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अगस्त, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यादें

सुमित्रा देवी आगे से लेकर पीछे तक घर के कोने कोने का निरीक्षण कर रही थीं. ऐसा लगता था जैसे हर एक कोना उन्हें कोई कहानी सुना रहा हो. पैंतालिस साल पुराना रिश्ता था इस घर से. ना जाने कितनी खुशनुमा यादें बिखरी पड़ी थीं यहाँ. कितने ही ग़म उनके सीने की तरह इस घर की दीवारों में बंद थे. पूरा घर देख लेने के बाद वह घर के बागीचे में लगे झूले पर आ कर बैठ गईं. बेटी संध्या उनकी मनःस्थिति को समझ रही थी. परंतु वह कुछ नही कर सकती थी. इस उम्र में वह अकेले रह सकने की स्थिति में नही थीं. वह यहाँ आकर रह नही सकती थी. अतः वह उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए आई थी. उनके पीछे घर कब तक बंद पड़ा रहेगा. इसलिए उसने सुझाव दिया था कि कोई अच्छी पार्टी मिलने पर घर को बेंच दिया जाए. बाहर टैक्सी खड़ी थी. सुमित्रा देवी अभी भी झूले पर बैठी थीं. सारा सामान टैक्सी पर रख लेने के बाद संध्या ने उनसे कहा "माँ चलिए." सुमित्रा देवी उठीं और बिना घर की तरफ देखे टैक्सी में जाकर बैठ गईं. घर पीछे छूटता जा रहा था. सुमित्रा देवी के मन में अचानक कई यादों ने हलचल मचानी शुरू कर दी थी.

मलाल

हर शाम सिन्हाजी इस समय नदी के किनारे आकर बैठ जाते थे. डूबते हुए सूरज को देखते हुए आत्म मंथन करते थे. अपने बीते हुए जीवन का विश्लेषण करते थे.  अपने जीवन से वह संतुष्ट थे. सारी इच्छाएं तो कभी भी पूरी नही होती पर जीवन ने उन्हें निराश नही किया था. हाँ संघर्ष सदैव ही उनके साथ रहा. अभी माँ की गोद को सही प्रकार से पहचान भी नही पाए थे कि वह उन्हें छोड़ कर चली गईं. किशोरावस्था में कदम रखा ही था कि पिता का साया भी सर से उठ गया. चाचा के घर शरण मिली पर प्यार नही. हाथ पैर मार कर अपने पैरों पर खड़े हुए. मेहनत से वह सब हांसिल किया जो जीवन जीने के लिए आवश्यक था.  पारिवारिक जीवन में भी कोई शिकायत नही रही. जीवन संगिनी ने हर मुसीबत में डट कर साथ निभाया. बच्चे भी अपने कैरियर में व्यवस्थित हो गए.  सब कुछ ठीक रहा. बस इन सबके बीच अपने बारे में सोंचने की फुर्सत नही मिली. अवकाशग्रहण के बाद अब फुर्सत की कमी नही थीं. सारी ज़िम्मेदारियां पूरी हो गई थीं. अब अपनी बरसों की अधूरी इच्छा को पूरा करने के लिए उनके पास समय था. अपने जीवन में संजोए हुए अनुभवों को वह पुस्तक की शक्ल देने की कोशिश कर रहे थे. इसीलिए रोज़ श

सुराख वाले छप्पर

बस्ती आज सुबह सुबह चंदा के विलाप से दहल गई. उसका पति सांप के डसने के कारण मर गया था. यह मजदूरों की बस्ती थी जो छोटे मोटे काम कर जैसे तैसे पेट पालते थे. आभाव तथा दुःख से भरे जीवन में मर्दों के लिए दारू का नशा ही वह आसरा था जहाँ वह गम के साथ साथ खुद को भी भूल जाते थे. औरतें बच्चों का मुख देख कर दर्द के साथ साथ अपने मर्दों के जुल्म भी सह लेती थीं. चंदा का ब्याह अभी कुछ महिनों पहले ही हुआ था. उसके पति को भी दारु पीने की आदत थी. वह रोज़ दारू पीकर उसे पीटता था. कल रात भी नशे की हालत में घर आया. उसने चंदा से खाना मांगा. चंदा ने थाली लाकर रख दी. एक कौर खाते ही वह चिल्लाने लगा "यह कैसा खाना है. इसमें नमक बहुत है." इतना कह कर वह उसे पीटने लगा. लेकिन कल हमेशा की तरह पिटने के बजाय चंदा ने प्रतिरोध किया. नशे में धुत् अपने पति को घर के बाहर कर वह दरवाज़ा बंद कर सो गई. कुछ देर दरवाज़ा पीटने के बाद उसका पति बाहर फर्श पर ही सो गया. सुबह जब चंदा उसे मनाकर भीतर ले जाने आई तो उसने उसे मृत पाया. उसके मुंह से झाग निकल रहा था और शरीर पर सांप के डसने का निशान था. चंदा के घर के सामने बस्ती वाल

रिश्ते

एक बड़े से बंगले के सामने आकर भुल्लर साहब ऑटो से उतरे. गेट पर तख्ती लगी थी 'सांझा सदन'. दरबान ने उन्हें सलाम किया और गेट खोल दिया. भुल्लर साहब का मन भारी था. वह बंगले के गार्डन की बेंच पर बैठ गए. पिछले तीन साल से वह यहाँ रह रहे थे. इतने दिनों में पहली बार वह बेटे बहू से मिलने गए थे. उनकी शादी की सालगिरह थी. अतः उन्होंने योजना बनाई थी कि दो दिन वह उनके साथ बिताएंगे. परंतु जब वह वहाँ पहुँचे तो पाया कि वो दोनों कहीं बाहर जाने की तैयारी में थे. बेटे ने पांव छूते हुए कहा "आना था तो पहले से बता देते. हम लोग तो बाहर जा रहे हैं." "इस साल एनवर्सरी बाहर मनाने का प्लान है." बहू ने सफाई दी. "आए हैं तो कुछ देर बैठिए." बेटे ने कहा. एक आवश्यक फोन करने के बहाने वह बाहर चला गया. बहू ने नौकरानी को चाय नाश्ता लाने का आदेश दिया. "आप चाय पीजिए तब तक मैं भी कुछ पैकिंग कर लूँ." भुल्लर साहब अकेले रह गए. हॉल में रखे कीमती सामान के बीच वह असहजता महसूस करने लगे. बिना किसी से कुछ कहे वह वहाँ से चले आए. दिन भर इधर उधर भटकने के बाद सांझा सदन वापस आ गए. दरव

