सुमित्रा देवी आगे से लेकर पीछे तक घर के कोने कोने का निरीक्षण कर रही थीं. ऐसा लगता था जैसे हर एक कोना उन्हें कोई कहानी सुना रहा हो. पैंतालिस साल पुराना रिश्ता था इस घर से. ना जाने कितनी खुशनुमा यादें बिखरी पड़ी थीं यहाँ. कितने ही ग़म उनके सीने की तरह इस घर की दीवारों में बंद थे. पूरा घर देख लेने के बाद वह घर के बागीचे में लगे झूले पर आ कर बैठ गईं. बेटी संध्या उनकी मनःस्थिति को समझ रही थी. परंतु वह कुछ नही कर सकती थी. इस उम्र में वह अकेले रह सकने की स्थिति में नही थीं. वह यहाँ आकर रह नही सकती थी. अतः वह उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए आई थी. उनके पीछे घर कब तक बंद पड़ा रहेगा. इसलिए उसने सुझाव दिया था कि कोई अच्छी पार्टी मिलने पर घर को बेंच दिया जाए. बाहर टैक्सी खड़ी थी. सुमित्रा देवी अभी भी झूले पर बैठी थीं. सारा सामान टैक्सी पर रख लेने के बाद संध्या ने उनसे कहा "माँ चलिए." सुमित्रा देवी उठीं और बिना घर की तरफ देखे टैक्सी में जाकर बैठ गईं. घर पीछे छूटता जा रहा था. सुमित्रा देवी के मन में अचानक कई यादों ने हलचल मचानी शुरू कर दी थी.
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