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जुलाई, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुक्तिबोध

पाँच साल गुजर गए लेकिन आज भी उपेंद्र के सीने पर एक बोझ था.  अपराध बोध से वह मुक्त नही हो पा रहा था. हलांकि जो हुआ था वह महज़ एक हादसा था. लेकिन वह खुद को ही दोष देता था. सुबोध उसकी मौसी के देवरानी का बेटा था. वह उससे कुछ ही माह बड़ा था. उसके दोनों मौसेरे भाई उससे काफी बड़े थे. अतः सुबोध से उसकी बहुत पटती थी. दोनों अच्छे दोस्त थे. इत्तेफ़ाक से उपेंद्र का स्थानांतरण उसी शहर में हो गया जहाँ सुबोध  अपना ट्रैवेल एजेंसी का व्यापार चला रहा था. दोनो का विवाह नही हुआ था अतः जब भी फुर्सत मिलती दोनों एक दूसरे के साथ वक्त बिताते थे. दिनों दिन दोनो की दोस्ती और गहरी होने लगी थी. उपेंद्र का विवाह उसके ऑफिस की कुलीग निकिता से हो गया. साथ काम करते हुए दोनों में प्रेम हो गया. घर वालों की रज़ामंदी भी मिल गई. उनका विवाह हो जाने पर भी सुबोध और उपेंद्र के बीच के रिश्ते में कोई फ़र्क नही पड़ा. निकिता उस रिश्ते का तीसरा कोंण बन गई. उपेंद्र का प्रमोशन हुआ था. उसने नई कार खरीदी थी. इसका जश्न मनाने के लिए उसने सुबोध को घर बुलाया. सुबोध ने कहा कि अच्छा हो कि वह निकिता को लेकर उसके घर आ जाए. निकिता ने कहा

बहके कदम

अमन अपनी माँ को मनाने में लगा था. उसका कहना था कि इम्तेहान पास हैं उसके दोस्तों ने ग्रुप स्टडी करने की योजना बनाई है. सभी लोग उसके मित्र रितेश के घर पर एकत्र होने वाले हैं. वह भी जाना चाहता है ताकि अच्छी तैयारी हो सके. उसकी मम्मी का कहना था "घर में कोई तुम्हें तंग करने वाला नही है. फिर दूसरे के घर जाने की क्या जरूरत है." अमन ने तर्क दिया "ग्रुप स्टडी का फायदा है कि हम एक दूसरे की मदद कर सकते हैं. मुझे फिज़िक्स में दिक्कत होती है. रितेश फिज़िक्स का मास्टर है. वह मेरी मदद करेगा." इतने से भी उसकी मम्मी संतुृ्ष्ट नही हुईं. अमन ने दांव खेला "ठीक है नही जाता. यहीं रह कर पढ़ता हूँ. पर नंबर कम आएं तो मुझे मत कहना." इस तर्क से मम्मी कुछ ढीली पड़ती नज़र आईं. उसने आगे कहा "आप मुझे अभी भी बच्चा समझती हैं. मुझ पर यकीन नही करतीं. मुझे यह अच्छा नही लगता है." उसकी मम्मी पूरी तरह ढीली पड़ गईं "मुझे तुम पर पूरा यकीन है बेटा. पर तुम्हारे पापा भी यहाँ नही हैं. इसलिए घबराहट होती है कि कुछ गलत ना हो जाए." अमन ने उन्हें आश्वासन दिया कि कुछ गलत नही ह

कोशिश

राजेंद्र ने अपना आईपैड उठाया और पूरा पैराग्राफ फिर से पढ़ा. बात अभी भी नही बनी थी. उन्होंने पूरा पैराग्राफ डिलीट कर दिया. वह सुबह से प्रयास कर रहे थे कुछ लिखने का. लेकिन जो भी लिखते उससे संतुष्ट नही हो पा रहे थे. आज कितने सालों के बाद फिर से लिखना आरंभ किया था. पीछे छूट गए अपने शौक को पुनः जीवित करने की कोशिश कर रहे थे.  किशोरावस्था से ही अपने विचारों को एक डायरी में लिखने की आदत थी उन्हें. फिर वही विचार और व्यवस्थित होकर कविता. कहानी और लेख की शक्ल में स्कूल व कॉलेज की मैगज़ीन में छपने लगे. साहित्य से लगाव था उन्हें. खाली वक्त में कोई पुस्तक पढ़ना अथवा अपनी डायरी लिखना उन्हें घूमने फिरने से ज़्यादा अच्छा लगता था. एक समय था जब उनके मन में लेखक बनने का विचार भी आया था. अपनी यह ख़्वाहिश उन्होंने अपने पिता को बताई तो उनकी प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाने वाली नही थी "देखो बेटा यह सब शौक तक ठीक है लेकिन ज़िदगी जीने के लिए पैसों की ज़रूरत होती है. लेखक को तारीफ के अलावा क्या मिलता है."  उन्होंने घर में पैसों की तंगी देखी थी. उनके भविष्य के लिए उनके माता पिता अपनी छोटी छोटी इच्छाओं के लि

शुभ घड़ी

शर्माजी शादी का कार्ड देख रहे थे.  उनके परम मित्र रघुवर टंडन की बेटी का विवाह अगले हफ्ते था. टंडनजी ने कल फोन पर भी निमंत्रण दिया था और अभी कुछ समय पहले ही कूरियर से यह कार्ड भी आ गया. शर्माजी सोंच में पड़ गए. इधर स्वास्थ कुछ अच्छा नही था. ऐसे में दिल्ली जाना कठिन था. वैसे फोन पर उन्होंने अपनी समस्या समझा दी थी. किंतु टंडनजी घनिष्ठ मित्र थे. किसी को तो जाना ही चाहिए. वह अपनी बेटी गायत्री को भेजने के विषय में सोंचने लगे. जब से उसका अपने पति से तलाक हुआ था उसने स्वयं को एक दायरे में कैद कर लिया था. काम पर जाने के अतिरिक्त वह बहुत कम ही घर से बाहर निकलती थी. ना किसी से मिलना ना बात करना. बस अपने में खोई रहती थी. शर्माजी को उसकी इस दशा से बहुत कष्ट होता था. कहीं ना कहीं वह इसके लिए स्वयं को दोषी मानते थे. शाम को जब गायत्री लौटी तो उन्होंने दिल्ली जाने के विषय में उससे बात की. "तुम्हें तो पता है कि मेरा स्वास्थ इन दिनों ठीक नही है. मेरा जाना तो कठिन होगा. तुम चली जाती तो अच्छा होता." कुछ देर सोंचने के बाद गायत्री बोली "आप तो जानते हैं ना पापा अब मेरा कहीं भी आने जाने

