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सितंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दरकते रिश्ते

कौशल यह खुशखबरी अपने मित्रों को सुनाने के लिए उतावला हो रहा था. तीन साल पहले अभिनेता बनने का स्वप्न लेकर वह अपने छोटे से शहर से इस महानगरी में आया था. यहाँ उसकी मुलाकात अपने जैसे दो और दीवानों से हो गई. एक ही राह के राही तीनों दोस्त साथ रहने लगे. कितनी असफलताओं के दुख तीनों ने साथ में झेले थे. अपनी छोटी छोटी सफलताओं के जश्न भी साथ में मनाए थे.  आज कौशल को उसकी मंज़िल मिल गई थी. एक प्रसिद्ध चैनल के नए धारावाहिक में उसे अहम भूमिका मिली थी.  घर पहुँचते ही उसने यह खबर अपने दोस्तों को सुनाई. दोनों ने गले लग कर बधाई दी.  परंतु कौशल को वह गर्मजोशी नज़र नही आई.

तीर

अनु हांथ मुह धोकर कमरे में आई तो देखा माँ मेज़ पर चाय का प्याला रख गई थीं. वह बैठ कर चाय पीते हुए व्हाट्सअप संदेश देखने लगी. प्रशांत का मैसेज था 'तुम्हारी बहुत याद आई पूरे दिन. पर बिज़ी रहा.' अनु ने मैसेज भेजा 'सेम हियर'. कुछ ही क्षणों में प्रशांत का जवाब आया. दोनों चैट करने लगे.  पिता को बीमारी के कारण समय से पहले अवकाशग्रहण लेना पड़ा. ऐसे में घर चलाने की ज़िम्मेदारी उस पर आ गई. उसने भी सारा दायित्व खुशी खुशी अपना लिया. घर और दफ्तर के बीच स्वयं को भूल गई.  अनु की इस रसहीन ज़िंदगी में प्रशांत ने ताज़ी हवा के झोंके की तरह प्रवेश किया. कुछ ही मुलाकातों में दोनों ने समझ लिया कि दोनों एक दूजे के लिए ही बने हैं. उन्होंने विवाह करने का निश्चय कर लिया. कल ही अनु ने अपने माता पिता को यह फैसला सुनाया था.  कल से ही माँ का मूड कुछ उखड़ा सा था. चैट ख़त्म कर वह बाहर आई तो देखा कि उसके पिता की कुछ दवाइयां समाप्त हो गई हैं. माँ टेबल पर खाना लगा रही थीं. उसने माँ से कहा "मम्मी पापा की दवाएं ख़त्म हो गईं. आपने बताया क्यों नही." बिना उसकी ओर देखे वह बोलीं "अब तो तुम अपने

तसल्ली

दुलारी मुनिया को गोद में लिए बैठी थी. बुखार से उसका शरीर तवे की तरह जल रहा था. दुलारी समझ नही पा रही थी कि क्या करे. उसके पास कानी कौड़ी भी नही थी. कैसे मुनिया को डॉक्टर के पास ले जाती. अपनी बेटी के लिए कुछ भी ना कर सकने की मजबूरी उसके दिल को जैसे चीरे डाल रही थी.  वह समझ नही पा रही थी कि क्या करे. उसे पास के पीर बाबा की याद आई. वह उसकी मदद करेंगे. वह बिना कुछ लिए ताबीज देते हैं. अब ऊपर वाला ही मददगार है.  पीर बाबा के पास से ताबीज लाकर उसने मुनिया के गले में बांध दिया. रात भर वह मुनिया के माथे पर पानी की पट्टियां रखती रही. सुबह की पहली किरण के साथ मुनिया ने आंखें खोलीं और उसे देख कर मुस्कुरा दी. दुलारी ने हाथ जोड़ कर उस परम शक्ति को धन्यवाद दिया.

नींव

नीता का पारा चढ़ा हुआ था. विवेक नीता की नाराज़गी समझ रहा था. उसे मनाते हुए बोला "अब अपना मूड खराब मत करो. हंसो बोलो." नीता ने घूर कर देखा फिर गुस्से से बोली "मुझे दो चेहरे रखने नही आते हैं. मेरा मूड खराब है और वह दिखेगा भी."  "मूड खराब कर क्या मिलेगा." धीरे से बात चीत से हल निकल आएगा. "उस दिन बॉलकनी की छत का प्लास्टर टूट कर गिर गया. कुछ क्षण पहले गिरता तो बबलू चोटिल हो जाता. धीरे धीरे के चक्कर में एक दिन छत सिर पर गिर जाएगी." नीता ने कटाक्ष किया. कुछ सोंच कर विवेक बोला "ठीक है घर की मरम्मत और रंग रोगन करवा लेता हूँ." "जो मर्ज़ी करिए. पर इस पुराने मकान की नींव ही कमज़ोर हो गई है. क्या फायदा होगा." नीता यह कहते हुए रसोंई में चली गई.  विवेक सोचने लगा कि नीता भी अपनी जगह सही है. मकान बहुत पुराना हो गया है. सालों से इसकी मरम्मत व पुताई भी नही हुई है. इतने बड़े भवन के रंग रोगन पर खर्च भी तो बहुत आता है. पीछे बागीचे के लिए कितनी जगह बेकार पड़ी है. अब कौन करे बागबानी. ना ही समय है और ना ही इतना पैसा.  मकान बड़ा था पर अधिकांश हिस्सा स

