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संदेश

अक्तूबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रात

दूर तक फैली सरहद. अंधेरे में पूरी मुस्तैदी से उसकी निगरानी करता गुरबख़श सिंह. आज दीवाली थी. शाम को ही घरवालों से बात हुई थी. सब उसे याद कर रहे थे. उसकी दस महीने की गुड्डी की यह पहली दीवाली थी. वह पूरी तरह चौकन्ना था. ज़रा सी चूक दहशतगर्दों को उसके मुल्क में घुसने का मौका दे देगी. यह मुल्क की शांति के लिए घातक होगा. अपने देश को सुरक्षित रखना उसका दायित्व है. अपनी नाइट विज़न दूरबीन से वह निगरानी रख रहा था. तभी उसे कुछ हरकत दिखाई दी. वह समझ गया कि आतंकवादी हैं. उसने अपनी स्नाइपर गन से दो को ढेर कर दिया. तभी एक गोली आकर उसके सीने में लगी. उसकी चौकन्नी आंखें बंद होने लगीं. मरने से पहले उसने अपना काम कर दिया था. अब बाकी काम उसके साथी करेंगे.

दया

जैसे ही गाड़ियां लाल बत्ती पर रुकीं शन्नो अपने बच्चे को गोद मे उठा कर भागी. वह कार के शीशो पर थपथपा कर भीख मांग रही थी. बाहर चिलचिलाती धूप थी. बच्चा भूख से बिलख रहा था. इस दृश्य ने कई लोगों के मन में दया पैदा की. जिसे जितना सही लगा उसे दे दिया. शाम तक इसी तरह भीख मांगने के बाद शाम को वह अपने डेरे पर लौटी. बच्चे को एक तरफ पटक कर वह दिन भर की कमाई का हिसाब लगाने लगी. बच्चा बहुत भूखा था और ज़ोर ज़ोर से रो रहा था. "चुप हो जा कमबख़त सारी गिनती भुला दी." शन्नो खीझ उठी. उसने आवाज़ लगाई "कहाँ मर गई कम्मो, इसे अफीम चटा दे. रात भर शांत रहेगा." अपनी बात कह कर वह फिर पैसे गिनने लगी.

शुभ दीवाली

पूजा का समय हो रहा था और रंजन ना जाने कहाँ चला गया था. दीपा पूजा की तैयारी करते हुए मन ही मन परेशान हो रही थी.  तीन साल पहले उनका इकलौता बेटा सड़क दुर्घटना में चल बसा था. जब वह जीवित था तो त्यौहार के एक हफ्ते पहले से ही घर में त्यौहार जैसा माहौल हो जाता था. पर अब तो बस औपचारिकता ही बची थी.  रंजन जब घर पहुँचा तो पूजा का मुहूर्त हो चुका था. उसके आते ही दीपा ने उलाहना दी "काम के वक्त तुम हमेशा गायब हो जाते हो. कहाँ चले गए थे." "बाद में बताऊंगा, पहले पूजा कर लेते हैं." रंजन ने उसे शांत करते हुए कहा.  पूजा समाप्त कर दोनों पति पत्नी ने मिल कर घर को दिओं से सजाया. सारा काम निपटा कर दीपा सोफे पर चुप चाप बैठ गई. रंजन उसके पास आकर बैठ गया "चलो तुम्हें दीवाली की रौनक दिखा लाऊं." दीपा की आंखों में पीड़ा उभर आई. रंजन ने उसे दिलासा दिया "चलो तुम अच्छा महसूस करोगी." बुझे मन से दीपा चलने को तैयार हो गई. चारों तरफ रौनक थी. लोग खुशियां मना रहे थे. यह सब देख कर दीपा के मन का सूनापन और बढ़ गया.  रंजन ने कार एक एकांत भवन के सामने रोक दी. यहाँ का माहौल दीपा को कुछ उद

