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मई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सच की राह

वकालत के पेशे में ह्रदय नारायण ने अभी पहचान बनानी शुरू ही की थी। पर आज जो केस उन्होंने लिया वह चौंकाने वाला था। "सर आपने यह केस क्यों लिया। हारने के बहुत चांस हैं।" उनके सहायक ने सवाल किया। "मुझे उस बूढ़े की आँखों में सच्चाई नज़र आई।"  "लेकिन अदालत सबूत और गवाह के आधार पर फैसला देती है। जिसके खिलाफ आप लड़ने वाले हैं वह बहुत रसूख़दार हैं।" सहायक ने अपनी दलील दी। ह्रदय नारायण कुछ देर सोंच कर बोले "बचपन से पढ़ा है कि सच हमेशा जीतता है। फिर भी हर कोई झूठ का सहारा लेता है। क्योंकी सच की राह कठिन है।" ह्रदय नारायण ने अपने सहायक पर नज़रें टिका कर दृढ़ता से कहा "मैं कठिन राह पर चल कर यह साबित करूँगा कि सच हमेशा जीतता है।"

घुड़चढ़ी

सॉफ्टवेयर इंजीनियर महेंद्र आज दूल्हा बना था। दरवाज़े पर बैंड बाजा बज रहा था। बरात के निकास की तैयारी हो रही थी। बारात विदा हुई। नाचते गाते बाराती पास के मोहल्ले में लड़की के दरवाज़े की तरफ बढ़े।  घोड़ी पर बैठा महेंद्र आने वाले जीवन के सुखद स्वप्न देख रहा था। थोड़ी ही दूर पर बरात रुक गई। हंगामे के बीच महेंद्र को घोड़ी से उतार दिया गया। सॉफ्टवेयर इंजीनियर को समाज के कुछ लोगों ने घोड़ी चढ़ने का अधिकार नहीं दिया था।

मुकाम

कवि उपेंद्र 'मनचला' ने मंच संभाला और अपनी वही पुरानी कविताएं सुनानी आरंभ कीं। हर कविता के बाद करतल ध्वनि से उनका स्वागत हो रहा था। जहाँ भी वह जाते अपनी इन्हीं कविताओं का पिटारा खोल देते। किंतु फिर वह हर जगह उन्हें प्रशंसा मिलती थीं। अतः उन्होंने कई दिनों से कुछ नया लिखा भी नहीं था। उनके बाद एक नवोदित कवियत्री मंच पर आई। आरंभ में तो लोगों ने औपचारिकता वश तालियां बजाईं। बाद में जैसे जैसे कविता पाठ आगे बढ़ा लोगों में उत्साह आ गया। विचारों का नयापन व शब्दों का अचूक चुनाव सुनने योग्य था। करतल ध्वनि से संपूर्ण पंडाल हिल गया। उपेंद्र 'मनचला' को अपना आसन डोलता लगा।

रक्त संगम

रुग्ण माँ शय्या पर लेटी थी। कांतिहीन शरीर पीला पड़ गया था। सभी परेशान थे। वैद्य ने बताया कि रोगाणु इनकी सारी शक्ति हर ले रहे हैं। एक ही उपाय है। यदि विभिन्न प्रकार के रक्त को एकत्र कर माँ को समर्पित किया जाए तो माँ की कांति वापस आ सकती है। विभिन्न रक्त की बूंदें एक पात्र में एकत्र होने लगीं। शीघ्र ही पात्र भर गया। आपसी वैमनस्य, लालच, भ्रष्टाचार आदि के रोगाणुओं को मात देने का उबाल था उस रक्त में। वह रक्त माँ की शिराओं में ओज बन कर दौड़ने लगा। माँ के चेहरे की रक्तिम कांति लौट आई।