अपना दामन

सारे शहर ने अपने वीर शहीद जतिन को भावभीनी विदाई दी. सरहद पर घुसपैठियों से लड़ते हुए उसने अपनी जान दे दी थी. जिस विद्यालय का वह छात्र रह चुका था उसके प्रधानाचार्य बंसल जी ने एसंबली में छात्रों को देश प्रेम तथा देश सेवा पर बहुत भावुक भाषण दिया. सभी बच्चों ने उसे पसंद किया. रात को डिनर करते हुए उनके बेटे ने कहा "आज आपकी बातें सुनकर मैने तय किया है कि मैं आई आई टी की जगह एन डी ए में जाऊं." बंसलजी ने अपने बेटे को देख कर कहा "मैं और तुम्हारी माँ इस लिए इतनी मेहनत करते हैं कि तुम कुछ बन सको. जिससे हमारा बुढ़ापा चैन से कटे. तुमसे जो कहा गया है वही करो." "पर पापा..." उनके बेटे ने कुछ कहना चाहा. बंसलजी ने भारी आवाज़ में उसे डपट दिया "मुझे कोई बहस नही करनी है." उनका बेटा यह देख कर बहुत दुविधा में था.

चुनौती

कोई नही समझ पा रहा था कि क्यों लंदन में अपना सब कुछ समेट कर रमेश भारत लौट रहा था. वह पिछले पच्चीस वर्ष से वहाँ था. पूरी तरह से व्यवस्थित हो चुका था. वह अकेला था व अपने हिसाब से जीवन जी रहा था. किसी को भी अंदाज नही था कि वह ऐसा करेगा. रमेश के पिता अक्सर उसे उनके संघर्षों के विषय में बताते थे जो उन्होंने स्वयं की एक पहचान बनाने के लिए किए थे. वह समाज के पिछड़े व शोषित वर्ग से संबंध रखते थे. उनके पिता खेतों में मजदूरी करते थे. फिर भी उन्होंने आर्थिक कठिनाइयों तथा सामाजिक चुनौतियों का सामना कर अपने पुत्र को पढ़ाया. अपनी मेहनत के बल पर वह आई ए एस अधिकारी बने. आर्थिक कठिनाई तो नही हुई किंतु रमेश को भी अपनी सामाजिक स्थिति के कारण भेदभाव झेलना पड़ा. इन सबसे बचने के लिए वह लंदन चला गया. वहाँ अपना एक स्थान बनाया. सब ठीक था किंतु विकास के पथ पर बढ़ते अपने मुल्क से उसे आज भी ऐसी खबरें मिलती जो उसके समाज की सोचनीय दशा को प्रदर्शित करती थीं. यह सब सुन उसके मन में पीड़ा होती थी. वह इस विषय में कुछ करना चाहता था. एक दिन उसने भारत लौटने का निश्चय कर लिया. अपने समाज के लिए वह भी उसी प्रकार संघर्ष कर

'बताशा' बाबा

शंकर अपने गंतव्य पर पहुँच गया था. कुछ तंग गलियों को पार कर वह एक मकान के पास जाकर रुका. यही बाबा जी का डेरा था. बाहर थोड़ी सी खुली जगह में बहुत से लोग जमा थे. उसने नियत राशि जमा करके अपना नंबर ले लिया. पिछले कई साल से समस्याओं ने उसके घर डेरा जमा लिया था. पहले जिस फैक्टरी में वह काम करता था वह बंद हो गई. अपनी जमा पूंजी लगा कर व्यापार आरंभ किया. कुछ दिन सब सही चला फिर उसमें भी नुकसान झेलना पड़ा. व्यापार बंद कर फिर से नौकरी कर ली. वहाँ सब सही था तो अब पत्नी बीमार पड़ गई. एक के बाद एक आने वाली मुसीबतों से वह तंग आ गया था. ईश्वर पर से उसका भरोसा उठ गया था. परसों उसकी मुलाकात अपने पुराने दोस्त से हो गई. उसकी कठिनाई सुन कर उसके मित्र ने उसे 'बताशा' बाबा के बारे में बताया. बाबा व्यक्ति की बात सुन कर कुछ क्षण आंखें बंद कर मंत्र जाप करते थे फिर व्यक्ति को चीनी के बने बताशे प्रसाद रूप में देते थे. उन्हें खा कर समस्या का समाधान हो जाता था. इस सब के लिए बाबा एक सौ एक रुपये की दक्षिणा लेते थे. कई लोगों को फायदा पहुँचा था. अतः शंकर के मित्र ने उससे भी बाबा के पास जाने को कहा. उसकी बात पर

खुशियां

मिस्टर डिसूज़ा घर में दाखिल हुए तो देखा कि उनकी पत्नी फिर से सारे खिलौने और कपड़े बिस्तर पर बिछाए बैठी थीं. वह अक्सर घंटों बैठी उन्हें ताकती रहती थीं.  मिस्टर डिसूज़ा बॉलकनी में आकर बैठ गए. उन्होंने तो स्वयं को किसी प्रकार उस दुख से उबार लिया था किंतु उनकी पत्नी रोज़ के लिए यह संभव नही हो पा रहा था. यह सारे कपड़े और खिलौने उन्होंने अपने पोते पीटर के लिए खरीदे थे. बॉलकनी में बैठे हुए अतीत के कुछ पल चलचित्र की तरह उनके मन में चलने लगे. "डैड मुझे आस्ट्रेलिया के एक फाइव स्टार होटल से ऑफर मिला है. अच्छी तनख्वाह है. मैने वहाँ जाने का फैसला कर लिया है." जेम्स ने मिस्टर डिसूज़ा से कहा. "पर बेटा यहाँ भी तुम्हें अच्छा पैसा मिल रहा है. फिर घर का आराम छोड़ कर क्यों विदेश जाना चाहते हो." मिस्टर डिसूज़ा ने समझाने का प्रयास किया. "डैड आप तो जानते हैं कि मेरा सपना अपना रेस्टोरेंट खोलने का है. यहाँ से बहुत अधिक वेतन है वहाँ.  मैं चाहता हूँ कि वहाँ कुछ साल रह कर पैसे बचा लूँ फिर यहाँ आकर अपना रेस्टोरेंट खोलूँगा." "वह तो अभी भी हो सकता है. मेरी सेविंग्स हैं. गोवा