सुलगता चमन

लंच के बाद कौल साहब टीवी पर न्यूज़ देखने बैठे. कश्मीर के हालात पर एक रिपोर्ट प्रसारित हो रही थी. कश्मीर में सौ से भी अधिक दिनों से कर्फ्यू जारी था. इसने कश्मीर की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुँचाया था. सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते उन्मादी युवक, पैलेट गन से घायल बच्चे, भविष्य को लेकर चिंतित छात्र इन सब को देख उनका मन खिन्न हो गया. टीवी बंद कर वह आराम करने चले गए. बिस्तर पर लेटे हुए कश्मीर के अपने पुराने दिनों को याद करने लगे. घाटी की हसीन वादियों में वह हंसी खुशी रहते थे. अचानक ही फिज़ाओं में ज़हरीली धमकियां गूंजने लगीं 'यह ज़मीन छोड़ कर चले जाओ नही तो जान से जाओगे.' शांत घाटी में दहशत का साम्राज्य हो गया. अपने परिवार के साथ उनके जैसे लाखों लोग घाटी छोड़ कर अंजान शहरों में आ गए. उनकी नई पीढ़ी के लिए तो कश्मीर एक समस्या का नाम भर रह गया था. उन्होंने इस उम्मीद से वादी छोड़ी थी कि एक दिन घाटी में अमन होगा और वह फिर अपने घर वापस जा सकेंगे. लेकिन उनका घर तो आज भी सुलग रहा था.

नासूर

पिछले दो हफ्तों से चर्चा में रहा मनु सिंह के लापता होने का केस आज सुलझ गया. पुलिस को मनु का शव शहर के बाहर जंगल में पड़ा मिला. मशहूर व्यापारी भुवन सिंह की इकलौती संतान मनु दो हफ्ते पहले अपने दोस्त की पार्टी से लौटते समय अचानक कहीं गायब हो गया था. इस हाई प्रोफाइल केस को लेकर मीडिया भी बहुत सक्रिय थी. पुलिस जांच में मनु की हत्या के तार उसकी सौतेली माँ से जुड़ने लगे. मनु जब चार साल का था उसकी माँ का स्वर्गवास हो गया. भुवन सिंह उसकी मौसी रंजना को उसकी माँ बना कर ले आए. भुवन सिंह ने रंजना से ब्याह तो किया किंतु उसे पत्नी के रूप में स्वीकार नही कर पाए. मनु अकेला ना पड़ जाए इसलिए उन्होंने दूसरी संतान भी पैदा नही की. पत्नी के देहांत के बाद भुवन सिंह को मनु की परवरिश की चिंता थी. अतः कर्ज़ में डूबे अपने ससुर की मदद इस शर्त पर करने को तैयार हो गए कि रंजना की शादी उससे कर दें. अपने पिता की खातिर रंजना अपने अरमानों को कुचल कर विवाह के लिए तैयार हो गई. इतने सालों से बिना किसी शिकायत के वह अपना फर्ज़ निभाती रही. किसी को भी उसके मन में पल रहे गुस्से का आभास तक नही हुआ. वह गुस्सा बढ़ते बढ़ते नासू

दफन

खिड़की पर खड़े हुए सरोज की नज़र बाहर क्यारी पर पड़ी. नया नया अंकुर जो भूमि से फूटा था किसी के पैरों के नीचे मसल गया था. उसकी पीड़ा उसने अपनी कोख में महसूस की. उसकी आंखों से आंसू झरने लगे. "यह क्या तूने फिर खाना नही खाया." उसकी सखी शकीला ने कमरे में घुसते हुए कहा. सरोज ने सूनी आंखों से उसकी ओर देखा. शकीला का मन भर आया. उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोली "अभी देह कमज़ोर है. बिना खाए कैसे चलेगा. ये ज़ालिम लोग कहाँ छोड़ेंगे. रात को फिर किसी के साथ बिठा देंगे. सहने के लिए ताकत तो चाहिए." कह कर शकीला चली गई. सरोज थाली लेकर बैठ गई. अपनी सारी भावनाओं को उन लोगों ने दिल में दफन कर लिया था. इसी तरह वह सब यहाँ जिंदा रह पाती थीं.

तपस्या

रुक्मणी के बेटे को जब वीरता हेतु पुलिस पदक प्रदान किया गया तो उसकी आंखें भर आईं. अब तक का सफर उसकी आंखों के सामने घटने लगा. पति को व्यापार में बड़ी हानि उठानी पड़ी. उस धक्के से वह उबर नही पाए. हिम्मत हार कर घर पर बैठ गए. उसने पूरी कोशिश की कि उन्हें निराशा से निकाल सके किंतु ऐसा हो नही पाया. एक दिन कागज़ पर दो पंक्तियां लिख कर वह घर छोड़ कर चले गए. उस पर जैसे पहाड़ टूट गया. वह सोंच रही थी कि क्या करे. परंतु जब बेटे की आंखों में भविष्य को लेकर डर देखा तो उसने फैसला कर लिया कि टूटेगी नही. संघर्ष के लिए उसने कमर कस ली. ना जाने कितने तानों के पत्थर उसे मारे गए. कितनी निगाहें उसे भेदती रहीं पर वह अविचल रही. अपनी राह पर बढ़ती रही. आज उसकी तपस्या सफल हो गई थी.