निर्मल मन

टैक्सी से उतर कर कुछ देर आदित्य बाबू असमंजस की स्थिति में खड़े रहे। फिर मन को पक्का कर उन्होंने डोरबेल बजाई। दरवाज़ा खुला तो सामने जीतू खड़ा था। अचानक उन्हें सामने देख कर वह भी अचंभित था। तीस साल के बाद दोनों भाई एक दूसरे को देख रहे थे। ज़मीन के एक टुकड़े ने दिलों में दरार डाल दी थी। छियत्तर वर्ष पूरे कर चुके आदित्य बाबू इस पड़ाव में कोई भी भार रखना नहीं चाहते थे। अतः अहम त्याग कर यहाँ आए थे। बड़े भाई के इस प्रयास को जीतू ने भी बेकार नहीं जाने दिया। बढ़ कर उनके पैर छुए और गले लग गया। भीतर जाने से पहले आसुओं ने दोनों के मन निर्मल कर दिए।

सतरंगी

पेंटिंग्स के शौकीन संजय को जहाँ भी किसी प्रदर्शनी का पता चलता पहुँच जाता। कई कलाकारों ने उसे प्रभावित किया था। लेकिन आज जिस कलाकार की प्रदर्शनी लगी थी उसका काम देख कर वह दंग था। हर कैनवास पर जैसे ज़िंदगी पूरे उत्साह से रंग बिखेर रही थी। हर पेंटिंग जीवन की एक हसीन तस्वीर थी। वह उस कलाकार से मिलने की इच्छा से आयोजक के पास पहुँचा।कुछ ही समय बाद वह कलाकार सबके समक्ष था। चेहरे पर चमकती मुस्कान के साथ। दोनों बाज़ू नहीं थे। अपने पैर में पेन फंसा कर लोगों को ऑटोग्राफ दे रहा था।

काला धुआं

"बीजी स्कूल जा रहा हूँ। आज गणित का पर्चा है।" सुखविंदर ने माँ के पैर छूकर कहा। "ध्यान से पर्चा करना। अच्छे नंबर आने चाहिए।" माँ ने सर पर हाथ फेरा। "आएंगे बीजी, तभी तो पापाजी की तरह सेना में जा पाऊँगा।" उसकी माँ ने दीवार पर लटकी पति की तस्वीर को गर्व से देखा। दही चीनी खिला कर बेटे को विदा करने दरवाज़े तक आई।  सुखविंदर अभी घर का आहता पार कर पाया था कि एक गोला आकर गिरा। काले अंधेरे ने उसकी माँ की आँखों के सामने चादर तान दी।

आभासी रिश्ता

           आभासी रिश्ता देवराज ने अपने फेसबुक एकांउट से लॉग आउट कर लैपटॉप रख दिया। खाना बना कर कुक डाइनिंग टेबल पर रख गई थी। ज़ोर की भूख लगी थी। लेकिन अभी तक नहाए नहीं थे। वह नहाने चले गए। इधर बहुत सा समय फेसबुक पर बीत जाता था। पहले वह फेसबुक और दूसरी सोशल साइट्स के पक्ष में नहीं थे। उनका तर्क था कि इस आभासी दुनिया से भी भला कुछ  हासिल हो सकता है। इन सब की वजह से रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं। लेकिन बेटी अक्सर कहती थी "पापा आप सोशल मीडिया पर क्यों नहीं आते। हम आप से आसानी से जुड़ सकते हैं। आप भी दुनिया से जुड़ सकते हैं।" "क्या करना है दुनिया से जुड़ कर। रही बात तुम्हारी तो फोन पर बात हो जाती है।" "एक बार फेसबुक पर एकांउट खोल कर तो देखिए। आप अकेले रहते हैं। लोगों से जुड़ेंगे तो मज़ा आएगा। अच्छा ना लगे तो मत इस्तेमाल कीजिएगा।" पत्नी की मृत्यु बहुत पहले ही हो गई थी। एक बेटी थी। वह भी अपने कैरियर और परिवार में व्यस्त थी। वह अकेले रह गए थे। दोस्तों के साथ कितना वक्त बिता सकते थे। फिर उनके अपने परिवार थे। कई बार मित्रों ने भी उन्हें फेसबुक पर आने क

