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अब और नहीं

वह दफ्तर से बाहर निकली। दोपहर में उसे मैसेज मिला था ' ऑफिस के बाद उसी जगह '। कार उसका इंतज़ार कर रही थी। उसके बैठते ही कार चल पड़ी। वह अपने ख्यालों में खो गयी।  हर कोई उसे केवल अपनी इच्छापूर्ति का साधन मानता है। सुबह घर से निकलते समय पापा सामने आकर खड़े हो गए। वह समझ गई कि उन्हें क्या चाहिए। पर्स खोलकर उसने पैसे उन्हें पकड़ा दिए। हलांकि वह जानती थी कि वह कहाँ  खर्च होंगे। पर क्या कर सकती थी। छोटे भाई को भी कुछ पैसे चाहिए। हर कोई उससे उम्मीद लगाये है। क्या करे वह कुछ समझ नहीं पा रही थी।  कार अपने गंतव्य पर आकर रुक गयी।  वह होटल की तीसरी मंज़िल पर गयी। कमरे में बॉस के अलावा एक और शख्स मौजूद था। करीब उसके पापा की उम्र का। उस आदमी ने उसे ऊपर से नीचे तक ऐसे घूरा जैसे आँखों ही आँखों में उसे पी जायेगा। बॉस बिना कुछ कहे उसे उस आदमी के साथ छोड़ कर चला गया।  उस आदमी की आँखों में वासना के  लाल डोरे तैर रहे थे। अपनी कमीज़ के बटन खोलते हुए वह उसकी तरफ बढ़ा।  " क्या है वह, महज़ एक सामान जिसे कोई भी इस्तेमाल कर सकता है?" इस सवाल ने उसके दिल में हलचल मचा दी। उसके सीने में एक जलन सी उठी।

हादसा

पार्वती घर के आँगन में घुटनों में सर छुपाये बैठी थी। सांझ ढल चुकी थी। दीया बाती  का समय हो गया था किन्तु वह अँधेरे में बैठी थी। बाहर से ज़्यादा अँधेरा उसके भीतर था। वह चिंता में थी कि अब अपने तीन बच्चों को कैसे पालेगी। अब गुजारा करना मुश्किल हो गया है। उसे घर की देहलीज़ लांघ कर मेहनत मजूरी करनी पड़ेगी। घर में दो कमाऊ मर्द थे। एक उसका पति तेजा और दूसरा उसका देवर जंगी। पर वो रात उसके जीवन में सदा के लिए अँधेरा कर गई। आज सोंचती है तो अफ़सोस करती है अगर वह खुद को काबू में कर लेती तो ऐसा न होता। तेजा और जंगी दिन भर मेहनत कर के लौटे थे। उसने दोनों की थाली परोस दी। सालन में नमक कुछ अधिक पड़ गया था।  पहला कौर खाते ही तेजा ने थूंक दिया। गुस्से में पार्वती को गालियाँ बकने लगा। पार्वती ने भी दो चार खरी खोटी सुना दी। क्रोध में पागल तेजा ने उसे पीट दिया और पैर पटकता हुआ घर से  निकल गया। जंगी भी अपने भाई को मनाने के लिए उसके पीछे भागा। रात भर दोनों नहीं लौटे। पार्वती ने सुबह तक इंतज़ार किया। पौ फटते ही दोनों की तलाश में निकल पड़ी। खोजते खोजते पहाड़ी पर जंगी मिला। बौराया हुआ सा था। जब उसने तेजा के

चंदा ओ चंदा

कर तेज़ी से हाईवे पर भाग  रही थी। मैं कार की खिड़की के बाहर देख रहा था। आज एक अरसे के बाद  मैं अपने घर जहाँ मेरा बचपन बीता था जा रहा था। ज़िंदगी की मसरुफियतों में कुछ इस  कदर उलझ गया था कि जीवन का एक बड़ा हिस्सा, जो मुझसे जुड़ा था पिछले कई सालों से अनदेखा रह गया था। अचानक मेरी नज़र पूनम के चाँद पर पड़ी। चाँदनी में नहाया हुआ चाँद चाँदी की थाली जैसा लग रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे वो मेरे साथ साथ ही चल रहा हो। जैसे बिछड़ा हुआ कोई मित्र हो जो बरसों के बाद मिलने पर खुशी से मेरे पीछे पीछे चल रहा हो। चाँद से मेरा बचपन का नाता है। इसकी शुरुआत तब हुई जब मैं एक छोटा सा बालक था। अम्मा मुझे अपनी गोद में बिठाकर खिलाती थीं। उस वक़्त वो एक गीत गाती थीं। चंदा मामा दूर के …पुए पकाएं बूर के … वो मुझे चाँद के झिंगोले की कहानी भी सुनाती थीं। एक बार चाँद ने अपनी माँ से अपने लिए एक झिंगोला सिलाने को कहा लेकिन उसके घटते बढ़ते आकर के कारण उसकी नाप का झिंगोला नहीं सिल पाया। अम्मा ने मुझे यह भी बताया कि चाँद पर बैठी एक बुढ़िया चरखा चला रही है। चाँद पर दिखने वाले काले धब्बे उसी बुढ़िया  के कारण हैं।

रक्षा सूत्र

सरहद पर स्थित आर्मी पोस्ट में सभी फौजियों में कौतुहल था। एक पत्र सभी के आकर्षण का केंद्र बना था। यह पत्र किसी ख़ास फौजी के लिए नहीं वरन सरहद पर तैनात सभी फौजी भाइयों के लिए था। एक फौजी ने पत्र खोला और सभी सुनने के लिये घेरा बनाकर बैठ गए। फौजी ने पत्र पढ़ना आरम्भ किया फौजी भाइयों प्रणाम, इस विशाल परिवार हिन्दुस्तान, जिसकी सीमाओं की हिफाज़त में आप सभी कठिन परिस्तिथियों में भी तैनात हैं,  मैं उसकी एक छोटी सी सदस्य हूँ।  राखी का पर्व आने वाला है। अतः आपकी छोटी बहन आपके लिए ये रक्षा सूत्र भेज रही है। मैं नहीं जानती कि जब आधुनिक हथियारों से लैस उपद्रवी घात लगा कर हमला करेंगे तो  यह आपकी हिफाज़त कर सकेगा या नहीं। परन्तु यह डोर है उस प्रेम, आस्था और विश्वास की जिससे हम सब बंधे हैं। यह एक एहसास है इस बात का कि अपने घरों में बैठे बहुत से लोग आपके बारे में फ़िक्रमंद हैं। आप सब जो कठिनाईयां उठा कर हमारी रक्षा में लगे हैं, उसके लिए कई मस्तक श्रद्धा से नत होते हैं। जब आप में से किसी को क्षति पहुँचती है तो कई आँखें नम हो जाती हैं। यह धागा उसी श्रद्धा एवं प्रेम का प्रतीक है। यह कुछ और करे न करे

