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जून, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जूनून

फिज़िक्स की क्लास चल रही थी. सभी बड़े ध्यान से सुन रहे थे. विनय का ध्यान लेक्चर पर नही था. वह चोरी चोरी निकिता को देख रहा था. वह मन ही मन निकिता को चाहता था. उसकी हर बात उसे बहुत पसंद थी. निकिता सौम्य स्वभाव की आत्मविश्वास से भरी लड़की थी. उसका लक्ष्य आई आई टी में दाखिला लेना था. बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं में कुछ ही समय शेष था. कोंचिंग में बहुत जोर से पढ़ाई चालू थी. निकिता का सारा ध्यान केवल पढ़ाई पर ही केंद्रित था.  निकिता अपने माता पिता की इकलौती संतान थी. उससे उन्हें बहुत उम्मीदे थीं. अब तक वह उनकी सारी उम्मीदों पर खरी उतरी थी. अपने भविष्य को लेकर उसने बहुत से सपने देखे थे. वह उन्हें पूरा करने के लिए जी जान से जुटी थी. विनय एक बहुत ही अंतर्मुखी किस्म का लडंका था. उसके पिता को शराब की लत थी. आए दिन घर में उसके माता पिता के बीच झगड़े होते रहते थे. उसका कोई भाई बहन नही था. वह बहुत अकेलापन महसूस करता था. दूसरों से बात करने में झिझकता था. अतः उसके गिने चुने मित्र ही थे. जब पहली बार वह इस कोचिंग में आया था उसका मन यहाँ नही लगा था. लेकिन जब उसने निकिता को देखा तो पहली ही नजर में उसे

स्पंदन

यहाँ मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों को रखा जाता था. कोई कुछ भी नही बोलता था. सभी अपने आप में खोए हुए सिर्फ शून्य में ताकते रहते थे. लोगों का मानना था कि इन लोगों ने.ऐसे भयानक दुःख झेले हैं कि अब पत्थर बन चुके.हैं. इसी मानसिक रुग्णालय में शामली रहने आई. वह करीब सात माह की गर्भवती थी. परिवार ने त्याग दिया था. सड़कों पर भटक रही थी. अतः उसे यहाँ भेज दिया गया. दो एक दिन बीते कुछ नजरें उसकी तरफ उठने लगीं. उनमें यहानुभूति की हल्की झलक दिखाई पडी़. पचास वर्षीय कुंती अधिक आकर्षित थी. एक दिन वह शामली के पास आई और उसके उदर पर प्यार से हाथ फेरने लगी. अब अपने खाने में से कुछ निकाल कर शामली की थाली में रख देती थी. धीरे धीरे सभी अपने तरीके से अपनी भावनाएं दिखाने लगे. दो माह बाद वहाँ खुशनुमा माहौल था. सभी नव आगंतुक का अपने अपने हिसाब से स्वागत कर रहे थे.

बाहरी रूप

मोनिका की स्कूटी अचानक ही यहाँ आकर खराब हो गई. उसने चारों तरफ नजंर दौड़ाई. यह इलाका बहुत सुनसान था. वह इस इलाके में पहली बार आई थी. सूरज डूब चुका था. कुछ ही देर में अंधेरा होने वाला था. वह डर गई. उसने अपने पापा को बुलाने के लिए अपना फोन निकाला. फोन की चार्जिंग भी खत्म हो गई थी. वह खुद पर झल्लाई. ऐसी गल्ती कैसे हुई उससे. चलते समय उसने मोबाइल भी नही देखा. अब क्या करे. किससे मदद मांगे. वह यही सब सोंच रही थी कि तभी एक आदमी आता दिखाई दिया. उलझे बाल, चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी, अस्त व्यस्त मैले से कपड़े. उसका हुलिया देख कर मोनिका को वह सही आदमी नही लगा. वह आदमी उसकी तरफ ही बढ़ रहा था. मोनिका घबरा गई. उसके पास आकर वह आदमी बोला "कोई समस्या है क्या." उसे पास देख कर मोनिका रूखे स्वर में बोली "कुछ नही है. आप दूर हटिए."' उसे परेशान देख वह आदमी थोड़ी दूर पर जाकर खड़ा हो गया. मोनिका कुछ समझ नही पा रही थी कि अब क्या करे. दूर से ही वह आदमी बोला "देखो कोई दिक्कत हो तो बता दो. घबराओ नही. तुम्हें यहाँ अकेले खड़े देखा तो पूंछ लिया." उसकी बात से मोनिका कुछ शांत हुई. उस