पीजी

पढ़ते पढ़ते वंदना को घुटन सी महसूस होने लगी. कमरे में कोई भी खिड़की नही थी. किताब बंद कर वह बाहर आ गई. अब कुछ अच्छा महसूस कर रही थी.  तीन महीनों से वह यहाँ पीजी के तौर पर रह रही थी. मुर्गी के दरबे जैसे छोटे छोटे कमरों में उसके जैसी कई लड़कियां रह रही थीं. खाना भी अक्सर बेस्वाद ही मिलता था. परंतु यह शहर अपनी आई ए एस कोचिंग के लिए प्रसिद्ध था. अधिकांश लड़कियाँ इसी वजह से यहाँ आई थीं. वंदना भी उनमें से एक थी.  उसे अपने माता पिता की याद आ गई. उसका सपना पूरा करने के लिए उन्होंने उसे तकलीफें उठा कर यहाँ भेजा था. अपना उद्देश्य याद आते ही वह सब कष्ट भूल कर पढ़ने के लिए भीतर चली गई.

ठेस

मैं छुट्टियां मनाने इस हिल स्टेशन पर आया था. शाम के वक्त मैं यूं ही बाजार में घूमने के लिए निकला था. सड़क के किनारे फुटपाथ पर कई प्रकार की वस्तुएं बिक रही थीं लोग चिन्ह के रूप में ले जाने के लिए उन्हें खरीद रहे थे. घूमते हुए फुटपाथ पर बैठे एक लड़के पर मेरी दृष्टि पड़ी. वह करीब चौदह पंद्रह साल का होगा. उसके कपड़ों से पता चल रहा था कि वह बहुत गरीब था. बड़ी तन्मयता के साथ वह कागज़ पर सामने खड़े व्यक्ति का चित्र बना रहा था. पास खड़े व्यक्ति ने बताया कि कुदरत ने उसे बोलने की शक्ति नही दी था. किंतु उसकी भरपाई करने के लिए उसे कमाल का हुनर दिया था. कुछ ही मिनटों में वह सामने खड़े व्यक्ति का चेहरा हूबहू कागज़ पर उकेर देता था. उसके चेहरे की मासूमियत मुझे आकर्षित कर रही थी. उसकी गरीबी पर मुझे तरस आ गया. मैं उसकी मदद करना चाहता था. अपनी लापरवाह तबियत के कारण मैं चीज़ें संभाल कर नही रख पाता था. अतः अपना चित्र बनवाने का खयाल मैंने त्याग दिया. मैने जेब से सौ रूपये निकाल कर उसे पकड़ाए और आगे बढ़ने लगा. उसने बढ़ कर हाथ पकड़ लिया. मेरे दिए हुए पैसे उसने मुझे वापस कर दिए. मेरी ओर वह खमोशी से देख रह

बेचैनी

अपनी बेटी निधि को कॉलेज ट्रिप पर भेजते हुए मंजुला उसे बार बार नसीहतें दे रही थी. इस बात पर निधि को गुस्सा आ गया "मम्मी प्लीज़ बस कीजिए मैं कोई छह साल की बच्ची नही हूँ. खुद को संभाल सकती हूँ." मंजुला ने उसकी बात का कोई जवाब नही दिया. वह जानती थी कि उसकी बेटी समझदार है. खुद को संभाल सकती है. पर यह उसकी अकेले की बेचैनी नही थी. यह तो आज के युग की हर उस माँ की चिंता थी जिसकी जवान बेटी हो.

भूख

बसंत अपने मकान की छत पर बैठा मदद का इंतज़ार कर रहा था. बाढ़ की वजह से घर में घुटनों तक पानी भर गया था. भूख से पेट की आंतें कुलबुला रही थीं. छत पर बैठे हुए उसे याद आ रहा था कि ना जाने कितनी बार उसने खाने में कमी निकाल कर बिना पूरा खाना खाए ही थाली छोड़ दी थी. उसे वह सारी थालियां अपने सामने घूमते नज़र आ रही थीं. तभी आसमान में उड़ते हैलीकॉप्टर से खाने के पैकेट गिराए गए. एक उसकी छत पर भी गिरा. उसने झपट कर पैकेट उठाया और बिना किसी की परवाह किए अकेले खाने लगा.

गूंगी गुड़िया

रसोई में काम करते हुए गीता सुन रही थी. चंद महीनों पहले ही ब्याह कर आई हुई उसकी देवरानी वीना से भी वही सब कहा जा रहा था जो उससे कहा गया था. वह दरवाज़े पर खड़ी होकर देखने लगी. वीना कह रही थी "मम्मी जी पापा ने आपकी सारी मांगें पूरी की हैं. अब वह पैसे कहाँ से लाएंगे. अभी मेरे भाई बहन की ज़िम्मेदारी है उन पर. मैं उनसे कुछ नही मांगूंगी." उसकी सास ने अपने बेटे इंदर की तरफ उलाहना से देखा. इंदर बोला "तुम मम्मी से बहस मत करो. वही करो जो वह कह रही हैं." वीना ने दृढ़ता के साथ कहा "मम्मी जी गलत बात कर रही हैं. मैं पापा से कुछ नही कहूँगी." उसका इस तरह बोलना इंदर को बुरा लगा. वह हाथ उठा कर उसकी ओर लपका. गीता ने उसका हाथ बीच में ही पकड़ लिया. सब दंग थे कि इस गूंगी गुड़िया में यह हिम्मत कहाँ से आई.