चमत्कार

दफ्तर से आकर मैं बिस्तर पर लेट गया। बहुत थका था। मन ही मन सोंचने लगा " क्या जिंदगी है, घर दफ्तर हर जगह बस टेंशन ही टेंशन है " तभी मेरी नज़र मेरे कमरे की बालकनी पर बैठे बंदर पर पड़ी ' ये क्या मज़े में है। कोई फिक्र नहीं। बस दिन भर उछलते कूदते रहो। ' बंदर ने मुझे देखा  और मैंने उसे। हम एक दूसरे को घूरने लगे। अचानक जैसे बिजली कौंधी। बस एक पल में सब उलट पलट हो गया। मेरी पत्नी कमरे में आई और मुझे देख कर चीख पड़ी "  बंदर हट ....... हट " वह बगल के कमरे से भागकर मेरे बेटे का बैट उठा लाई और मेरी तरफ लपकी। उसका रौद्र रूप देख कर मैं सहम गया। बंदर के शरीर में होने फायदा उठा कर मैं छलांग मार कर बालकनी में आ गया और वहां से दूसरे की बालकनी में कूद गया। मेरी पत्नी बंदर को डांटने लगी "आप मुंडेर पर बैठे बैठे क्या कर रहे हैं।" मैं इधर से उधर कूदने लगा। बड़ा मज़ा आ रहा था। कहीं भी कूद कर चले जाओ, पल भर में ऊपर चढ़ जाओ फिर तेज़ी से नीचे आ जाओ। बहुत देर तक उछालने कूदने के बाद भूख लगने लगी। मैं इधर उधर खाना ढूढ़ने लगा। एक फ्लैट की खिड़की से झाँका। अंदर एक महिला बैठी ट

विकल्प

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - विकल्प मैं कुछ कुछ सामान लेकर लौट रहा था। साथ में मेरी सात वर्ष की बेटी भी थी। एक मकान के सामने भीड़ लगी देख कर मैं  भी कौतुहलवश वहां खड़ा हो गया। अधेड़ उम्र का एक व्यक्ति एक दस बारह साल के बच्चे का कान उमेठ रहा था। लड़का दर्द से चीख रहा था " छोड़ दीजिये अंकल जी अब नहीं करूंगा।" पास खड़े एक अज्जन बोले " अजी एक नंबर का चोर है। इनके घर में घुस कर पेड़ से आम तोड़ रहा था।" मामला समझ कर मैं आगे बढ़ गया। मेरी बेटी ने पूछा " पापा वो अंकल उस बच्चे को क्यों मार रहे थे।" मैंने उसे चोरी करना बुरी बात है यह समझाने के लिहाज़ से कहा " देखो बेटा बिना पूंछे किसी की कोई चीज़ नहीं लेनी चाहिए। उस लड़के ने बिना पूछे उनके पेड़ से आम तोड़े जो गलत है।" कुछ सोंच कर वह बोली " उसे अगर आम खाने थे तो अपने पापा से कहता या जो उसके पास था वही खाता। उसने गलत काम किया।" उसने तो मासूमियत में कह दिया  'उसके पास जो था वही खाता' किन्तु इस बात ने मेरे दिल में हलचल मचा दी। उसे कैसे समझाता कि दुनियां में कुछ लोगों का आभाव इतना अध

वो

कल मैंने उसे फिर देखा। उन सफ़ेद लिली के फूलों के पास जहाँ वह दस माह पूर्व पहली बार दिखाई दी थी। कई बरस अमेरिका में बिताने के बाद वहां के भाग दौड़ भरे जीवन से मैं थक गया था। अतः  कुछ आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने की चाह मुझे मेरे वतन वापस खींच लाई। मैंने इस छोटे से हिल स्टेशन पर यह कॉटेज ले लिया। सैलानियों की आवाजाही न होने से यह जगह बहुत शांत थी। मैं अक्सर ही किसी पहाड़ पर या नदी के किनारे बैठ कर उस परम शक्ति से संबंध स्थापित करने की कोशिश करता था जिसे लोग धार्मिक स्थानों पर ढूँढते हैं। पहले ही दिन से मुझे यह एहसास हो रहा था की मैं कॉटेज में अकेला नहीं हूँ। पढ़ते समय अक्सर मुझे लगता कि अचानक कोई मेरे पास से गुजर गया या कोई बाहर खिड़की पर खड़ा मुझे घूर रहा है। मैं देखता तो कोई नहीं होता। मैं इसे मन का वहम समझ कर टाल देता। उस दिन शाम के समय मैं कॉटेज के गार्डन में बैठ कर ध्यान कर रहा था। अचानक मेरी आँख खुली तो देखा की लिली के फूलों के पास वह खड़ी  थी। उसकी निगाह मुझ पर पड़ी। कुछ पल देखती रही फिर अचानक गायब हो गई। मैं सिहर उठा। मैंने वह रात अपने मित्र के घर बिताने का विचार किया। जा

अंजान फिज़ा

शायरा ने कपड़े गहने जो समेट सकती थी उनकी गठरियाँ बाँध लीं। उसके दोनों बच्चे सो रहे थे। तेरह बरस की शबनम और दस वर्ष का आमिर। उसने दोनों के माथे प्यार से सहलाए और वहीं बैठ गई। बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी। उसके भीतर भी एक तूफ़ान मचा था। बस कुछ ही घंटों में यह घर गाँव सब छूट जाएगा। वह एक अंजान जगह को अपना बनाने के लिए चली जाएगी। उसके दिल में एक हूक सी उठी। ' ये कैसी आज़ादी मिली है मुल्क को ? ऐसा बवंडर उठा है जिसने लोगों को उनकी जड़ों से ही उखाड़ दिया। क्या इसी दिन के लिए लड़ी गई थी आज़ादी की जंग ?' उसके शौहर गाँधी बाबा के पक्के चेले थे। सन ४ २ में अंग्रेजों की लाठी से चोट खाकर ऐसी खटिया पकड़ी कि तीन साल एड़ियां रगड़ने के बाद मौत नसीब हुई। वह सब क्या इसी दिन के लिए था। अपनी धरती छोड़ कर जाना उसके लिए इतना आसान नहीं था। इसी मिटटी में उसके पुरखे दफ़न हैं। यहीं की आबो हवा में वह पली बढ़ी है। अब सब कुछ छोड़ कर जाने में दिल में दिल में टीस उठती है। उसने कई दफा अपने भाईजान को समझाने की कोशिश की " हम क्यों जाएँ यहाँ से। इतनी ज़िन्दगी बितायी है यहाँ। सब अपने ही तो हैं फिर डर किस ब

अंतिम पड़ाव

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - अंतिम पड़ाव अचानक मोबाइल फ़ोन की घंटी बजने लगी। जिसका फ़ोन था वह कुछ झेंप सा गया। फ़ोन लेकर दूसरी तरफ कोने में चला गया। सब लोग जुनेजा साहब की अंतिम यात्रा में शमशान घाट पर इकट्ठे हुए थे। चिता को अग्नि देने की तैयारियां चल रही थीं। संस्कारों में कुछ वक़्त लग रहा था। सभी इस फ़िराक में थे कि जल्द ही फुर्सत पाकर अपने- अपने घर लौटें। अतः समय काटने के लिए लोग धीमे स्वर में बातचीत कर रहे थे। बातों का काफिला महंगाई की मार, राजनीति के गिरते स्तर से होता हुआ कुछ विशेष व्यक्तियों के चरित्र की चीर फाड़ तक आ पहुंचा था।  जुनेजा साहब के बड़े पुत्र ने उन्हें मुखाग्नि दी। चिता धू  धू  कर जलने लगी। कुछ ही समय में समस्त माया, मोह, मान प्रतिष्ठा, अहंकार को पोषित करने वाला शरीर राख बन जाने वाला था। धीरे धीरे लोग वहां से निकलने लगे। छल प्रपंच, राग द्वेष, हार जीत के संसार में वापस जाने के लिए। एक दिन वे भी यहाँ आयेंगे कभी वापस न लौटने के लिए।