एहसास

सभी कह रहे थे कि नीरज बहुत भाग्यशाली है. वरना इतने बड़े हादसे के बाद उसका बच जाना और अपने पैरों खड़ा हो पाना किसी चमत्कार से कम नही था.  यह संभव हो पाया था उसकी पत्नी विभा के प्रेम और अथक सेवा के कारण. वही विभा जिसे नीरज ने कभी प्रेम और सम्मान नही दिया. नीरज को अपने पिता के दबाव में आकर विभा से विवाह करना पड़ा था.  अभी तो उसने नौकरी आरंभ की थी. कुछ दिन वह स्वतंत्र रहना चाहता था जीवन को अपने हिसाब से जीना चाहता था. दरअसल वह अपनी पसंद की लड़की से ब्याह करना चाहता था. अतः विवाह के बाद विभा उसे पैर में बंधी जंजीर सी लगती थी. इसलिए उसने स्व़यं को उस जंजीर से मुक्त कर लिया. विभा को कभी पत्नी के तौर पर नही अपनाया. उसकी दुनिया घर के बाहर थी. देर रात तक वह दोस्तों के साथ पार्टी करता रहता था. अक्सर शराब के नशे में धुत घर आता था. वह दूसरी औरतों में अपना प्यार तलाशने लगा था. विभा सब चुपचाप सह रही थी. वह कमज़ोर नही थी सिर्फ अपनी शादी को एक मौका देना चाहती थी. उसे यकीन था कि एक दिन अपने भटके हुए पति को सही राह पर ले आएगी.  एक दिन जब नीरज देर रात एक पार्टी से लौट रहा था तब नशे में होने के कारण कार प

ये शाम

वैभव के मन में अजीब सी हलचल थी.आज उसे निकिता से मिलने जाना था. यूं तो पहले भी एक दो मुलाकाते हो चुकी थीं किंतु आज की मुलाकात अलग थी. आज वह उसे प्रपोज़ करने वाला था. दिशा से अलगाव के बाद उसने स्वयं को एक दायरे में समेट लिया था. कुछ एक खास दोस्तों को छोड़ कर किसी से नही मिलता था. अपने ऐसे ही दोस्त विशाल के नए घर की खुशी में दी गई पार्टी में वह निकिता से मिला था. वह सबसे अलग एक कोने में खड़ा एक पेंटिंग को देख रहा था. तभी पीछे से किसी ने पूंछा "आपको पेंटिंग्स का शौक है." उसने पलट कर देखा तो सफेद लिबास में एक लड़की खड़ी थी. उसकी सादगी उसकी खूबसूरती में चार चांद लगा रही थी. उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया "निकिता". अपना परिचय देकर वैभव बोला "हाँ थोड़ा बहुत है. यह पेंटिग बहुत खूबसूरत हे." "इसे मैनें ही बनाया है विशाल के नए घर की खुशी में तोहफे के तौर पर." उसके बाद दोनों बातें करने लगे. बहुत दिनों के बाद वैभव को किसी से बात करना अच्छा लगा. वो दोनों काफी देर तक बातें करते रहे. यहाँ तक कि चलते समय एक दूसरे के नंबर भी ले लिए. अक्सर दोनों फोन पर बात करते. एक दो बा

सपना

मेहरा जी के जीवन का एक ही सपना था कि वह अपने इकलौते बेटे रोहन को इंजीनियर बना सकें. वह स्वयं इंजीनियर बनना चाहते थे किंतु परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के कारण नही बन सके. अतः अपनी इच्छा अपने बेटे के द्वारा पूरी करना चाहते थे.  रोहन अपने पिता को बहुत चाहता था. उनकी हर बात मानता था. पढ़ने में होशियार था किंतु चित्रकारी करना उसे बहु़त पसंद था. इस कला में वह माहिर था. जो भी उसकी स्केचबुक देखता उसकी तारीफ अवश्य करता था. उसे चित्रकारी में अनेक पुरस्कार मिले थे. मेहरा जी उसे समझाते कि यह सब शौक के तौर पर ठीक है किंतु तुम इंजीनियर ही बनना. हंलाकि उसे चित्रकारी पसंद थी किंतु उस छोटी उम्र में वह कुछ समझ नही पाता था. अतः अपने पिता की बात का समर्थन करता था. जैसै जैसे वह बड़ा होने लगा यह बात समझ में आने लगी कि उसकी रुचि चित्रकारी में अधिक है. किंतु मेहरा जी उसे बार बार याद दिलाते थे कि उसे उनके सपने को पूरा करना है. कभी दबी ज़ुबान उसने अपनी बात कहनी भी चाही तो उन्होंने उस पर ध्यान नही दिया. दसवीं के बाद अनिच्छा होने पर भी उसे विज्ञान विषय लेना पड़ा. मेहरा जी सबसे कहते अब बस कुछ ही दिनों

