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नवंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सैलाब

लेखक उग्र की नई किताब सैलाब के लिए उन्हें सम्मानित किया जा रहा था. सभी तरफ उसकी तारीफ कर रहे थे. इस गहमा गहमी के बीच वह अपने जीवन के विषय में विचार करने लगे. एक छोटे से गांव में पिछड़े वर्ग के एक गरीब परिवार में उनका जन्म हुआ था. समाज के भेदभाव पूर्ण रवैये ने जो अपमान एवं तिरस्कार दिया उसने मन में एक पीड़ा को जन्म दिया. किंतु इस पीड़ा से उपजे आंसुओं को उन्होंने अपने ह्रदय में जज़्ब कर लिया. अपने विचारों की भट्टी में तपाया. इसी का परिणाम था कि उनकी लेखनी उनके जैसे अनेक शोषित लोगों की आवाज़ बन गई. जो आज वह सैलाब लेकर आई थी जो समाज में परिवर्तन को जन्म देगा.

ए.टी.एम

महेश जैसे ही घर में घुसा माँ ने सवाल दागा "मेरी चार धाम यात्रा का कोई इंतजाम हुआ कि नहीं." महेश ने थके हुए स्वर में कहा "अभी नहीं माँ. मैं कोशिश कर रहा हूँ. पर इधर खर्चे इतने हैं कि कुछ हो नहीं पा रहा है." उसकी माँ साड़ी के पल्ले से अपनी आँखें पोंछती हुई बोली "जीवन खपा दिया कि तुम कुछ बन सको. अब छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं हो सकती." यह कह कर वह अपने कमरे में चली गईं.  महेश आँखें मूंद कर बैठ गया. तभी पत्नी पानी लेकर आई. उसके बगल में बैठते हुए बोली "मेरी बरेली वाली मौसी का फोन आया था. बीस तारीख को उनके बेटे की शादी है. जाना पड़ेगा." "तो चली जाना." महेश ने आँखें मूंदे हुए कहा. "चली जाना का क्या मतलब. मेरे और बच्चों के लिए नए कपड़े खरीदने पड़ेंगे. फिर वहाँ कुछ भेंट भी देनी होगी." पत्नी ने फरमाइश की. "इन सब पर तो बहुत खर्च हो जाएगा. पैसे कहाँ हैं. माँ भी तीर्थ पर ना जाने के कारण नाराज हैं." महेश ने अपनी परेशानी बताई. पत्नी तुनक कर बोली "जब देखो पैसों का रोना रोते हो. मैं क्या सारी जिंदगी अपनी इच्छाएं मार कर रहूँगी.&q

बचत

बबलू ने ददाजी के कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाई. सब कुछ व्यवस्थित हो गया था. दादाजी के लिखने पढ़ने की मेज़ पर सब सामान करीने से लगा था. उनकी पसंदीदा किताबें अलमारी में सही प्रकार से सजी थीं. अपने काम से बबलू  मन ही मन संतुष्ट था. अब केवल गमलों में पानी देना बाकी था. वह पौधों को पानी देने के लिए चला गया. दादाजी का बेटा और बहू विदेश में रहते थे. पत्नी को गुजरे कई साल बीत गए थे. गांव में उनकी कुछ खेती थी. जिसे उन्होंने बटाई पर दे रखा था. इसी बहाने साल में कुछ दिन गांव के खुले वातावरण बिता आते थे.  दो बरस पहले जब वह गांव गए थे तब बबलू को अपने साथ ले आए थे. उनका अकेलापन भी दूर हो गया था और छोटे मोटे काम भी हो जाते थे.  बबलू के पिता खेत मजदूर थे. सर पर बहुत कर्ज़ था. इसलिए यह सोंच कर कि उन्हें कुछ मदद मिल जाएगी उसके पिता ने उसे ददाजी के साथ भेज दिया था.  बबलू जब आया था तब उसकी छोटी बहन केवल चार माह की थी. हर बार जब उसके पिता उसकी पगार लेने आते थे तो वह उनसे उसके बारे में ढेरों सवाल पूंछता था. मन ही मन वह कैसी दिखती होगी उसकी कल्पना करता रहता था. अपनी बहन को वह बहुत चाहता था.  ददाजी जब बाहर