वादा

अभी अभी अंजू को ऑपरेशन के लिए ले गए थे. स्थिति तनावपूर्ण थी. डिलीवरी की तारीख़ बीस दिन बाद की थी किंतु अचानक अंजू को तकलीफ़ होने लगी. डॉक्टर ने सिज़ेरियन का सुझाव दिया. खबर सुनते ही बजाज साहब अस्पताल पहुँच गए. उन्होंने मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की 'मेरी बच्ची की रक्षा करना.'  उनके दामाद ने एक कप चाय लाकर दी. "सब ठीक होगा आप परेशान ना हों." दामाद ने उन्हें तसल्ली देते हुए कहा. चाय पीते हुए बजाज साहब अतीत में खो गए. सात साल की अंजू को  वह दशहरे का मेला दिखाने ले गए थे. वह उनकी उंगली पकड़ कर चल रही थी. कौतुहलवश हर एक चीज़ के बारे में पूँछ रही थी. अचानक भीड़ में कुछ हलचल सी हुई. उस आपाधापी में उनकी उंगली अंजू के हाथ से छूट गई. वह भीड़ में कहीं गुम हो गई.  वह घबरा कर इधर उधर ढूंढ़ने लगे. एक एक पल भारी लग रहा था. तभी एक कोने में खड़ी अंजू दिखाई दी. वह घबराई हुई थी और रो रही थी. उन्हें देखते ही भाग कर आई और उनका हाथ कस कर पकड़ लिया. बजाज साहब ने समझाया "अब क्यों रो रही हो. मैं हूँ ना तुम्हारे साथ." अंजू ने सुबकते हुए कहा "आप नही थे तो मुझे बहुत डर लग रहा था

'सेल्फी'

कभी आबिदा सोशल मीडिया पर अपनी सेल्फी के लिए मशहूर थी. पार्टियों की जान समझी जाती थी. अपने ज़िदादिल तथा हंसमुख व्यक्तित्व से वह बड़ी आसानी से सब को अपनी तरफ आकर्षित कर लेती थी.  वह आत्मविश्वास से परिपूर्ण थी. एक सफल लेखिका के तौर पर वह समाज में अपना मुकाम बना चुकी थी. उसकी पिछली चार किताबों को पाठकों ने सर आंखों पर बिठाया था. जिसके कारण लेखन का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार उसे प्राप्त हुआ था.  उसके लिए जीवन की सबसे बड़़ी उपलब्धि थी उसके जीवन में सच्चे प्रेम का प्रवेश. सिकंदर ने उसके ह्रदय के उस खाली हिस्से को भरा था जहाँ किसी के आगमन की उसे कई सालों से प्रतीक्षा थी. वह बहुत खुश थी. इतनी सारी खुशियों के बीच इस बीमारी ने ना जाने कब दबे पांव आकर उसे दबोच लिया.  कई दिनों से वह सर दर्द एवं कमज़ोरी महसूस कर रही थी. पर अपने उत्साह में वह इसे नज़रअंदाज़ कर रही थी. एक दिन उसने अपने वक्ष पर गिल्टी सी देखी. उसे कुछ सही नही लगा. उसने डॉक्टर को दिखाया. जाँच में पता चला कि उसे स्तन कैंसर है.  उसे लगा जैसे ज़िंदगी हाथों से फिसल रही है. वह टूट गई. लंबे इलाज ने उसके शरीर पर असर दिखाया. उसका आत्मविश्वास टू

