एक छोटी सी कोठरी है। इसमें जलते हुए बल्ब की पीली मद्धिम रोशनी घुटन को और बढ़ा देती है। इसी कोठारी में रहता है लखन। लखन कचरा बीनने क काम करता है। रोज़ वह एक बोरी लेकर घर से निकलता है और दिन भर खाली प्लास्टिक की बोतलें, प्लास्टिक की थैलियाँ  और अन्य प्लास्टिक के सामान बोरी में भरता रहता है। इससे उसे अपना पेट भरने लायक कमाई हो जाती है। लखन जब आठ वर्ष का था तो वह अपनी सौतेली माँ के दुर्व्यवहार से तंग आकर  घर से भाग कर शहर आ गया। उसे लगा जैसे वह किसी तालाब से निकल कर बड़ी नदी में आ गया हो। फिर इस नदी का बहाव उसे मुंबई के समुद्र में ले आया। इस समुद्र में वह अकेला था। जल्द ही उसने हाथ पाँव मारकर तैरना सीख लिया। एक दिन उसकी बस्ती में एक आदमी आया जो बोतल में बंद पानी पीता था। सुना था कि वह अमेरिका में कोई बड़ी नौकरी करता था। किन्तु सब कुछ छोड़ कर वह बस्ती में आया था। वह उन लड

तुम मिले

सुकेतु ने एक बार अपने आप को आईने में देखा। वह कुछ नर्वस फील कर रहा था। हालाँकि मुग्धा से ये उसकी पहली मुलाकात नहीं थी। वो दोनों एक दूसरे को पिछले छह महीने से जानते थे। किन्तु आज की मुलाक़ात कुछ ख़ास थी। उसने आज मुग्धा से अपने दिल की बात कहने का फैसला लिया था। इसी कारण से थोड़ा नर्वस था। जब से मुग्धा उसके जीवन में आई थी उसकी दुनियां ही बदल गयी थी।  अपनी पत्नी सुहासिनी की मृत्यु के  बाद से सुकेतु बहुत उदास रहने लगा था। अभी उसने सुहासिनी के साथ जीवन का सफ़र शुरू ही किया था कि  मृत्यु  के क्रूर हाथों ने उसे छीन लिया। जीवन के सफ़र में वह अकेला रह गया। उसके लिए यह सफ़र एकदम बेरंग और बोझिल हो गया था। वह इस राह पर अकेला चलने लगा। कितना प्रयास किया उसकी माँ ने की वह दोबारा घर बसा ले किन्तु वह दोबार जीवन शुरू करने को तैयार नहीं था। सुकेतु प्रारंभ से ही कुछ रिज़र्व नेचेर का था किन्तु पत्नी की मृत्यु के बाद तो वह और भी चुप रहने लगा। कुछ गिने चुने लोगों को ही उसके जीवन में प्रवेश की अनुमति थी। उन्हीं में एक थी मेधा। मेधा से अक्सर वह अपने दिल की बात कर लिया करता था। मेधा ने ही उसे मुग्