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अक्तूबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गोधूली

राजेंद्र बाबू छत पर अकेले बैठे थे। धूप कब की ढल चुकी थी। अंधेरा हो रहा था। लेकिन बढ़ती ठंड में वह चारपाई पर वह हाथ पांव सिकोड़ कर बैठे थे।  पत्नी विभा को इलाज के लिए दिल्ली जाना था। छोटा बेटा अपनी माँ को ले जाने के लिए आया था। उसने राजेंद्र बाबू को भी तैयारी करते देखा तो पूँछ लिया। "पापा आप क्यों परेशान हो रहे हैं। आप यहीं रहिए। मुझे भी आप दोनों को अकेले संभालने में दिक्कत होगी।" राजेंद्र बाबू ने पत्नी की तरफ देखा। उसने कोई प्रतिक्रया ना देकर बेटे की बात का समर्थन कर दिया। राजेंद्र बाबू ने कुछ नहीं कहा। पर उसके बाद अनमने हो गए। दोपहर को खाने के बाद छत पर आकर बैठ गए। वह जानते थे कि आठ बजे की गाड़ी है। नीचे विदाई की तैयारी हो रही होगी। लेकिन वह नीचे जाने को तैयार नहीं थे। तभी उनकी बहू ऊपर आई। "पापा आप यहाँ ठंड में क्यों बैठे हैं। नीचे चलिए मम्मी के जाने का समय हो रहा है।" राजेंद्र बाबू ने अनसुना सा कर दिया। बहू जानती थी कि सुबह की बात को लेकर नाराज़ हैं। "पापा आपकी भी तबीयत ठीक नहीं रहती हैं। सही समय पर दवा लेना होता है। यहाँ तो हम सब हैं आपकी देखभाल के लिए। पर

दोस्त

बाल मनोचिकित्सक अवतार सिंह ने आठ वर्षीय शुभ को प्यार से कुर्सी पर बैठाया। उस नन्हें से बच्चे का कोमल मन कितना आहत था वह जानते थे। वह शख्स उस पितृविहीन बालक के जीवन में खुशियों के देव के रूप में प्रकट हुआ था। शुभ उसे अपने सबसे नज़दीक मानता था। उस पर सबसे अधिक यकीन करता था। उसमें अपने उस पिता को तलाशता था जो अब नहीं थे। वह उसके घर में किराएदार था। शुरू शुरू में शुभ की माँ उसे उस शख्स से इतना घुलने मिलने से मना करती थीं। पर धीरे धीरे उन्हें भी यकीन हो गया कि वह शुभ का हितैषी है। एक दिन वह शख्स शुभ के शरीर से खेल कर उसके कोमल मन को ना भरे जा सकने वाले घाव देकर भाग गया। अवतार सिंह उन्हें ही भरने का प्रयास कर रहे थे। "नाम क्या है बेटा तुम्हारा...।" शुभ शांत बैठा रहा। अवतार सिंह ने उससे बात करने की एक और कोशिश की। "देखो बेटा मुझे तुम अपना दोस्त समझो...." यह बात सुनते ही शुभ कुर्सी से उतर कर अपनी माँ के पास आ गया। अवतार सिंह ने उसकी माँ की तरफ प्रश्न भरी निगाह से देखा। "सर वह शैतान भी कहता था कि वह इसका दोस्त है।" अवतार सिंह समझ गए कि उस मासूम का विश

पराजय

संध्या और विशाल के बीच जम कर आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा था। "तुम्हें हर चीज़ का दोष मुझ पर मढ़ने की आदत है। क्योंकी तुम तो किसी चीज़ की ज़िम्मेदारी लेना जानते नहीं हो।" संध्या ने चिढ़ कर कहा। "तो तुम मुझे ज़िम्मेदारी का पाठ पढ़ाओगी। पहले खुद तो सीख लो।" "कौन सी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई मैंने आज तक।" "कहाँ तक गिनाऊं। रहने दो।" "कहने को तुम्हारे पास कुछ है नहीं इसलिए रहने ही दो।" बहस बढ़ती गई। दोनों ही अपने जुमलों को पहले से और धारदार बना कर एक दूसरे पर उछालने लगे। दिल खोल कर एक दूसरे पर भड़ास निकाल लेने के बाद दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में सफल रहने की तसल्ली के साथ शांत हो गए। तभी दोनों की नज़र कमरे में सहमी सी बैठी अपनी बेटी पर पड़ी। अचानक ही विजय का भाव पराजय में बदल गया।

