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जनवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुख्यधारा

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - मुख्यधारा सारा घर अस्त व्यस्त था। मिसेज बनर्जी सब  कुछ समेटने में जुटी थीं. आज उनके बेटे सुहास का जन्मदिन था। उसने और उसके मित्रों ने मिलकर खूब धमाल किया था। सुहास अपने कमरे में बैठा अपने उपहार देख रहा था। " मम्मी देखो विशाल ने मुझे कितना अच्छा गिफ्ट दिया है। ड्राइंग बुक। अब मैं इसमें सुंदर सुंदर ड्राइंग बनाऊंगा।" सुहास अपने कमरे से चिल्लाया। अपने पति से अलग होने के बाद सुहास की सारी जिम्मेदारी मिसेज बनर्जी पर आ गयी। उन्होंने भी पूरे धैर्य और साहस के साथ स्थिति का सामना किया। सुहास अन्य बच्चों की तरह नहीं था। उसकी एक अलग ही दुनिया थी। वह अपनी ही दुनिया में मस्त रहता था। आज वह पूरे इक्कीस बरस का हो गया था किन्तु उसके भीतर अभी भी एक छोटा बच्चा रह रहा था। लोगों को यह मेल बहुत बेतुका लगता था। अक्सर पारिवारिक कार्यक्रमों में उनके रिश्तेदार उन्हें इस बात का एहसास करते रहते थे। शुरू शुरू में मिसेज बनर्जी  को लोगों का व्यवहार बहुत कष्ट देता था। उन्होंने बहुत प्रयास किया की सुहास भी अन्य बच्चों की तरह हो जाये। किन्तु समय के साथ साथ

चमत्कारी फल

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की बाल कहानी - चमत्कारी फल बबलू  एक साधारण लड़का था। उसमें आत्म विश्वास की कमी थी। वह कोई भी काम करने जाता तो उसे अधूरा ही छोड़ देता था। उसके स्कूल में स्पोर्ट्स वीक मनाया जाने वाला था। उसमें बहुत सी प्रतियोगिताएं होनी थीं। उसने भी रेस में भाग लिया था। वह रोज़ अभ्यास भी करता था किन्तु फिर भी उसे डर था।  बबलू  अक्सर कार्टून्स में देखता था की कैसे अलग अलग चरित्रों को कोई न कोई असाधारण शक्ति मिली है। वह सोंचता की काश उसे भी कोई ऐसी शक्ति मिल जाए। रेस के एक दिन पहले वह बहुत ही परेशान था। बार बार उसके मन में यह विचार आ रहा था की वह बीमार होने का बहाना कर रेस में भाग न ले। वह कुछ तय नहीं कर पा रहा था। वह सर झुकाए बैठा था। तभी पूरा कमरा तेज़ रोशनी से भर गया। उस रोशनी में उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।  जब रोशनी कुछ कम हुई तो उसने देखा की उसके सामने एक परी खड़ी  थी। परी बोली " क्या बात है तुम इतने परेशान क्यों हो?" बबलू ने कहा " परी कल मुझे रेस में भाग लेना है। पर मैं डर रहा हूँ क्या तुम मेरी मदद करोगी। तुम मुझे ऐसी शक्ति