संघर्ष

वो सारे चहरे उसके नज़दीक आ रहे थे। धीरे धीरे आवाजें भी साफ़ सुनाई देने लगी थीं। उसे लगने लगा था कि आज वह इन चेहरों को पहचान लेगी। उन आवाजों में से कोई नाम अवश्य उभर कर आएगा। बस वह कुछ ही दूर है अपनी मंजिल से। किन्तु अचानक ही चहरे धुंधले पड़ने लगे। आवाजें मद्धिम हो गयीं। वह अँधेरे में इधर भटकने लगी। घबराहट में वह चीख पड़ी। उसकी नीद खुल गई। वह पसीने से भीगी हुई थी। नर्स भागी हुई आई और उसे पानी पिलाया। फिर उसे तसल्ली देने लगी " घबराओ मत सब ठीक हो जाएगा।"  वह फिर से लेट गयी। आँखों से आंसू छलक पड़े। छः महीने हो गए वह अपनी ही पहचान से अन्जान है। जब कोई उसे आत्मीयता से देखता है तो वह परेशान हो उठती है कि कहीं वह उसका कोई अपना तो नहीं है। उसके इर्द गिर्द सभी व्यक्तियों का एक नाम है। उनकी एक पहचान है। सिर्फ वही अनाम है। अपनी पहचान से दूर है। उसे महसूस होता है इंसान के लिए उसका नाम और पहचान कितने ज़रूरी हैं। उसके लिए इस तरह जीना बहुत ही कष्टप्रद है। वह भीतर ही भीतर घुट रही है।  उसके जेहन में कुछ चहरे हैं। कुछ आवाजें उसके मन में बसी हैं। किन्तु उन चेहरों को वह पहचान नहीं पाती है। उन

मोहनी

मूर्तिकार ने अपने जीवन की सर्वोत्तम रचना पूर्ण की और उसे निहारने लगा। "सुंदर लगता है अभी बोल उठेगी" अपनी रचना को देख कर अनायास ही उसके मुख से निकल गया। श्रम से क्लांत वह भूमि पर लेट गया और एकटक उसे देखने लगा। देखते देखते ही वह सो गया। रात्रि के तीसरे प्रहार अचानक उस प्रस्तर की प्रतिमा में कम्पन हुआ और वह एक सुंदर यवती में बदल गयी। उसकी कांति से चारों तरफ उजाला हो गया। उसने मूर्तिकार को प्रेम भरे नेत्रों से देखा। एक प्रेयसी की भांति भूमि पर बैठ कर वह उसका माथा सहलाने लगी। मूर्तिकार की नींद टूटी तो उसने देखा की उसकी रचना जीवित हो गयी है। उसे देख कर वह बोला "तुम तो और अधिक सुंदर हो। मेरे मन को मोह रही हो। आज से तुम्हारा नाम मोहनी है।" मूर्तिकार और मोहनी ने मिलकर एक घर बसाया। अपने समर्पण और प्रेम से मोहिनी ने मूर्तिकार का जीवन खुशियों से भर दिया। दोनों सुखपूर्वक एक दूसरे के साथ जीवन बिताने लगे। बहुत वर्ष बीत गए। समय के साथ साथ मोहिनी का प्रेम और गहरा हो गया। किन्तु मूर्तिकार का मोहिनी के लिए आकर्षण कम होने लगा। उसका मन चंचल भंवरे की भांति इधर उधर भटकने लगा। एक दिन वह

उम्मीद

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - उम्मीद रज़िया बेगम आकर थाने में बैठ गईं। इन्स्पेक्टर सक्सेना किसी की शिकायत सुन रहे थे। उन्होंने रज़िया बेगम को देखा और मन ही मन भुनभुनाये ' फिर आ गईं मानती ही नहीं।' फिर अपने काम में लग गए। पिछले छह महीने से रोज़ रज़िया बेगम थाने के चक्कर लगा रही हैं। एक दिन अचानक ही उनके बुढ़ापे का सहारा उनका जवान बेटा दानिश कहीं गायब हो गया। उसी के बारे में पूछताछ करने वो थाने आती हैं। अपना काम निपटा कर इन्स्पेक्टर सक्सेना रज़िया बेगम से बोले " खाला क्यों रोज़ रोज़ परेशान होती हैं। जब भी हमें कोई खबर मिलेगी हम आपको भिजवा देंगे।" रज़िया बेगम ने उनकी तरफ इस प्रकार  देखा जैसे वो उनसे कोई मकसद छीन ले रहे हों " सही कहा बेटा लेकिन इस बेवा के जीवन में अपने बेटे के इंतजार के अलावा और कोई मकसद ही नहीं बचा है। इसलिए रोज़ इस बूढ़े जिस्म को इस उम्मीद से घसीट कर यहाँ लाती हूँ की शायद कोई अच्छी खबर मिले। फिर मायूस होकर जब यहाँ से जाती हूँ तो दिल को फिर तसल्ली देती हूँ की कल फिर जाकर देखूंगी की शायद कोई खबर हो। एक उम्मीद के सहारे ही तो इसे चला रही हू

रावण वध

छुट्टी का दिन था । मैं आराम से चाय की चुस्कियां लेते हुए अखबार पढ़ रहा था। वही पुरानी  खबरें हत्या, लूटपाट, अपहरण, पोलिटिकल स्कैम्स। सिर्फ हेडलाइंस पढ़कर अखबार बंद कर दिया। तभी मेरा पाँच वर्ष का बेटा  मोहन मेरे पास आकर बैठ गया और बोला " पापा आज क्या है।" मैंने समझाते हुए कहा " आज दशहरा है। आज के दिन भगवान् रामचंद्र ने रावण  का वध कर के बुराई  का अंत किया था।" मोहन ने पूंछा " रावण क्या बुरा इंसान था।" मैंने कहा " हाँ वह एक बुरा इंसान था। इसी लिए आज के दिन बुराई के प्रतीक रावण , कुंभकर्ण, एवं मेघनाथ के पुतले जलाते हैं। ताकि बुराई  का नाश हो।" मोहन बहुत ध्यान से मेरी बातें सुन रहा था।  कुछ देर कुछ सोचने की मुद्रा में बैठा रहा फिर बोला " अच्छा, तो क्या पुतले जलाने से बुराई  ख़त्म हो जाती है।" मैं अवाक् रह गया उस मासूम ने कितना प्रासंगिक प्रश्न किया था। सैकड़ों वर्षों से हम सिर्फ प्रतीकों को ही जला रहे हैं। जब की ज़रुरत अपने भीतर बसे रावण का वध करने की है।

जंग

सुदीप आडिटोरियम में बैनर्स एवं पोस्टर्स लगा रहा था। आज सुबह ही उसने कालेज की प्रिंसिपल श्रीमती कृष्णमूर्ति से इस बात की इज़ाज़त ले ली थी। वह जल्दी जल्दी अपना काम कर रहा था। कुछ ही देर में विद्यार्थी आडिटोरियम में एकत्रित होने वाले थे। आडिटोरियम में विद्यार्थी जुटने लगे थे और कुछ ही समय में वह खाचाखच भर गया। सुदीप ने एक नज़र आडिटोरियम के एक सिरे से दूसरे सिरे तक डाली। ज़िन्दगी से लबरेज हंसते मुस्कुराते युवाओं का जमावड़ा था। सबकी आँखों में कुछ कर दिखाने के सपने थे। 'एक ज़रा सी असावधानी इनके सारे सपने तोड़ सकती है' सुदीप के मन में विचार उठा। नहीं वह ऐसा नहीं होने देगा वह इन्हें उस खतरे से आगाह करेगा। जब सब बैठ गए तो सुदीप ने बोलना आरम्भ किया " दोस्तों आज हम उस खतरे के बारे में बात करने को एकत्र हुए हैं जो मानव समाज के लिए एक चुनौती बना हुआ है।  यह खतरा है  'एड्स' जो मानव समाज को निगल जाना चाहता है।" उसने एक स्लाइड शो के ज़रिये उन्हें एड्स क्या है, कैसे फैलता है, क्या सावधानियां बरतनी चाहिए इत्यादि बातों के बारे में बताया। उसके बाद विद्यार्थियों के सवालों क