इंतज़ार

सिमरन ने किताब के बीच दबी तस्वीर निकाली. एक छबीला सा नौजवान सेना की वर्दी में था. सिमरन सत्रह साल पीछे चली गई.  अमनदीप जाने को तैयार था. सिमरन बड़ी मुश्किलों से अपने पर काबू किए थी. अभी आठ दिन पहले ही तो उनकी सगाई हुई थी. सिर्फ एक हफ्ता रह गया था ब्याह में. तभी संदेशा आ गया. कारगिल में युद्ध की स्थिति बन गई थी. अतः अमनदीप को जाना पड़ रहा था.  सिमरन अधिक देर काबू नही रख पाई. आंखें बरसने लगीं. अमनदीप ने समझाया "रोती क्यों है. देखना जल्द ही दुश्मनों के छक्के छुड़ा कर मैं वापस आऊंगा." सिमरन को तसल्ली दे कर वह चला गया.  युद्ध समाप्त हो गया. ना वह आया और ना ही उसकी मृत्यु की खबर. उसका नाम तो गुमशुदा लोगों की लिस्ट में था.  तब से सिमरन उसका इंतज़ार कर रही थी. परिवार समाज किसी की भी नही सुनी उसने. उसका दिल उस निर्जन पगडंडी की तरह हो गया था जिस वर्षों पहले अमनदीप के कदम पड़े थे. अब किसी और को वहाँ कदम रखने की इजाज़त नही थी.

गपोड़ी

संदीप को बड़ी बड़ी हांकने की आदत थी. स्वयं को श्रेष्ठ बताने के लिए सफेद झूठ भी बड़ी आसानी से बोल देता था. अपने क्षेत्र के विधायक विलास गुप्ता को लेकर उसने ऐसा ही झूठ अपने मोहल्ले में बोल रखा था. उसने सभी से कह रखा था कि विधायक जी तो उसके रिश्तेदार हैं. उनके साथ घर जैसे संबंध हैं. ऐसा नही था कि सब उसकी बात पर यकीन कर लेते थे किंतु कोई कुछ कहता नही था. पीठ पीछे सभी उसे गपोड़ी कहते थे. रमन को उसकी आदत पसंद नही थी. वह चाहता था कि संदीप को सबक सिखाया जाए. जल्द ही यह मौका उसके हाथ लग गया. इधर कई दिनों से मोहल्ले में बिजली पानी की बहुत समस्या थी. सभी को बड़ी परेशानी झेलनी पड़ रही थी. सभी मोहल्ले वालों ने मिलकर एक मीटिंग की कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए. शर्मा जी ने कहा "बहुत दिक्कत झेलनी पड़ रही है. पीने को भी पानी नही है. बिजली भी नही आती है. सब कुछ अस्त व्यस्त है." "अरे मेरे घर तो तीन दिन से खाना नही बना. बाहर से मंगा रहे हैं. क्या करें." टंडन जी ने अपनी व्यथा सुनाई. "करें क्या यह सोंचिए. मुझे तो लगता है कि हमें किसी नेता को पकड़ना चाहिए." कनौजिया जी ने

झटका

पुरुषोत्म लालवानी शहर के माने हुए वकील थे. उनका वकालत के क्षेत्र में बहुत नाम था. यह सब उनकी चालीस वर्षों की अथक तपस्या का नतीजा था. किंतु अब उम्र हो गई थी. शरीर थकने लगा था. डॉक्टर ने साफ शब्दों में कह दिया था कि अब केवल आराम कीजिए. लेकिन इतनी मेहनत से बनाई इस पूरी व्यवस्था को वह छोड़ नही पा रहे थे.  तैयार होकर जब वह निकलने लगे तो पत्नी ने समझाना चाहा किंतु वह नही माने.  रास्ते में ड्राईवर ने महसूस किया कि साहब तकलीफ में हैं. वह फौरन उन्हें अस्पताल ले गया. अपने फोन से मालकिन को फोन कर दिया. सही समय पर इलाज से लालवानी साहब के प्राण बच गए. अपनी पत्नी का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले "इस झटके ने सही राह दिखा दी. अब बाकी का जीवन तुम्हारे साथ खुशी से बिताऊंगा."

तांक-झांक

उसे दो साल हो गए थे सोसाइटी में आए किंतु कोई भी उसके बारे में कुछ नही जानता था. सिवाय उसके नाम 'अविनाश' के जो उसके फ्लैट के बंद दरवाजे पर लगी पट्टी पर लिखा था. सभी उसके बारे में जानने को उत्सुक थे. उसके जीवन के रहस्य को बाहर लाना चाहते थे. लेकिन वह सभी की पहुँच से बाहर था. अब तो लगता था कि सोसाइटी वालों के लिए उसके अलावा कोई अन्य जिज्ञासा नही बची थी. आज सोसाइटी की मीटिंग थी. वह कभी भी मीटिंग में नही आता था. लेकिम आज उसे वहाँ देख कर सब हैरान थे. मीटिंग सम्प्त होने के बाद वह सेक्रेटरी के पास गया और बोलने की इजाजत मांगी. हाथ जोड़ कर उसने सबको नमस्कार किया और फिर बोलना शुरू किया "आप सभी के लिए मैं अनबूझी पहेली हूँ. सभी जानना चाहते हैं कि मेरे फ्लैट के बंद दरवाजे के पीछे मैंने क्या राज़ छिपा रखा है. कोई गहरा राज़ नही है. बात बस इतनी है कि मुझे मेरी निजता बहुत प्यारी है. अनावश्यक ना मैं किसी के जीवन में दखल देता हूँ ना ही अपने जीवन में किसी का दखल पसंद करता हूँ. प्रकृति ने मुझे ऐसा ही बनाया है. अतः आप लोग जिज्ञासा का कोई और कारण ढूंढ लें." सभी चुपचाप सर झुकाए थे.