मौन बर्फ

पुलिस हिरासत में बैठी दीप्ती पूर्णतया मौन थी. उसके भीतर का तूफान थम चुका था. उसने जो किया उसके लिए उसे कोई अफसोस नहीं था. वह अपने पिछले जीवन के बारे में सोंचने लगी. वह बी. ए. के अंतिम वर्ष में थी जब दिलीप ने एक विवाह समारोह में उसे देखा था. पहली ही नज़र में वह उसे पसंद करने लगा था. दोनों के बीच मुलाकातों का दौर शुरू हो गया. हर मुलाकात उन्हें एक दूसरे के और करीब ले आती थी. दोनों ने विवाह करने का निश्चय किया. दिलीप का इस दुनिया में कोई नहीं था. अतः उसने स्वयं ही दीप्ती के माता पिता से दोनों के रिश्ते की बात चलाई. उसकी सौम्यता दीप्ती के पिता को बहुत अच्छी लगी. बिजनेस भी अच्छा चल रहा था. अतः दीप्ती के माता पिता ने उनके विवाह के लिए हाँ कर दी.  दीप्ती और दिलीप ने मिलकर खुशियों भरा एक संसार बसाया. दिलीप उसे पलकों पर बिठा कर रखता था. उसकी हर ख़्वाहिश पूरी करता था. उनके इस खूबसूरत संसार में उनकी बेटी परी के प्रवेश से माहौल और भी ख़ुशनुमा हो गया. इस तरह का सुखपूर्वक दस साल बीत गए. किंतु उनकी खुशियों को अचानक जैसे किसी की नज़र लग गई. एक बिजनेस टूर से लौटते हुए सड़क हादसे में दिलीप की मृत्यु

वान्यप्रस्थ

गुप्ता जी का मन दुखी था. चालीस साल जिसका साथ निभाय वह भी आज उन्हें गलत ठहरा रही थी. वह सोंच रहे थे उन्होंने कुछ अनुचित तो नहीं कहा था. उनका जीवन बहुत संघर्षमय रहा. बहुत कष्ट झेल कर पाई पाई बचा कर यह सब संजोया था. बेटे का बिना सोंचे समझे खर्च करना उन्हें ठीक नहीं लगा. अतः पिता होने के नाते उन्होंने समझाया  "बेटा ज़रा सोंच समझ कर खर्च किया करो. पैसा बड़ी मुश्किल से आता है किंतु जाता बहुत आसानी से है." "देखिए पापा मैं कोई बच्चा नहीं हूँ. मैं भी सब समझता हूँ. आप प्लीज़ यह लेक्चर मत दिया करिए." बेटे ने झल्लाकर कहा और वहाँ से चला गया. गुप्ता जी आवाक रह गए. उन्होंने पास बैठी पत्नी से कहा "देखो तो यह कैसे बोल रहा है." "आप भी तो समझने का प्रयास नहीं करते हैं. इस उम्र मे शांति से जीवन बिताने की बजाया बच्चों के जीवन में बेमतलब दखलंदाज़ी करते हैं." पत्नी ने शब्दों के तीर चलाते हुए कहा.

कठफोड़वा

सूरज दूसरी बार भी पुलिस की भर्ती परीक्षा में पास नहीं हो सका. भाभी के तंज और आस पड़ोस के बेवजह सवालों से वह तंग आ गया था. हताशा उस पर हावी हो गई थी. उसने मन बना लिया कि अब वह और प्रयास नहीं करेगा. सोंचने लगा यदि माँ जीवित होती तो उसके दुखी मन को सांत्वना देती. पर माँ को गुज़रे तो कई साल बीत गए.  अपने परेशान मन को शांत करने के लिए वह  नदी किनारे आकर बैठ गया. मंद पवन के झोंके बहुत सुखद लग रहे थे. उसे लगा जैसे माँ उसके माथे को थीरे धीरे सहला रही हो. उसे झपकी लग गई.  कुछ झणों के पास जब वह जागा तो उसने देखा कि एक कठफोड़वा पेड़ के तने पर लगातार चोंच से प्रहार कर रहा था. उसके मन में विचार आया कि प्रकृति ने भी कैसे कैसे जीव बनाए हैं. लगातार प्रयास से यह पक्षी तने में छेद कर अपना घोंसला बनाएगा. वह प्रकृति की इस आश्चर्यजनक रचना पर मुग्ध था. तभी मन से आवाज़ आई 'तुम तो दूसरे प्रयास में ही हार मान गए.' मन की सारी हताशा दूर हो गई. अब उसे किसी के तानों या उपहास की परवाह नहीं थी. एक इरादे के साथ वह उठा और अपना मस्तक भूमि पर लगा कर प्रकृति माँ को प्रणाम किया.