दरार

घर पहुँचकर अंकुर ने कॉलबेल दबाई. दरवाज़ा मेड ने खोला. अंकुर को आश्चर्य हुआ. अमूमन इस समय तक मेड अपने घर चली जाती थी. "साहब चाय बना दूँ." "नही" "तो मैं घर जाऊँ." अंकुर ने उसे घर जाने को कहा. उसकी आंखें ज्योती को खोजने लगीं. वह घर पर नही थी. बेडरूम में पहुँच कर उसने बैग बिस्तर पर डाल दिया. घड़ी उतार कर साइड टेबल पर रख रहा था कि उसकी नज़र मेज़ पर रखे कागज़ पर पड़ी. ज्योती का लिखा छोटा सा नोट था. 'मैं अब इस रिश्ते को जबरन खींच कर स्वयं को धोखा नही दे सकती. मैं पापा के पास जा रही हूँ.' नोट पढ़ कर अंकुर बिस्तर पर गिर गया. वह उस पल को कोसने लगा जब वह अपनी भावनाओं पर काबू नही कर पाया. वैवाहिक जीवन की मर्यादा को तोड़ बैठा. अब उस एक कमज़ोर पल ने चिंगारी बन कर उसके सुखी जीवन में आग लगा दी थी. अंकुर के मन में तूफान उठ रहा था. समझ नही पा रहा था कि इस बिगड़ी स्थिति को कैसे संभाले. विश्वास की जो डोर टूट गई थी उसे यदि जोड़ना भी चाहे तो गांठ पड़ ही जाएगी.

अनुभव

वह लड़की डरी सहमी सी भाग रही थी. उसके पीछे बबलू अभद्र टिप्पणी करते हुए चल रहा था. अपनी जीत पर उसे बहुत मज़ा आ रहा था. लड़की के जाने के बाद जैसे ही वह मुड़ा अपने सामने एक अजीब से शख़्स को खड़ा पाया. उसके सफेद चोंगे और दाढ़ी को देख कर बबलू बोला "क्या कोई आसमानी फरिश्ते हो." "हाँ सही पहचाना." उस व्यक्ति ने गंभीर स्वर में कहा. बबलू ने गुस्से से कहा "फालतू की मत फेंको. कोई नौटंकी वाले हो." उस व्यक्ति ने आगे बढ़ कर बबलू के सर पर एक छड़ी छुआई. उसके स्पर्श से ही कुछ क्षणों में बबलू एक लड़की में बदल गया. बबलू कुछ समझ पाता उससे पहले ही वह व्यक्ति गायब हो गया. लड़की के रूप में बबलू अकेला सड़क पर खड़ा था. तभी मोटरसाइकिल सवार एक लड़का उसके पास आकर रुका "कहीं छोड़ दूँ." उसने ऊपर से नीचे तक घूरते हुए पूंछा. बबलू को उसकी घूरती निगाहें बुरी लगीं. उसने अपनी असलियत बतानी चाही पर उसके मुंह से कुछ नही निकल सका. वह लड़का उसका हाथ पकड़ने लगा. बबलू ने हाथ छुड़ाया और वहाँ से भाग निकला. भागते हुए वह मुख्य सड़क पर आया. सामने रोडवेज़ की बस दिखी. वह उस पर चढ़ गया. बस

गुमसुम

अपने पापा के सामने बैठा विपुल बहुत उदास था. उसके जीवन में इतनी बड़ी खुशी आई थी किंतु उसके पापा उदासीन बैठे थे. तीन साल पहले हुए हादसे ने उससे उसके पिता को छीन लिया था. उसके पापा की आंखों के सामने ही नदी की तेज़ धारा मम्मी को बहा कर ले गई थी. उस दिन से उसके पिता जैसे अपने भीतर ही कहीं खो गए थे. विपुल ने बहुत प्रयास किया कि किसी तरह उनकी उस अंदरूनी दुनिया में प्रवेश कर सके. परंतु उसकी हर कोशिश नाकामयाब रही. इस नाकामयाबी का परिणाम यह हुआ कि वह स्वयं की निराशा के अंधेरे में खोने लगा. ऐसे में अपने शुभचिंतकों की बात मान कर उसने विवाह कर अपने जीवन को एक नई दिशा दी. वह निराशा के भंवर से उबरने लगा. लेकिन अपने पापा की स्थिति पर उसे दुख होता था. दस दिन पहले जन्मी अपनी बच्ची के रोने की आवाज़ उसे उसके विचारों से बाहर ले आई. वह उसके पालने के पास गया. उसकी पत्नी सो रही थी. उसने पूरे एहतियात से बच्ची को उठाया और उसे लेकर अपने पापा के पास आ गया. विपुल ने बच्ची को अपने पिता के हाथों में सौंप दिया. बच्ची उन्हें देख कर मुस्कुरा दी. कुछ देर उसै देखने के बाद उन्होंने उसे उठाया और सीने से लगा लिया. विप

