राजेंद्र बाबू छत पर अकेले बैठे थे। धूप कब की ढल चुकी थी। अंधेरा हो रहा था। लेकिन बढ़ती ठंड में वह चारपाई पर वह हाथ पांव सिकोड़ कर बैठे थे। पत्नी विभा को इलाज के लिए दिल्ली जाना था। छोटा बेटा अपनी माँ को ले जाने के लिए आया था। उसने राजेंद्र बाबू को भी तैयारी करते देखा तो पूँछ लिया। "पापा आप क्यों परेशान हो रहे हैं। आप यहीं रहिए। मुझे भी आप दोनों को अकेले संभालने में दिक्कत होगी।" राजेंद्र बाबू ने पत्नी की तरफ देखा। उसने कोई प्रतिक्रया ना देकर बेटे की बात का समर्थन कर दिया। राजेंद्र बाबू ने कुछ नहीं कहा। पर उसके बाद अनमने हो गए। दोपहर को खाने के बाद छत पर आकर बैठ गए। वह जानते थे कि आठ बजे की गाड़ी है। नीचे विदाई की तैयारी हो रही होगी। लेकिन वह नीचे जाने को तैयार नहीं थे। तभी उनकी बहू ऊपर आई। "पापा आप यहाँ ठंड में क्यों बैठे हैं। नीचे चलिए मम्मी के जाने का समय हो रहा है।" राजेंद्र बाबू ने अनसुना सा कर दिया। बहू जानती थी कि सुबह की बात को लेकर नाराज़ हैं। "पापा आपकी भी तबीयत ठीक नहीं रहती हैं। सही समय पर दवा लेना होता है। यहाँ तो हम सब हैं आपकी देखभाल के लिए। पर
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