भटकाव

जतिन ने माइक्रोवेव में खाना गर्म किया और डाइनिंग टेबल में बैठ कर खाने लगा. इस तरह अकेले खाते हुए उसे अच्छा नहीं लग रहा था.  इधर कुछ महीनों से उसे अपना अकेलापन बहुत खलने लगा था. वह अपने जीवन के बारे में सोंचने लगा. जवानी में उसने कभी भी अपने जीवन में एक साथी की कमी को महसूस नहीं किया था. वह अपने में ही मस्त था. उसे लगता था कि जीवन का आनंद एक जगह ठहरने में नहीं बल्की भ्रमर की तरह एक फूल से दूसरे फूल पर मंडराने में है. इस बीच उसके ना जाने कितने प्रेम प्रसंग हुए किंतु वह किसी भी रिश्ते को लेकर गंभीर नहीं रहा.  उन्हीं दिनों में जया उसके जीवन में आई. वह बहुत ही सौम्य और सादगी पसंद थी. उसकी सादगी में एक आकर्षण था. जतिन उसकी खूबसूरती का दीवाना हो गया. जया  उसकी ही कंपनी में काम करती थी. वह इस रिश्ते को लेकर गंभीर थी और उसे एक मुकाम तक ले जाना चाहती थी. लेकिन जतिन का चंचल मन फिर भटकने लगा था. इस बात से जया बहुत आहत हुई. उसने वह नौकरी छोड़ दी और दूसरे शहर में चली गई. जतिन का भटकना जारी रहा. वह किसी भी रिश्ते में अधिक नहीं ठहरता था. उसके मित्रों व शुभचिंतकों ने समझाना चाहा कि यह भटकन उसे एकाकीपन

असहजता

दरवाज़ा खोलते ही सोनल ने सामने पापा को देखा तो उनकी छाती से लग गई. पापा उसके इस नए फ्लैट में पहली बार आए थे. चाय नाश्ते के बाद वह उन्हें पूरा फ्लैट दिखाने लगी. फ्लैट दिखाते हुए वह बड़े उत्साह के साथ सभी चीज़ों का बखान कर रही. फ्लैट दिखा लेने के बाद उसने मेड को डिनर के लिए कुछ आदेश दिए फिर बैठ कर पापा के साथ बातें करने लगी. बातें करते हुए उसके पापा ने पूंछा "अभी तक दामाद जी घर नही आए." "पापा बिज़नेस इतना बढ़ गया है कि कई बार ऑफिस में ही रुकना पड़ता है." सोनल ने सफाई दी. उसके पापा ने आगे बढ़ कर उसके सर पर हाथ रख दिया. कुछ क्षणों तक पिता पुत्री खामोश रहे. "अभी तुम्हारे पापा हैं." उसके पापा ने स्नेहपूर्वक कहा. सोनल की आंखें नम हो गईं.

बस नं. 13

बस के रुकते ही सभी जो रोज़ इस स्टॉप से चढ़ते थे चढ़ गए. किंतु वह आज भी नहीं आई. सोम सोंच में पड़ गया. आखिर क्या बात है. इधर करीब पंद्रह दिन से वह नहीं आ रही थी.  जहाँ से वह बस पकड़ता था उसके एक स्टॉप आगे से वह भी बस में बैठती थी पर दोनों एक ही स्टॉप पर उतरते थे. पिछले तीन माह से यही रुटीन था. वह देखने में उसकी छोटी बहन जैसी लगती थी. इसलिए एक बार उसने उसका नाम पूँछा था. उसने बताया था कि उसका नाम मुस्कान है और वह सातवी कक्षा में पढ़ती है. इधर दो तीन दिन से सोम उसके बारे में सोंच रहा था. उसने स्वयं को समझाया 'क्यों परेशान होते हो. कुछ भी हो तुम्हें क्या.' पर मन नहीं मान रहा था. उसका ध्यान बार बार उधर ही जा रहा था. सोम अपने स्टॉप पर उतरा तो उसे वह लड़की दिखी जो अक्सर मुस्कान को यहीं पर मिलती थी. सोम ने आवाज़ देकर उसे रोका. "वह लड़की जो इस बस से उतरती थी और...." "आप शायद मुस्कान की बात कर रहे हैं." उसकी बात बीच में ही काट कर वह बोली. "हाँ मुस्कान आज कल स्कूल नहीं आ रही है क्या." सोम ने जिज्ञासा दिखाई. "मुस्कान अब इस दुनिया में नहीं है. स्कूल से लौ