तुम ज़िंदा हो

वह उन बदनाम गलियों में भटकता था. मद्धम रौशनी में सस्ता मेकअप लगाए कामुक अदाओं से लुभाते चेहरों में वह अपनी पसंद का चेहरा खोजता था. बेशर्मी से उघाड़े गए जिस्म में वह संतुष्टि तलाशता था. किंतु हर बार एक और अनुभव की चाह उसे संतुषट नही होने देती था.  पेशे से ट्रक चालक था. हर बार एक नए शहर में एक नया अनुभव लेने के लिए फिर किसी बदनाम गली में पहुँच जाता था. उसके दोस्तों ने समझाया था कि यह तो एक मृगतृष्णा है. सिर्फ भटकाव ही हाथ आएगा. किंतु उसे तो यह भटकाव ही रास आ रहा था. वह समझ नही पा रहा था कि यह भटकाव उसे किसी दिन अंधे मोड़ पर ले जाकर छोड़ेगा. उसका सबसे अजीज़ साथी एक सड़क हादसे में बुरी तरह घायल हो गया. उसकी जान बचाने के लिए खून चढ़ाने की जरूरत थी. वह तैयार हो गया. जब डॉक्टर ने उसके खून की जांच की तो पता चला कि एड्स उसके शरीर को धीरे धीरे खोखला कर रहा था. इस धक्के के बाद उसे होश आया. उसका भटकाव उसे ऐसे मोड़ पर ले आया था जहाँ से कोई राह सुझाई नही देती थी. वह पछता रहा था कि क्यों उसने स्वयं को नही रोका. लोगों के लाख समझाने पर भी वह क्यों इस दलदल में घुसता चला गया. वह सोंचने लगा उन गलि

हवेली

वृंदा जिस समय हवेली पहुँची वह दिन और रात के मिलन का काल था. उजाले और अंधेरे ने मिलकर हर एक वस्तु को धुंधलके की चादर से ढंक कर रहस्यमय बना दिया था. हवेली झीनी चुनर ओढ़े किसी रमणी सी लग रही थी. जिसका घूंघट उसके दर्शन की अभिलाषा को और बढ़ा देता है. वृंदा भी हवेली को देखने के लिए उतावली हो गई.  इस हवेली की एकमात्र वारिस थी वह. इस हवेली की मालकिन उसकी दादी वर्षों तक उसके पिता से नाराज़ रहीं. उन्होंने उनकी इच्छा के विरूद्ध एक विदेशी लड़की से ब्याह कर लिया था. लेकिन अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब एकाकीपन भारी पड़ने लगा तो उसके पिता आकर उन्हें अपने साथ ले गए. वृंदा का कोई भाई बहन नही था. अपने में खोई सी रहने वाली उस लड़की के मित्र भी नही थे. दो एकाकी लोग एक दूजे के अच्छे मित्र बन गए. दादी और पोती में अच्छी बनती थी. दादी किस्से सुनाने में माहिर थीं. उनका खास अंदाज़ था. वह हर किस्से को बहुत रहस्यमय तरीके से सुनाती थीं. उनके अधिकांश किस्सों में इस हवेली का ज़िक्र अवश्य होता था. यही कारण था कि यह हवेली उसके लिए किसी तिलस्मी संदूक की तरह थी. जिसके भीतर क्या है जानने की उत्सुक्ता तीव्र होती है

अंकुर

ज़ोहरा अधिकांश समय गुमसुम रहती थी. किसी से ना मिलना ना जुलना. बस काम से मतलब. इस उम्र में ऐसी संजीदगी सभी को अखरती थी. भाईजान ने कितनी बार समझाया ज़िंदगी किसी के लिए रुकनी नही चहिए. लेकिन वह तो जैसे कुछ समझना नही चाहती थी. कभी जिसकी खिलखिलाहट सारे मोहल्ले में गूंजती थी अब बिना टोंके उसके मुंह से एक लफ़्ज नही निकलता. अपनी लाडली बहन की इस दशा पर भाईजान के सीने में आरियां चलती थीं. गांव के छोटे से स्कूल में टीचर थी ज़ोहरा. छोटे बच्चों का साथ उसे अच्छा लगता था. भाईजान ने पढ़ने के लिए उसे शहर के कॉलेज में भेजा था. वहाँ उसकी मुलाकात इरफान से हुई. इरफान बाकी लड़कों से अलग था. सबकी तरह उसका मकसद पढ़ लिख कर एक अच्छी नौकरी पाना नही था. अपने आस पास के माहौल में व्याप्त भ्रष्टाचार, अशिक्षा अन्याय तथा इन सबके प्रति युवा वर्ग की उदासीनता को लेकर वह बहुत दुखी था. इस पूरी व्यवस्था को बदल देना चाहता था. उसके क्रांतिकारी विचारों से वह उसकी तरफ आकर्षित हो गई. यह आकर्षण समय के साथ प्रेम में बदल गया. इरफान ने छात्र राजनीति में कदम रखा. वह तेजी से आगे बढ़ने लगा था. भ्रष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध उसकी

जीत

सभी राघव को बधाइयां दे रहे थे. आज उसकी वर्षों की तपस्या रंग लाई थी. वह गर्व से फूले नही समा रहा था. सीने पर लटकता मेडल, हाथ में पकड़ी चैंपियनशिप की ट्राफी सभी को दिखा रहा था. तमाम कठिनाइयों एवं परिवार के विरोध के बावजूद बेटी में छिपी प्रतिभा को पहचान उसे प्रोत्साहित किया. आज वह राष्ट्रीय स्तर की टेबल टेनिस चैंपियन बन गई थी.

गेंद

रजत दफ्तर से लौटा तो घर का माहौल तनावपूर्ण लगा. माँ अपने कमरे में थीं तथा पत्नी बेडरूम में लेटी थी. आज बहुत थका हुआ था. अतः उसने मामले को ना छेड़ना ही उचित समझा. चुपचाप कबर्ड से कपड़े निकाले और फ्रेश होने चला गया. फ्रेश होकर उसने अपने लिए चाय बनाई और लिविंग रुम में बैठ कर पीने लगा. अक्सर ही सास बहू में किसी ना किसी बात को लेकर झगड़ा होता था. वह जानता था कि झगड़े में दोनों की ही गलती होती थी. किंतु वह दोनों के इस झगड़े के बीच बिना किसी वजह के पिस जाता था. उसने दोनों के बीच सुलह करवाने की बहुत कोशिश की किंतु उसके सारे प्रयास अब तक विफल रहे. पत्नी को समझाने जाता तो वह उलाहना देती कि अभी तक माँ के आंचल से बंधे हुए हो. उन्हीं का पक्ष लेते हो ऐसा था तो शादी क्यों की थी. माँ से कुछ कहता तो वह आंसू बहाने लगती कि  बेटा तो पूरा जोरू का गुलाम हो गया है. माँ को छोड़ बीवी का पल्ला थाम लिया है. उसी के इशारों पर नाचता है. आए दिन के इन झगड़ों से तंग आ गया था. दिन भर दफ्तर में खटने के बाद घर का तनाव पूर्ण माहौल बर्दाश्त नही होता था. लेकिन अपने अहम के चलते दोनों में से कोई उसकी पीड़ा समझने को तैयार