घर

सारा सामान बंध चुका था। अभय टेंपो लाने गया था। अचानक ही रागिनी का मन गीला गीला सा हो गया। वह बहुत खुश थी कि अपने मकान में जा रही थी। लेकिन इस मकान से जुड़ी यादे सैलाब की तरह मन में उमड़ने लगीं। ब्याह के बाद अभय के साथ वह इसी मकान में आई थी। इसी छत के नीचे उनका रिश्ता उस मुकाम पर पहुँच गया था जहाँ दोनों बिना कहे एक दूसरे को समझ जाते थे। दोनों ने इस मकान को घर बनाया था। टेंपो लेकर अभय आ गया। रागिनी की नम आँखों ने सब हाल बता दिया। उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला "हम दोनों मिल कर उस मकान को भी घर बना लेंगे।" उसकी बात सुन कर रागिनी के होंठों पर मुस्कान आ गई।

रफ़ा दफ़ा

"अब लड़के से गलती हो गई तो क्या उसे जेल जाने दें। फिर क्या फायदा बाप और दादा के राजनीति में होने का।" दिनेशचंद तैश में बोले। अपने राजनैतिक अनुभव के आधार पर उनके पिता ने कहा "अभी अनुभव कम है तुम्हें। थोड़े दिन उससे कहो अपनी हरकतों पर लगाम रखे। कुछ दिन बाद सब ठंडा हो जाएगा। तब सब रफ़ा दफ़ा कर देंगे। अभी राख के नीचे चिंगारी है। उसे ना छेड़ो।" अपनी भूल समझ कर दिनेशचंद ठंडे पड़ गए।

चुनाव

"मैंने तुम्हारे उपन्यास की पांडुलिपि पढ़ी। बहुत अच्छा लिखा है तुमने। एक बार छप जाए तो तहलका मच जाएगा" प्रतिष्ठित लेखक सत्यदेव जी ने उभरते हुए लेखक की तारीफ की। "जी सर ऐसा हो जाए तो मेरी गरीबी भी दूर हो जाए। अब तो बहुत मुश्किल हो गई है।" लेखक ने अपना दुख सुनाया। सत्यदेव जी उठ भीतर चले गए। जब बाहर आए तो बोले "समस्या यह है कि नए लेखकों पर प्रकाशक यकीन नहीं दिखलाते हैं।"  उन्होंने अपनी जेब से पैसे निकाल कर पांडुलिपि के बगल में रख दिए। "चुन लो जो तुम्हें चाहिए।" लेखक के हाथ पांडुलिपि की तरफ बढ़े। तभी बच्चों के चेहरे सामने आ गए। उसने पैसे उठाए और चला गया।

बिछड़ा प्यार

सुप्रिया फर्श पर अपना सर घुटनों पर टिकाए बैठी थीं। पास रखे लैपटॉप पर धवल की मुस्कुराती हुई प्रोफाइल तस्वीर थी। इसी मुस्कान से आकर्षित होकर ही तो उसने उसकी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार की थी। फिर तो मैसेज के ज़रिए बाते होने लगीं। उसके बाद वीडियो चैटिंग और फिर मुलाकातों का दौर आरंभ हुआ।  दोनों ही अनाथ थे। मेहनत से इस मुकाम तक पहुँचे थे। दोनों ने विवाह करने का निश्चय किया। तय किए गए दिन सुप्रिया मंदिर पहुँच कर धवल की प्रतीक्षा करती रही। लेकिन वह नहीं आया। निराश वह अपने वर्किंग वुमन हॉस्टल लौट आई। उसने धवल से संपर्क करने की सारी कोशिशें की। धवल का फोन नहीं लग रहा था। वह उसके पीजी में गई, ऑफिस जाकर पता किया। लेकिन दो दिन हो गए उसकी कोई खबर नहीं मिली।  सुप्रिया भारी मन से ऑफिस जाने की तैयारी करने लगी। तभी एक अन्जान नंबर से फोन आया। इस उम्मीद से कि कहीं धवल ही ना हो उसने फोन उठा लिया। "सुप्रिया....मैं धवल.." "कहाँ हो तुम। मैं कितनी परेशान हूँ।" धवल ने बताया कि उसका  एक्सीडेंट हो गया था। उसने हॉस्पिटल का पता बताया। सुप्रिया भाग कर वहाँ पहुँची। धवल गंभीर रूप से घायल था। उसे देख