बंटवारा

धीरज का ध्यान सुबह से ही पड़ोस में होने वाली गतिविधियों पर था. वह बड़ी बेचैनी से उधर से आती हर आवाज़ को सुन रहे था. कुछ साल पहले हुए बंटवारे ने ना सिर्फ मकान के बीच एक दीवार खींच दी बल्कि दिलों में भी दरार पैदा कर दी. मन मुटाव इतना बढ़ा कि एक दूसरे की शक्ल देखना भी बर्दाश्त नही था. आज सुबह जब पड़ोस से रोने की आवाज़े आईं और सारा परिवार जल्दी में कहीं निकल गया तो उसे किसी अनिष्ट की आशंका हुई. तब से ही वह परेशान था. एक कार पड़ोस में आकर रुकी. धीरज फौरन बाहर आ गया. कार से उसके छोटे भाई की पत्नी उतरी. वह रो रही थी. अब धीरज से रुका नही गया. वह सब कुछ भूल कर भाई के घर चला गया. इतने साल बाद अपने जेठ को घर में देख उसके भाई की पत्नी आश्चर्य में आ गई. "निर्मल को क्या हुआ" धीरज ने सीधा सवाल किया. "जी इनका एक्सीडेंट हो गया था. बहुत खून बह गया. पर इनके ब्लडग्रुप का खून नही मिल रहा." "मेरा और उसका ब्लडग्रुप एक है." कह कर धीरज ने अपने भतीजे को उसे फैरन अस्पताल ले जाने को कहा.

सुपुर्द

नर्स ने लाकर दवाइयों का एक नया पर्चा अनिल को थमा दिया. अंदर आई सी यू में उसका सत्रह साल का बेटा ज़िंदगी की जंग लड़ रहा था. पर्चा लेकर वह नीचे केमिस्ट शॉप की तरफ भागा. दवाइयां लाकर उसने नर्स को दे दीं. वह बाहर बेंच पर बैठ गया. अनिल बहुत परेशान था. इस बार भी दवाइयां और इंजेक्शन बहुत महंगे थे. वह फिक्रमंद हो गया. इस तरह कितने दिन वह इलाज करा पाएगा. चार दिन हो गए पर हालत में कोई सुधार नही हुआ. यदि इलाज लंबा चला तो उसके पास इतनी पूंजी भी नही कि अस्पताल के बिल चुका सके. जरूरत पड़ने पर किसके सामने हाथ फैलाएगा. यह सारी बातें मन ही मन उसे चुभ रही थीं. वह अन्य विकल्प पर विचार करने लगा. एक रास्ता हो सकता था. इस मंहगे अस्पताल से निकाल कर वह अपने बेटे को किसी सरकारी अस्पताल में ले जाए. लेकिन अभी उसकी हालत बहुत नाज़ुक थी. फिर यदि वहाँ सही देख भाल ना हो सकी तो. वह डर गया. उसने मन में सोंचा 'नही वह अपने बेटे के जीवन को खतरे में नही डाल सकता.' मन ने फिर तर्क किया 'परंतु पैसे की कमी को भी तो नज़रअंदाज़ नही किया जा सकता.' मन के इस तर्क वितर्क में वह उलझ गया. उसे समझ नही आ रहा था कि क

मददगार

फिर वह सारे दृष्य उसके मानस पटल पर चलचित्र की भांति चलने लगे. एक उन्मादी भीड़ हाथों में मशाल तथा हथियार लिए एक घर में घुस गई. वहाँ मौजूद मर्द औरत और उनके बच्चे को कत्ल कर दिया. खून के छीटों से सना एक चेहरा उसकी आंखों में तैर गया. वह चेहरा उसी का था. घबराहट के मारे वह पसीने से तर बतर हो गया. "पानी बेटा पानी पिला दो." एक कमज़ोर बूढ़ी आवाज़ उसके कानों में पड़ी. वह उठ कर गया और पास रखे घड़े से उस वृद्धा को पानी पिला दिया. उस वृद्धा ने अपना कांपता हाथ उसके सर पर रख दिया "उन ज़ालिमों ने तो मेरा सब कुछ छीन लिया था. यदि तुम फरिश्ता बन कर ना आए होते तो मेरा क्या होता. ऊपरवाला तुम्हें सुखी रखे."