दुविधा

रिया ने अपने भाई पिंटू से पूंछा "क्या सचमुच मम्मी पापा का तलाक हो जाएगा."  "हाँ मैंने पापा को वकील अंकल से कहते सुना था कि आप तलाक के कागज़ तैयार करवाइये." पिंटू गंभीर स्वर में बोला. दोनों भाई बहन शांत व गंभीर थे. रिया ने फिर पूंछा "तो क्या टीवी वाली फिल्म की तरह वह हम दोनों को भी अलग कर देंगे." पिंटू के चेहरे पर भी चिंता उभर आई. वह बोला "पता नही." दोनो एक दूसरे से लिपट गए. पता नही कब वक्त की आंधी उन्हें जुदा कर दे.

तलवार

मेरी बेटी का दाखिला शहर के सबसे अच्छे कॉलेज में हुआ था. सब ठीक था. लेकिन क्योंकी मेरे एक परिचित वहाँ कर्मचारी थे मैं उनसे मिल कर प्रार्थना करने गया था कि नए माहौल में मेरी बेटी का खयाल रखें. उनसे आश्वासन पाकर मैं लौट रहा था तो देखा कि कैंपस में एक जगह तंबू लगाकर कुछ लोग हाथों में तख्तियां लिए बैठे थे. सबकी आंखों में चिंता थी. चेहरे उदास थे. मैंने एक व्यक्ति से पूंछा तो उसने बताया कि वह सभी अस्थाई शिक्षक थे. जो कई वर्षों से पढ़़ा रहे थे. लेकिन अब इनकी नौकरी पर ख़तरे के बादल मंडरा रहे थे. अतः धरने पर बैठे थे.  मेरी आंखों के सामने तेज़ हवा में कांपते पत्तों का दृश्य उभर आया जो भयभीत हों कि कहीं शाख से टूट ना जाएं.

सहारा

सिन्हा साहब की किताबों की एक बड़ी दुकान थी. यहाँ पाठ्यपुस्तकों से लेकर साहित्य संबंधी सभी प्रकार की पुस्तकें मिलती थीं. इसे सिन्हा साहब ने बड़ी मेहनत से बनाया था. श्रीमती सिन्हा व्वहार कुशल तथा दक्ष गृहणी थीं.  दिव्या उनकी एकमात्र संतान थी. उनका सपना अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर योग्य बनाना था. अतः उसकी शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे. दिव्या सिन्हा वंश की अकेली लड़की थी. वह स्वयं तीन भाई थे. उनके दोनों भाइयों के भी पुत्र ही थे. अतः सिन्हा साहब की माता जी जब भी उनके घर रहने आतीं तो हमेशा ही इस बात की शिकायत करती थीं. अक्सर कहती थीं कि दोनों पति पत्नी को पुत्र प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए. उन दोनों को पूजा पाठ व्रत तथा अन्य उपाय सुझाती थीं.  सिन्हा साहब उन्हें समझाते कि अम्मा लड़के लड़की से कोई फर्क नही पड़ता है. ईश्वर ने हमें जो दिया है उससे मैं खुश हूँ. अब बस दिव्या की अच्छी परवरिश ही हमारा कर्तव्य है. उनकी माता जी तर्क देतीं कि बेटी को चाहे कितना पढ़ा लिखा दो बुढ़ापे की लाठी तो बेटा ही होता है. बेटी तो पराया धन है एक दिन ससुराल चली जाएगी.  लेकिन दोनों पति पत्नी का मन पक्का था. उ