कैंडिल लाइट डिनर

हॉस्पिटल के कमरे में पूरी तरह शांति थी। लाइफ सेविंग मशीनों की ध्वनि ही जीवन का संकेत दे रही थी।   अपने जॉब के कारण ईशान और सपना अलग अलग शहरों में पोस्टेड थे। केवल वीकएंड में ही एक दूसरे से मिल पाते थे। दोनों बारी बारी से एक दूसरे के पास जाते थे।  पिछली बार चलने से पहले सपना ने फोन किया था। "बस दो घंटे में पहुँच रही हूँ। क्या तैयारियां की हैं मेरे स्वागत की।" "मैं तो सोंच रहा था कि तुम आओगी तो कुछ स्पेशल बनाओगी।" ईशान ने चिढ़ाया। "मैं आऊँ तो अच्छा सा डिनर मिलना चाहिए। वो भी तुम्हारे हाथ का।" सपना ने आदेश सुनाया। ईशान ने कुकिंग क्लास में सीखे हुनर का प्रयोग कर सपना की पसंदीदा डिश बनाईं। टेबल सजा कर वह एक रोमांटिक कैंडिल लाइट डिनर के लिए तैयार था।  डिनर मेज़ पर ही पड़ा रह गया। सपना को सरप्राइज़ देने के लिए ईशान एक तोहफा लेने गया था। उसकी कार बस से टकरा गई। हॉस्पिटल के कमरे में बैठी सपना कोमा में चले गए ईशान को निहार  रही थी।

नया रिश्ता

"निशा.... सुनो..." वरुण ने पीछे से पुकारा। निशा अपने दोस्तों के साथ थी। उन्हें आगे चलने को कह कर वह वरुण के पास आई। "तुम समझते क्यों नहीं। हमारे बीच अब सब खत्म हो चुका है।" "मैं समझ चुका हूँ। बस एक बात तुम्हे समझना चाहता हूँ। रिश्ते सुविधा से नहीं चलते। वह वफ़ा से मजबूत होते हैं। मोहित के साथ नए रिश्ते की बधाई हो।" वरुण तो चला गया पर निशा स्तब्ध खड़ी रही।

कंजूस

आज देव सिंह की वसीयत पढ़ी जानी थी। उसके बच्चे तथा करीबी लोग उपस्थित थे। देव सिंह सभी के बीच कंजूस के नाम से मशहूर था। सब उसका मज़ाक उड़ाते थे। जीवन भर कष्ट सह कर एक एक पैसा दांत से पकड़ कर रखता था।  बच्चों को उम्मीद थी कि जायदाद उन्हें ही मिलेंगी। हलांकि पिछले पांच सालों में किसी ने भी उसकी सुध नहीं ली थी।  वसीसत पढ़ी गई तो सभी दंग रह गए। अपना मकान वह एक स्वयं सेवी संस्था को दान कर गया था। जहाँ उन अकेले बुज़र्गों को जिनका कोई ठिकाना नहीं हो आसरा मिल सके। अपना बैंक बैलेंस उसने एक ट्रस्ट के सुपुर्द कर दिया था। जिसका प्रयोग गरीब किंतु मेधावी छात्रों की शिक्षा पर होना था।

जेन्टिलमैन

रेलवे प्लेटफार्म पर यात्री गाड़ी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। बेंच पर दो लोग बैठे थे। जींस टीशर्ट पहने एक स्मार्ट सा आदमी। वह अपने मंहगे फोन पर किसी के साथ चैट कर रहा था। दूसरा लगभग उसी की उम्र का एक देहाती था। उसने कंधे पर गमछा डाल रखा था। कमीज़ की जेब में पुराना मामूली फोन था। तभी वहाँ एक गर्भवती महिला आई। स्मार्ट आदमी ने नज़र उठा कर उसे देखा फिर अपने फोन में लग गया। देहाती अपनी जगह से उठा और उस महिला से बोला "बहनजी आप यहाँ बैठ जाओ।" उसने गमछे से वह जगह साफ कर दी। वह खुद जमीन पर अपने बक्से के ऊपर बैठ गया। स्मार्ट आदमी ने एक बार फिर नज़र उठा कर देहाती को देखा। एक वक्र सी मुस्कान बिखेर कर फिर अपने फोन में जुट गया।