हैवान

अष्टमी का दिन था. माँ भगवती की आरती में भाग लेने के लिए रानी मंदिर जा रही थी. अचानक पीछे से दो लड़कों ने उसे दबोच लिया और मोटर साइकिल पर बैठा कर ले गए. रानी ने कोशिश की किंतु मुंह से आवाज़ भी नही निकल पाई. मंदिर में बहुत भीड़ थी. माँ के भक्त उनके भजन गा रहे थे. कुछ ही देर में घंटे घड़ियाल के शोर में माता की आरती होने लगी. भक्तगण पूरी तल्लीनता से माता की आरती गा रहे थे. मंदिर से कुछ ही दूर एक मकान में रानी का दुपट्टा फर्श पर पड़ा उसकी तार तार होती इज्ज़त की गवाही दे रहा था.

झंझावात

आंगन में चारपाई पर लेटी सरला ज़ोर ज़ोर से खांस रही थी.  बड़ी बहू ने डांटा "आप अपने कमरे में ही क्यों नही रहती हैं. इस तरह खांस खांस कर सबको बीमार कर देंगी." बीना रसोई से दौड़ी आई और सहारा देकर सास को उनके कमरे में छोड़ आई. जब वह रसोई में जाने लगी तो जेठानी ने पूंछा "खाना बन गया." "बस कुछ ही देर है." उसने धीरे से कहा.  "तुम भी दिन पर दिन सुस्त होती जा रही हो." जेठानी ने ताना मारा. "मैं पड़ोस में जा रही हूँ. ये दुकान से आएं तो खाना परोस देना." यह कह कर वह चली गई. बीना जल्दी जल्दी हाध चलाने लगी. भइया ने कितनी बार उसे साथ चलने को कहा पर वह नही गई.  वह तो जवान है सब कुछ सह लेती है. लेकिन यदि वह चली गई तो यह बूढ़ी हड्डियां इस झंझावात को नही सह पाएंगी.

स्कूल

स्कूल (चित्र प्रतियोगिता के लिए) अपना काम निपटा कर मंजुला कुछ देर टीवी देखने के इरादे से सोफे पर पसर गई. न्यूज़ चैनल लगाया तो खबर देख कर उसके होश उड़ गए. जिस स्कूल में उसके बच्चे पढ़ते थे उसकी बिल्डिंग को आतंकवादियों ने अपने कब्ज़े में ले लिया था. कुछ क्षणों के लिए वह बदहवास हो गई किंतु जल्दी ही उसने स्वयं को संभाला अपने पति को फोन किया और फिर बच्चों के स्कूल की तरफ चल पड़ी. स्कूल बिल्डिंग से कुछ दूर पहले ही सारे अभिभावकों को रोक लिया गया था. सभी अपने बच्चों की सलामती की प्रर्थना कर रहे थे. कुछ ही देर में मंजुला के पति भी वहाँ पहुँच गए. सब लोगों के साथ वह दोनों भी अपने बच्चों के बारे में पूंछताछ करने लगे. किंतु कोई कुछ बता नही पा रहा था. अभिभावकों के लिए एक एक पल मुश्किल हो रहा था. बिल्डिंग के अंदर सेना के कमांडो अातंकवादियों पर काबू पाने का प्रयास कर रहे थे. बिल्डिंग से आती गोलीबारी की आवाज़ मंजुला और उसके पति को बेचैन कर रही थी. कुछ ना कर सकने की विवशता उनके दिल को चीरे डाले जा रही थी. लगातार चार घंटों तक चली मुटभेड़ के बाद एक आतंकवादी मारा गया और एक को गिरफ्तार कर लिया गया.

दोस्त

कोहरे की चादर ने सब कुछ ढक रखा था. फुटपाथ पर बैठे मंगलू ने खस्ताहाल कंबल से खुद को ढंकने की नाकाम कोशिश की. ठंड जैसे हड्डियों तक घुसी जा रही थी. मंगलू आस भरी निगाहों से सामने की टी स्टॉल को देख रहा था. मालिक स्टॉल को बंद करने की तैयारी कर रहा था. तभी दुकान में काम करने वाला लड़का एक पाव तथा प्लास्टिक के कप में चाय लेकर आया. मंगलू ने दोनों चीज़ों को झपट कर पकड़ लिया. उसने इधर उधर देख कर पुकारा "मुन्ना". कुछ ही पलों में उसका सुख दुख का साथी उसके सामने खड़ा होकर दुम हिलाने लगा. "लो खाओ" मंगलू ने पाव का आधा टुकड़ा तोड़ कर उसके सामने डाल दिया. बाकी बचा हिस्सा चाय में डुबोकर खाने लगा.