ठेकेदार

जमुना जैसे ही कोठरी में घुसी तो सामने जो देखा उसके पांव उसका बोझ नहीं संभाल पाए. वह निढाल होकर फर्श पर बैठ गई. सामने चारपाई पर उसके पति की लाश पड़ी थी. उसके मुंह से झाग निकल रहा था. अपनी मेहनत से अनाज पैदा करने वाला किसान हालातों की तल्ख़ी वह सह नहीं सका.  चुनाव के मौसम में यह बात तेजी से फैल गई.  जमुना के घर के बाहर मीडिया का मजमा लग गया. कई पार्टियों के नेता उसके दुख में साथ खड़े होने का दावा कर रहे थे. सरकार तथा प्रतिपक्ष के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा था. जमुना के दुख से स्वयं को जोड़ने की एक होड़ सी लगी थी. इन सब के बीच जमुना अपने आने वाले कठिन जीवन को लेकर चिंतित थी.

मुठ्ठी की रेत

बाबूजी अपना चश्मा ढूंढ़ रहे थे. उन्होंने नौकरानी से पूंछा तो वह हंसते हुए बोली "यह क्या आपके गले में लटक रहा है." उनकी भूलने की आदत की वजह से ही बहू ने दोनों कमानियों पर डोरी बांध दी थी कि चश्मा गले में पड़ा रहेगा. इधर उधर नहीं होगा. लेकिन उन्हें यह भी याद नहीं रहा. वह अखबार लेकर बैठे तो बेसन भूने जाने की सोंधी खुशबू ने उनका ध्यान भटका दिया. बहू बेसन के लड्डू बना रही थी. डायबिटीज़, ब्लडप्रेशर आदि के कारण वह यह सब नहीं खा सकते थे. मन में एक टीस सी उठी. खाने के कितने शौकीन थे वह. पत्नी से नित नई चीज़ों की फरमाइश करते रहते थे. पर अब तो पाचन शक्ति  भी वैसी नहीं रही. खाने पीने में ज़रा सी गड़बड़ी स्वास्थ पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है. उन्होंने अपना मन अखबार में लगाने का प्रयास किया. वही पुरानी खबरें. दिन पर दिन छोटे होते अक्षर भी अब पढ़ने में मुश्किल पैदा करते थे. उन्होंने अखबार बंद करके रख दिया. अपने कमरे में आकर बैठ गए. कल से भीतर का साहित्य प्रेमी जोर मार रहा था. किताबों से भरी अलमारी गवाह थी कि पढ़ने का कितना शौक था उन्हें. वह उठे और किताबों पर नज़र डालने लगे. उनकी निगाह जयशंकर

निर्मल प्रेम

चार साल का रोहित बहुत दुखी था. बहुत समझाने पर भी ना तो वह कुछ खाने को तैयार था और ना ही दूध पी रहा था. वह रट लगाए हुए था कि मम्मी को बुलाओ.  अपने बेटे की यह स्थिति देख कर वासू का कलेजा फटा जा रहा था. समझ नहीं पा रहा था कि उसे कैसे मनाए. उस मासूम को यह बताने की हिम्मत उसमें नहीं थी कि अब उसकी मम्मी कभी वापस नहीं आ सकेगी. वासू ने लाचारी के भाव से अपनी बड़ी बहन की ओर देखा. अपने भाई को इस विकट परिस्थिति में देख कर वासू की बहन ने रोहित को अपनी गोद में बैठा कर प्यार से समझाया "बेटा मम्मी बहुत दूर आसमान में भगवान के पास चली गई हैं. अब वह वहाँ से ही तुम्हें देखेंगी. तुम कुछ खाओगे नहीं तो उन्हें बहुत दुख होगा." अपनी बुआ की बात सुन कर रोहित कुछ देर सोंचता रहा. फिर भाग कर बॉलकनी में गया और आसमान की तरफ देख कर बोला "मम्मी तुम दुखी मत होना. मैं अभी जाकर खाना खा लेता हूँ." तभी आसमान से बूंदें गिरने लगीं. शायद आसमान का दिल भी भर आया.