अपना

मंजू देवी को  डॉक्टर ने बताया कि उनके किडनी ट्रांसप्लांट के लिए डोनर मिल गया है.   मंजू देवी ने अपने बच्चों की तरफ देखा. उन्होंने अपनी नजरें झुका लीं. फिर उन्होंने पति की तरफ देखा. उनके पति ने सामने की तरफ उंगली उठा दी. सामने गणेश खड़ा था. वह अनाथ लड़का जिसकी शिक्षा का भार उनके पति ने अपने ऊपर लिया था. मंजू देवी के कानों में अपने शब्द गूंजने लगे 'आप भले ही इस पर कितना खर्च कर लें. आड़े वक्त में अपने बच्चे ही काम आएंगे.' उनकी आंखों से पश्चाताप के अश्रु छलक पड़े.

होशियारी

नौंवी कक्षा की छमाही परीक्षा का परिणाम आया था. अतुल को ठीक ठाक अंक मिले थे. परंतु वह यह सोंच कर परेशान था कि वरुण और उसके साथी जो पढ़ने लिखने में ज़रा भी ध्यान नही देते उनके अच्छे अंक कैसे आ गए. आखिरकार उसने वरुण से पूंछ ही लिया.  वरुण हंस कर बोला "आज कल मेहनत नही होशियारी काम आती है." अतुल को आश्चर्यचकित देख कर बोला "रंजीत सर से मिलो. वह नया बैच शुरू कर रहे हैं."

होड़

माधुरी और सुकेश अपने नए एल ई डी टीवी पर फिल्म देख रहे थे . चादर देख कर पैर फैलाने की उनकी आदत नही थी. वह तो जमाने की चकाचौंध में दीवाने थे.  दो माह का मकान का किराया भी नही दिया था. वो दोनों टीवी देख रहे थे  तभी मकान मालिक आ गए. सबसे पहले ध्यान नए टी वी पर गया. उन्होंने पूंछा "दो महीने का किराया और बिजली का बिल बचा है कब देंगे." सुकेश बोला "कोशिश कर रहा हूँ. एक दो दिन में दे दूँगा." टी वी की तरफ घूरते हुए मकान मालिक ने कहा "वो सब मैं नही जानता. चार दिन बाद फिर आऊँगा. यदि पैसे ना मिले तो मकान खाली कराना मुझे आता है." उसके जाने के बाद दोनों सोंचने लगे कि किससे पैसे मांगें. जो भी नाम ध्यान में आए उनसे पहले ही कर्ज़ ले चुके थे. पुराना चुकाने की नौबत नही आ रही थी. फिर नया कर्ज़ किस मुंह से मांगते. अब मकान मालिक को कैसे मनाएं दोनों इसी फिराक में थे.

अपना घर

अपर्णा ने रिटायर होने के बाद अपने भाई के साथ रहने का फैसला किया. पिता की असमय मृत्यु के बाद सबसे बड़ी संतान होने के कारण परिवार की ज़िम्मेदारियां उस पर आ गईं उन्हें उठाते हुए वह अपना परिवार नही बसा पाई. परंतु इस बात का उसे कोई अफसोस नही था. भाई के परिवार को वह अपना परिवार समझती थी. दिल खोल कर उन पर खर्च करती थी. तीज त्यौहारों पर जब वह आती थी तो उसका खूब स्वागत भी होता था. अब तक नौकरी के चलते वह अकेले  दूसरे शहर में रहती थी. उसने जो थोड़ा बहुत ज़रूरी सामान एकत्र किया था उसे जरूरतमंदों को दे दिया. जो बचा उसे बेंच कर पैसा अपनी नौकरानी को दे दिया. भाई की भरी पूरी गृहस्ती में बेकार जगह घेरते. सब समेट कर वह भाई के घर चली गई. वहाँ पहुँची तो उसे लगा कि इस बार उसे पहले की तरह स्वागत नही मिला. रात को जब खाने बैठी तो भाभी ने पूँछा "यहाँ किराए पर मकान लेंगी या अपना फ्लैट खरीदेंगी." खाते हुए अपर्णा बोली "सोंच रही थी कि एक आध हफ्ता रह कर देखूं. अच्छा लगा तो यहीं मकान ले लूंगी नही तो अपने शहर लौट जाऊंगी."

जाँच

शहर की एक पॉश बिल्डिंग में हलचल मच गई जब टेरेस से कूद कर एक लड़की ने जान दे दी. लड़की की उम्र तेरह चौदह वर्ष की होगी. उसका नाम सोनी था. वह सातवें फ्लोर पर रहने वाले मिस्टर खन्ना के घर रहती थी.  मिस्टर खन्ना का व्यापार था तथा उनकी पत्नी कॉल सेंटर में काम करती थीं. मिस्टर खन्ना ने बताया कि क्योंकि उनके कोई संतान नही है  इसलिए उन लोगों ने सोनी को अच्छी परवरिश देने के उद्देश्य से अपनाया था. यहाँ वह खुश थी फिर ना जाने क्यों उसने ऐसा किया. अड़ोस पड़ोस से पूछने पर सबने यही कहा कि उन्हें कुछ नही पता.  पिछले दो महीनों से सभी देर रात सोनी के चीखने व रोने की आवाज़ें सुनते थे.