फैसला

'कुसुम समय कब पलट जाए कोई नही कह सकता. मै तो कहता हूँ कि तुम बाहर की दुनिया की भी जानकारी रखो ताकि मुश्किल समय में किसी पर आश्रित ना होना पड़े." कुसुम के मन में अपने स्वर्गीय पति की यह सीख गूंज उठी. वह सोंच रही थी कि काश उसने अपने पति की सीख पर अमल किया होता.  पति की मृत्यु के बाद उसने आंख मूंद कर अपने जेठ पर भरोसा कर लिया. उसके हिस्से की संपत्ति की देख रेख का जिम्मा उन्हें सौंप दिया. आरंभ में तो सब ठीक था. वह उसे पाई पाई का हिसाब देते थे. उसकी और उसके बेटे की सभी जरूरतों का ध्यान रखते थे. लेकिन समय के साथ स्थितियां बदलने लगीं. हिसाब किताब दिखाना तो दूर की बात थी अब जरूरत के लिए भी कई बार कहना पड़ता था.  आज तो हद हो गई. कुसुम ने अपने जेठ से इच्छा जताई कि वह अपने पति का श्राद्ध करना चाहती है. उसकी बात सुन कर वह बोले "कुसुम तुम तो जानती हो कि इन सब में कितना खर्च हो जाता है. मुझ पर पहले ही तुम्हारा और तुम्हारे बेटे का बोझ है. मेरे लिए कठिन होगा." कुसुम सन्न रह गई. अपने पति की कही बातें उसे याद आने लगीं. उसने तय कर लिया कि वह अब किसी पर आश्रित ना रह कर आत्मनिर्भर

विलुप्त प्रजाति

दस साल की सलोनी ने अखबार में एक लेख पढ़ते हुए अपने पिता से पूंछा "पापा गौरैया विलुप्त हो रही है इसका क्या मतलब है." उसे समझाते हुए उसके पापा ने कहा "इसका मतलब गौरैया की संख्या दिनों दिन इतनी कम हो रही है कि आने वाले समय में एक भी गौरैया नही रहेगी." "ऐसा क्यों पापा" सलोनी ने कौतुहलवश पूंछा. "देखो बेटा इसका कारण हम इंसान ही हैं. तरक्की के चक्कर में हम पर्यावरण से खेल रहे हैं. जिसका नतीजा है कि कई जीव धरती से गायब होने की कगार पर हैं." उसके पापा ने बात समझाने की कोशिश की. सलोनी सोंच में डूब गई. कुछ देर बाद उसने पूंछा "पापा ऐसा है तो इंसान को सबसे बुद्धिमान प्राणी क्यों कहते है."

बिकाऊ माल

प्रकाशक के दफ्तर में बैठे सत्यप्रकाश ने अपने नए उपन्याय की पांडुलिपि पर प्रतिक्रिया मांगी. कुछ सोंचते हुए प्रकाशक ने कहा "अच्छा लिखा है किंतु ज़रा कुछ आज के समय को ध्यान में रख कर लिखें." "पर मेरा उपन्यास तो आज के हालात पर ही आधारित है." सत्यप्रकाश ने आश्चर्य से कहा.  कुछ मुस्कुराते हुए प्रकाशक बोला "अजी आज टीवी सिनेमा फेसबुक आदि में उलझे पाठकों के लिए. समझ गए ना आप." "मतलब" सत्यप्रकाश ने जानते बूझते प्रश्न किया.  "आप तो लेखक हैं कल्पनाओं के घोडे़ दौड़ा कर कुछ ऐसा लिखिए कि पढ़ने वाले को आनंद आ जाए." अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ प्रकाशक ने कहा. सत्यप्रकाश आवेश में बोला "मैं साहित्यकार हूँ मदारी नही." सत्यप्रकाश के चेहरे पर उभरे आक्रोश को देख कर प्रकाशक ढिटाई से बोला "मैं भी व्यापारी हूँ. वही छापूँगा जो बिकेगा." सत्यप्रकाश ने पांडुलिपि उठाई और दफ्तर के बाहर आ गया.