प्रतिद्वंदी

श्री बंसल की गिनती बड़े व्यापारियों में होती थी. लगभग हर वर्ष उन्हें सर्वश्रेष्ठ व्यापारी का पुरस्कार मिलता था. लेकिन इधर करीब दो सालों से उन्हें अपने ही बेटे से चुनौती मिल रही थी. अनुज उनकी इकलौती संतान था. उसे लेकर उन्होंने बहुत सी योजनाएं बनाई थीं. किंतु जब अनुज ने उनके खिलाफ जाकर उनके मामूली कर्मचारी की बेटी से ब्याह कर लिया तो वह बेहद रुष्ट हो गए और उसे बेदखल कर दिया. अनुज ने इधर उधर से पूंजी जुटा कर अपना व्वसाय आरंभ किया और चार वर्ष की कड़ी मेहनत में अपने व्यापार को उस मुकाम पर ले आया जहाँ वह अपने पिता को टक्कर देने लगा. लोग दोनों पिता पुत्र को प्रतिद्वंदी के रूप में देखने लगे. पिछले दो सालों से वह अवार्ड की रेस में भी उन्हें टक्कर दे रहा था.  इस वर्ष तो उसने बाज़ी मार ही ली. तालियों की गड़गड़ाहट में उसने पुरस्कार स्वीकार किया. फिर बोलने के लिए पोडियम पर आया. कुछ देर रुक कर बोला "थैंक्यू पापा". सभी स्तब्ध रह गए. आगे की पंक्ति में बैठे अपने पिता को देख कर आगे बोला "मेरे व्यापार की शुरुआत से अब तक आप ही मेरी प्रेरणा रहे हैं. मैंने आपको सदा पूरी लगन से काम करते देख

सेवा

रामेश्वर आज ही गांव से लौटा था. इस बार बीए पास कर चुकी अपनी बेटी का ब्याह भी तय कर आया.  वह पिछले तीस वर्षों से पंडित दीनदयाल अग्निहोत्री की सेवा में था. अग्निहोत्री जी भारतीय धर्म और दर्शन के प्रकांड पंडित थे. उन्होंने लगभग सभी ग्रंथों का अध्ययन किया था. भारतीय धर्म और दर्शन पर आख्यान देने के लिए उन्हें देश व विदेश से निमंत्रण आते थे. कई पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे. इसके अतरिक्त वह एक विशाल पैतृक संपत्ति के स्वामी थे.   रामेश्वर पूरे मन से उनकी सेवा करता था. समय असमय जो भी आदेश मिलता बिना किसी शिकायत के उसका पालन करता. पंडितजी के प्रति उसमें बहुत श्रृद्धा थी. यही कारण था कि कभी उसने कोई तय पारिश्रमिक की मांग नही की. पंडितजी जो दे देते चुपचाप ले लेता था.  शाम के समय पंडित जी अपने कक्ष में बैठे कुछ लिख रहे थे. रामेश्वर ने कक्ष में प्रवेश किया. उन्हें प्रणाम कर बोला "इस बार बिटिया का विवाह तय कर दिया. आप तो ज्ञानी हैं. समझते हैं कि कितने खर्चे होते हैं. यदि आप ...." उसकी बात बीच में ही काट कर पंडितजी बोले "देखो रामेश्वर मेरा तुम्हारी तरफ कोई हिसाब बाकी नही. हा

इंटरव्यू

लॉज में चेकइन करते ही अजय इंटरव्यू में जाने के लिए तैयार होने लगा. निकलने से पहले उसने अपने सर्टिफिकेट्स की फाइल निकालने के लिए बैग खोला. इधर उधर देखा किंतु फाइल नही थी. सारा सामान निकाल दिया फिर भी नही मिली. वह सर पकड़ कर बैठ गया. लगता है कल रात ट्रेन में चादर निकालते समय बाहर निकाली होगी फिर रखना भूल गया. वह मन ही मन बड़बडाया. यह सब उस आदमी की वजह से हुआ था. उसकी बकबक से दिमाग परेशान हो गया था. कितना ढीट था बातों बातों में उसने पता कर लिया कि वह किस कंपनी में किस जगह इंटरव्यू के लिए जाने वाला है. वह इसी शहर का निवासी था.  अब क्या करे वह समझ नही पा रहा था. बिना इंटरव्यू दिए लौट जाए तो सब हंसेंगे. इतनी बार नकारे जाने के बाद अब यही एक उम्मीद बची थी. इंटरव्यू के लिए जाएगा तो उन्हें क्या स्पष्टीकरण देगा. बहुत सोंचकर उसने इंटरव्यू के लिए जाना तय किया. एक एक कर कैंडीडेट्स अंदर जा रहे थे. अभी अभी एक युवती भीतर गई थी. अब उसकी बारी थी. वह सोंचने लगा कि किस प्रकार अपनी बात रखेगा. तभी चपरासी ने बताया कि रिसेप्शन पर कोई उससे मिलने आया है. वह जब रिसेप्शन पर पहुँचा तो देखा कि वही व्यक्ति था जो ट