आत्मिक सुख

बसेसर कुछ देर अपने आराध्य कान्हा जी के भजन गाने के इरादे से ढोलक लेकर बैठा ही था कि किसी ने दरवाज़ा खटखटाया. वह उठ कर गया तो सामने उसका मित्र गंगाधर खड़ा था. "आओ भीतर आओ बहुत बाद दिखे." बसेसर ने उसे अंदर बुलाते हुए कहा. गंगाधर फर्श पर बिछी चटाई पर बैठ गया. वह चिंतित दिख रहा था. उसके पास बैठते हुए बसेसर ने पूँछा "क्या बात है भाई बहुत परेशान दिख रहे हो." "मैं बहुत उम्मीद से तुम्हारे पास आया हूँ. मेरी बेटी के कॉलेज के दाखिले के लिए मुझे बीस हजार रुपयों की ज़रूरत थी." गंगाधर ने हाथ जोड़ कर कहा "मैंने अपने भाई से कहा था पर आखिरी वक्त में वह मुकर गया. परसों फीस भरने की अंतिम तिथि है." बसेसर उसे कुछ देर बैठने को कह कर भीतर चला गया. जब वह लौटा तो उसके हाथ में एक पैकेट था.  "गिन कर देख लो पूरे बीस हजार हैं." गंगाधर ने सजल नेत्रों से कहा "तुम्हारा बहुत उपकार. तुम ना होते तो बेटी का दाखिला ना हो पाता." उसे धन्यवाद देकर गंगाधर चला गया.  बसेसर ढोलक बजा कर पूरी तल्लीनता से कृष्ण भक्ति के गीत गाने लगा. कल सुबह ही उसे बांके बिहारी के धाम के

दंश

दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के कारण सुदीप करीब डेढ़ महीने बाद स्कूल आया था. इस बीच उसकी पढ़ाई का बहुत नुकसान हो गया था. स्कूल आने के बाद उसे पता चला कि बीस दिनों के बाद ही फाइनल एग्ज़ाम होने वाले हैं. वह बहुत परेशान था कि कैसे वह छूटा हुआ कोर्स पूरा करेगा. इतने दिनों में वह कुछ भी नहीं पढ़ सका. पहले का पढ़ा भी दोहराना पड़ेगा. रीसेस के समय उसे उदास देख कर उसका सहपाठी विनय उसके पास आया और उसे पूरी सहायता देने का आश्वासन दिया. अपने वादे के मुताबिक विनय ने ना सिर्फ छूटे हुए नोट्स पूरे करवाये  बल्कि मुश्किल हिस्सों को समझने में भी सहायता की. विनय का सहयोग मिलने के कारण ही सुदीप परीक्षा में बैठ सका. जिस दिन परीक्षाएं समाप्त हुईं सुदीप ने  विनय को धन्यवाद दिया. विनय ने उसे गले लगाते हुए कहा "एक दूसरे के काम आना ही इंसानियत है." रिज़ल्ट वाले दिन सबको उम्मीद थी कि हमेशा की तरह विनय ही कक्षा में प्रथम आएगा. किंतु नतीजा सब को चौंकाने वाला था. इस बार सुदीप बाज़ी मार ले गया था. सब विनय को छोड़ सुदीप को बधाइयां दे रहे थे. सब से पीछा छुड़ा कर सुदीप विनय के पास आया और बोला "अगर तुम साथ ना द