हालात

देश की अस्मिता पर एक और हमला हुआ था. कुछ और जवान शहीद हो गए. उच्च स्तरीय बैठकें हो रही थीं. जांच दल गठित हो रहे थे. इस बार सरकार ने दोषियों को सबक सिखाने की ठानी थी. देश भर में गुस्सा था. मीडिया हो या सोशल मीडिया सभी जगह जवानों की शहादत पर अफसोस जताया जा रहा था. कड़ी कार्यवाही की मांग हो रही थी.  संगीता पत्थर बनी बैठी थी. छह महीने पहले जिसने मांग सजाई थी उसका शव तिरंगे में लपेट कर भेजा गया था. उसने अपनी कोख पर हाथ फेरा और रोने लगी.

दर्द

रमेश परेशान था. सुबह से एक भी खिलौना नही बिका था. वह इधर उधर देख रहा था. तभी उसे एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया. वह आवाज़ लगाने लगा "साहब बच्चों के लिए खिलौने लेते जाइये." वह आदमी रुक गया. उसने एक नज़र ठेले पर डाली. रंग बिंरंगे प्लास्टिक के खिलौने रखे थे. एक टीस सी उठी उसके मन में. 'घर का आंगन तो सूना पड़ा है. दोनों पति पत्नी की सारी प्रार्थनाएं अब तक अनसुनी ही थीं.' वह कहने ही जा रहा था कि नहीं चाहिए किंतु तभी रमेश ने अनुनय किया "ले लो साहब घर पर बच्चे भूखे हैं."  उस आदमी ने चुपचाप कुछ खिलौने खरीद लिए.

दाग

दरवाज़ा खोलते ही जैसे अनुजा ने सामने खड़े शख़्स को देखा उसका चेहरा उतर गया. उसने झांक कर देखा कि आस पास कोई था तो नही. फिर उसे अंदर बुला लिया.  भीतर आते ही उसने पूंछा "भइया आप जेल से कब छूटे." उसके भाई ने जवाब दिया "परसों छूटा." "आप समझ सकते हैं कि राजीव को आपका यहाँ आना अच्छा नही लगेगा. सोसाइटी वाले भी बातें बनाने में माहिर हैं." अनुजा ने अपनी नज़रें झुका कर कहा.  वह उठा और बहन के सर पर हाथ फेर कर बोला "खुश रहो." फिर बिना कुछ बोले चला गया. जिस बहन को बदनामी से बचाने के लिए उसके हाथ जुर्म हुआ था उसे परेशानी में नही डाल सकता था.

सम्मान

आज विद्यालय के हिंदी के शिक्षक सतपाल जी का विदाई समारोह था. सतपाल जी वरिष्ठ शिक्षक थे. उन्होंने विद्यालय के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया था. अतः आज उनके रिटायरमेंट पर विदाई समारोह का आयोजन किया गया था.  स्थानीय नेता सुभाष जो कभी सतपाल जी के शिष्य रह चुके थे को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया था. सुभाष ने इस अवसर पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि शिक्षक समाज की वह मशाल होते हैं जो सही मार्ग दिखाती है. सभी के सामने उन्होंने सतपाल जी के पांव छुए. सबने ताली बजा कर उनके विचारों का स्वागत किया.  समारोह के बाद वह अपने साथियों के साथ चले गए.  रात के समय विद्यालय के एक शिक्षक के घर पर नेताजी के साथियों ने हमला कर उसकी पिटाई कर दी. उस शिक्षक ने समारोह में नेताजी से पहले सतपाल जी को फूलों की माला पहनाने का अपराध किया था.

समाधी

बस्ती के बाहर बरगद के पेड़ के नीचे बच्चा बाबा की समाधी थी. बच्चा बाबा कौन थे कहाँ से आए थे कोई नही जानता था.  मानवता से बड़ा कोई धर्म नही होता यह बात उन्होंने अपने सेवा भाव द्वारा साबित कर दिखाई थी. बस्ती के गरीब और उपेक्षित लोगों में आत्मसम्मान से जीने की भावना जगाई थी. बच्चों को शिक्षित करने का काम किया था. किसी ने भी कभी उनके धर्म या जाति का पता लगाने का प्रयास नही किया. वह प्यार से सबको बच्चा कह कर पुकारते थे. अतः सब उन्हें बच्चा बाबा कहते थे. उनके मरने पर लोगों ने उनकी समाधी बना दी. इधर कई सालों से समाधी उपेक्षित पड़ी रहती थी. परंतु आज किसी ने वहाँ सफाई की थी. समाधी पर कुछ फूल चढ़ाए थे. यह फूल उस लड़के की बच्चा बाबा को श्रद्धांजली थी जिसके बहके कदमों को उन्होंने सही राह दिखाई थी.