मातृ शक्ति

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - मातृ शक्ति आज राम नवमी का दिन था। श्रीमती शर्मा अपने पति के साथ देवी के दर्शन करने आयीं थीं। इस मंदिर की प्रसिद्धि दूर दूर तक थी। पहले तो वो हर महीने ही यहाँ आती थीं किन्तु नौकरी में व्यस्तता बढ़ जाने  के कारण पिछले शारदीय नवरात्री के बाद आज आ पायीं थीं। मंदिर में बहुत भीड़ थी। दर्शन करने वाले भक्तों का ताँता लगा था। माँ के दर्शन करने के बाद वो अपने साथ लाये हुए पूरी और हलवे के पैकेट बाहर बैठे भिखारियों में बाटने लगीं। उनकी नज़रें इधर उधर भटक रही थीं। दरअसल वो गौरी को ढूंढ रही थीं। गौरी चौदह पंद्रह साल की एक अनाथ लड़की थी। वो गूंगी थी। जब वह करीब छह वर्ष की होगी तब कोई उसे मंदिर में छोड़ गया था। पुजारी जी ने उसका नाम गौरी रख दिया। गौरी मंदिर की सीढ़ियों पर ही बैठती थी। आने वाले भक्त जो दे देते थे उसी से गुजारा कर लेती थी। श्रीमती शर्मा को उसकी जो बात सबसे अच्छी लगती थी वह थी उसकी वो प्यारी सी मुस्कान जो इतनी तकलीफों के बाद भी हमेशा उसके चहरे पर खिली रहती थी। श्रीमती शर्मा उसे ढूंढ रही थीं ताकि वे उसे भी प्रसाद दे सकें। तलाशते तलाशते उनकी निगाह

एहसास

कुणाल ने अपने राइटिंग पैड से एक और कागज़ फाड़ा फिर उसकी गेंद बनाकर हवा में उछाल दिया। उसका कमरा इन गेंदों से भरा हुआ था। पिछले चार दिनों से वह एक कहानी लिखने की सोंच रहा था। किन्तु जो भी लिखता था खोखला सा मालूम पड़ता था। शब्द थे लेकिन एहसास नहीं। लेखन के क्षेत्र में तेज़ी से कदम बढ़ा रहे कुणाल ने कभी नहीं सोंचा था की प्रेम के विषय पर कहानी लिखना उसके लिए इतना मुश्किल होगा। वह शुरू से ही बहुत रोमांटिक रहा था। प्रेम के विषय में उसने कितना कुछ पढ़ा था। उपन्यास, कहानियां, कवितायेँ लेकिन आज जब लिखने बैठा तो स्वयं को इतना असमर्थ पा रहा था। कल रात यह निश्चय करके बैठा था कि कुछ लिख कर ही उठेगा। बहुत कोशिश की पर कुछ नहीं हुआ। हार कर उसने पैड पटक दिया ' बस अब दिमाग काम नहीं कर रहा है। कुछ देर बाहर घूम कर आता हूँ।' यह सोंच कर उसने अपना जॉगिंग सूट पहना और बाहर आ गया। सुबह होने में अभी वक़्त था। चारों ओर सन्नाटा था। अच्छी खासी ठंड थी। फिर भी ताज़ी हवा ने उसे बहुत सुकून पहुँचाया। जॉग करते हुए वह उस होटल तक आया जहाँ वह अक्सर चाय पीने आता था। उसकी नज़र सामने फुटपाथ पर सोये बूढ़े दंपत्ति पर

नयी कोपलें

उसका नाम आरती था। किन्तु न तो वह यह नाम किसी को बता सकती थी और न ही पुकारे जाने पर कोई जवाब दे सकती थी। कुदरत ने उसे बोलने और सुनने की शक्ति नहीं दी थी । कुदरत जब हमसे कुछ लेती है तो उसकी भरपाई भी करती है। बचपन से ही उसके मन में बहुत कुछ था जो वह दूसरों के साथ बाटना चाहती थी। वह कागज़ पर आकृतियाँ बनाकर अपने ह्रदय की बात लोगों तक पहुंचाती थी। जो भी उसके बनाये स्केच देखता वाह वाह कर उठता। जब वो बड़ी हुई तो कागज़ की जगह कैनवास पर रंगों से स्वयं को व्यक्त करने लगी। वह उम्र के उस पड़ाव पर थी जब सब कुछ बहुत रंगीन लगता है। उसके कैनवास पर बिखरे रंग भी इन दिनों बहुत शोख थे। इन्हीं दिनों में उसने उस अकादमी में दाखिला लिया जो उसके जैसे लोगों के लिए ही बनायी गयी थी। यहीं उसकी मुलाक़ात अनुराग से हुई। जब वह पहले दिन अकादमी पहुंची उस वक़्त अनुराग हाथ के इशारे से किसी से कुछ कह रहा था जिसे देख वह मुस्कुराने लगी। ठीक उसी वक़्त अनुराग की नज़र उस पर पड़ी। वह भी मुस्कुरा दिया। वहीँ से उन दोनों की दोस्ती शुरू हो गई। वो दोनों एक दूजे से अपने मन की बात कहने लगे। नजदीकियां इतनी बढ़ गयीं कि दोनों एक द

कहानी एक पेड़ की

मेलाराम के आँगन में एक आम का पेड़ लगा था। यह पेड़ बहुत पुराना था। मेलाराम का परिवार बढ़ जाने के कारण घर में जगह कम पड़ने लगी थी। अतः मेलाराम ने सोंचा की इस पेड़ को कटवा कर उस जगह एक कमरा बना लिया जाये। कल ही वह  इस पेड़ को कटवा देगा यह सोंच कर वह आँगन में चारपाई डाल कर सो गया। आधी रात के समय मेलाराम को किसी की सिसकियाँ सुनाई पड़ी।  वह  इधर उधर देखने लगा। कहीं कोई नहीं था किन्तु रोने की आवाज़ आ रही थी। उसने ध्यान से सुना तो आवाज़ आम के पेड़ से आ रही थी। वह पेड़ के पास जाकर सुनने का प्रयास करने लगा। तभी पेड़ से आवाज़ आई " मेलाराम तुम मुझे कटवा देना चाहते हो। आखिर क्यों? मेरा कुसूर क्या है? तुम्हारे जन्म से भी पहले तुम्हारे पिता ने आगन के कोने में मुझे लगाया था। मैंने तुम्हें बढ़ते हुए देखा है। याद है बचपन में कैसे तुम मेरी शाखों पर झूलते थे। गर्मियों के दिनों में मेरी शीतल छाया में आराम करते थे। मेरे रसदार फल तुम्हें आज भी अच्छे लगते हैं। सावन में जब तुम और तुम्हारे भाई बहन मेरी डाल पर झूला डाल कर झूलते थे तो मैं तुम सब को खुश देखकर और हरा हो जाता था। बचपन से मैंने तुम्हें कितना