मान

विभा के माथे पर सदैव सिंदूरी बिंदी सजी रहती थी. वह बड़े चाव से इसे लगाती थी. उसके लिए यह प्रतीक थी उसके सुखी  वैवाहिक जीवन की. उसके प्रेम की और उस आपसी समझ की जो उसकी गृहस्ती का आधार थी.  यदि उसकी गृहस्ति की तुलना किसी साम्राज्य से करें तो वह उसके तख़्त पर बैठी साम्राज्ञी थी. उसी का सिक्का चलता था. उसके पति एक प्रतिष्ठित उद्योगपति थे. समाज के रसूखदार लोगों में उनका उठना बैठना था. वह भी उसे पूरा मान सम्मान देते थे. गृहस्त जीवन के तीन क्षेत्रों धर्म अर्थ एवं काम तीनों में बराबर की साझेदार थी. उसे अपने पति पर बहुत अभिमान था. उनकी सफलता में वह स्वयं को भागीदार मानती थी. कई बिजनेस क्लांइट्स तथा अन्य रसूखदार लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने में उसके द्वारा आयोजित लंच तथा डिनर पार्टियों का बड़ा हाथ था. सामाजिक कार्यक्रमों में भी वह अपने पति के साथ जाती थी.  अक्सर पत्र पत्रिकाओं में उसके पति के विषय में अच्छे लेख निकलते थे. जिन्हें वह काट कर बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से सहेज कर रखती थी. उन्हें मिले सारे पुरस्कारों को भी उसने बहुत सुंदर ढंग से सजाया था.  किंतु इधर छपी कुछ खबरें उसे अच्छी नही लगीं

भय का भूत

अंकिता गली के मुहाने पर पहुँची तो डर से ठिठक गई. आज फिर वह गली में खड़ा होगा. उसे देख कर गंदी फ़ब्तियां कसेगा. गंदे इशारे करेगा. कल तो उसने उसे छूने का प्रयास भी किया था. वह समझ नही पा रही थी कि क्या करे. कई दिनों से यह सब चल रहा था. वह परेशान हो गई थी. कभी सोचती कि माँ को सब बता दे. लेकिन वह तो पहले से कितनी परेशान थीं. कॉलेज जाना भी नही छोड़ सकती थी. इम्तहान पास हैं. वह सोंचती थी कि काश उसे कोई शक्ति मिल जाए. लेकिन उसे देखते ही डर जाती थी. यही वजह थी कि कल उसने छूने का प्रयास किया. वह असमंजस में खड़ी थी. तभी टीवी में देखी एक घटना ना जाने क्यों उसके दिमाग में कौंध गई. कुत्ते से बच कर भागती बिल्ली को जब रास्ता नही मिला तो वह पलट कर कुत्ते पर झपट पड़ी. अचानक उसके इस व्यवहार से कुत्ता डर कर भाग गया. उसका असमंजस समाप्त हो गया. एक निश्चय के साथ वह आगे बढ़ी. कुछ दूर पर ही वह मिल गया. बिना डरे वह आगे बढ़ने लगी. उसने कुछ फ़ब्तियां कसी और उसकी तरफ लपका. वह पलटी और अपनी पूरी शक्ति से चिल्लाई "मेरे पीछे क्यों पड़े हो. भाग जाओ."  उसके इस रूप से वह डर गया और तेज़ी से भाग गया.

अर्थ

अस्पताल के बिस्तर पर बैठी विभा अपने पति आने की प्रतीक्षा कर रही थी. आजकल बहुत भागदौड़ रहती है उनकी. दिन भर दफ्तर का काम. शाम को थके हारे लौटते हैं. थोड़ा खा पीकर उसका खाना लेकर अस्पताल आ जाते हैं. रात में उसके पास रह कर उसकी देखभाल करते हैं. सुबह फिर दफ्तर के लिए निकल जाते हैं. यह सब सोंच कर उसके हृदय में पीड़ा सी उठी. तभी उसके पति आ गए. आते ही उसके माथे पर हाथ फेर कर उसका हाल पूंछा. बैग से खाने का डब्बा निकालते हुए बोले "तुम्हें भूख लगी होगी. आज दफ्तर से लैटने में देर हो गई." चम्मच में दलिया लेकर उसे खिलाने लगे. खाते हुए उसकी आंखें भर आईं. उसके पति ने प्यार से उसके आंसू पोंछे फिर उसे खिलाने लगे. खाना खत्म होने पर उसे पानी पिलाया. फिर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोले "तुम रोज़ अपने माथे पर सिंदूर की बिंदी लगाती हो. कहती हो कि यह हमारे प्रेम आपसी विश्वास तथा साझा जीवन का प्रतीक है. मेरे भी मन का आकाश सदैव हमारे प्यार आपसी विश्वास के सिंदूरी रंग से रंगा हुआ है."  उसके पति के इन शब्दों ने उसके दिल मे संजीवनी की तरह असर किया. मन खिल उठा.