बिछोह

आज राजेंद्र बाबू का पछत्तरवां जन्मदिन था. पोती ने बर्थडे का केक डाइनिंग टेबल पर सजा दिया था. इंतज़ार था तो उनके मित्र अरोड़ा जी का. उनके आते ही केक काटा जाना था. आज सुबह से ही राजेंद्र बाबू बीते जीवन को याद कर रहे थे. कई भूले बिसरे चेहरे मानस पटल पर उभर रहे थे. कभी कोई याद उन्हें गुद गुदा जाती थी तो कभी कोई दिल में टीस पैदा करती थी. उन्हें याद आए वो मित्र जो साथ छोड़ कर जा चुके थे. चार दोस्तों का अपना ग्रुप था. उनकी मुलाकात एक विभागीय ट्रेनिंग के दौरान हुई थी. वहाँ हुई जान पहचान एक पक्की दोस्ती का आधार बनी. चारों एक दूसरे के सुख दुख के साथी बने. स्थानों की दूरियां तो आईं किंतु दिलों के बीच कभी दूरियां नही आईं. अवकाशग्रहण के बाद समय भी था और ज़िम्मेदारियों से भी निजात मिल चुकी थी. चारों एक साथ खूब वक्त बिताते थे. लेकिन पाँच साल के भीतर ही दो दोस्त अलविदा कह कर चले गए. बच गए राजेंद्रबाबू और अरोड़ा जी. पिछले दस साल से दोनों एक दूसरे का साथ निभा रहे थे. यूं तो ज़िंदगी में मिलना बिछड़ना लगा रहता है. किंतु उम्र के एक पड़ाव के बाद नए रिश्ते मुश्किल से बनते हैं. अतः पुराने रिश्तों का म

प्रण

माधवी का केवल दसवीं पास होना अब उसके पति को अखरता था. उसके पिता एक सरकारी विभाग में अधिकारी थे किंतु लड़कियों के लिए उनके खयाल बहुत पुराने थे. अतः उसे केवल दसवीं तक ही पढ़ाया. विवाह के समय उसके पति की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नही थी. यही कारण था कि बड़े घर में रिश्ता होने के कारण तब उन्हें उसका कम पढ़ा होना बुरा नही लगा था. अब स्थिति बदल चुकी थी. अपनी मेहनत के दम पर वह समाज में अपना एक स्थान बना चुके थे. अब बड़े लोगों में उनका उठना बैठना था. इसलिए उन्हें पत्नी का कम पढ़ा लिखा होना खलता था. परंतु जब उसका बेटा भी अपने दोस्तों के सामने उससे कतराने लगा तब उसके लिए यह बहुत कष्टदायक हो गया. पहले तो वह इस बात के लिए अकेले में रोती थी किंतु शीघ्र ही उसे एहसास हो गया कि इससे कोई फायदा नही है. यदि इस स्थिति को बदलना है तो उसे स्वयं को शिक्षित करना होगा. उसने प्रण किया कि वह कम पढ़े होने के दाग को मिटा कर रहेगी. बारहवीं के लिए उसने ओपन स्कूल से फार्म भर दिया.

बोलती ख़ामोशी

मैं न्यूज चैनल की तरफ से एक हत्या के मामले को कवर करने गया था. पिछड़े वर्ग के एक व्यक्ति भोला को कुछ दबंगों ने पीट पीट कर मार डाला था. गांव के दलित समाज में इस बात को लेकर बहुत गुस्सा था. पंचायत के चुनाव होने वाले थे. प्रधान के पद के लिए ठाकुर बाहुल इस गांव में सत्यनारायण सिंह खड़े थे. उनके विरुद्ध दलित समाज से हल्कू महतो चुनाव लड़ रहे थे. भोला उनके प्रचार के लिए दीवारों पर पोस्टर चिपकाने का काम कर रहा था. तभी सत्यनारायण सिंह के समर्थक वहाँ आए और लगे हुए पोस्टर फाड़ने लगे. आपत्ति करने पर उन लोगों ने गाली गलौज आरंभ कर दी. भोला को भी क्रोध आ गया. उसने भी दो चार सुना दीं. इस पर सबने मिल कर उसे खूब पीटा. उसे गंभीर चोटें आईं जिसके कारण उसकी मौत हो गई. चुनावी माहौल मे मामले ने तूल पकड़ लिया. मैं संबंधित थाने पहुँचा. चैनल को बताते हुए थाना प्रभारी ने कहा "दोषियों को छोड़ा नही जाएगा. चाहें वह कोई भी हों." गाँव वालों से बात करने के बाद मैं मृतक के घर गया. वहाँ उसकी विधवा से मिला. मैंने उससे भी पूंछ ताछ करनी चाही. कैमरा उस मृतक की विधवा पर गया. मैंने उससे सवाल किया. वह कुछ नही ब

लालच

रत्ना जब स्कूल से लौटी तो घर के दरवाजे पर एक आदमी उसके बापू से बात कर रहा था. उस आदमी ने रत्ना को ऊपर से नीचे तक देखा. उसका इस प्रकार देखना रत्ना को अच्छा नही लगा. वह भीतर चली गई. कुछ देर में उसके बापू भी भीतर आ गए. रत्ना ने खाना परोसा और अपने बापू के साथ खाने लगी. खाना खाते हुए उसके बापू ने कहा "अब तुम यहाँ नही रहोगी. कल तुमको शहर भेज रहा हूँ. वहाँ तुम बड़े मजे से रहोगी." अपने बापू की बात सुन कर रत्ना परेशान हो गई. कुछ सोंच कर बोली "पर बापू मुझे तो पढ़ना है." "बहुत पढ़ लिया तुमने. लड़कियों का ज्यादा पढ़ना ठीक नही." उसके बापू ने घुड़का. "पर टीचरजी तो कुछ और कहती हैं." रत्ना ने अपनी बात कहनी चाही. किंतु उसके बापू ने जोर से डांटा "यह तेरी पढ़ाई के कारण ही तू इतनी ढीट हो गई है कि बाप से बहस करती है." रत्ना सहम कर चुप हो गई. रत्ना उदास हो गई. बाहर खेलने भी नही गई. रात को भी बिना खाए सोने चली गई. लेटे हुए वह सोंच रही थी कि यदि अम्मा जिंदा होती तो ऐसा ना होता. सुबह उसके बापू ने उसे जल्दी उठा दिया. वह आदमी जो कल आया था वह उसे लेने आ गया था

सफलता

खान साहब के घर आज खुशी का माहौल था. उनकी छोटी बेटी ने सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा में टॉप किया था. इसलिए घर में एक छोटी सी पार्टी रखी गई थी. इंतज़ार हो रहा था तो उनकी बड़ी बेटी ज़ीनत का. वह एक नामी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत थी. ज़ीनत के आते ही माहौल में दुगनी खुशी आ गई. अपने पिता से गले लग कर वह बोली "मुबारक हो अब्बू. निख़त ने तो कमाल कर दिया." खान साहब ने उसका माथा चूम कर कहा "यह सब तुम्हारी वजह से हो सका. तुमने हमें यकीन दिलाया कि बेटियां भी बेटों से कम नही होतीं. जो मौके तुमने लड़ कर तकलीफें झेल कर लिए बाद में वही हमने निख़त को भी दिए."