यादों का सफर

ऑटो अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा था. महेंद्र ने अपनी पत्नी की गोद में सोए हुए अपने बेटे को देखा. वह एक वर्ष पूर्व हुई घटना को याद करने लगा. अचानक ही उसका स्थानांतरण इस शहर में कर दिया गया था. ऐसा कोई नही था जिसकी देखरेख में अपनी सात माह की गर्भवती पत्नी को छोड़ देता. अतः उसे लेकर इस अनजान शहर में आना पड़ा. अभी कुछ ही घंटे हुए थे उन्हें आए हुए. सामान भी पूरी तरह नही खोला था. थके हुए पति पत्नी खाना खाकर सो रहे थे. तभी देर रात अचानक पत्नी को प्रसव पीड़ा आरंभ हो गई. महेंद्र इस स्थिति के लिए बिल्कुल भी तैयार नही था. अचानक आई इस मुसीबत से वह घबरा गया. किंकर्तव्य विमूढ़ सा वह बाहर आया और इधर उधर मदद के लिए देखने लगा. उसकी नज़र पड़ोस के मकान पर पड़ी. उसने कॉल बेल दबा दी. कुछ क्षणों बाद एक अधेड़ उम्र सज्जन ने खिड़की से बाहर झांक कर पूंछा "कौन है." महेंद्र ने उन्हें सारी बात बता दी. "ठहरो मैं आता हूँ." उन्होंने कहा और भीतर चले गए. कुछ ही देर में वह अपनी पत्नी के साथ बाहर आए. महेंद्र उन्हें अपने घर ले गया. "इसे अस्पताल ले जाना होगा. आप जल्दी से कार निकालिए." उन

गुनगुन

"यह क्या बात हुई कि मुझे स्वाद पसंद नही. भला दवा भी कोई स्वाद के लिए खाता है." कपूर साहब ने पत्नी को डांट लगाई. परंतु फिर भी उन्होंने दवा नही पी. गुस्से में दवा मेज़ पर पटक कर बोले "मैं सब समझता हूँ तुम ठीक नही होना चाहती हो ताकि मुझे परेशान कर सको." वह बाहर बरामदे में आ गए. ढलती धूप का एक छोटा सा टुकड़ा शरीर को गुनगुना लगा. वह वहीं कुर्सी डाल कर बैठ गए.  कुछ ही देर में धूप का वह टुकड़ा गायब हो गया. सर्द हवा शरीर को चुभने लगी. किंतु वह वहीं बैठे रहे. "अब बच्चों की तरह मुंह फुला कर यहाँ क्यों बैठे हैं." उनकी पत्नी ने बाहर आकर कहा. उनका हाथ पकड़ कर उठाते हुए बोलीं "चलो जी हवा ठंडी है बीमार पड़ जाओगे."

पहल

"अजी यह अभियान चलाने से कुछ नही होगा. हम कभी विदेशों की तरह सफाई नही रख सकते." बनवारी जी ने पान की पीक सड़क पर थूंकते हुए कहा. पवन जी ने हाँ में हाँ मिलाई "सही कहा आपने. मैं दो महीने बेटे के पास अमेरिका रह कर आया हूँ. क्या सफाई है वहाँ." यह कह कर उन्होंने भी गुटका मुंह में डाला और पुड़िया वहीं फेंक दी. पास खड़े बच्चे ने वह पुड़िया उठा कर कचरे के डिब्बे में डाल कर कहा "अंकल जी सफाई तभी होगी जब हम साफ रहना चाहेंगे."

लकीर के फ़कीर

मैं अपने बेटे अमन को दशहरे का मेला दिखाने ले गया था. अमन को उस चहल पहल में बहुत आनंद आ रहा था. कुछ ही देर में रावण दहन होने वाला था. मैं उसे लेकर उस हिस्से में पहुँचा जहाँ रावण मेघनाद तथा कुंभकरण के पुतले थे. दशहरे का महत्व समझाते हुए मैंने अमन से कहा "बेटा आज के दिन प्रभु रामचंद्र जी ने रावण को उसके बुरे कर्मों का दंड देने के लिए उसका वध किया था. अतः आज हम बुराई के प्रतीक रावण मेघनाद तथा कुंभकरण के पुतले जलाते हैं." कुछ देर सोंचने के बाद अमन ने मुझसे प्रश्न किया "पापा क्या ऐसा करने से बुराई कम हो जाती है." ज़ोरदार आतिशबाज़ी के साथ मेरे सामने तीनों पुतले धू धू कर जल रहे थे.  अमन के प्रश्न ने मेरे मन में हलचल पैदा कर दी थी. परंतु उसके सवाल का मेरे पास कोई वाजिब जवाब नही था. अतः उसे टालने के लिए मैं उसे जाइंटव्हील की राइड के लिए ले गया.