संवेदना

संगीता निश्चल बैठी शून्य में ताकती रहती थी. किसी भी बात की कोई प्रतिक्रिया ही नही देती थी. उस हादसे ने परिवार के सभी सदस्यों को झझकोर दिया था. किंतु समय के साथ सभी धीरे धीरे उस दुख से बाहर आ गए. परिवार वालों की तमाम  कोशिशों के बावजूद भी संगीता अपने गम से बाहर नही आ पाई. उसका सोलह साल का बेटा सबके देखते देखते बिजली का करंट लगने से मर गया. एक पारिवारिक कार्यक्रम में लापरवाही से एक नंगा तार जिसमें करंट था फर्श पर पड़ा था. असावधानी के कारण उनका बेटा उसकी चपेट में आ गया. जब तक कोई कुछ करता देर हो चुकी थी. संगीता की आंखों के सामने सब घटा. वह चीखी और उसके बाद से चार साल हो गए उसके मुख से  आज तक एक शब्द नही निकला. आज सर्दी बहुत थी. घर में काम करने वाली अपने दो साल के बच्चे को लेकर आई थी. उसे एक जगह बिठा कर वह अपना काम करने लगी. बाकी सब भी अपने काम में व्यस्त थे. बच्चा अपनी जगह से उठा और इधर उधर देखते हुए संगीता के कमरे तक पहुँच गया. पहले वह कुछ ठिठका लेकिन संगीता की तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना मिलने पर बेधड़क कमरे में घुस गया. वह कमरे के छोटे मोटे सामानों से खेलने लगा. तभी उसकी नजर रूमहीटर

सेवक

पुष्पेश अरोड़ा अपनी समाज सेवा के लिए जाने जाते थे. खासकर समाज की उपेक्षित महिलाओं के लिए चलाए जा रहे उनके शक्ति केंद्र की सभी सराहना करते थे. यहाँ महिलाओं को ना सिर्फ आसरा दिया जाता था बल्कि उन्हें प्रशिक्षित कर अपने पैरों में खड़़े होने में भी मदद की जाती थी. इधर कुछ दिनों इस केंद्र को लेकर कई तरीके की बातें हो रही थीं. एक स्वयंसेवी संस्था की मालकिन ने यह आरोप लगाया था कि केंद्र की आड़ में वहाँ स्त्रियों का दैहिक शोषण होता है. उनके इस आरोप के बाद एक विवाद उत्पन्न हो गया था. इस विवाद को समाप्त करने के लिए पुष्पेश ने जांच करवाने की खुली चुनौती दी. एक जांच दल उनके केंद्र पर पहुँचा. वहाँ हर उम्र की महिलाएं अपने अपने काम में लगी थीं. पूछे जाने पर सभी सिर्फ यही कहतीं कि यहाँ सब ठीक है. सब कुछ व्यवस्थित दिख रहा था. केंद्र की महिलाओं के ह्रदय की हलचल कोई नही सुन पा रहा था.

शह और मात

विजय राज सिंघानिया का नाम उद्योग जगत में शीर्ष पर था. वह सिंघानिया ग्रुप्स के मालिक व चेयरमैन थे. वॉइस चेयरमैन के पद पर उनके परम मित्र राजकिशोर डालमिया कार्यरत थे. किंतु इधर कुछ दिनों से वह गंभीर रूप से अस्वस्थ थे. अतः उनके पद से इस्तिफा देने की खबरें ज़ोरों पर थीं. विजय राज के छोटे भाई जय राज ने भी सिंघानिया ग्रुप्स को इस मुकाम पर लाने के लिए जी तोड़ मेहनत की थी. किंतु अधिकांशतयः वह नेपथ्य के पीछे ही रहे. सारी चर्चा केवल विजय राज व राजकिशोर के हाथ ही आई. जय राज बहुत शांत व्यक्ति थे. वह अविवाहित थे. विजय राज के बेटे उदय राज को वह पुत्रवत स्नेह करते थे. हाल ही में लंदन से व्यवसाय प्रबंधन की डिग्री लेकर लौटे उदय राज अपने प्रेम प्रसंगों तथा फार्मूला वन रेसिंग के अपने शौक के कारण अक्सर चर्चा में रहते थे. अटकलों के मुताबिक राजकिशोर ने अपने पद से इस्तिफा दे दिया. विजय राज ने वह कुर्सी अपने पुत्र को सौंप दी. उदय राज के पद संभालने को लेकर उद्योग जगत में बहुत वाद विवाद हुए. उनकी अनुभवहीनता तथा रंगीन मिज़ाज की बहुत आलोचना हुई. लेकिन सारे वाद विवाद ठंडे पड़ गए जब दो ही महिने बाद फार्मूला वन र

हसरत

विमला ने पैसे एक प्लास्टिक की डिब्बी में रख भगवान के सामने रख दिए. हाथ जोड़ कर उसने मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद किया. अब उसका बेटा स्कूल जा सकेगा. उसकी हसरत थी कि उसका बेटा पढ़ लिख कर कुछ बने. डरती थी कि यदि उसे स्कूल नही भेज सकी तो बस्ती के बुरे लड़कों की संगत में कहीं बिगड़ ना जाए. पिछले कई महिनों से वह पेट काट कर अपनी तनख्वाह में से एक हिस्सा अपनी मालकिन के पास जमा करा रही थी. घर में पैसे रखना खतरनाक था. एक तो खोली सुरक्षित नही थी. दूसरा सबसे बड़ा खतरा उसका पति था. उसका पति एक नंबर का शराबी और बदमाश इंसान था. गलत लोगों की सोहबत में रह कर झपटमारी तथा चोरी करता था. इस चक्कर में कई दफा जेल भी गया था. ज्यादातर अपने दोस्तों के साथ आवारागर्दी करता रहता था. जब कभी कोई हाथ नही मार पाता था तो पैसों के लिए घर आ जाता था. घर में जो भी मिलता छीन कर ले जाता था. विमला खुश थी. कल ही वह बेटे के स्कूल की फीस जमा कर देगी. उसने कुछ मैले कपड़े धोने के लिए उठाए. कल जब स्कूल जाएगी तो साफ सुथरे कपड़े पहन कर जाएगी. वह कपड़े भिंगो ही रही थी कि उसका बेटा भागता हुआ आया. उसने बताया कि उसके पिता बस्ती के बा

फैसला

एक प्रेमी युगल के अपराध का दंड सुनाने के लिए गाँव की पंचायत बुलाई गई थी. पंचायत ने फैसला सुनाया कि प्रेमी युगल को पूरे गाँव के समक्ष कोड़े मारे जाएं ताकि अन्य युवक व युवतियों को सबक मिल सके. दोनों प्रेमी दर्द से कराह रहे थे. परंपरा, जाति, धर्म और भय की जंजीरों से बंधा गाँव चुपचाप सब देख रहा था.