अजिया

स्टोर रूम में पड़े पुराने एल्बम के पन्ने पलते हुए एक तस्वीर पर मेरी निगाह अटक गयी। झुर्रियों वाला एक चेहरा मुझे देख रहा था। मेरा मन वर्षों की दूरियां पार कर कुछ ही क्षणों में मुझे मेरे बचपन में ले गया। जहाँ छोटा सा मैं अपनी बूढी दादी की गोद में बैठा हुआ उसके हाथ से दूध भात खा रहा था। मैं भाई बहनों में सबसे छोटा था। अतः अजिया का बड़ा दुलारा था। रात को उसके साथ उसकी खटोली पर लेट कर उनसे कहानी सुनाने की जिद करता था। अपनी कहानियों के द्वारा  वह मुझे एक अनोखे संसार की सैर कराती थीं। मेरा बाल मन उन कथाओं के चरित्रों के साथ कभी डर कर सहम जाता तो कभी ख़ुशी से झूमने लगता। कितनी कुशलता से वह उन कहानियों में नीति की बातों को गूँथ  देती थीं। अक्सर ही मैं कहानी पूरी होने से पहले  सो जाता था। अगले दिन कक्षा में बैठे बैठे मैं सोंचता रहता की राजकुमारी उस दुष्ट राक्षस के चंगुल से बच पाई या नहीं। मेरा मन बेचैन होने लगता और मैं सोंचता की कब घर पहुँचूँ और अजिया से कहानी का अंत सुनूँ। अजिया नाराज़ होतीं " तू कभी कहानी पूरी नहीं सुनता फिर मेरी जान खाता है।" फिर दोपहर को आराम करते समय मुझे अपने स

मेरा वो मतलब नहीं था

विमला देवी अपने बेटे के नए घर के सजे संवरे ड्राइंगरूम में बैठी उसकी तरक्की के लिए ईश्वर को धन्यवाद दे रहीं थीं। भीतर बेटे बहू में कुछ कानाफूसी चल रही थी। कुछ देर में बेटा बाहर आया।  " कैसी हो अम्मा" उसने सोफे पर बैठते हुए पूंछा। "ठीक हूँ,  डाक्टर को दिखा कर लौट रही थी, सोंचा तुमसे मिल लूं।"  बेटे ने उनके चहरे की तरफ देखा फिर कुछ सोंच कर बोला " तुम तो जानती हो अम्मा कितनी महंगाई है। नए घर की साज सजावट पर भारी खर्च आया। उस पर बच्चों का नया सेशन भी शुरू हो गया है।" विमला देवी बेटे की बात का मतलब समझ गईं। " तुम बहुत दिनों से नहीं आये थे इसलिए मिलने चली आई। मेरे लिए तो पेंशन ही बहुत है।"  यह कह कर वो उठ कर चल दीं। पीछे से बेटे का खिसिआया स्वर सुनाई पड़ा ' मेरा वो मतलब नहीं था।' 

रौशनी

जिस तरह चिराग तले  अँधेरा होता है उसी तरह ऊंची ऊंची इमारतों वाले शहरों में झोपड़पट्टियाँ होती हैं। ऐसी ही एक झोपड़पट्टी की एक तंग गली है। गली इतनी तंग है की अकेले व्यक्ति को भी भीड़ का एहसास होता है। इसी गली के अंत में एक छोटी सी कोठरी है। इसमें जलते हुए बल्ब की पीली मद्धिम रोशनी घुटन को और बढ़ा देती है। इसी कोठारी में रहता है लखन। लखन कचरा बीनने क काम करता है। रोज़ वह एक बोरी लेकर घर से निकलता है और दिन भर खाली प्लास्टिक की बोतलें, प्लास्टिक की थैलियाँ  और अन्य प्लास्टिक के सामान बोरी में भरता रहता है। इससे उसे अपना पेट भरने लायक कमाई हो जाती है। लखन जब आठ वर्ष का था तो वह अपनी सौतेली माँ के दुर्व्यवहार से तंग आकर  घर से भाग कर शहर आ गया। उसे लगा जैसे वह किसी तालाब से निकल कर बड़ी नदी में आ गया हो। फिर इस नदी का बहाव उसे मुंबई के समुद्र में ले आया। इस समुद्र में वह अकेला था। जल्द ही उसने हाथ पाँव मारकर तैरना सीख लिया। एक दिन उसकी बस्ती में एक आदमी आया जो बोतल में बंद पानी पीता था। सुना था कि वह अमेरिका में कोई बड़ी नौकरी करता था। किन्तु सब कुछ छोड़ कर वह बस्ती में आया था। वह उन लड

तुम मिले

सुकेतु ने एक बार अपने आप को आईने में देखा। वह कुछ नर्वस फील कर रहा था। हालाँकि मुग्धा से ये उसकी पहली मुलाकात नहीं थी। वो दोनों एक दूसरे को पिछले छह महीने से जानते थे। किन्तु आज की मुलाक़ात कुछ ख़ास थी। उसने आज मुग्धा से अपने दिल की बात कहने का फैसला लिया था। इसी कारण से थोड़ा नर्वस था। जब से मुग्धा उसके जीवन में आई थी उसकी दुनियां ही बदल गयी थी।  अपनी पत्नी सुहासिनी की मृत्यु के  बाद से सुकेतु बहुत उदास रहने लगा था। अभी उसने सुहासिनी के साथ जीवन का सफ़र शुरू ही किया था कि  मृत्यु  के क्रूर हाथों ने उसे छीन लिया। जीवन के सफ़र में वह अकेला रह गया। उसके लिए यह सफ़र एकदम बेरंग और बोझिल हो गया था। वह इस राह पर अकेला चलने लगा। कितना प्रयास किया उसकी माँ ने की वह दोबारा घर बसा ले किन्तु वह दोबार जीवन शुरू करने को तैयार नहीं था। सुकेतु प्रारंभ से ही कुछ रिज़र्व नेचेर का था किन्तु पत्नी की मृत्यु के बाद तो वह और भी चुप रहने लगा। कुछ गिने चुने लोगों को ही उसके जीवन में प्रवेश की अनुमति थी। उन्हीं में एक थी मेधा। मेधा से अक्सर वह अपने दिल की बात कर लिया करता था। मेधा ने ही उसे मुग्

मेरी इच्छा

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - मेरी इच्छा ईशान बेसब्री से अपने मम्मी डैडी के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। बंसी ने कई बार कहा की वह खाना खाकर सो जाए नहीं तो मेमसाहब नाराज़ होंगी  किन्तु वह कुछ सुनने को तैयार नहीं था। विभा और प्रसून दोनों मिलकर एक कंसल्टेंसी फर्म चलाते थे। बिजनेस बहुत अच्छा चल रहा था। दोनों सुबह बहुत जल्दी ही एक साथ दफ्तर को निकल जाते थे और एक साथ ही लौटते थे। अक्सर उन्हें बहुत देर हो जाती थी। आज भी उन्हें देर हो गयी थी। दरवाज़े की घंटी बजी। बंसी ने दरवाज़ा खोला। प्रसून घुसते ही सोफे पर पसर गया। विभा अपने बेडरूम में चली गयी। बंसी उन दोनों के लिए पानी लेकर आ रही थी। ईशान ने लपक कर उसके हाथ से ट्रे ले ली। पहले वह अपने डैडी के पास गया। प्रसून ने गिलास उठा लिया। ईशान ने कुछ कहना चाह तो उसे रोक कर वह बोला " बेटा जो कुछ भी कहना है अपनी मम्मी से कहो। आज मैं बहुत थका हुआ हूँ। यू आर अ गुड बॉय।" ईशान चुप चाप वहां से चला आया। जब वह विभा के पास पहुंचा तो उसे देखते ही बोल पड़ी " ईशान तुम अभी तक सोये नहीं। कितनी बार कहा जल्दी खाना खाकर सो जाया करो। सुबह स