नन्हकू

ताई ने काम करते करते घड़ी की तरफ देखा। किसी भी समय वो आने वाला होगा। आयेगा, अपना खाना खायेगा, कुछ देर आराम करेगा फिर चला जायेगा सड़कों पर आवारागर्दी करने । पिछले दो सालों से यही नियम चल रहा है। दो साल पहले वह ताई को मिला था। वह कहीं से लौट रही थीं और यह उनके पीछे लग लिया। ताई ने दुत्कारा किन्तु कोई फर्क नहीं पड़ा। वह ढीट की तरह उनके पीछे पीछे चलता रहा। दरवाजे पर पहुँच कर ताई ने फिर डांटा  " अब क्या पीछे पीछे घर में भी घुसेगा।" वह अपनी मासूम आँखों से उन्हें ताकने लगा और छोटी सी दम हिलाने लगा। ताई का मन पसीज गया। शायद भूखा होगा सोच कर उन्होंने एक कटोरे में दूध डबलरोटी सान कर दे दिया। वह सप सप कर खाने लगा। खाने के बाद वहीँ आराम से बैठ गया। ताई ने फिर  डांटा "क्या अब यहीं डेरा जमाएगा।" वह उठा और चुप चाप चला गया। अगले दिन जब ताई तुलसी को जल चढ़ाने बाहर आईं तो देखा की तुलसी का गमला गिरा हुआ है। तभी उन्हें कूं कूं की आवाज़ सुने दी " तू फिर आ गया। ठहर, अभी मज़ा चखाती हूँ।" कह कर ताई उसे मारने दौड़ीं। किन्तु वह ताई के हाथ से बच  निकला। ताई जीतनी कोशिश क

लकीर

इन गलियों में रमन  ने पहली बार कदम रखा था।  मेकअप लगाये झरोखों से झांकते  चहरे जो हाव भाव से उसे अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहे थे। संभावित ग्राहक को देख कर उसके पीछे भागते दलाल। किन्तु उसका दोस्त जो इन गलियों से वाकिफ था इन सब को नज़र अंदाज़ कर आगे बढ़ता जा रहा था। रमन भी उसके पीछे पीछे चल रहा था। सीढियां चढ़ कर दोनों एक कमरे में पहुंचे। उसका दोस्त किसी मैडम जो एक स्थूलकाय महिला थी से बात करने लगा। उस महिला ने उन्हें उसके पीछे पीछे चलने का इशारा किया। रमन को एक कमरे में बिठा कर वो मैडम और उसका दोस्त चले गए। दस माह पूर्व पारिवारिक जिम्मेदारियां उसे शहर ले आयीं। पत्नी दो बच्चों और एक बूढी माँ का  गाँव में रह कर पालन कर पाना कठिन था। अतः वह शहर चला आया। रमन एक मार्बल फैक्ट्री में काम करता था। दिन भर कड़ी मेहनत के बाद देर शाम जब वह लौटता तो घर के नाम पर एक छोटी सी कोठरी में अकेले रहना बहुत खलता था।। रोज़ की यही दिनचर्या थी। जीवन बहुत उबाऊ हो गया था। फिर जिस्म ने भी अपनी ज़रूरतें बताना शुरू कर दिया था। बहुत दिन हो भी गए थे। इसी कारण  अपने दोस्त के कहने पर वह यहाँ आने

न खुदा ही मिला न बिसाले सनम

हमारा नाम है सत्य नारायण दुबे। इस के आगे एक अदद ' मजनू' हमने खुद लगा लिया है। कारण एक तो हम किसी के प्यार में मजनू बन गए थे और दूजा ये की यह हमारा उपनाम है। वैसे हम अपने परिवार के सबसे अधिक एलिजिबिल बैचलर थे। छब्बीस की उम्र, अच्छी नौकरी, देखने सुनने में भी कोई बुरे नहीं थे। यही कारण था की कुंवारी कन्याओं के पिता हमारे घर के चक्कर लगा रहे थे। हमारे पिता भी हर अवसर को अच्छी तरह से तौल कर देख रहे थे। हम भी बहुत उत्साहित थे की तभी वह घटना घाट गयी। अजी हमें किसी से प्यार हो गया। हुआ यूं  की एक रोज़ हमारा एक दोस्त एक कवि सम्मलेन के पास ले आया। हमें कविताओं में कोई दिलचस्पी नहीं थी किन्तु उसने एक कवियत्री ' मनचली' का कुछ इस प्रकार ज़िक्र किया की हम उन्हें सुनने को बेताब हो गए। मनचली जी ने जैसे ही अपना कविता पाठ आरंभ किया  उनकी आवाज़ और शब्दों ने हम पर वो जादू किया की हम उनके फैन हो गए। घर लौटे तो उनकी आवाज़ अभी भी कानों में गूँज रही थी। कविताओं में हमारी दिलचस्पी बढ़ गयी न केवल पढ़ने में बल्कि लिखने में भी। एक दिन हम मनचली जी के घर का पता लगा कर उनके मुरीद के तौर पर उनके घर जा पह