हमदर्द

 लता को आज पापा की नसीहतें याद आ रही थीं "देखो बेटा जब वक्त खराब हो तो साया भी साथ छोड़ देता है. ऐसे में किसी पर भी भरोसा ना कर खुद को मज़बूत बनाना चाहिए." तब बचपना था. लता सोंचती थी कि जब उसके आस पास इतने लोग हैं तो भला वह अकेली कैसे होगी. उसके पति की बीमारी ने उसके पिता की कही बात सच साबित कर दी. दुनिया का एक अलग ही रूप दिखाई दिया उसे. किसी ने भी साथ नही दिया. जिनकी उसने स्वयं सहायता की थी वह भी बगलें झांकते हैं. पिछले एक महिने से वह घर और अस्पताल के बीच चकरघिन्नी बनी हुई है. कभी डॉक्टरों से मिलने के लिए या फिर टेस्ट और दवाइयों के लिए इधर से उधर भागती फिरती है. ऐसा नही कि यह सब वह भार समझ कर कर रही हो. यह सब तो वह पूरे मन से कर रही है. जो प्यार और सम्मान उसे अपने पति से मिला है उसके सामने तो यह कुछ भी नही. उसे किसी से किसी भी तरह की मदद की अपेक्षा नही. उसे तो केवल भावनात्मक सहारे की आवश्यक्ता है. कोई हो जो उसे पास बिठाकर सांत्वना दे ' तुम सब सही तरह से संभाल रही हो. सब सही हो जाएगा.' अभी अभी वह अस्पताल पहँची है. उसके पति अभी सो रहे थे. कुछ समय में नर्स आकर नित

रंग

थकी हारी रीमा घर में दाखिल हुई. डाइनिंग टेबल पर रखे जग से गिलास में पानी डाला. अभी एक घूंट पानी ही पिया था कि पंकज ने सवाल किया "आखिर कब तक यह चलेगा. अब तुम रोज़ ही देर से आने लगी हो." रीमा को गुय्सा आ गया. गिलास पटकते हुए बोली "बताया था ना कि एक नए असाइनमेंट के लिए प्रेज़ंटेशन बना रही हूँ. काम नही करूँगी तो प्रमोशन कैसे मिलेगा." "क्या करना है प्रमोशन का. मुझे मिल चुका है ना. वह हमारे लिए बहुत है." पंकज ने भी ऊंची आवाज़ में कहा. "मैं नही चाहता कि तुम अपनी गृहस्ती को नज़रअंदाज करो." कह कर वह पैर पटकता हुआ बेडरूम में चला गया. रीमा एक कुर्सी खींच कर बैठ गई. वह ठगा सा महसूस कर रही थी. मन ही मन सोंचने लगी कि क्या यह वही पंकज है जिससे उसने विवाह किया था. शादी के पहले कही गई उसकी बातें उसके दिमाग में घूमने लगीं. "मैं आज के जमाने का मर्द हूँ. मुझे मेरे पीछे चलने वाली पत्नी नही चाहिए. मुझे तो वह बीवी चाहिए जो हर चीज में मुझसे बराबरी करे." पर आज उसका बराबरी करना पंकज को अखर रहा था. पहले कहता था कि गृहस्ती की जिम्मेदारी दोनों की साझा है. वह हर का

भूचाल

लाला हरबंसलाल अपनी पुशतैनी हवेली के आंगन में बैठे थे. जो सामान ले जाया जा सकता था वह गठरियों में बंधा रखा था. उस पर एक नजर डाल कर उन्होंने गहरी सांस ली.  आंगन में गौरैया रोज़ की तरह फुदक रही थी. मुंडेर पर बैठा कौवा भी वैसे ही कांव कांव कर रहा था. प्रकृति का हर काम वैसे ही चल रहा था. कहीं कोई उथल पुथल नही थी सिवाय इंसानी ज़िदगी के. इंसानों के जीवन में भूचाल आया था. मजहब के नाम पर मुल्क दो हिस्सों में बंट गया था. इस बंटवारे ने बहुतों को उनकी जड़ों से अलग कर दिया था.

ठग

बस्ती में सभी खुश थे और बेसब्री से उसके आने की राह देख रहे थे. आज मियाद पूरी हो रही थी. सभी को उनकी जमा की गई राशि का दोगुना मिलने वाला था. यही नही उनमें से एक भाग्यशाली व्यक्ति को पच्चीस हजार का नगद ईनाम भी मिलने वाला था. सभी यह मना रहे थे कि वह भाग्यशाली व्यक्ति वो ही हों.  एक महिने पहले एक स्मार्ट सा दिखने वाला लड़का उनकी बस्ती में आया था. वह स्वयं को एक नामी कंपनी से संबंधित बता रहा था. उसने कंपनी की योजना बताते हुए कहा था कि कंपनी कई ऐसे प्रोजक्ट पर काम कर रही है जहाँ मुनाफा ज्यादा तथा जल्दी मिलता है. अतः जो कंपनी में पैसा लगाएगा उसे एक महिने बाद दोगुनी राशि मिलेगी तथा एक भाग्यशाली को नगद ईनाम भी मिलेगा. सभी ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार पैसा जमा किया. उन्हे एक रसीद दी गई थी जिस पर जमा राशि के साथ पता व मोबाइल नंबर लिखा था.बहुत समय बीत जाने पर भी जब वह लड़का नही आया तो उन लोगों ने मोबाइल पर फोन किया. फोन स्विच अॉफ था. जब वह सब मिल कर उस पते पर पहुँचे तो वहाँ कोई दफ्तर नही था.