दिल की बात

रोहित पत्थर पर बैठे हुए समुद्र की लहरें देख रहा था. उसके कान में अपने पिता के शब्द गूंजने लगे 'देखो यह सब फितूर छोड़ कर ढंग का फैसला लो. याद रखो कि तुम किस खानदान से हो.' एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गई. उसके पिता बड़े भाई और दोनों चाचा सभी ने उसके दादाजी के नक्शे कदम पर चलते हुए वकालत का पेशा चुना था. एक वही था जो सबसे अलग जा कर फैशन डिजाइनिंग में अपना कैरियर बनाना चाहता था.  अचानक उसकी नज़र पत्थर पर रेंगती चीटियों पर पड़ी. सभी एक के पीछे एक रेलगाड़ी की तरह चल रही थीं. तभी उसने देखा कि एक चींटी सबसे अलग अपनी राह पर जा रही थी. उसने तय कर लिया कि वह अपने दिल की बात ही सुनेगा.

स्वार्थ

राजीव और जतिन अच्छे दोस्त थे. उनकी यह दोस्ती पंद्रह साल पुरानी थी. दोनों ही सफल व्यापारी थे. समाज में उनका रुतबा बराबर का था.  जतिन की इच्छा दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने की थी. अतः उन्होंने राजीव को सुझाव दिया कि वह अपने छोटे बेटे का विवाह जतिन की इकलौती बेटी से कर दें. राजीव को भी इस फैसले से कोई ऐतराज़ नही था.  राजीव अपने सामाजिक रुतबे को बढ़ाना चाहते थे. अतः राजनीति के क्षेत्र में अपने कदम जमाने के लिए प्रयासरत थे. सत्ताधारी पार्टी के एक बड़े नेता ने अपनी पुत्री का विवाह राजीव के पुत्र से करने की पेशकश की. इस प्रस्ताव में निहित अपने लाभ को पहचान कर राजीव ने हाँ कर दी. एक समारोह में इसका ऐलान भी कर दिया. अपने मित्र के इस फैसले से जतिन बहुत आहत हुए. दोस्ती का आधार परस्पर विश्वास पूरी तरह से चरमरा गया था.

घंटी

मानिक पुल के ऊपर खड़ा नीचे बहती नदी को देख रहा था. उसे लगा जैसे नदी उससे कह रही हो 'मुझमें समा जाओ मैं तुम्हारी सारी पीड़ा हर लूँगी.' उसका मन बहुत व्यथित था. गरिमा ने आज उसके साथ अपना रिश्ता तोड़ दिया था. उसके इनकार से वह भीतर तक टूट गया था. उसने नदी में कूद कर अपने दुख का अंत करने का निर्णय कर लिया. वह रेलिंग पर चढ़ रहा था कि तभी उसके फोन की घंटी बजी. यह रिंगटोन उसने अपने पिता के नंबर के लिए लगा रखी थी. उसने सोंचा आखिरी बार बात कर लेता हूँ. उसने फोन उठा कर धीरे से कहा "हैलो" उधर से उसके पिता की आवाज़ आई "कहाँ हो. जल्दी घर आओ. मैं और तुम्हारी माँ खाने पर इंतज़ार कर रहे हैं." मानिक ने सिर्फ हाँ कहा और फोन काट दिया. वह फिर कूदने की तैयारी करने लगा. तभी उसके भीतर से आवाज़ आई 'यह क्या करने जा रहे हो. चार दिन के रिश्ते के लिए उन्हें छोड़ कर जा रहे हो जो तुम्हें इतना चाहते हैं.' फोन की घंटी ने उसके दिमाग की घंटी बजा दी. नाकाम प्रेमी को नदी के हवाले कर एक आदर्श बेटा घर चला गया.

स्नेह सदन

रागिनी और सुकेतु एक गहरी सोंच में थे. पिछले पाँच वर्षों से दोनों संतान के लिए तरह रहे थे. आखिरकार उन्होंने शहर के नामी डॉक्टर को दिखाया. जाँच के बाद पता चला कि प्राकृितिक तौर पर दोनों के माता पिता बनने की संभावना बहुत क्षीण है. अतः डॉक्टर ने उन्हें अन्य चिकित्सकीय विकल्प सुझाए. रागिनी तथा सुकेतु माने हुए वकील थे. चिकित्सा पर होने वाला व्यय उनके चिंतन का मुद्दा नही था. वह दोनों तो अलग ही उहापोह में थे. बहुत सोंच विचार के बाद वो लोग एक निर्णय पर पहुँचे. उनकी कार उस राह पर चल पड़ी जिसमें उनकी खुशियों की मंज़िल थी. 'स्नेह सदन' के सामने उनकी कार रुकी. अपने जीवन का सूनापन दूर करने के लिए वह अनाथालय के मैनेजर से मिले.