घुड़की

पिछले चार दिनों से अम्मा एकदम पस्त थीं। आज तो सबने मान लिया था कि चला चली की बेला बस आ ही गई है। दोनों बेटे आगे क्या करना है इस पर विचार कर रहे थे। बहुएं अम्मा के पास बैठी उस घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थीं। "प्राण बस अटके ही हैं। किसी भी समय चली जाएंगी।" छोटी बहू बोली। कुछ क्षण मौन रहा। फिर बड़ी बहू बोली "बहुत गहना है इनके पास पर कभी किसी को कुछ दिया नहीं। सब दबाए बैठी थीं।" "कितना होगा?'" छोटी बहू ने उत्सुकता दिखाई। "दस तोले से कम सोना नहीं होगा। ठीक है अब आएगा तो हमारे ही पास।" अम्मा की देह में हरकत हुई। आँखें खोल कर बहुओं को देखा। जैसे आँखों से घुड़की दे रही हों।  फिर सदा के लिए आँखें बंद कर लीं।

पुण्यतिथि

जब दिशा और निशा धर में घुसीं तो उनकी बुआ आँखों में आंसू भरे बैठी थीं।  'क्या हुआ बुआ रो क्यों रही हो?" निशा ने धबरा कर पूंछा। "आज तुम्हारे फूफा जी की पुण्यतिथि है। इसलिए हवन रखवाया था। उसके बाद गरीबों को खाना खिलाना था। कुछ ही घंटे बचे हैं और कोई तैयारी नहीं हुई।" "बस इतनी सी बात। आप घबराओ नहीं हम दोनों सब कर लेंगे।" दिशा ने ढांढस बंधाया। दोनों बहनें फौरन तैयारी में जुट गईं। दिशा सामान की लिस्ट लेकर बाजार चली गई। निशा घर की व्यवस्था देखने लगी। उन दोनों का उत्साह देख कर बुआ जी में भी स्फूर्ति आ गई।

पानी की जात

पिंकी बर्तन पकड़े चुपचाप अपनी अम्मा के पीछे चल रही थी। आज फिर पानी लाने के चक्कर में उसका स्कूल छूट गया। एक जगह जब अम्मा और बाकी की औरतें आराम करने के लिए रुकीं तो उसने पूंछा "अम्मा गांव में तालाब है तो हम इतनी दूर चल कर पानी लेने क्यों जाते हैं।" उसके सवाल पर अम्मा ने जवाब दिया "बिटिया वह हमारे लिए नहीं है। वह बड़ी जात के लोगों का पानी है।" "पानी की भी जात होती है क्या? स्कूल में टीचर दीदी तो कहती हैं कि भगवान की बनाई चीज़ पर सबका बराबर का अधिकार होता है। पानी तो भगवान बरसाते हैं ना।"  "वो सब हमको नहीं पता। हम तो जनम से यही देखे हैं। उनका पानी अलग है और हमारा अलग।" कह कर अम्मा और बाकी औरतें चलने लगीं। पिंकी भी पीछे चल पड़ी। पर उसके मन में यह सवाल हलचल मचा रहा था कि पानी की जात कैसे पता चलती है।

सुबह का भूला

नितिन रेस्त्रां में बैठा प्रतीक्षा कर रहा था। कुछ ही देर में प्रोफेसर दिनकर आ गए। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो चौंक गए। प्रोफेसर की आँखों में नितिन का काला अतीत झलकने लगा। नितिन पाँच साल पीछे चला गया। कॉलेज खत्म होने के बाद जब नितिन आगे क्या करना है सोंच रहा था तभी वह गलत संगत में पड़ गया। वह नशा करने लगा। कुछ समय तक परिवार वालों ने उसे समझाने का प्रयास किया। फिर इसे किस्मत का लिखा मान कर उसके हाल पर छोड़ दिया। एक दिन ऐसा भी आया जब नशे की तलब पूरी करने के लिए उसने पहली बार गुनाह की गली में कदम रखा। लेकिन नितिन की खुशकिस्मती थी कि जिस शख्स का बैग छीनने की उसने कोशिश की थी वह एक भला आदमी था। नितिन को गुनाह की गली में भटकता छोड़ने की जगह उसे सही मंज़िल की तरफ ले गया। नितिन को उसके घर वालों की सहमति से ऐसी संस्था में भर्ती करा दिया जहाँ भटके हुए युवकों को सही राह दिखाई जाती थी। उस वक्त उस फरिश्ते का नाम भी नहीं पूंछा था। आज वही प्रोफेसर दिनकर उसके सामने बैठे थे। वह उसकी तरफ देख रहे थे। "तुम बैंक में पीओ हो।" "जी सर दो महीने पहले ही पोस्टिंग मिली है।" "क्या चाहते ह