अटल फैसला

"परेशान मत हो माँ मैं जल्दी ही अपने लिए कोई ठिकाना ढूंढ़ लूंगी." अपनी ससुराल छोड़ कर आई मंजुला ने कहा. "कैसी बातें करती है. तेरे रहने से मुझे क्या परेशानी होगी." माँ ने समझाते हुए कहा "पर बेटा इतनी सी बात पर कोई घर छोड़ता है क्या." मंजुला ने आश्चर्य से कहा "ये इतनी सी बात है." जब से उसकी ससुराल वालों को उसके गर्भवती होने का पता चला था उस पर सोनोग्राफी कराने के लिए दबाव बढ़ रहा था. वह इसका कारण जानती थी. अतः उसने साफ मना कर दिया. ज्यादा जोर पड़ने पर घर छोड़ कर आ गई. उसकी माँ ने बात बढ़ाई "यह भी तो हो सकता है कि जाँच का नतीजा उनके मन मुताबिक हो." मंजुला ने अपनी माँ से प्रश्न किया "यदि उनके मन का ना हुआ तो. क्या करूँ. उनके मन के अनुसार काम करुँ." माँ कुछ नही बोल पाईं. "मुझे ईश्वर ने जो दिया है मैं मन से उसे स्वीकार कर चुकी हूँ. मुझे कोई जाँच नही करानी है." मंजुला ने अपना अटल फैसला सुना दिया.

जन्मदिन का तोहफा

नकुल ने अपना गुल्लक खोला और अपनी जमा पूंजी को गिना. अभी भी बहुत पैसे इकठ्ठे करने हैं. पिछले तीन महिनों से वह पैसे बचा रहा था. आइसक्रीम चॉकलेट्स की अपनी इच्छा को दबाकर सारी पॉकेटमनी जमा कर देता था. इस बीच पड़े अपने जन्मदिन पर कपड़ों के लिए मिले पैसे भी उसने खर्च नही किए. घर में सभी जानते थे कि वह पैसे बचा रहा है पर क्यों यह एक रहस्य था. वह किसी को कुछ नही बताता था. घर वाले यह सोंच कर खुश थे कि इसी बहाने बचत की आदत पड़ रही है. नकुल पढ़ने लिखने में बहुत होशियार था. सदैव अच्छे अंक लाता था. उसे यदि कोई टक्कर दे पाता था तो वह था उसका बेस्ट फ्रेंड संजीव. संजीव भी एक मेधावी छात्र था. नकुल और उसके बीच एक स्वस्थ प्रतियोगिता चलती थी कि देखें इस बार कौन कक्षा में प्रथम आता है. दोनों में आपस में बहुत प्रेम था. हलांकि दोनों के परिवारों की आर्थिक स्थिति में बहुत फ़र्क था. नकुल के माता पिता दोनों बहुत अच्छा कमाते थे. उसके घर में किसी चीज़ की कमी नही थी. जबकी संजीव के पिता एक छोटी सी दुकान चलाते थे. घर में प्रायः पैसों का आभाव रहता था. संजीव पढ़ने में अच्छा था इसीलिए उसकी फीस माफ थी तथा उसे छात्

हकीकत

गाँव के चौपाल पर एक नाटक खेला जा रहा था. चारपाई पर पूरे ठसक के साथ बैठी  ताई अपने पोतों का गुणगान कर रही थीं "मेरे चार पोते हैं. सब हट्टे कट्टे. मैने तो हर कोशिश की कि छोरियां पैदा ना हों. अब मैं चारों का ब्याह करूँगी ताकि वंश आगे बढ़ सके." पास ही मोढ़े पर बैठी पड़़ोसन बोली "कैसे करोगी उनका ब्याह ताई. अब छोरियां बहुत कम बची हैं. कई छोरे कुंवारे बैठे हैं." ताई डर गईं "ऐसा कैसे हो सकता है." "क्यों नही हो सकता ताई. जो कोशिश तुमने की वही औरों ने भी की." पड़ोसन ने मुस्कुरा कर कहा. ताई सोंच में पड़ गई. पड़ोसन ने बात आगे बढ़ाई "अब परेशान होने से क्या ताई. कुदरत से खेलने का तो यही नतीजा होता है. कुदरत ने तो छोरा छोरी दोनों को बनाया है." नाटक समाप्त हो गया. नीली जींस और सफेद टी शर्ट पहने कुछ लड़के लड़की सामने आए और हाथ जोड़ कर दर्शकों का धन्यवाद किया. कॉलेज के ये स्टूडेंट्स फोकट का तमाशा दिखा कर लोगों को बहुमूल्य संदेश देते थे.

धुन

आज बहुत सर्दी थी. बाहर घना कोहरा था. रामसंजीवन ने लिहाफ हटाया और घड़ी की तरफ देखा. सुबह के छह बजे थे. वह बिस्तर से उठ गए. तैयार होने के बाद उन्होंने नाश्ता किया और घर से निकल गए. जाड़ा, गर्मी, बरसात कुछ भी 62 साल के इस शख़्स को रोक नही पाता था. अपने मकसद के आगे उन्हें कुछ नही सूझता था. एक गरीब पिछड़े परिवार में जन्मे रामसंजीवन ने कई परेशानियां झेल कर अपनी शिक्षा पूरी की. सरकारी नौकरी हांसिल की. लेकिन अवकाश ग्रहण करने के बाद जब वह गाँव वापस आए तो यह देख कर दुखी हुए कि आज भी गाँव में शिक्षा के प्रति जागरूकता का आभाव है. उन्होंने स्वयं को इसी उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया. अब गाँव के कई बच्चे स्कूल जाने लगे थे. फिर भी बहुत सी जानकारियां गाँव में उपलब्ध नही थीं. आवश्यक्ता गाँव को बाहरी दुनिया से जोड़ने की थी. इसका सबसे अच्छा तरीका था इंटरनेट. उन्होंने निश्चय किया कि गाँव में एक कंप्यूटर प्रशिक्षिण केंद्र खोलेंगे. इस केंद्र में बच्चों को कंप्यूटर चलाना सिखाया जाएगा. जिससे वह इंटरनेट का इस्तेमाल कर देश विदेश की जानकारी प्राप्त कर सकें. अपने इसी लक्ष्य के लिए वह सरकारी या गैरसरकारी सभी

प्रश्न

फिर हमेशा की तरह सरला के पति ने उसे पीटा गालियां दी. उसने चुपचाप सब कुछ सह लिया. वह इस सबको अपनी नियति मान चुकी थी. सुबह और शाम के होने जैसी एक सामान्य घटना की तरह ही वह इसे भी स्वीकार कर चुकी थी. उसे पीटने के बाद उसका पति जाकर सो गया. वह भी उठी और जाकर अपने सात साल के बेटे के बगल में लेट गई. कुछ क्षणों के बाद उसका बेटा उससे लिपट गया. उसके आंसू पोंछते हुए बोला "मम्मी, पापा तुम्हें बिना बात के पीटते हैं. तुम कभी कुछ कहती क्यों नही." उसके बेटे के इस मासूम सवाल ने उसे झझकोर कर रख दिया. वह सोंचने लगी कि क्यों उसने इस अपमान को अपना भाग्य मान लिया है. जिंदा होते हुए भी अपने आत्मसम्मान को मार दिया है. मन में एक निश्चय कर उसने अपने बेटे का माथा चूम कर कहा "अगली बार मैं चुपचाप नही सहूँगी."