आवरण

वृंदा जिस समय हवेली पहुँची वह दिन और रात के मिलन का काल था. उजाले और अंधेरे ने मिलकर हर एक वस्तु को धुंधलके की चादर से ढंक कर रहस्यमय बना दिया था. हवेली झीनी चुनर ओढ़े किसी रमणी सी लग रही थी. जिसका घूंघट उसके दर्शन की अभिलाषा को और बढ़ा देता है. वृंदा भी हवेली को देखने के लिए उतावली हो गई.  इस हवेली की एकमात्र वारिस थी वह. इस हवेली की मालकिन उसकी दादी वर्षों तक उसके पिता से नाराज़ रहीं. उन्होंने उनकी इच्छा के विरूद्ध एक विदेशी लड़की से ब्याह कर लिया था. लेकिन अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब एकाकीपन भारी पड़ने लगा तो उसके पिता आकर उन्हें अपने साथ ले गए. वृंदा का कोई भाई बहन नही था. अपने में खोई सी रहने वाली उस लड़की के मित्र भी नही थे. दो एकाकी लोग एक दूजे के अच्छे मित्र बन गए. दादी और पोती में अच्छी बनती थी. दादी किस्से सुनाने में माहिर थीं. उनका खास अंदाज़ था. वह हर किस्से को बहुत रहस्यमय तरीके से सुनाती थीं. उनके अधिकांश किस्सों में इस हवेली का ज़िक्र अवश्य होता था. यही कारण था कि यह हवेली उसके लिए किसी तिलस्मी संदूक की तरह थी. जिसके भीतर क्या है जानने की उत्सुक्ता तीव्र होती है. 

बंधन

वह जीतेंद्रिय था. कई साल पहले ही उसने सांसारिकता के समस्त बंधनों को तोड़ डाला था. अब तपस्या ही उसका संसार थी. कई वर्षों से वह पहाड़ की इस निर्जन गुफा में रह रहा था. केवल भिक्षा मांगने ही नीचे बसे ग्राम में जाता था.  धम्म की शरण में आने से पूर्व वह वैद्य था. अपने औषधीय ज्ञान से उसने बहुत ख्याति एवं धन संपदा एकत्र की थी. किंतु कुछ भी उसके काम नही आया. उसके एकमात्र प्रिय पुत्र के प्राणों की रक्षा वह नही कर सका. धम्म के शरणागत होकर ही उसे शांति मिली. अब तो संसार से पूर्णतया विमुख हो गया था.  अन्न वह कड़ी है जो सन्यासियों को भी संसार से जोड़ती है. अन्न समाप्त हो गया था. उसने पहाड़ की तलहटी में बसे गांव में जाकर भिक्षा मांगने का निश्चय किया. जब वह लौट रहा था तब झाड़ियों में उसे कोई जीव पड़ा हुआ दिखाई दिया. कौतुहलवश पास गया तो देखा कि वह एक मृग शावक था जो घायल पड़ा था. उसकी पीड़ा उसके नेत्रों में स्पष्ट दिख रही थी. करुणा सन्यासियों का गुण है. उसने उस शावक को उठा लिया और गुफा में ले आया. उसे पता था कि कौन सी वनष्पति पीड़ाहारी है. वह शावक का उपचार करने लगा. थोड़ी ही सेवा से शावक स्वस्थ हो

अनपढ़

वंदना का आज का दिन भी अन्य दिनों की भांति आरंभ हुआ था किंतु खास था. आज उसकी तपस्या फलित होने वाली थी. उसके व्यक्तित्व को नई पहचान मिलने वाली थी. आज रह रह कर उसे पिछले दिन याद आ रहे थे. प्राण पण से वह पति की सेवा करती थी. सास की एक आवाज़ पर दौड़ जाती थी. परंतु तिरस्कार और अपमान के अतिरिक्त कुछ नही मिलता था. अपने बेटे के लिए वह इतना कष्ट सहती थी. ताकि बड़े अंग्रेज़ी स्कूल की पढ़ाई में कोई अड़चन ना आए. लेकिन अपने मित्रों के बीच वह उससे अधिक अपनी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली चाची को महत्व देता था. उसके सारे गुणों पर उसकी एक कमी काली स्याही पोत देती थी. उसका अनपढ़ होना. इन सब से बहुत टूट जाती थी वंदना. एक ख़्वाहिश दबी छुपी सी उसके मन में उपजने लगी थी. वह पढ़ना चाहती थी. किंतु कौन था जो उसकी इच्छा को समझता. ऐसे में उसकी नई पड़ोसन दीपा किसी देवदूत की भांति उसके जीवन में आई. तलाकशुदा दीपा स्वावलंबी थी. उसने भी जीवन में बहुत सहा था. अतः वंदना की पीड़ा समझती थी. दीपा अपने खाली समय में उसे पढ़ाने लगी. कुछ समय तक सब सही चला किंतु जब वंदना की सास को पता चला तो उन्होंने क्लेश किया "

लग जा गले....