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - ईदी

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - ईदी फैज़ अपने कमरे में आईने के सामने खड़ा तैयार हो रहा था। तभी निखत ने कमरे में प्रवेश किया " ईद मुबारक भाईजान।"  "ईद मुबारक" कह कर फैज़ ने अपनी छोटी बहन को गले लगा लिया।  फिर उसे छेड़ते हुए कहा  " काट  आई सबकी जेबें, बटोर ली ईदी" " कहाँ भाईजान सब के सब कंजूस हैं। बड़े अब्बू तो अभी तक सिर्फ ५० रुपये पर अटके हैं। आजकल ५०  रुपये में कहीं कुछ होता है। लेकिन आप सस्ते में नहीं छूटेंगे। मुझे तो नया स्मार्ट फ़ोन चाहिए। मेरी सारी फ्रेंड्स के पास है।" " ठीक है दिला दूंगा।" " थैंक्स भाईजान" कह कर निखत उसके गले से झूल गई। अख्तर साहब तखत पर लेटे थे। अब शरीर साथ नहीं देता है। बड़ी जल्दी थक जाते हैं। अपनी कोई औलाद नहीं है। छोटे भाइयों  के बच्चों को दिलो जान से चाहते हैं। सभी उन्हें बड़े अब्बू कह कर बुलाते हैं। सभी बच्चों को ईदी बाँट कर वो तखत पर आँख मूँद कर लेट गए। सिर्फ फैज़ ही बचा है। पर उसे क्या दें। इतनी बड़ी कंपनी में इतने ऊंचे ओहदे पर है, वो भी इतनी कम उम्र में। सारी बिरादरी

खुशियों का खजाना

  रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - खुशियों का खजाना बात तकरीबन बीस वर्ष पुरानी है। यह मोहल्ला लोअर मिडिल क्लास लोगों का था। जिनकी आमदनी छोटी किन्तु ख्वाहिशें बड़ी थीं। मोहल्ले में एक चीज़ की चर्चा बड़े ज़ोरों पर थी। 'सबरीना ट्रेडर्स' जिसका नारा था 'खुशियाँ अब आपके बजट में' सभी बस इसी विषय में बात  रहे  थे। सबरीना ट्रेडर्स सभी को आधी कीमत पर उनकी ज़रुरत का सामान जैसे टी .वी . फ्रिज सोफा टू -इन -वन इत्यादि  दिलाने का वादा कर रहे थे। बस शर्त यह थी की सामन की  १५ दिन पहले एडवांस बुकिंग करानी होगी और पूरे पैसे बुकिंग के समय ही देने होंगे। पहले तो लोग झिझक रहे थे किन्तु वर्मा जो कुछ ही दिन पूर्व मोहल्ले में रहने आया था ने पहल की और  सामन की बुकिंग कराई। १५ दिन बाद उसका घर सामन से भर गया। वह औरों को अपना उदहारण देकर सामान की बुकिंग कराने के लिए प्रेरित करने लगा। उससे प्रेरणा पाकर कुछ और लोगों ने भी हिम्मत दिखाई और उनका घर भी मनचाहे सामान से भर गया। अब तो बात जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी। सबरीना ट्रेडर्स के दफ्तर में बुकिंग कराने वालों का तांता लग गया। दूर दूर से लोग ब

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - सुबह की सैर

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - सुबह की सैर शाम के समय मि . मलिक बाहर बरामदे में बैठ कर  अखबार पढ़  रहे थे तभी उनकी बेटी रश्मी चाय लेकर आई। चाय का प्याला पकड़ते हुए उन्होंने पूछा " कुछ सोंचा आगे क्या करना है।" रश्मी वहीं कुर्सी पर बैठ गई   " सोचना क्या है अब मैं वहाँ वापस नहीं जाऊंगी। सोच रही थी कि अपने पुराने ऑफिस जाकर पता करूं शायद कोई काम बन जाए।"    "पूरी ज़िन्दगी का सवाल है जो भी फैसला लेना सोच समझ कर लेना।"  मि . मालिक ने समझाया। " "इस बार फैसला मेरे हाथ में है पापा सोच समझकर ही लूंगी।" यह कह कर रश्मी चली गई। मि . मलिक सोच में पड़ गए। रश्मी क्या कहना चाहती थी। क्या वो अपनी इस स्तिथि के लिए उन्हें दोष दे रही थी। उन्होंने तो सब कुछ देख परख कर ही किया था। रश्मी और दामाद के बीच सब सही चल रहा था। किन्तु पिछले एक वर्ष से उनके बीच तनाव बढ़ गया। वजह क्या थी रश्मी ने कभी खुल कर नहीं बताया। बस एक दिन अचानक घर छोड़ कर मायके आ गई। मि . मलिक और संघर्ष का पुराना सम्बन्ध था। पिता के असामायिक निधन के कारण छोटी उम्र में ही घर की ज़िम्मेदारी

जीवन धारा

 http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:329985 जब मि .  गुप्ता ने कैफे में प्रवेश किया तब मि . खान और मसंद का ठहाका उनके कानों में पड़ा। उन्हें देखकर मि  .खान बोले " आओ भाई सुभाष आज देर कर दी।"  मि . गुप्ता ने बैठते हुए कहा " अभी तक रघु नहीं आया, वो तो हमेशा सबसे पहले आ जाता है।"  मि . मसंद बोले " हाँ हर बार सबसे पहले आता है और हमें देर से आने के लिए आँखें दिखाता है, आज आने दो उसे सब मिलकर उसकी क्लास लेंगे।"  एक और संयुक्त ठहाका कैफे में गूंज उठा। तीनों मित्र मि . मेहता का इंतज़ार कर रहे थे। मि . मेहता ही थे जिन्होंने चारों मित्रों को फिर से एकजुट किया था। चारों कॉलेज के ज़माने के अच्छे मित्र थे। कॉलेज में उनका ग्रुप मशहूर था। किन्तु वक़्त के बहाव ने इन्हें अलग कर दिया। रिटायरमेंट के बाद मि . मेहता ने खोज बीन कर बाकी तीनों को इक्कठा किया। इत्तेफाक से सभी मित्र एक ही शहर में थे। सभी पहली बार इसी कैफे में मिले थे। उसके बाद यह कैफे ही उनका अड्डा बन गया। हर माह की बीस तारीख को सभी यहीं मिलते। आपस में हंसी मजाक करते। कुछ पुरानी यादें ताज़ा

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - तुम बिन

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - तुम बिन सुनीता जल्दी जल्दी काम निपटा कर अपने कमरे में आ गयी। अपना फ़ोन उसने अपने पास रख लिया। वह अजय के फ़ोन का इन्तजार करने लगी। फ़ोन की घंटी बजते ही उसने फ़ोन उठा लिया। दोनों पति पत्नी एक दूसरे से अपने मन की बात करने लगे। उनके विवाह को चार महीने ही हुए थे कि अजय को काम के लिए मुंबई जाना पड़ा। एक मोबाइल फ़ोन ही था जो उनके बीच संपर्क का सूत्र था। जिसके ज़रिये वो दोनों  एक दूसरे का सुख दुःख बांट लेते थे। अक्सर अजय सुनीता को बताता की मुंबई में जीवन कितना कठिन है। आपाधापी और घुटन से भरी ज़िंदगी में अक्सर उसका मन गाँव के खुले वातावरण और सुकून भरी ज़िन्दगी के लिए तड़प उठता है। अकेलापन उसे काटने को दौड़ता है और वह चाहता है की वह उड़ कर सुनीता के पास पहुँच जाये। सुनीता का भी यही हाल था। अजय के बिना उसे  सब कुछ बेरंग लगता था। दिन भर वह स्वयं को घर के कार्यों में व्यस्त रखती किन्तु सारा काम निपटा कर जब रात को वह अपने कमरे में आती तो एक अजीब सा सूनापन उसे घेर लेता। जब भी अजय फ़ोन पर बहुत उदास होता सुनीता उसे ढाढस बंधाती। उस से कहती कि वह परेशान न हो