इंद्रधनुष

एक छोटे से कमरे में बारह लड़कियां ठूंसी गई थीं. उनकी उम्र १५ से २० वर्ष के बीच थी. कमरे में केवल एक छोटी सी खिड़की थी. इतने लोगों के कारण बहुत घुटन थी. पूनम खिड़की पर खड़ी थी. कुछ ही देर पहले बारिश रुकी थी. आसमान का जो टुकड़ा खिड़की से दिख रहा था उस पर इंद्रधनुष खिला था. उसे देख कर पूनम को अपने गांव की याद आ गई. सुदूर पहाड़ों पर बसा उसका गांव बहुत सुंदर था. दूर तक फैले मैदान, कल कल बहती नदी, पेंड़ पौधे, पशु पक्षी सभी मनोहारी थे. वहाँ आज़ाद पंछी की तरह चहकती फिरती थी वह. कमी थी दो वक्त पेट भर खाने की. तन ढकने के लिए पर्याप्त कपड़ों की. वह उसकी माँ और छोटा भाई सभी खेतों में काम करते थे. कड़ी मेहनत के बाद जो मिलता उसका बड़ा हिस्सा उसके पिता की शराब की लत की भेंट चढ़ जाता. जो बचता उससे दो वक्त चूल्हा जलाना संभव नही था. अपने कष्टों के बावजूद भी वह खुश थी. अचानक ही एक हलचल की तरह सुशील गांव आया. पांच साल पहले वह मुंबई भाग गया था. अब जब लौटा था तो उसके ठाट ही निराले थे. फिल्मी हीरो जैसा हुलिया बना रखा था. सभी बस उसी के बारे में बात कर रहे थे. पूनम भी उसकी तरक्की से प्रभावित थी. वह भी

छलावा

स्नेहा अपना चयन हो जाने के कारण बहुत प्रसन्न थी. अब वह शोभना जी की स्वयंसेवी संस्था के लिए काम करेगी. शोभना जी उसका आदर्श थीं. वह उनके विचारों से बहुत प्रभावित थी. उन्हीं के कारण उसने सोशल वर्क में मास्टर किया था. स्नेहा का काम उन संभावित लोगों से संपर्क करना था जो उनकी संस्था को दान दे सकते थे. संस्था मुख्यतया बच्चों तथा महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करती थी. स्नेहा लोगों से मिल कर उन्हें इस कार्य में सहयोग देने के लिए प्रेरित करती थी. एक बार किसी काम के सिलसिले में स्नेहा को शोभना जी के घर जाना पड़ा. वह बैठक में बैठी उनका इंतजार कर रही थी. वहाँ की सुरुचिपूर्ण सजावट देख कर वह बहुत प्रभावित थी. तभी बारह तेरह वर्ष की एक लड़की ट्रे में पानी लेकर आई. उसे देख स्नेहा को आश्चर्य हुआ. शोभना जी जैसी समाज सेविका के घर यह बच्ची काम कैसे कर सकती है. पानी पीकर उसने पूंछा "क्या तुम यहाँ काम करती हो." बच्ची ने धीरे से हाँ कहा और गिलास लेकर जाने लगी. किंतु जाने कैसे उसका संतुलन बिगड़ गया और वह लड़खड़ा कर गिर गई. काँच का गिलास टूट गया. ठीक उसी समय शोभना जी ने बैठक में प्रवेश किया. बजाय

आक्रोश

मैं पुलिस स्टेशन में बैठा था. वह भी मेरे सामने खड़ा अपना बयान दे रहा था. अपनी आंखों के सामने उसे देख मेरा रोम रोम जल रहा था. आज की शाम कितनी खुशनुमा थी. मेरा बेटा अपने प्रमोशन की खुशी में मुझे डिनर पर ले गया था.  आज हम दोनों की मेहनत रंग लाई थी. उसने इस तरक्की के लिए रात दिन एक कर दिया था. बचपन से ही वह होनहार था. जीवन को लेकर उसका अपना एक सपना था. आगे बढ़ने का, समाज में अपना मुकाम बनाने का. एक हेड क्लर्क के रूप में मेरी तन्ख्वाह कम थी. लेकिन उसके सपने पूरा करना ही मेरी जिंदगी का लक्ष्य बन गया. उसकी माँ बीच सफर में ही चल बसी. माँ बाप दोनों की ज़िम्मेदारियां निभाईं मैने. आज उस तपस्या का फल मिला था. हम दोनों घर लौट रहे थे कि मेरे बेटे ने कहा कि आज हम दोनों मीठा पान खाकर इस शाम को पूरा करेंगे. मुझे कार में बैठा छोड़ कर वह पान लेने सड़क के पार चला गया.  मैं कार में बैठा उसे देख रहा था. तभी अचानक जोर का धमाका हुआ. एक तेज रफ्तार कार मेरे बेटे को उड़ा कर चली गई. कुछ पलों के लिए मैं सन्न रह गया. फिर कार से निकल कर अपने बेटे की तरफ भागा. वहाँ पहुँच कर उसका सर गोद में लिया. किंतु सब कुछ खत्म हो