अंक तालिका

"तुमने इस स्कूव में दाखिला क्यों लिया। यहाँ पढ़ाई नहीं होती है।" राजेश ने अपने चचेरे भाई विपिन से कहा। "पता है। पर इस स्कूल के मालिक की ऊपर तक पहुँच है। बोर्ड परीक्षा में अच्छे नंबर मिलने की गारंटी है।" विपिन शान से बोला। राजेश उसकी बात का मतलब समझ गया।  "पर तुम्हारा ज्ञान तो अधूरा रहेगा।" "ज्ञान देखता कौन है। काम तो अच्छे नंबर आते हैं।" विपिन गर्व से बोला।

नोटिस

"अगर तुम्हें यही सब करना है तो मेरे घर से निकल जाओ।"  अपने पती के यह शब्द गायत्री को पत्थर की तरह चोट पहुँचा गए। पच्चीस साल दिए थे उसने इस गृहस्ती को।  वह इसे अपना घर समझती थी। लेकिन वह गलत थी। दरअसल वह तो किराएदार थी। जब तक उसने अपने अस्तित्व का बलिदान देकर चुपचाप सब सह कर किराया चुकाया उसे रहने दिया गया। पर जब उसने अपने अस्तित्व का बलिदान देने से मना कर दिया  तब  उसे मकान खाली करने का नोटिस मिल गया।

बदमाश लोग

"सर कैश और गहने मिलाकर कोई तीन लाख के आसपास का सामान चोरी हो गया।" विनय ने इंस्पेक्टर को नुकसान का अंदाज़ बताया।  "इतना गहना घर में क्यों रखा था।" इंस्पेक्टर ने सवाल किया। "जी कुछ दिन पहले परिवार में शादी थी। वापस लॉकर में रखने की फुर्सत नहीं मिल रही थी।" "किसी पर शक।"  "अब हम शरीफ़ों के मोहल्ले में इन बदमाशों ने डेरा जमा लिया है।" विनय ने सड़क पार फुटपाथ पर बने झोपड़े की ओर इशारा किया। "चाचाजी सही कह रहे हैं। यही बदमाश होंगे इसके पीछे।" साथ खड़े एक जवान लड़के ने कहा। इंस्पेक्टर ने उसका परिचय पूंछा तो विनय बोला "जी मेरा भतीजा है। हमारे साथ रह कर पढ़ रहा है। कल इसके दोस्त की बहन की शादी थी। हमारे साथ यह भी निकल गया था। सुबह हमारे बाद लौटा है।" तभी एक हवलदार आकर इंस्पेक्टर से बोला "जो सेफ तोड़ी गई उसके पीछे यह मोबाइल गिरा पड़ा था।" मोबाइल देखते ही विनय चौंक गया। यह उसके भतीजे का था। उसे अच्छी तरह याद था कल निकलते समय मोबाइल उसके पास ही था। पास खड़े भतीजे का रंग उड़ा हुआ था।

शहीद

कमला ने सारे आवश्यक कागज़ात लिए और निकलने की तैयारी करने लगी। अपने बेटे के अंतिम भुगतान लेने के लिए उसे ही कोशिश करनी थी। उसे याद है जब उसके शहीद बेटे का शव तिरंगे में लिपटा हुआ घर आया था तब सारा शहर उसे अंतिम विदाई देने उमड़ पड़ा था। सरकारी मदद का आश्वासन मिला था। उस गहरे दुख की घड़ी में उसे लगा था जैसे वह अकेली नहीं है। लेकिन धीरे धीरे सब उसे एक घटना समझ कर भूल गए। अब तो उसे इस सच्चाई का अकेले ही सामना करना है। उसने घर में ताला लगाया और हिम्मत कर निकल पड़ी।