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - सौर

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - सौर दिनेश को आज घर लौटने में देर हो गयी थी। जूते उतार कर वह पलंग पर लेट गया। वह बहुत थका हुआ था। आज का दिन अच्छा नहीं बीता था । काम भी और दिनों से कुछ अधिक था उस पर उसे बॉस की डांट भी खानी पड़ी। वह आँखें मूंदे लेटा था तभी उसकी पत्नी कुसुम ने उसके हाथ में एक कार्ड थमा दिया। उसने एक उचटती सी नज़र डालते हुए पूछा "क्या है।" "वो मेरी बरेली वाली मौसी हैं न उनकी छोटी बेटी की शादी है। इस महीने की 15 तारीख को। जाना पड़ेगा" " हूँ ....तो चली जाना।" कह कर दिनेश ने कार्ड एक तरफ रख दिया। " हाँ जाउंगी तो लेकिन कुछ देना भी तो पड़ेगा। मौसी हमें कितना मानती हैं। जब भी मिलाती हैं हाथ में कुछ न कुछ रख देती हैं।" " देख लो अगर तुम्हारे पास कुछ हो, कोई अच्छी साड़ी या  और कुछ, तो दे दो।" " मेरे पास कहाँ कुछ है मैं कौन रोज़ रोज़ साडियाँ या गहने खरीदती हूँ।" " तो मैं भी क्या करूं मेरी हालत तुमसे छिपी है क्या। मेरे पास कुछ नहीं है।" दिनेश ने कुछ तल्ख़ अंदाज़ में कहा। दिनेश की माँ ने अपनी बहू  की त

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - कैसे कैसे रंग

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - कैसे कैसे रंग  दरवाज़ा खोला तो सामने जो शख्स खड़ा था कुछ पहचाना सा लगा। याद करने का प्रयास कर ही रहा था की वही बोल पड़ा " क्या हुआ पहचाना नहीं मैं विशाल।" पहचान में नहीं आ रहा था। सूखे हुए पपड़ाये होंट , बिखरे बाल। पहले से कुछ दुबला हो गया था। " ओह  तुम " भीतर आओ कहकर मैं एक ओर हट गया। तकरीबन 7 साल के बाद हम मिल रहे थे। पहले तो क्या रौनक थी चहरे पर।  क्या हो गया इसे। वो आकर सोफे पर बैठ गया। " घर में और कोई नहीं है क्या।" उसने पूंछा। "हाँ पत्नी बच्चों के साथ अपने मायके गई है।" "तुम बताओ यह क्या हाल बना रखा है तुमने।" मैंने पूंछा। "बताऊँगा सब बताऊँगा पहले यदि कुछ खाने को हो तो ले आओ। सुबह से कुछ नहीं खाया।" मैंने ब्रेड और जैम लाकर उसके सामने रख दिया। "आज कल तो बस यही है।" वह ब्रेड  पर जैम लगा कर खाने लगा. उसे खाते देख कर लगा जैसे वह कई दिनों का भूखा हो। मेरे मन में उसके प्रति करुणा जाग गई। विशाल मेरे बचपन का साथी था। बचपन में हमनें कई शरारतें कीं। साथ साथ स्कूल गए फिर क

वो एक दिन

वो दिन और दिनों की तरह ही सामान्य था। बुधवार 5 जून .....किन्तु मेरे और मेरे पति सुहास के लिए एक खास दिन  था। इसी दिन पांच वर्ष पहले हमने एक दूजे का हाँथ थामा था जीवन के पथ पर साथ चलने के लिए। उस दिन की शाम के लिए हमनें कुछ प्लान बनाया था। रोज़ की तरह ही मैंने सुहास को विदा किया। फिर भाग कर बालकनी में आ गई। कुछ ही  क्षणों में सुहास बिल्डिंग से बाहर जाते दिखाई पड़े। मैंने हाथ हिला कर उन्हें विदाई दी। उन्होंने भी ऊपर देख कर हाथ हिलाया। मैं सुहास को तब तक देखती रही जब तक वह नज़रों से ओझल नहीं हो गए। मैं भीतर आकर अपना काम करने लगी। तकरीबन ग्यारह बजे होंगे की मेरे मोबाइल की घंटी बजी। मैनें फ़ोन उठाया तो मेरी ननद का था " भाभी सुहास भैया ठीक हैं  न "  उसकी आवाज में चिंता थी और वह घबराई हुई थी। " हाँ ठीक हैं ऑफिस गए हैं। क्यों क्या हुआ इतनी परेशान क्यों हो "   "आपको कुछ भी नहीं पता न्यूज़ लगा कर देखिये , मैं भी पता करती हूँ "  कहकर उसने फ़ौरन फ़ोन  काट दिया। मैंने टी .वी . खोला न्यूज़ चैनल पर एक ट्रेन के कुछ जले हुए डब्बे दिखाई दिए। लोग बदहवास से इधर उधर भाग रहे थे। एक र

मुख्यधारा

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - मुख्यधारा सारा घर अस्त व्यस्त था। मिसेज बनर्जी सब  कुछ समेटने में जुटी थीं. आज उनके बेटे सुहास का जन्मदिन था। उसने और उसके मित्रों ने मिलकर खूब धमाल किया था। सुहास अपने कमरे में बैठा अपने उपहार देख रहा था। " मम्मी देखो विशाल ने मुझे कितना अच्छा गिफ्ट दिया है। ड्राइंग बुक। अब मैं इसमें सुंदर सुंदर ड्राइंग बनाऊंगा।" सुहास अपने कमरे से चिल्लाया। अपने पति से अलग होने के बाद सुहास की सारी जिम्मेदारी मिसेज बनर्जी पर आ गयी। उन्होंने भी पूरे धैर्य और साहस के साथ स्थिति का सामना किया। सुहास अन्य बच्चों की तरह नहीं था। उसकी एक अलग ही दुनिया थी। वह अपनी ही दुनिया में मस्त रहता था। आज वह पूरे इक्कीस बरस का हो गया था किन्तु उसके भीतर अभी भी एक छोटा बच्चा रह रहा था। लोगों को यह मेल बहुत बेतुका लगता था। अक्सर पारिवारिक कार्यक्रमों में उनके रिश्तेदार उन्हें इस बात का एहसास करते रहते थे। शुरू शुरू में मिसेज बनर्जी  को लोगों का व्यवहार बहुत कष्ट देता था। उन्होंने बहुत प्रयास किया की सुहास भी अन्य बच्चों की तरह हो जाये। किन्तु समय के साथ साथ