छत्तीस गुण

मालती देवी सभी का खुशी से स्वागत कर रही थीं. आज बेटे बहू की शादी की पंद्रहवीं सालगिरह का समारोह था. दोनों का वैवाहिक जीवन सुखमय और आपसी प्रेम से परिपूर्ण था. तभी हॉल में मालती देवी की परम सखी ने प्रवेश किया. जोड़े को आशीर्वाद के साथ तोहफा देने के बाद वह मालती देवी से बोलीं "इन दोनों की जो़ड़ी तो लाखों में एक है." मालती देवी गर्व से बोलीं "अच्छी तरह से पत्री मिलाने के बाद ही मैंने विवाह के लिए अपनी सहमति दी थी. " पास खड़े उनके पति ने बेटे की तरफ देखा. दोनों मुस्कुरा दिए. अपनी पसंद की लड़की से विवाह करने की अपने बेटे की इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने अपनी बहू की नकली पत्री बनवाई थी.

जीवन

अभी अभी डॉक्टर ने विशेष को उसके बेटे की मृत्यु की सूचना दी. सर में लगी चोट के कारण उसे ब्रेन डेड घोषित किया गया. ज़िंदगी से लबरेज़ अपने बेटे का हंसता मुस्कुराता चेहरा उसकी आंखों के सामने धूमने लगा. ज़िंदगी से जद्दोजहद करने के बाद वह थक कर हमेशा के लिए सो गया. विशेष एक फैसला कर डॉक्टर से मिला. उसका बेटा अब अन्य कई लोगों को जीवन प्रदान करेगा.

सौदेबाज़

रोमा और विभा ऑफिस के कैफेटेरिया में बैठी थीं. कॉफी का घूंट भरते हुए विभा ने कहा "रोमा तुम्हारा बॉस की तरफ झुकाव.." उसकी बात बीच में ही काटते हुए रोमा बोली "एक जबरदस्ती थोपे गए नाकाम रिश्ते की पीड़ा मैंने झेली है. इसलिए उनसे सहानुभूति रखती हूँ." "जो भी बेचारगी का रूप बॉस ने तुम्हें दिखाया है वह सही नही है." विभा बोली. फिर रोमा के चेहरे की ओर देखते हुए कहा "यह सही है कि उनकी पत्नी एक मंदबुद्धि स्त्री हैं. किंतु सब जानते हुए अपने ससुर की जायदाद के लालच में बॉस ने उनसे विवाह किया था." यह जानकर रोमा हैरान रह गई. वह तो समझती थी कि बॉस के साथ छल हुआ था. रोमा के मन में उथल पुथल मची थी. तभी चपरासी ने आकर सूचना दी कि बॉस ने उसे केबिन में बुलाया है. जब वह बॉस के केबिन में पहुँची तो उन्होंने एक मखमली डिबिया उसके हाथ में थमा कर कहा "हमारे रिश्ते के नाम यह छोटी सी भेंट." रोमा ने डिबिया खोली तो उसमें एक कीमती ब्रेसलेट था. डिबिया वापस अपने बॉस के हाथ में देते हुए रोमा ने कहा "रिश्ते लेन देन से नही चलते." केबिन के बाहर निकल कर रोमा ने

वंश वृद्धि

भैंस के बच्चे को लाकर हवेली के आंगन में बांधा गया था. अपनी माँ से बिछड़ा बच्चा जोर जोर से रंभा रहा था. कुछ देर में देवी के मंदिर में उसकी बली चढ़ाई जानी थी. यह सब देख विभावरी बहुत व्याकुल थी. समय आने पर जब उसे बली के लिए ले जाया जाने लगा तो विभावरी रास्ता रोक कर खड़ी हो गई.  स्वयं संतान पाने के लिए वह दूसरी माँ से उसका बच्चा नही छीन सकती थी.

दूर देश का चांद

चांद को निहारते हुए दिलप्रीत ने एक आह भरी. यह चांद उसके पिंड में भी चमकता होगा. आंगन में दारजी और बीजी बैठे अपनी लाड़ली के सुखद भविष्य के बारे में सोंच कर खुश होते होंगे. पास बैठा छोटा वीर पढ़ाई करता होगा. उनके बारे में सोंच कर उसकी आंखें भर आईं.  कितने चाव से दारजी ने उसका ब्याह किया था. दिल खोल कर खर्च किया था. उनकी लाड़ली बेटी जो थी वह. उसकी हर ख्वाहिश को उन्होंने पूरा किया.  ताया जी ने मनजीत दीदी का ब्याह लंदन में बसे लड़के से किया. वह बहुत खुश थी. बहुत पैसा था उसकी ससुराल में. जब भी घर आती सबके लिए मंहंगे तोहफे लाती थी. दारजी ने तय कर लिया था कि उसका ब्याह विदेश में बसे लड़के से ही करेंगे. उन्होंने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया उसके लिए लड़का ढूंढ़ने में. आखिरकार कनाडा में बसे सुखविंदर से उसकी जोड़ी जम गई. वहाँ सुखविंदर के परिवार का बहुत बड़ा कारोबार था. अपने स्तर पर दारजी ने जांच पड़ताल करवाई सब सही था. उसकी शादी हो गई. वह कनाडा आ गई. छह महिने हो गए. वैसे तो सब ठीक है. उसकी ससुराल में बहुत पैसा था. उसे किसी चीज़ की रोक टोक नही थी. वह जो चाहे कर सकती थी. कोई काम काज भी नही करना