फ़ोकट का तमाशा

आज फिर कामिनी बाहर गली में आकर चिल्ला रही थी 'कोई भी नही बचेगा, सब को सजा मिलेगी. कानून किसी को नही छोड़ेगा.' सभी अपने अपने घरों से झांक रहे थे. उसका भाई इंदर उसे समझा बुझा कर भीतर ले जाने का प्रयास कर रहा था. अपनी बहन की इस दशा से वह बहुत दुखी था. बड़ी मुश्किल से समझा बुझा कर वह उसे भीतर ले गया. कुछ देर तक अपने अपने घरों से बाहर झांकने के बाद सब भीतर चले गए. कभी कामिनी भी एक सामान्य लड़की थी. एक कंपनी में नौकरी करती थी. कुछ ही समय में विवाह होने वाला था. अपने आने वाले भविष्य को लेकर वह बहुत खुश थी. उसका होने वाला पति एक अच्छी नौकरी में था. परिवार भी बहुत अच्छा था. अतः वह आने वाले दिनों के सुखद स्वप्न देखने लगी थी. किंतु उसके सारे सपने बिखर गए. एक दिन जब वह दफ्तर से घर लौट रही थी तब कुछ रईसजादों ने उसे जबरन अपनी कार में बिठा लिया. रात भर उसे नोचने खसोटने के बाद सड़क पर फेंक दिया. लड़के वालों ने विवाह से इंकार कर दिया. इतने पर भी उसने हिम्मत नही हारी. अपने भाई इंदर के साथ मिलकर कानूनी लड़ाई के ज़रिए इंसाफ पाने का प्रयास किया. पुलिस स्टेशन के चक्कर मेडिकल जांच उसके बाद को

फ़िक्र

रजनी आइने के सामने खड़ी होकर अपने होठों पर लिपस्टिक लगा रही थी. उसने एक बार ख़ुद को निहारा फिर अपना पर्स उठा कर बाहर जाने को तैयार हो गई. उसकी सास बड़बड़ाई "अभी मेरे बेटे को गए साल भी पूरा नही हुआ और यह सिंगार कर रोज़ रात को निकल जाती है." रजनी ने बुढ़िया को घूरा "इसलिए अम्मा कि तुम्हारा बेटा तो अब लौट नही सकता. मैं सिंगार कर ना निकलूं तो दो वक्त खाने के लाले पड़ जाएं." यह कह कर वह निकल गई. बुढ़िया चुप हो गई. बेटे की मौत के बाद कुछ महीने बड़ी मुश्किल में बीते थे. उन दिनों भूख से जो पीड़ा हुई थी उसे सोंच कर डर गई. मन ही मन स्वयं को कोसने लगी कि वह क्यों बेकार की बातें कर देती है. उसने किवाड़ ठीक से बंद किए और सो गई. सुबह बस्ती में हलचल थी. बुढ़िया ने खबर सुनी तो बदहवास दौड़ पड़ी. बस्ती के पास रेल की पटरी के किनारे रजनी की निर्वस्त्र लाश पड़ी थी. किसी सरफिरे ने चाकू से गोद कर मार डाला था. पुलिस ने पंचनामा किया और लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. बुढ़िया जमीन पर बैठी थी. एक नई फ़िक्र उसके मन में थी. अब इस उम्र में पेट की आग बुझाने के लिए कहाँ हाथ पैर मारेगी.

अटूट बंधन

कुछ देर में ही प्रतियोगिता का आखिरी दौर आरंभ होने वाला था. शिव कुछ नर्वस था. बहुत ही महत्वपूर्ण मुकाबला था. यदि वह जीत गया तो इस प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक पाने वाला अपने मुल्क का पहला खिलाड़ी बन जाएगा. वह अपने बीते जीवन के बारे में सोंचने लगा. उसका व्यक्तिगत जीवन उथल पुथल से भरा था. अनाथालय में पला बढ़ा वह सदैव ही रिश्तों के लिए तरसता रहा. जब युवा हुआ तो एक लड़की से प्रेम हो गया. लेकिन उसने भी धोखा दे दिया. वह भीतर से टूट गया. इस मुश्किल दौर में इस खेल से उसका संबंध हुआ. जैसे जैसे वह इस खेल से जुड़ता गया अपने दुख से बाहर आता गया. आज वह खेलों के इस महाकुंभ में अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहा था. प्रतियोगिता का आखिरी मुकाबला शुरु हुआ. धैर्य व लगन से खेलते हुए उसने इतिहास रच दिया. वह पोडियम पर खड़ा था. उसने लहराते हुए तिरंगे को देखा. जीवन मे पहली बार उसने एक मज़बूत रिश्ता महसूस किया था. उसका उसके वतन के साथ.

मेरा बेटा

स्कूल में रिसेस के समय सभी बच्चे खेलने या खाने में मगन थे. वे सभी आपस में एक दूसरे से हंसी मज़ाक कर रहे थे. इन सबसे अलग आरव एक कोने में शांत बैठा था.  उसके मम्मी पापा का तलाक हो चुका था. अब दोनों के बीच उसकी कस्टडी को लेकर कोर्ट में लड़ाई चल रही थी. दोनों ही उस पर अपना हक जमा रहे थे. आरव को लगने लगा था कि जैसे वह कोई बेजान गुड्डा है. जिसे पाने के लिए उसके मम्मी पापा बच्चों के मानिंद लड़ रहे थे.  कोई भी यह नही जानना चाहता था कि उसे क्या चाहिए. वह तो आज भी उन पुराने दिनों के सपने देखता था जब मम्मी पापा एक थे. उनका एक परिवार था जहाँ वह दोनों का प्यारा बेटा था.