टिक टिक टिक

वैभव खिड़की पर खड़ा बाहर देख रहा था. विमला कमरे में आई तो देखा कि चाय टेबल पर रखी हुई ठंडी हो गई थी. उसने धीरे से वैभव के कंधे पर हाथ रखा. दोनों ख़ामोश खड़े एक दूसरे की पीड़ा को समझ रहे थे. वैभव ने अपने भविष्य की योजनाएं बनाई थीं. इस साल बेटी दसवीं कक्षा  में थी. अपने कैरियर को लेकर वह पूर्णतया स्पष्ट थी. उसके कैरियर के लिए  पैसों की व्यवस्था कैसे करनी है फ्लैट की किश्तें कैसे चुकानी हैं इन सब के बारे में उसने सोंच लिया था. वह बहुत खुश था. सब कुछ उसकी योजना के मुताबिक ही चल रहा था. पर बीते कुछ दिनों से स्वास्थ कुछ ठीक नहीं था. पहले तो उसने सोंचा कि मौसम के बदलाव के कारण ऐसा हो रहा है. पर जब परेशानी बढ़ गई तो उसने अपने फैमिली डॉक्टर को दिखाया. उनके इलाज से भी जब कोई फायदा नही हुआ तो डॉक्टर ने उसे विशेषज्ञ के पास भेज दिया. विशेषज्ञ ने कई सारे टेस्ट करवाए. विमला घबरा गई. वैभव ने तसल्ली दी "तुम तो यूं ही परेशान हो जाती हो. देखना सब ठीक होगा." रिपोर्ट अच्छी खबर लेकर नहीं आई. रिपोर्ट देख कर विमला रोने लगी..वैभव ने भर्राई हुई आवाज़ में पूँछा "डॉक्टर साहब कितना समय है मेर

छट व्रती

शारदा छट पर्व की तैयारी में लगी थी. बीस वर्ष पू्र्व जब वह ब्याह कर आई थी तो उसकी सास ने व्रत का दायित्व उसे सौंप दिया था. तब से वह पूरे नियम कर्म से छट का व्रत कर रही थी. आंगन में बैठी उसकी सास छट मइया का गुणगान करते गीत गा रही थी. सारे घर में चहल पहल थी. सभी प्रसन्न थे. खुश तो उसकी बेटी विभा भी लग रही थी पर माँ होने के नाते शारदा उसके मन का दर्द समझ रही थी. अभी उन्नीस की हुई थी कि उसकी पढ़ाई छुड़वा कर ब्याह पक्का कर दिया गया. कुछ महीनों बाद ही ब्याह था. पर विभा आगे पढ़ना चाहती थी. अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी. उसने विरोध किया किंतु किसी ने उसकी नहीं सुनी. उसकी सारी इच्छाएं उसके मन में दब कर रह गई थीं.  शारदा ने विभा को पास बैठा कर प्यार से पूंछा "बिटिया मन में उदास होने से क्या फायदा. औरत की अपनी मर्ज़ी नहीं चलती. उसे तो वही करना पड़ता है जो घर वाले चाहते हैं." "अजीब है ना अम्मा सृष्टि के छटे अंश के रूप में छट माता को पूजते हैं किंतु औरत की इच्छा को कोई महत्व नहीं देते." यह कहते हुए विभा के चेहरे पर जो क्षोभ था वह शारदा के मन को चीर गया. इस बार भी शारदा ने पूर

बेबसी

बर्थ डे केक देखते ही मयंक की आंखें चमक उठीं. राजीव ने उसका माथा चूम कर उसे बर्थ डे की मुबारकबाद दी. नर्स वार्ड ब्वाय तथा अन्य डॉक्टर भी कमरे में आ गए. सभी की उपस्थिति में मयंक ने केक काटा. उसे बधाई देकर सभी अपने अपने काम पर चले गए. उसके पास बैठते हुए राजीव ने कहा "नर्स आंटी बता रही थीं कि तुम दवा लेने में बहुत नखरे करते हो."  मयंक ने कोई जवाब नहीं दिया. "अगर दवा नहीं खाओगे तो ठीक कैसे होगे." मयंक ने अपनी आंखें उसके चेहरे पर जमा दीं "पापा क्या मैं सच में ठीक हो पाऊंगा." यह प्रश्न राजीव का कलेजा चीर गया. एक विख्यात डॉक्टर होते हुए भी वह कैंसर के सामने कितना मजबूर था. पर उसने अपनी पीड़ा छिपा कर मयंक को आश्वासन दिया "बिल्कुल ठीक हो जाओगे ."