अतीत की परछांई

रोहन अपने बेड पर लेटा हुआ था। शरीर थका था लेकिन मन की उमंग अभी कम नहीं हुई थी। शराब से ज्यादा अपनी शोहरत का नशा था। पाँच साल मेहनत के बाद पहला बेस्ट ऐक्टर अवार्ड मिला था।  खुशी की खुमारी में अचानक अतीत की काली बदली आकर छा गई। उसमें से एक चेहरा झांकने लगा।  रोहन अतीत मे चला गया। फिल्मों में प्रोडक्शन मैनेजर का काम करते हुए उसमें ऐक्टर बनने की इच्छा जागी। उसने इस संबंध में कई निर्देशकों से बात की किंतु सबने देखते हैं कह कर टाल दिया। एक फिल्म के सेट पर काम करते हुए एक स्पॉट ब्वाय की दुर्घटना में मृत्यु हो गई। प्रोड्यूसर ने मामले को दबाना चाहा। रोहन ही प्रोडक्शन का काम देख रहा था। उसने विरोध किया। फिल्म के निर्देशक ने बीच बचाव कर रास्ता निकाला कि यदि रोहन मामले को तूल ना दे तो उसे अगली फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका मिल सकती है।  अपना सपना पूरा होने का लालच उस पर हावी हो गया। उसने कदम पीछे खींच लिए। आज वह सफलता की चोटी पर था। लेकिन अतीत से झांकता चेहरा उसे याद दिला रहा था कि सफलता की जिस सीढ़ी पर वह चढ़ कर आया है उसके पहले पायदान पर उसका खून लगा है।

मिस फिट

खाने के बाद गांव से आए सुबोध ने जब ज़ोर से डकार ली तो कई निगाहें इस शिकायत के साथ उस पर टिक गईं की ऐसे लोगों को क्यों बुलाया? अपने मिलनसार स्वभाव के कारण सुबोध विवाह के संगीत समारोह में पधारे सभी लोगों से बातचीत कर रहा था। छोटा हो तो पूँछता कि किस कक्षा में हो? क्या करते हो?हमउम्र से भैया या भौजी कह कर हालचाल जानने लगता। लेकिन किसी को उसका बर्ताव पसंद नहीं आ रहा था। अतः सभी ने अंग्रेज़ी का जुमला उस पर चिपका दिया था 'मिस फिट'। सुबोध अपने चचेरे भाई की बेटी की शादी में आया था। भाई एक प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छे पद पर था। सुबोध गांव में खेती करता था। खाने के बाद संगीत समारोह आरंभ हुआ। डीजे के तेज़ संगीत पर सभी नाचने में लगे थे। खासकर जवान लड़के लड़कियों में अधिक उत्साह था। नाचते हुए एक लड़का कुर्सी पर बैठी अपनी मित्र से नाचने को कहने लगा। लेकिन उसने मूड नहीं है कह कर मना कर दिया। वह लड़का वापस गया तो उसके दोस्त मज़ाक करने लगे 'क्या यार डांस फ्लोर तक भी नहीं ला पाया। यू आर होपलेस।' दोस्तों के इस तरह उकसाने पर वह दोबारा लड़की के पास गया और बिना उसकी मर्ज़ी के हाथ पकड़ कर

माहिर

गली में खड़ा कोई ज़ोर से दरवाज़े की कुंडी खटखटा रहा था। गिरीश ने खिड़की से झांक कर देखा एक लेनदार वसूली के लिए आया था। "बाहर निकलो आज पैसा लिए बिना नहीं जाऊँगा।" लेनदार चिल्लाया। गिरीश को बाहर जाना पड़ा। जाते ही वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा। "बस कुछ और मोहलत दे दीजिए। वो क्या है कि बच्चा बहुत बीमार हो गया था। बस आप लोगों की दुआओं से मरते बचा है।" भीतर से उसका बेटा खिड़की से झांक कर देख रहा था। गिरीश ने उस आदमी के घुटने पकड़े हुए थे। आसपास जमा लोग उसे हिकारत से देख रहे थे। कुछ देर धमका कर लेनदार चला गया। जब गिरीश भीतर आया तो बेटे ने सवाल भरी नज़रें उस पर डालीं। गिरीश दांत निपोरकर बोला "अरे करना पड़ता है यह सब। झूठ के बिना काम नहीं चलता। तुम्हारा पापा तो माहिर है इसमें।"

चुगली

विनीता परेशान थी। अभी अभी बेटे के बोर्डिंग स्कूल के प्रिंसिपल का फोन आया था। वही शिकायत अनुशासनहीन है अध्यापकों का कहना नहीं मानता है।  कितना प्रयास किया था उसने कि पिता के दुर्गुण उसमें ना आएं। उसे सबसे महंगे बोर्डिंग स्कूल में भेजा था। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। बाहर अपनी समस्या लेकर आए लोगों की भीड़ सभासद महोदया का इंतज़ार कर रही थी। विनीता ने खुद को आइने में देखा। चेहरे पर एक मुस्कान चिपकाई। लेकिन आँखें चुगली कर रही थीं। उसने मंहगे सनग्लास आँखों पर चढ़ाए और बाहर निकल गई।