तूफान

दीप्ती लेटे हुए सोंच रही थी. पहली बार ऐसा हुआ था कि सुधीर अपनी संतुष्टि किए बिना चुप चाप कमरे से चला गया. उसे उसकी किसी तकलीफ से कोई मतलब नही रहता था. दीप्ती केवल उसके मन बहलाव का साधन थी. आज उसने सर दर्द की शिकायत की तो बिना कुछ कहे निकल गया. वह सोंचने लगी लगता है कोई और मछली फंसा ली है उसने. सुथीर पर भरोसा करना उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी. वह उसके मरहूम पति का बिज़नेस पार्टनर था. पति की अकस्मात मृत्यु से वह बहुत दुखी थी. समझ नही पा रही थी कि कैसे वह अपनी छोटी सी बच्ची को अकेले पालेगी. इन दिनों में सुधीर उसके नज़दीक आया. उन पलों में उसने उसे यकीन दिलाया कि वह उसकी और उसकी बच्ची को कोई तकलीफ नही होने देगा. दीप्ती ने उस पर यकीन कर लिया. दोनों ने शादी कर ली. जल्द ही दीप्ती समझ गई कि यह महज़ एक जाल था. अब उसके पति के हिस्से पर भी उसका अधिकार हो गया था. दीप्ती उसके हाथ का खिलौना बन कर रह गई. अपनी बच्ची के भविष्य के बारे में सोंच कर वह पिछले आठ साल से सब कुछ चुप चाप सह रही थी. अचानक दीप्ती को अपनी बच्ची की चीख सुनाई दी. 'सुधीर' उसके मन में यह खयाल आते ही वह तेज़ी से अपनी बेटी के

बुआ दादी

सावित्री बुआ ने अपनी पूजा समाप्त कर ली थी. अब वह अपनी 108 मनकों की माला लेकर बैठी थीं. इसके दो फेरे करने के बाद ही वह अन्न जल ग्रहण करेंगी. यही उनकी दैनिक दिनचर्या थी. माला फेर लेने के बाद बुआ ने रसोई के छोटे मोटे कामों में मदद की और अपना झोला लेकर मंदिर चली गईं. उस झोले में कोई ना कोई धार्मिक ग्रंथ रहता था. मंदिर परिसर के किसी एकांत स्थान पर बैठ कर वह उसका अध्यन करती थीं. यही उनका सैर सपाटा और मनोरंजन का साधन था. बारह वर्ष की आयु में विधवा होकर वह अपने पिता के घर आ गई थीं. संस्कारों में उन्हें यही घुट्टी पिलाई गई कि विधवा स्त्री के लिए सादगी से जीवन जीना ही उचित है. उन्होंने उसी प्रकार की जीवन शैली अपना ली. सादा भोजन, सफेद साड़ी तथा व्रत उपवास. पिता की मृत्यु के बाद घर की बाग डोर भाई ने संभाल ली. भाभी ने सदैव उन्हें पूरा आदर दिया. अब तो भतीजे की गृहस्ती भी बस गई थी. उनके नीरस जीवन में यदि कुछ पल प्रसन्नता के आते थे तो उसका कारण था उनके भाई का पोता बिट्टू. पांच साल का बिट्टू उनसे बहुत हिला था. वह उन्हें बुआ दादी कह कर पुकारता था. आकर उनके पास बैठ जाता और उनसे ढेर सारी बातें करत

ऑक्सीजन

रवि पेशे से वकील था किंतु लेखन से उसे विशेष लगाव था. इंटरनेट पर अक्सर वह लिखा करता था. इस समय वह वायु प्रदूषण पर एक लेख लिख रहा था. लेख लिखते समय जो तथ्य उसके सामने थे उन्हें देख कर वह सोंचने लगा कि यदि यही हाल रहा तो कुछ सालों बाद सांस लेने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडरों में मिलेगी. वह लिखने में व्यस्त था तभी सिन्हा जी आ गए. वह पुराने परिचितों में थे. रवि उन्हें चाचाजी कह कर बुलाता था. कुसलक्षेम पूंछने के बाद सिन्हा जी बोले "बेटा तुमसे मदद चाहिए. मुझे मेरा मकान बेंचना है. कोई ग्राहक बताओ. यह बात मैं सबसे नही कहना चाहता इसलिए तुम्हारी मदद ले रहा हूँ." "पर मकान क्यों बेचना चाहते हैं. कोई आर्थिक संकट है क्या." रवि ने पूंछा. "अब तुमसे क्या पर्दा. दरअसल मुझे मेरे बेटे नवीन पर अब भरोसा नही रहा. उसका और बहू का जो व्यवहार है उससे लगता है कि वह दोनों कुछ भी कर सकते है." सिन्हाजी ने अपनी व्यथा बताई. वह आगे बोले "अब जमा पूंजी इतनी है नही. मकान बेंच कर जो मिलेगा उससे अपने लिए छोटा मोटा कोई आसरा ढूंढ़ लूंगा. अब उनके साथ नही रह सकता." रवि ने मदद का आश्वासन दिय

ठहराव

सुहास एक आगर्षक युवक था. कई लड़कियां उसकी खूबसूरती की तरफ आकर्षित रहती थीं. यही कारण था कि उसकी कई सारी गर्लफ्रैंड थीं. वह एक दिल फेंक आशिक के रूप में मशहूर था.  उसके घर वाले तथा हितैषी मित्र अक्सर ही उसे समझाते थे कि अब समय आ गया है कि वह इधर उधर भटकना छोड़ कर किसी अच्छी लड़की के साथ शादी कर ले. परंतु सुहास को अपनी दिल फेंक आशिक की छवी बहुत अच्छी लगती थी. वह इसके साथ बहुत खुश था. उसके सभी मित्रों ने विवाह कर घर बसा लिया था. जीवन सदैव एक जैसा नही रहता. भटकते हुए इंसान को भी ठहराव की ज़रूरत पड़ती है. सुहास के जीवन में भी वह वक्त आया. उसके माता पिता की दुर्घटना में मृत्यु हो जाने से वह बहुत एकाकी महसूस करने लगा था. उसे एक ऐसे हमसफर की चाह होने लगी थी जिसके साथ वह सुख दुख  बांट सके. किंतु अब तक भंवरे की तरह एक फूल से दूसरे फूल पर मंडराने वाले सुहास के जीवन में ऐसा कोई नही था. अब उसे अपने हितैषियों की बात सही लग रही थी.