सासू माँ

"ये क्या मम्मीजी आपने चाय नहीं पी." अनीता जी की बहू ने उनसे पूँछा.  "मैं ठंडी चाय नहीं पीती. इसे ले जाओ." अनीता जी ने रुष्ट स्वर में कहा. बहू बिना कुछ बोले चाय का प्याला लेकर चली गई. अनीता को पता था कि बहू गर्म चाय ही लेकर आई थी. जिसे उन्होंने जानबूझ कर नहीं पिया. अपनी बहू को परेशान करने का यह उनका तरीका था.  बेटे ने उनकी चुनी हुई लड़की के बजाय अपनी पसंद से शादी की. तब से अनीता नाराज़ थी. अपना सारा क्रोध बहू पर निकालती थी. हर समय उसके काम में कमियां निकालती रहती थी.  उनके सारे तानों को बहू चुपचाप सह लेती थी. वह कोई दब्बू नहीं थी. उसकी सोंच थी कि इस तरह वह अपने प्रति उनकी सोंच को बदल देगी. अतः अनीता जितनी उग्र होती बहू उतनी ही विनम्र बन जाती. इस बात से अनीता और चिढ़ जाती थी. एक दिन आंगन में चलते हुए अनीता का पैर फिसल गया. कमर में गहरी चोट आ गई. डॉक्टर ने कुछ दिन तक हिलने डुलने को भी मना कर दिया. सारा काम बिस्तर पर ही होता था. बेटा उनकी सेवा करता था किंतु कुछ काम ऐसे थे जिसमें बहू ही मदद कर सकती थी. बहू पूरे मनोयोग से उनकी सेवा करती थी. बहू के इस सेवा भाव को देख कर अ

मार्गदर्शन

राहुल बहुत परेशान था. यहाँ भी कोई बात नही बन पाई. कितने सपने लेकर यहाँ आया था. सोंचा था इस इंडस्ट्री में अपना नाम बनाएगा. उसमें प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी. बस एक रोल मिल जाए तो वह स्वयं को साबित कर देगा. साल भर पहले जो जमा पूँजी लेकर आया था वह खत्म हो गई. एक रेस्त्रां में वेटर का काम कर जैसे तैसे गुजर कर रहा था. हाथ हमेशा तंग ही रहते थे.  दूर से उसे बस दिखाई दी वह तेजी से भागा. किंतु उसके पहुँचने से पहले ही वह आगे बढ़ गई. हताश वह अगली बस का इंतज़ार करने लगा. तभी उसकी निगाह नीचे गिरे एक वॉलेट पर पड़ी. उसने इधर उधर देखा फिर उसे उठा लिया. वॉलेट में पैसे थे. कुछ दिन आराम से कट सकते थे. उसके मन में लालच आ गया. वह उसे जेब में रखने ही वाला था कि तभी उसे लगा जैसे उसकी स्वर्गीय माँ उसके सामने खड़ी हों. 'जो मुश्किल में पथभ्रष्ट हो जाए वह कभी मंज़िल नहीं पाता.'  माँ की दी हुई सीख उसके कानों में गूंजने लगी.  वह संभल गया. वॉलेट में एक पहचान पत्र था. उसने तय कर लिया कि वह यह वॉलेट उसके मालिक को लौटा देगा.

कोरे विचार

पंडाल खचाखच भरा था. आचार्य जी भागवत कथा कह रहे थे. कथा के बीच में त्याग और वैराग्य, आत्म नियंत्रण, संतोष जैसी ज्ञान से भरी बातें भी बता रहे थे. सभी ध्यान से सुन रहे थे. श्रोताओं में एक बुज़ुर्ग दंपति भी थे. अगले माह वह अपने वैवाहिक जीवन के पचासवें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे. पत्नी के मन में विचार आया कि क्यों ना इस शुभ अवसर पर भागवत कथा कराई जाए. पति भी उनके सुझाव से सहमत हो गए. किसी ने बताया कि इस सिलसिले में आचार्य जी के शिष्य से मिलें. आचार्य जी के शिष्य ने उनकी डायरी देखते हुए कहा "जो तारीख आप बता रही हैं उस पर तो आचार्य जी का कार्यक्रम निश्चित है. किंतु आप एक महत्वपूर्ण अवसर पर कथा कराना चाहती हैं तो यदि आप तय फीस से दस प्रतिशत अधिक देने को तैयार हों तो उस समय आपके यहाँ कथा हो सकती है." दंपति ने उन्हें नमस्कार किया और चुपचाप वहाँ से चले गए.