गुरू

उन्होंने नीलिमा की ओर देखा. उनकी आंखों में एक अजनबीपन था. कुछ पलों तक देखने के बाद वह खिड़की के बाहर देखने लगे. नीलिमा के सामने उसके आदर्श उसके गुरू खड़े थे. वह जिन्होंने उसे इस लायक बनाया कि आज पूरा देश उसकी गायकी का दीवाना था. आज जब उसे संगीत का सर्वोच्च सम्मान मिला तो वह कृतज्ञता व्यक्त करने आई थी.  अल्ज़ाइमर्स की बीमारी ने उसके गुरू को उससे कितना दूर कर दिया था.

सबक

दीवार पर लटकी पेंटिंग ने मुझे मेरे दोस्त की याद दिला दी. काँच का एक भरा हुआ प्याला. ऐसे ही जिंदगी से भरपूर था मिलिंद. जो भीतर था वही बाहर. कोई दुराव छिपाव नही. पाँच सालों की हमारी दोस्ती में मैंने उससे बहुत कुछ सीखा. मैं एक गुपचुप रहने वाला इंसान था. जीवन में इतना कुछ खोया था कि डर डर कर जीता था. वो मुझसे बिल्कुल जुदा था. पर अक्सर विपरीत चीजों में एक दूसरे के लिए आकर्षण होता है. मुझे उसकी ज़िंदादिली अच्छी लगी थी.  जैसे जैसे मैं उसे जानता गया हमारी दोस्ती गहरी होती गई. उसके साथ रह कर मैंनेआने वाले कल को लेकर परेशान होने की बजाय वर्तमान को पूर्णता में जीना सीखा था. पिछले छह महीनों में उसने मुझे जीवन का सही मूल्य समझाया. बीमारी उसके शरीर को भीतर से खोखला कर रही थी किंतु उसकी जिजीविषा को कम नही कर पाई. अपने दर्द में भी वह मुस्कुराता रहा और यह सबक देकर गया कि जीवन को हर हाल में जीना चाहिए.

पार

बसंत अचानक नींद से जाग उठा. उसने कमरे की बत्ती जलाई. पास रखी बोतल से थोड़ा पानी पिया. इन दिनों परेशानियों और निराशाओं ने चारों ओर से घेर रखा था. उनसे लड़ते हुए वह थकने लगा था. वह उस सपने को याद करने लगा जिसके कारण उसकी नींद टूटी थी. चारों तरफ घना अंधेरा था. वह बीच समंदर में था. चारों तरफ से वह लहरों से घिरा था. वह किसी प्रकार बाहर निकलने के लिए हाथ पांव मार रहा था. लहरों से जूझते हुए उसने देखा कि वह किनारे पर आ गया था. कुछ देर तक वह सपने पर विचार करता रहा.  यह उसके अंतर्मन का संदेश था कि भले ही कठिनाइयां उसे तोड़ने का प्रयास कर रही हों किंतु उसके प्रयास अवश्य कामयाब होंगे.

कीलें

पिंटू ने अपने सहायक राजू से पूछा "वो सिंघल साहब ने जो डबलबेड का आर्डर दिया था वह समय से पूरा हो जाएगा ना." "बस कुछ ही काम बचा है. जल्द ही हो जाएगा." काम करते हुए राजू ने जवाब दिया.  "देखना कोई कमी ना रह जाए. उन्हें बेटी की शादी में देना है." पिंटू ने समझाया.  वह सभी कामों का बारीकी से मुआयना कर रहा था. कारीगरों को आवश्यक निर्देश दे रहा था. तभी एक कारीगर ने दरवाज़े की ओर संकेत किया. वहाँ हवलदार खड़ा था. पिंटू ने उसे सलाम किया.  "साब ने थाने बुलाया है." हवलदार ने रौब से कहा.  "अभी बहुत काम है शाम तक हाजिर होता हूँ." पिंटू ने कुछ सहमते हुए कहा. "ठीक है" कह कर हवलदार चला गया. पिंटू ने जुर्म से कब का किनारा कर लिया था. लेकिन उसके अतीत की कीलें अभी भी पैरों में चुभती थीं.