चमत्कारी फल

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की बाल कहानी - चमत्कारी फल बबलू  एक साधारण लड़का था। उसमें आत्म विश्वास की कमी थी। वह कोई भी काम करने जाता तो उसे अधूरा ही छोड़ देता था। उसके स्कूल में स्पोर्ट्स वीक मनाया जाने वाला था। उसमें बहुत सी प्रतियोगिताएं होनी थीं। उसने भी रेस में भाग लिया था। वह रोज़ अभ्यास भी करता था किन्तु फिर भी उसे डर था।  बबलू  अक्सर कार्टून्स में देखता था की कैसे अलग अलग चरित्रों को कोई न कोई असाधारण शक्ति मिली है। वह सोंचता की काश उसे भी कोई ऐसी शक्ति मिल जाए। रेस के एक दिन पहले वह बहुत ही परेशान था। बार बार उसके मन में यह विचार आ रहा था की वह बीमार होने का बहाना कर रेस में भाग न ले। वह कुछ तय नहीं कर पा रहा था। वह सर झुकाए बैठा था। तभी पूरा कमरा तेज़ रोशनी से भर गया। उस रोशनी में उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।  जब रोशनी कुछ कम हुई तो उसने देखा की उसके सामने एक परी खड़ी  थी। परी बोली " क्या बात है तुम इतने परेशान क्यों हो?" बबलू ने कहा " परी कल मुझे रेस में भाग लेना है। पर मैं डर रहा हूँ क्या तुम मेरी मदद करोगी। तुम मुझे ऐसी शक्ति

नन्हकू

ताई ने काम करते करते घड़ी की तरफ देखा। किसी भी समय वो आने वाला होगा। आयेगा, अपना खाना खायेगा, कुछ देर आराम करेगा फिर चला जायेगा सड़कों पर आवारागर्दी करने । पिछले दो सालों से यही नियम चल रहा है। दो साल पहले वह ताई को मिला था। वह कहीं से लौट रही थीं और यह उनके पीछे लग लिया। ताई ने दुत्कारा किन्तु कोई फर्क नहीं पड़ा। वह ढीट की तरह उनके पीछे पीछे चलता रहा। दरवाजे पर पहुँच कर ताई ने फिर डांटा  " अब क्या पीछे पीछे घर में भी घुसेगा।" वह अपनी मासूम आँखों से उन्हें ताकने लगा और छोटी सी दम हिलाने लगा। ताई का मन पसीज गया। शायद भूखा होगा सोच कर उन्होंने एक कटोरे में दूध डबलरोटी सान कर दे दिया। वह सप सप कर खाने लगा। खाने के बाद वहीँ आराम से बैठ गया। ताई ने फिर  डांटा "क्या अब यहीं डेरा जमाएगा।" वह उठा और चुप चाप चला गया। अगले दिन जब ताई तुलसी को जल चढ़ाने बाहर आईं तो देखा की तुलसी का गमला गिरा हुआ है। तभी उन्हें कूं कूं की आवाज़ सुने दी " तू फिर आ गया। ठहर, अभी मज़ा चखाती हूँ।" कह कर ताई उसे मारने दौड़ीं। किन्तु वह ताई के हाथ से बच  निकला। ताई जीतनी कोशिश क

लकीर

इन गलियों में रमन  ने पहली बार कदम रखा था।  मेकअप लगाये झरोखों से झांकते  चहरे जो हाव भाव से उसे अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहे थे। संभावित ग्राहक को देख कर उसके पीछे भागते दलाल। किन्तु उसका दोस्त जो इन गलियों से वाकिफ था इन सब को नज़र अंदाज़ कर आगे बढ़ता जा रहा था। रमन भी उसके पीछे पीछे चल रहा था। सीढियां चढ़ कर दोनों एक कमरे में पहुंचे। उसका दोस्त किसी मैडम जो एक स्थूलकाय महिला थी से बात करने लगा। उस महिला ने उन्हें उसके पीछे पीछे चलने का इशारा किया। रमन को एक कमरे में बिठा कर वो मैडम और उसका दोस्त चले गए। दस माह पूर्व पारिवारिक जिम्मेदारियां उसे शहर ले आयीं। पत्नी दो बच्चों और एक बूढी माँ का  गाँव में रह कर पालन कर पाना कठिन था। अतः वह शहर चला आया। रमन एक मार्बल फैक्ट्री में काम करता था। दिन भर कड़ी मेहनत के बाद देर शाम जब वह लौटता तो घर के नाम पर एक छोटी सी कोठरी में अकेले रहना बहुत खलता था।। रोज़ की यही दिनचर्या थी। जीवन बहुत उबाऊ हो गया था। फिर जिस्म ने भी अपनी ज़रूरतें बताना शुरू कर दिया था। बहुत दिन हो भी गए थे। इसी कारण  अपने दोस्त के कहने पर वह यहाँ आने

न खुदा ही मिला न बिसाले सनम

हमारा नाम है सत्य नारायण दुबे। इस के आगे एक अदद ' मजनू' हमने खुद लगा लिया है। कारण एक तो हम किसी के प्यार में मजनू बन गए थे और दूजा ये की यह हमारा उपनाम है। वैसे हम अपने परिवार के सबसे अधिक एलिजिबिल बैचलर थे। छब्बीस की उम्र, अच्छी नौकरी, देखने सुनने में भी कोई बुरे नहीं थे। यही कारण था की कुंवारी कन्याओं के पिता हमारे घर के चक्कर लगा रहे थे। हमारे पिता भी हर अवसर को अच्छी तरह से तौल कर देख रहे थे। हम भी बहुत उत्साहित थे की तभी वह घटना घाट गयी। अजी हमें किसी से प्यार हो गया। हुआ यूं  की एक रोज़ हमारा एक दोस्त एक कवि सम्मलेन के पास ले आया। हमें कविताओं में कोई दिलचस्पी नहीं थी किन्तु उसने एक कवियत्री ' मनचली' का कुछ इस प्रकार ज़िक्र किया की हम उन्हें सुनने को बेताब हो गए। मनचली जी ने जैसे ही अपना कविता पाठ आरंभ किया  उनकी आवाज़ और शब्दों ने हम पर वो जादू किया की हम उनके फैन हो गए। घर लौटे तो उनकी आवाज़ अभी भी कानों में गूँज रही थी। कविताओं में हमारी दिलचस्पी बढ़ गयी न केवल पढ़ने में बल्कि लिखने में भी। एक दिन हम मनचली जी के घर का पता लगा कर उनके मुरीद के तौर पर उनके घर जा पह

तुमको देखा तो ये ख़याल आया

सुकेतु सुबह से ही असमंजस की स्तिथि में था। बार बार वह फ़ोन उठता था फिर नंबर मिलाये बिना ही रख देता था। जब से वह मुग्धा से मिला था उसका यही हाल था। अपनी पत्नी सुहासिनी की मृत्यु के  बाद से सुकेतु बहुत उदास रहने लगा था। अभी  उसने सुहासिनी के साथ जीवन का सफ़र शुरू ही किया था कि  मृत्यु  के क्रूर हाथों ने उसे छीन लिया। जीवन के सफ़र में वह अकेला रह गया। उसके लिए यह सफ़र एकदम बेरंग और बोझिल हो गया। वह इस राह पर अकेला चलने लगा। कितना प्रयास किया उसकी माँ ने की वह दोबारा घर बसा ले किन्तु वह दोबार जीवन शुरू करने को तैयार नहीं था। सुकेतु प्रारंभ से ही कुछ रिज़र्व नेचेर का था किन्तु पत्नी की मृत्यु के बाद तो वह और चुप रहने लगा। कुछ गिने चुने लोगों को ही उसके जीवन में प्रवेश की अनुमति थी। उन्हीं में एक थी मेधा। मेधा से अक्सर वह अपने दिल की बात कर लिया करता था। मेधा ने ही उसे मुग्धा से मिलाया था। मेधा के घर पर लंच पार्टी थी। वह सबसे अलग बागीचे में खड़ा फूलों को निहार रहा था। " इनसे मिलो ये हैं मुग्धा " मेधा ने उससे इंट्रोड्यूस कराते हुए कहा। सुकेतु ने नज़रें उठा कर देखा हलके रंग की सलवार कमीज