सही दिशा

लता तेजी से अपने घर की तरफ बढ़ रही थी. आज काम से लौटते हुए उसे देर हो गई थी. आज मनचंदा मेमसाहब के यहाँ किटी पार्टी थी. इसलिए काम ज्यादा था. सुबह से शाम तक कई घरों में काम करती थी. इतनी मेहनत के बाद वह काम चलाने लायक कमा पाती थी. पति ने तब उसे घर से निकाल दिया जब वह पेट से थी. उसका संबंध किसी और स्त्री से था. कितनी तकलीफें सही उसने. लेकिन हिम्मत नही हारी. अब इतना कर पाई थी कि किराए की एक खोली ले ली थी. अब तो बस वह एक ही ख्वाब के लिए जी रही थी. घर पहुँची तो बेटी ने पूंछा "आज देर क्यों हो गई." "वो मेमसाहब के घर काम ज्यादा था." उसने प्यार से अपनी बच्ची के सर पर हाथ फेरा "भूख लगी है. मेमसाहब ने खाना दिया है. मैं अभी लगाती हूँ." वह जल्दी से खाना निकालने लगी. तभी उसकी बेटी खुशी से बोली "अम्मा आज स्कूल में अंग्रेजी का टेस्ट था. मुझे पूरे नंबर मिले. टीचर ने वेरी गुड भी लिखा." उसने कॉपी लता की तरफ बढ़ा दी. अपने आंचल से हाथ पोंछ कर उसने कॉपी पकड़ ली. उसकी आंखों में खुशी की चमक थी. हलांकि एक भी अक्षर वह नही पहचानती थी लेकिन साफ देख सकती थी कि जिस लक्ष्य

होड़

शाइना ने कुछ दिन पूर्व ही कार्यभार संभाला था. प्रशासनिक सेवा में आने का उसका उद्देश्य सरकारी काम काज में सुधार लाना था. इसलिए कॉरपोरेट सेक्टर में जाने की बजाय उसने आई ए एस की परीक्षा पास की थी. लेकिन जब से उसने पद संभाला था सभी बस जी हुजूरी में लगे थे. अपना काम करने की बजाय उसे प्रसन्न करने में लगे थे. वहाँ एक होड़ सी चल रही थी. कौन उसे कितना प्रसन्न कर सकता है. यह सब देख उसे ऊब होने लगी थी. चापलूसों के बीच वह ऐसे शख़्स को तलाश रही थी जो इस भीड़ का हिस्सा ना हो. रजत उस भीड़ से अलग था. वह केवल अपने काम से ही मतलब रखता था.  रजत उसके लिए उम्मीद की किरण था. शाइना ने फैसला किया कि वह अन्य लोगों को भी इस भीड़ से निकालने का प्रयास करेगी.

भटकाव

वह उन बदनाम गलियों में भटकता था. मद्धम रौशनी में सस्ता मेकअप लगाए कामुक अदाओं से लुभाते चेहरों में वह अपनी पसंद का चेहरा खोजता था. बेशर्मी से उघाड़े गए जिस्म में वह संतुष्टि तलाशता था. किंतु हर बार एक और अनुभव की चाह उसे संतुषट नही होने देती था. पेशे से ट्रक चालक था. हर बार एक नए शहर में एक नया अनुभव लेने के लिए फिर किसी बदनाम गली में पहुँच जाता था. उसके दोस्तों ने समझाया था कि यह तो एक मृगतृष्णा है. सिर्फ भटकाव ही हाथ आएगा. किंतु उसे तो यह भटकाव ही रास आ रहा था. वह समझ नही पा रहा था कि यह भटकाव किसी दिन अंधे मोड़ पर ले जाकर छोड़ेगा. उस दिन जब अपने साथी को रक्त देने गया तब डॉक्टर ने खून की जाँच कर उसे यह भयानक खबर दी. एड्स उसके शरीर को धीरे धीरे खोखला कर रहा था. वह उस मोड़ पर खड़ा था जहाँ से कोई राह सुझाई नही दे रही थी. किन्तु जैसे अचानक बिजली चमकती है और आस पास सब कुछ प्रकाशित हो जाता है. वैसे ही मन से एक आवाज़ उठी 'अभी तुम ज़िंदा हो. जो गलती तुमने की उसे करने से औरों को बचाओ.' अब भी वह उन गलियों में जाता है लेकिन लोगों को एड्स के खतरे से आगाह करने के लिए. 

दरारें

मलिक परिवार सभी के लिए आदर्श परिवार था. अक्सर पति पत्नी सामाजिक कार्यक्रमों में एक दुसरे के प्रति अपने प्रेम का इज़हार करते रहते थे. अपने पुत्र की सभी के सामने तारीफ करते थे. सभी बस यही कहते थे कि पति पत्नी का प्रेम हो तो ऐसा. संतान हो तो ऐसी. परिवार बहुत व्यवस्थित नजर आता था. किंतु एक घटना ने व्यवस्था के आवरण को हटा दिया. मलिक दंपत्ति का पुत्र नशे की हालत में मारपीट करने के इल्ज़ाम में पकड़ा गया. कभी सभी के सामने एक दूसरे के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने वाले दंपत्ति अब सरेआम बेटे के इस प्रकार पथभ्रष्ट हो जाने के लिए एक दुसरे पर तोहमत लगा रहे थे. आवरण के पीछे छिपी रिश्तों की दरारें साफ नज़र आ रही थीं.

कदम

बहुत दिनों तक सोंचने के बाद आरूषि ने अपना फैसला अपनी माँ को सुनाया. वह आश्चर्यचकित रह गईं. उसकी माँ ने कुछ गुस्से में कहा "तुम आज के बच्चे कुछ सोंचते भी हो या नही. शादी नही करनी है ना सही. अब बच्चा गोद लेने की बात. अकेली कैसे पालोगी उसे." आरुषि शांत स्वर में बोली "मम्मी तुम जानती हो कि मैं बिना सोंचे कुछ नही करती. जहाँ तक अकेले पालने का सवाल है तो जीजा जी के ना रहने पर दीदी भी तो बच्चों को अकेले पाल रही है." "पर जरूरत क्या है." उसकी माँ ने विरोध किया. आरुषि ने समझाते हुए कहा "जरूरत है मम्मी. मुझे भी अपने जीवन में कोई चाहिए." "लोगों को क्या कहेंगे." उसकी माँ ने फिर अपनी बात कही. "वह मैं देख लूंगी." अपनी माँ के कुछ कहने से पहले ही वह कमरे से बाहर चली गई. आरुषि एक स्वावलंबी लड़की थी. वह शांत और गंभीर थी. अपने निर्णय स्वयं लेती थी. उसने निश्चय किया था कि वह अविवाहित रहेगी. इसलिए दबाव के बावजूद भी उसने अपना निर्णय नही बदला. लेकिन अब वह अपने आस पास कोई ऐसा चाहती थी जिसे वह अपना कह सके. एक बच्चा जिसे वह प्यार दे सके. वह ऐसा बच्चा