तुमको देखा तो ये ख़याल आया

सुकेतु सुबह से ही असमंजस की स्तिथि में था। बार बार वह फ़ोन उठता था फिर नंबर मिलाये बिना ही रख देता था। जब से वह मुग्धा से मिला था उसका यही हाल था। अपनी पत्नी सुहासिनी की मृत्यु के  बाद से सुकेतु बहुत उदास रहने लगा था। अभी  उसने सुहासिनी के साथ जीवन का सफ़र शुरू ही किया था कि  मृत्यु  के क्रूर हाथों ने उसे छीन लिया। जीवन के सफ़र में वह अकेला रह गया। उसके लिए यह सफ़र एकदम बेरंग और बोझिल हो गया। वह इस राह पर अकेला चलने लगा। कितना प्रयास किया उसकी माँ ने की वह दोबारा घर बसा ले किन्तु वह दोबार जीवन शुरू करने को तैयार नहीं था। सुकेतु प्रारंभ से ही कुछ रिज़र्व नेचेर का था किन्तु पत्नी की मृत्यु के बाद तो वह और चुप रहने लगा। कुछ गिने चुने लोगों को ही उसके जीवन में प्रवेश की अनुमति थी। उन्हीं में एक थी मेधा। मेधा से अक्सर वह अपने दिल की बात कर लिया करता था। मेधा ने ही उसे मुग्धा से मिलाया था। मेधा के घर पर लंच पार्टी थी। वह सबसे अलग बागीचे में खड़ा फूलों को निहार रहा था। " इनसे मिलो ये हैं मुग्धा " मेधा ने उससे इंट्रोड्यूस कराते हुए कहा। सुकेतु ने नज़रें उठा कर देखा हलके रंग की सलवार कमीज

चौकलेट्स और लाल गुलाब

प्रतिमा और सचिन अभी अभी डिनर करके लौटे थे। आज उनकी शादी की दूसरी वर्षगांठ थी। पिछली बार की तरह इस बार भी वही हुआ। दोनों रेस्टोरेंट पहुंचे खाना आर्डर किया और चुप चाप डिनर लेकर लौट आये। दो एक औपचारिक बातों के सिवा उनके बीच  कोई बात नहीं हुई। घर लौटते  समय सचिन ने कहा " तुम तो जानती हो की मेरे पास वक़्त नहीं रहता और फिर मैं  खरीददारी के मामले  में कच्चा हूँ तुम ही अपने लिए कुछ ले लेना।" सभी कहते हैं की प्रतिमा बहुत भाग्यशाली है। तभी  तो उसे इतना अच्छा पति मिला है। अच्छी नौकरी है, सुदर्शन है, फिर कोई ऐब भी नहीं। फिर भी कुछ है जो प्रतिमा को खटकता है। उसने अपने जीवन की बहुत रूमानी परिकल्पना की थी। शायद किशोरावस्था में पढ़े गए रोमांटिक उपन्यासों का असर था की अपने जीवन साथी के तौर पर उसने एक ऐसे पुरुष की कल्पना की थी जो उसे बात बे बात सरप्राइज तोहफे दे, उसके साथ प्यार भरी बातें करे, उसे लाँग ड्राइव पर लेकर जाये। किन्तु सचिन का व्यक्तित्व ठीक उल्टा था वह मितभाषी और रिज़र्व किस्म का व्यक्ति था। विवाह के प्रारंभिक दिनों में अक्सर प्रतिमा सोंचती की शायद कुछ दिन साथ रहने के बाद सचिन उससे