घरौंदा

मिसेज़ रस्तोगी आंगन में कपड़े सुखाने गईं तो उन्हें कुछ हलचल महसूस हुई. ध्यान से देखा तो पाया कि खिड़की के ऊपर एक चिड़िया तिनका तिनका जमा कर अपना घर बना रही थी. उनके मन में विचार आया 'इस घोंसले में वह अपने अंडे देगी. अंडों से निकले चूज़े एक दिन बड़े हो जाएंगे और घोंसला छोड़ कर उड़ जाएंगे.'  उन्होंने अपने घर के आंगन को देखा. कभी यहाँ उनके बच्चों की किलकारियां गूंजती थीं. उनका एक भरा पूरा परिवार था. जब बच्चे छोटे थे तब घर तधा जॉब में संतुलन बनाए रखने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ती थी. इस काम मे उन्हें अपने पति का भरपूर सहयोग मिला. लेकिन उनके जाने के बाद उनके जीवन में एक खालीपन आ गया. अब सारी चीज़ें उन्हें अकेले संभालनी पड़ती थीं. बच्चे छोटे थे. परंतु उन्होंने कभी हिम्मत नही हारी. धीरज के साथ अपने सारे फ़र्ज़ निभाए. आज उनके सभी बच्चे अपने कैरियर में व्यवस्थित हो चुके थे. घर से दूर सबने अपनी अलग दुनिया बसा ली थी.  साल में एक बार उनकी दोनों बेटियां तथा बेटा अपने बच्चों के साथ कुछ दिन उनके पास रहने आते थे. उन दिनों में घर का आंगन फिर से गुलज़ार हो जाता था. वह चंद दिन उन्हें ऊ

पगफेरा

नलिनी बहुत उत्साहित थी. आज बेटी रोली पगफेरे के लिए आने वाली थी. ससुराल में बहुत व्यस्त कार्यक्रम था उसका.  कल विवाह के उपलक्ष्य में उसकी ससुराल में प्रीतिभोज था. परसों वह और संजय अपने हनीमून पर जाने वाले थे. उसकी तैयारी भी करनी थी अतः शाम तक संजय उसे विदा करा कर ले जाने वाले थे.  उसने घड़ी देखी. नौ बज गए थे. दस बजे तक रोली और संजय आ जाएंगे. बहुत कम समय था. वह काम में जुट गई.  बहुत तकलीफें सह कर नलिनी ने बेटी को पाला था. पति सरकारी नौकरी में थे अतः उनकी मृत्यु के बाद उसे नौकरी मिल गई किंतु अधिक शिक्षित ना होने के कारण तृतीय श्रेणि का पद मिला. तनख्वाह कम थी फिर भी उसने सब संभाल लिया. शिक्षा का महत्व समझ में आ गया था. अतः बेटी को पढ़ाने में कोई कसर नही छोड़ी. तकलीफें सह कर भी उसे उच्च शिक्षा दिलाई.  रोली को एक प्रतिष्ठित कंपनी में जॉब मिल गई. वहीं उसकी मुलाकात संजय से हुई. दोनों में प्रेम हो गया. उसने सदा ही बेटी की खुशी में ही अपनी खुशी देखी थी. वह दोनों के विवाह के लिए तैयार हो गई. संजय के घर वाले भी राज़ी थे.  धूमधाम से उसने बेटी की शादी कर दी.  नलिनी जानती थी कि संजय के घर वालों

अल्लाह हाफिज़

जुनैद रुख़्सती की तैयारी कर रहा था. सारा सामान जाँच लिया था. मन में खुशी और ग़म के मिलेजुले भाव थे. खुशी थी कि अब अच्छे पैसे कमा कर अम्मी की मदद कर सकेगा. किंतु दूसरी ओर अपनों से बिछड़ने का दुख भी था.  जब से उसके बाहर जाने की बात तय हुई थी अम्मी उसकी सलामती के लिए फ़िक्रमंद थीं. कल ही पीर बाबा की मज़ार पर जाकर उसके लिए दुआ मांगी थी.  चलते वक्त उसने अम्मी के गले लग उनसे जाने की इजाज़त ली. अम्मी ने माथे का बोसा लिया और एक ताबीज उसके गले में बांध दिया.  जुनैद को गंडे ताबीज पर यकीन नही था. वह विरोध करने ही वाला था कि तभी उसे अम्मी के चेहरे पर वह तसल्ली नज़र आई जो अब तक नही थी. ताबीज गैर मुल्क में उनके बेटे की सलामती की गारंटी था. उसने अम्मी को अल्लाह हाफिज़ कहा और घर से निकल पड़ा.