उद्देश्य

सब लड़के अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे. मंच पर जो ऐक्ट चल रहा था उसके बाद उनके डांस ग्रुप की बारी थी. एक्ट समाप्त होते ही सबने एक दूसरे का हौंसला बढ़ाया और मंच पर चले गए. सभी लड़के गरीब परिवारों से थे. जीवन से उन्हें उपेक्षा के अतरिक्त कुछ नही मिला था. अतः वह भी जीवन की उपेक्षा करते थे. अपनी झोपड़ पट्टी के पास रेल के गुजरने के लिए पुल पर खड़े होकर गाड़ी का इंतज़ार करते थे. गाड़ी जब कुछ ही सेकेंड के फासले पर होती तो पुल से नीचे बहती नहर में कूद जाते. सभी उनसे परेशान थे. जैक़ब भी कभी इनके जैसा था. इनकी स्थिति को समझ कर वह इनकी मदद को सामने आया. इनके भीतर छिपी प्रतिभा को पहचान कर इन्हें एक उद्देश्य दिया. आज वह अपने जीवन के लक्ष्य के करीब थे.

सूखी घास

वह छोटा सा लड़का बहुत तेजी से खुर्पी चला रहा था. वेदा ने उसे लॉन की सूखी घास छीलने को कहा था. भूख से बेहाल जब वह उसके दरवाजे पर कुछ खाने के लिए मांगने आया तो वेदा ने डांट कर कहा "तुम लोगों को तो आदत है भीख मागने की. बिना काम के कुछ नही मिलेगा." भूख से अंतड़िया खिंची जा रही थीं. किंतु कोई चारा नही था. अतः वह काम करने को तैयार हो गया. वेदा ने उसे ख़ुर्पी लाकर दी. वह घास छीलने लगा. गर्मी के दिन थे. उसके शरीर से पसीना टपक रहा था. लेकिन इन सब बातों की परवाह किए बिना वह अपना काम कर रहा था. पेट की आग ने सारी परेशानियों का एहसास मिटा दिया था. वह तो बस सोंच रहा था कि कब काम ख़त्म हो और उसे मजदूरी मिले और वह कुछ खा सके. बीच बीच में उसके काम का मुआयना करने वेदा बाहर आती थी. एक निगाह उस पर डाल कर इस नसीहत के साथ भीतर चली जाती कि काम ठीक से करना. बच्चा अपना काम कर रहा था. काम करते हुए उसने नज़र डाली. अभी भी बहुत काम बचा था. वह बैठ कर सुस्ताने लगा. बैठे हुए सोंचने लगा 'आज की मजूरी मिल गई तो घर पर चूल्हा जल सकेगा.' कई दिन हो गए थे उसने ठीक से खाया नही था. उसके बापू भवन निर्मा

नया ज़माना

संदीप स्वयं को आधुनिक मानता था. उसका कहना था कि जैसा ज़माना हो उसके अनुसार ही चलना चाहिए. ज़माने के साथ रफ्तार मिलाने में वह अक्सर यह भी नही सोंचता था कि इसका परिणाम क्या होगा. उसके बड़े भाई अक्सर उसे समझाते थे कि जमाने के हिसाब से चलना तो ठीक है लेकिन बदलते समय के नाम पर सब कुछ सही नही ठहराया जा सकता है. हमें परिणाम सोंच कर कदम बढ़ाना चाहिए. संदीप ने अपने बेटे को पूरी छूट दे रखी थी. वह कहाँ जाता है कब लौटता है इसकी उसको कोई फिक्र नही रहती थी. अक्सर उसका बेटा देर रात घर लौटता था किंतु संदीप उसे कुछ नही कहता था. उसके बड़े भाई ने समझाया कि बच्चों को आज़ादी देना तो ठीक है किंतु उसकी सीमा होनी चाहिए. सीमा से अधिक कुछ भी उचित नही होता है. संदीप का तर्क था कि वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता में यकीन रखता है. उसे अपने बेटे पर पूरा भरोसा है. इसलिए वह उसके जीवन में दखल नही देगा.  एक दिन संदीप के बड़े भाई उसके घर आए हुए थे. दोनों बात कर रहे थे कि संदीप के मोबाइल की घंटी बजी. फोन थाने से आया था. उन्होंने उसे थाने में बुलाया. अपने बड़े भाई को लेकर वह थाने पहुँचा. खबर सुन कर वह सन्न रह गया. उसका बेटा एक र

दुर्घटना

सड़क पर मजमा लगा था. जो भी देखता एक आह निकल आती मुंह से. एक सज्जन बोले "आज कल घर से निकलो तो सही सलामत लौटने की गारंटी नही है." दूसरे सज्जन ने अपनी राय दी "अजी आज की पीढ़ी को ना अपना खयाल है और ना ही दूसरों का. मोटरसाइकिल तो हवाई जहाज की तरह चलाते हैं." कुछ लोग फोन से तस्वीर खींच रहे थे. इन सब के बीच एक जवान लड़का सड़क पर मदद के इंतज़ार में पड़ा तड़प रहा था.

करनी

आज फिर सोमेश देर रात शराब पीकर लौटा. सोमेश का चाल चलन बिगड़ गया था. अपने बीवी बच्चों के प्रति वह लापरवाह हो गया था. यह सब देख कर माथुरजी बहुत दुखी होते थे. कई बार उनकी बहू ने उनसे कहा कि अपने बेटे को समझाएं. लेकिन वह यह नही कर पाते थे. उन्हें अपना अतीत याद आ जाता था. यह उनके बोए बीज ही थे जो अंकुरित हो रहे थे.