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जून, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत

आज ही निखिल अपने पिता के अंतिम संस्कार निपटा कर लौटा है। बिस्तर पर लेटे  हुए दिमाग में न जाने कितना कुछ चल रहा है। बहुत जल्दी ही वह अपने पैरों पर खड़ा हो गया था और घर से दूर एक स्वतंत्र जीवन जी रहा था। व्यस्तता के कारण घर कम ही जा पाता था। जाता भी था तो बहुत कम समय के लिए। उसमें भी बहुत सा समय पुराने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने में बीत जाता था। कुछ ही समय वह अपने पिता के साथ बैठ पाता था। जिसमें वह उससे उसकी कुशल पूँछते और कुछ नसीहतें देते। आज अचानक उसे बहुत खालीपन महसूस हो रहा था। अचानक उसे लगा जैसे कमरे की छत गायब हो गई है और वह खुले आसमान के नीचे असुरक्षित बैठा है।