संतोष

शहर में जाने माने फोटोग्राफर प्रभाकर के द्वारा खींचे गए श्वेत श्याम छाया चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. फोटोग्राफी का शौक होने के कारण मैं भी प्रदर्शनी देखने गया था. प्रभाकर जी ने आम आदमी की ज़िंदगी को बहुत खूबसूरती से कैमरे में कैद किया था.  मैं चित्रों का आनंद ले रहा था. हॉल के एक कोने में एक दीवार पर तीन चित्र टंगे थे. उनमें से तीसरे चित्र ने मेरा ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया. यह चित्र एक भिखारिन का था. उसके खुले हुए वक्ष से चिपका एक शिशु दूध पी रहा था. वह दूथ पीते हुए उस बच्चे को बड़े प्यार से देख रही थी. उसकी सारी विपन्नता के बावजूद उसके चेहरे पर छाया असीम संतोष अमूल्य था.

आस किरन

दीपक देर रात तक पढ़ रहा था. उसकी माँ ने कहा "अब सो जा. सुबह अखबार और दूध बांटने जाना है." "बस माँ कुछ देर और. पाठ पूरा कर लूँ." दीपक ने कुछ देर की मोहलत मांगी. "क्यों पढ़ाई के लिए इतनी मेहनत करता है. यह सब हम गरीबों के लिए नही है." उसकी माँ ने विवशता दिखाते हुए कहा. दीवार पर लगे डॉ. कलाम के चित्र की तरफ इशारा करते हुए दीपक बोला "यह भी मेरी तरह अखबार बांटते थे. देश के राष्ट्रपति बने."  दीपक की माँ की आंखों में भी आस किरन चमकने लगी.

विकास

मिस्टर आहूजा बीस साल बाद अपने वतन लौट कर आए थे. इन बीस वर्षों में सचमुच देश बहुत बदल चुका था. शहर के पटल पर कई ऊँची इमारतें दिखने लगी थीं. बड़े बड़े मॉल्स जिनमें दुनिया के नामी ब्रांड का सामान मिलता था. बड़े बड़े अस्पताल जिनमें सभी आधुनिक चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध थीं. यह सब देख कर वह बहुत प्रसन्न थे. देश की तरक्की में योगदान देने के इरादे से ही वह यहाँ आए थे. पाँच सितारा होटल के कमरे में बैठे हुए वह एक हिंदी न्यूज़ चैनल देखने लगे. न्यूज़ एंकर बहुत उत्तेजित होकर सरकारी अस्पताल के प्रशासन की लापरवाही के विषय में बता रही थी. स्क्रीन पर एक लाचार बाप अपने जवान बेटे की लाश अपने कंधे पर ढोते दिखाई दे रहा था.

स्तंभ

दो महीने रहने के बाद आज गुंजा जिज्जी भी चली गईं. आखिर अपनी गृहस्ती छोड़ कर कब तक रहतीं यहाँ. अब घर की सारी व्यवस्था विपिन को ही देखनी थी. सबसे पहले उसने व्योम की स्कूल यूनीफॉर्म निकाल कर रख दी. कल सुबह उसे स्कूल भेजना था. उसके बाद रसोई के कुछ काम किए. अपनी तसल्ली कर वह सोने के लिए कमरे में आ गया. जिज्जी के जाने के बाद सूनापन और अधिक बढ़ गया था. आगे सब कुछ अकेला कैसे संभालेगा यह सोंच कर वह परेशान था.  वह दीवार पर टंगी पत्नी की फोटो के सामने खड़ा होकर उसे निहारने लगा.

अंतर्मन

नए साल की पहली सुबह थी. बर्फानी हवा तीर की तरह चुभ रही थी. दस बज चुके थे पर सूर्यदेव अब तक उदित नहीं हुए थे. अनु साल के पहले दिन ईश्वर का आशीर्वाद लेने मंदिर जा रही थी. उसने पूजा की थाली तैयार की और कमरे में पढ़ती  ननद  से झांक कर कहा "नीलम प्लीज मोनू का ख़याल  रखना. मोनू सो रहा है. मैं मंदिर जा रही हूँ." बाहर निकलते ही शीत लहर ने उसे कंपा दिया. ठिठुरते हुए उसने मंदिर वाले पथ पर पग धरे ही थे कि उसके पैर जैसे जकड़ गए. एक कार अचानक सड़क के किनारे आकर रुकी. दरवाज़ा खुला और किसी ने कार से बाहर कुछ फेंका. कार तेज़ी से चली गई. अनु कोतुहलवश देखने के लिए आगे बढ़ी कि क्या फेंका गया है. सड़क किनारे झाड़ियों में कुछ पड़ा दिखाई दिया. ध्यान से देखा तो उसका जी मिचला गया. वह एक भ्रूण था. उसे उबकाई आने लगी. तेजं कदमों से वह मंदिर की तरफ भागी. वह मंदिर की सीढ़ियों पर ही बैठ गई. इतनी सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं. मन ही मन वह भगवान से शिकायत करने लगी 'कैसी निर्दयी दुनिया है यह. तुम कुछ करते क्यों नही.' उसके मन से आवाज़ आई 'तुमने कुछ क्यों नही किया.' उसन