वशीभूत

प्राचीन समय में एक राज्य था. यहाँ की परंपरा के अननसार प्रजापालक के पद पर बैठने वाले का चुनाव प्रजा अपने बीच से खड़े प्रत्याशियों में से करती थी. इस बार प्रजा ने प्रियदर्शी नामक व्यक्ति का चुनाव किया था. प्रियदर्शी की छवी प्रजा के हितैशी के रूप में थी. पद पर बैठने के बाद प्रियदर्शी ने प्रजा के हित में काम करना आरंभ कर दिया. सभी उससे बहुत खुश थे. किंतु कुछ समय पश्चीत स्थितियां बदलने लगीं. पहले प्रजा आसानी से प्रियदर्शी से मिल पाती थी किंतु अब उसका विशेष सचिव जिसे अनुमति देता वही उससे मिल पाता था. अब उसके कई फैसले भी आम जन के हित में नही थे. लोगों की आर्थिक स्थिति खराब हो रही थी जबकी प्रियदर्शी की व्यक्तिगत संपत्ति बढ़ रही थी. प्रजा में एक युवक था समदर्शी. उसने इस सब का विरोध करना आरंभ कर दिया. धीरे धीरे उसे प्रजा का समर्थन मिलने लगा. शीघ्र ही वह प्रजा का प्रिय नेता बन गया. प्रियदर्शी का कार्यकाल खत्म होने पर प्रजा ने भारी बहुमत से समदर्शी का चुनाव किया. समदर्शी ने जोर शोर से काम शुरू किया. अब सबकी आशाएं उस पर थीं. किंतु कुछ ही समय में स्थितियां पहले जैसी हो गईं. कई मामलों में तो समदर

असमंजस

यह खबर उर्वशी के लिए बम धमाके की तरह थी. ऐसा धमका जिसने सब कुछ तितर बितर कर दिया था. उसके जीवन में एक तबाही लेकर आई थी यह खबर. अपने मम्मी डैडी की लाडली थी वह. हमेशा जो मांगा वही मिला. वह सदैव ही अपने मन की करती आई थी. घर में कोई भी फैसला उसकी राय लिए बिना नही किया जाता था. उसके मम्मी डैडी की दुनिया का केंद्र थी वह. लेकिन एक दावे ने उससे उसका सब कुछ छीन लिया था. वो अजनबी स्त्री पुरूष अचानक ही जाने कहाँ से आए और उसे अपनी संतान बताने लगे. उनका कहना था कि उसके जन्म के समय वह उसका पालन पोषण करने की स्थिति में नही थे. वो दोनों मानसिक रूप से बच्चे के लिए तैयार नहीं थे. दोनों महत्वकांशी थे वा जीवन में कुछ हांसिल करना चाहते थे. बच्चे का उनके जीवन में आना एक दुर्घटना थी.  अतः उन्होंने उर्वशी को उसके वर्तमान माता पिता को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के गोद दे दिया. उसके बाद वह विदेश चले गए और उन लोगों से कोई संपर्क नही किया. आज उनके पास बहुत कुछ था लेकिन इन सोलह सालों में लाख प्रयासों के बाद भी उन्हें संतान सुख नही मिला. अतः अब वह दोनों उसे वापस लेने आए थे. उर्वशी के मम्मी डैडी ने उनकी बात स

चिंता

बस्ती आज सुबह सुबह चंदा के विलाप से दहल गई. उसका पति सांप के डसने के कारण मर गया. यह मजदूरों की बस्ती थी जो छोटे मोटे काम कर जैसे तैसे पेट पालते थे. आभाव तथा दुःख से भरे जीवन में मर्दों के लिए दारू का नशा ही वह आसरा था जहाँ वह गम के साथ खुद को भी भूल जाते थे. औरतें बच्चों का मुख देख कर दर्द के साथ साथ अपने मर्दों के जुल्म भी सह लेती थीं. चंदा का ब्याह अभी कुछ महिनों पहले ही हुआ था. उसका पति भी रोज़ दारू पीकर उसे पीटता था. कल रात भी नशे की हालत में वह उसे पीट रहा था. लेकिन कल हमेशा की तरह पिटने के बजाय उसने प्रतिरोध किया. अपने पति को घर के बाहर कर वह दरवाज़ा बंद कर सो गई. कुछ देर दरवाज़ा पीटने के बाद उसका पति बाहर फर्श पर ही सो गया. सुबह जब चंदा उसे मनाकर भीतर ले जाने आई तो उसने उसे मृत पाया. उसके मुंह से झाग निकल रहा था और शरीर पर सांप के डसने का निशान था. चंदा के घर के सामने बस्ती वाले जमा थे.रोते चंदा के आंसू सूख गए थे. दुःख की जगह चिंता ने ले ली थी. घर में कानी कौड़ी भी नही थी. अपने पति की अर्थी का इंतजाम कैसे करेगी. किससे मांगे सभी घरों की हालत तो एक जैसी है.

लटकती तलवार

अभय जब घर लौट कर आया तो बहुत परेशान और उदास था. पूजा पानी लेकर आई और उसके बगल में बैठ गई. अभय ने पानी पी लिया तो वह बोली "आज बहुत परेशान लग रहे हैं. कोई खास बात है." कुछ क्षण शांत रहने के बाद वह कुछ गंभीर स्वर में बोला "लगता है शायद अब नौकरी नही बचेगी. आर्डर आया है कि सभी आरक्षित पद समाप्त होने वाले हैं." उसने लता के चेहरे की तरफ देख कर कहा "यदि ऐसा हुआ तो कैसे चलेगा. रिया की पढ़ाई, मकान की किस्त, घर का खर्च." उसकी बात सुन कर लता भी चिंतित हो गई. कुछ सोंच कर बोली "लेकिन आपकी नौकरी को तो कई साल हो गए हैं." "उससे कोई फर्क नही पड़ता. जब सब आस्थाई पद ही समाप्त होने वाले हैं." अभय ने भर्राई आवाज़ में कहा. लता ने उसे तसल्ली देने के लिए कहा "ना जाने कितने लोग आस्थाई हैं. इतने सारे लोगों की नौकरी कैसे एक साथ जा सकती है." "जब पद ही नही रहेंगे तो नौकरी कैसे रहेगी." अभय ने निराश होकर कहा. रात में बिस्तर पर लेटे हुए दोनों पति पत्नी के मन में एक ही बात चल रही थी. लता सोच रही थी कि यदि ऐसा हुआ तो वह उन लोगों से बात करेगी