स्नेह

अनुज बहुत उदास था. स्कूल में झूला झूलते हुए वह गिर गया और उसके दाएं हाथ की हड्डी टूट गई. एक महीने बाद ही बैडमिंटन का कितना महत्वपूर्ण मैच था. अब वह नही खेल सकेगा. अपने सख़्त कोच का चेहरा उसे याद आने लगा. खेलते समय छोटी से छोटी गलती पर कितना डांटते थे. अब तो उससे इतनी बड़ी भूल हो गई थी. अब कितनी डांट पड़ेगी सोंच कर वह घबरा रहा था. तभी उसकी मम्मी ने बताया कि कोच सर उससे मिलने आए हैं. कोच सर ने कमरे में प्रवेश किया. उनके हाथ में फूलों का गुलदस्ता था. हमेशा की तरह चेहरे पर कठोरता नही अपितु कोमलता थी. अनुज बोला "सॉरी सर अब मैं मैच नही खेल पाऊंगा." प्यार से सर पर हाथ फेर कर सर बोले "कोई बात नही अगली बार खेल लेना. अभी तो तुम्हारी शुरुआत है. परेशान मत हो." अपने कोच का यह रूप देख अनुज के मन का बोझ उतर गया.

अपनी राह

सब को लगता था कि बंसल जी का यह फैसला अचानक लिया गया था. लेकिन पिछले काफी समय से उनका मन उन्हें समझा रहा था कि जिस पर वह बेतहाशा भाग रहे हैं वह राह उनकी नही. यहाँ तो महज़ मृगतृष्णा है तृप्ति नही. उन्होंने ही मन की बात समझने में देर लगा दी. अपना निर्णय लेने से पूर्व उन्होंने अपनी पत्नी को सब बता दिया. एक सच्ची जीवनसंगिनी की तरह वह उनके फैसले में उनके साथ हो गईं. दोनों ने अपनी अपनी ज़िम्मेदारियां बच्चों को सौंप दीं और अपनी राह पर चल पड़े.

ख़्वाब

(स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मध्य प्रदेश से प्रकाशित पत्रिका  'सत्य की मशाल' में प्रकाशित ) बल्ब की पीली मद्धम रौशनी में भी मालती को अपने पति गुड्डू की पीडा़ साफ दिखाई दे रही थी. हलांकि गुड्डू की कोशिश थी कि वह उसे प्रकट ना करे. उसका पूरा परिवार कूड़ा उठाने का काम करता था. गुड्डू ठेला चलाता था तथा वह और उसका बेटा राजू घरों से कूड़ा एकत्र कर उस ठेले में डालते थे. फिर दूर ले जाकर उसे एक मैदान में डाल कर आते थे. इस काम के लिए उन्हें एक घर से महिने के पचास से साठ रुपये मिल जाते थे. कल जब वह लोग कूड़ा फेंकने के लिए मैदान में गये तो एक टूटी हुई काँच की बोतल का टुकड़ा गुड्डू के पांव में घुस गया. बहुत खून निकला. पेट भरना कठिन था ऐसे में दवा कहाँ से कराते. मालती ने हल्दी चूना बांध दिया. परंतु पीड़ा अभी भी थी. मालती सोंचने लगी राजू यदि झंडे बेंच कर कुछ पैसे ले आए तो दवा वाले से पूंछ कर कोई मलहम खरीद लेगी. डॉक्टर के पास जाओ तो उसे फीस देनी पड़ेगी. वह दवा की दुकान वाला भला है मदद कर देगा. वह उठ कर गुड्डू के पास आकर बैठ गई. उसके माथे पर धीरे से हाथ लगाया. गुड्डू ने आंखें खोलीं. चे

नियुक्ति पत्र

नीरज की नियुक्ति बैंक पी. ओ. के तौर पर हो गई थी. यहाँ तक पहुँचने के लिए मेहनत तो सभी प्रत्याशियों ने की थी किंतु उसके संघर्ष का एक और आयाम था. बचपन से सुनता आया था कि उसके ग्रह ऐसे हैं कि उसे किसी काम में सफलता नही मिलेगी. वह कुल के लिए कलंक बनेगा. सबसे अधिक अफ़सोस उसे तब होता जब उसके पिता जो कर्मयोगी भगवान कृष्ण के उपासक थे कर्म को नकार ग्रहों की दशा पर यकीन करते थे. आज उन सभी की आशंकाओं का जवाब नियुक्ति पत्र उसके हाथ में था.