पारस कुछ चीज़ों की व्यवस्था देखने के लिए कमरे के बाहर गए थे. आज दोपहर ही में महिमा और वह इस लॉज में आए थे. महिमा के दिल में कई मिलेजुले भाव उमड़ रहे थे. थोड़ी खुशी, थोड़ा कौतुहल, थोड़ा संकोच कुछ भय. सब मिलकर एक अजीब सी भावना पैदा कर रहे थे. आज उसके और पारस के वैवाहिक जीवन की पहली रात थी. दोनों की शादी अरेंज्ड थी. वैसे महिमा एक आधुनिक लड़की थी. अपने पैरों पर खड़ी थी. लेकिन यह विषय उसने अपनी इच्छा से माता पिता पर छोड़ दिया था.  ऐसा नही था कि दोनों को एक दूसरे को समझने का बिल्कुल भी समय नही मिला था. विवाह से पहले दोनों की चंद मुलाकातें हुई थीं. फोन पर भी दोनों अक्सर बातें करते थे. इन सब से पारस एक भले इंसान प्रतीत हुए थे. इतना ही पर्याप्त समझा था उसने. वैसे तो पूरी ज़िंदगी कम पड़ती है किसी को जानने के लिए. फिर कोई भी परिपूर्ण नही होता. रिश्ता तो आपसी सामंजस्य पर ही टिक पाता है.  दरअसल पारस को लेकर वह असहज नही थी. यह उहापोह तो नैसर्गिक थी. जो सदा से ही नव ब्याहता के मन में इस रात को लेकर रही है.  अपनी नर्वसनेस को कम करने के लिए वह अपने मोबाइल पर अपना पसंदीदा रूमानी गाना सुनने लगी. खिड

छलिया

वह पगडंडी सूनी पड़ी है. अब वहाँ से कोई नही गुजरता है. बस उसकी वापसी की प्रतीक्षा रहती है. वह प्रतिदिन उसी स्थान पर आकर बैठ जाती है जहाँ अंतिम बार उसे विदा किया था. मथुरा जाते हुए उसके रथ को रोक कर नेत्र भर उसे देखा था. नेत्रों की प्यास तो नही बुझी थी किंतु वह उसे रोक भी नही पाई थी. वैसे तो उसके प्रेम को यह अधिकार था कि उसे जाने ना देती. किंतु सच्चे प्रेम की यही दुर्बलता है कि वह अधिकार नही जता पाता है. उसके कर्मपथ पर रोड़ा नही बनना चाहती थी. अतः उसे जाते हुए देखती रही तब तक जब तक कि अश्रुओं ने दृष्टि को बाधित नही कर दिया.  आज भी बैठी थी वह. उसके कान और आंखें पूरी तरह सजग थे. हल्की आहट भी यदि कान सुनते तो नेत्र उतावले हो पगडंडी पर भागने लगते. इस उम्मीद से कि शायद उसका रथ वापस आता दिखे. किंतु जल्द ही हताश होकर वापस आ जाते. वह सोंचने लगी 'कैसा निर्मोही है. एक बार पलट कर भी नही देखा. निर्मोही क्या अभिमानी है. यह भी नही समझा कि वृंदावन के कण कण का ऋणी है वह. यहाँ की कुंज लताओं, गउओं, पशु पक्षियों गोपियों सभी के निश्छल प्रेम के कारण ही तो उसकी पहचान है. हम ना होते तो कौन सुनता उसकी मुर

मेहनत की खुशबू

उसने पिता से विरासत में मिले जमीन के उस टुकड़े को देखा. ऊबड़ खाबड़. पत्थर ही पत्थर भरे थे. पत्नी ने व्यंग किया ‘जब किसी की किस्मत पर ही पत्थर पड़े हों तो क्या.’ किंतु उसने उसने व्यंग को अनसुना कर दिया. किस्मत से हार मानना तो उसने सीखा ही नहीं था. बहुत समय पहले उसने पढ़ा था कि इंसान की इच्छा शक्ति पहाड़ भी हिला सकती है. उसके मन में भी एक संकल्प था. वह जुट गया अपने लक्ष्य को पाने के लिए. रात दिन एक कर दिए. पसीने की बूंदों से कर्मबीज फलित हुए. चारों तरफ लहलहाते फूलों की छटा थी. बंजर जमीन चमन बन गई थी. पत्थरों से मेहनत की खुशबू आने लगी थी.

अंकुर

ज़ोहरा अधिकांश समय गुमसुम रहती थी. किसी से ना मिलना ना जुलना. बस काम से मतलब. इस उम्र में ऐसी संजीदगी सभी को अखरती थी. भाईजान ने कितनी बार समझाया ज़िंदगी किसी के लिए रुकनी नही चहिए. लेकिन वह तो जैसे कुछ समझना नही चाहती थी. कभी जिसकी खिलखिलाहट सारे मोहल्ले में गूंजती थी अब बिना टोंके उसके मुंह से एक लफ़्ज नही निकलता. अपनी लाडली बहन की इस दशा पर भाईजान के सीने में आरियां चलती थीं. गांव के छोटे से स्कूल में टीचर थी ज़ोहरा. छोटे बच्चों का साथ उसे अच्छा लगता था. पूरी वादी बर्फ की सफेद चादर ओढ़े थी. इस बार ठंड भी अधिक थी. ज़ोहरा खाना लेकर गई तो देखा कि दोपहर की थाली यूं ही ढकी रखी थी. उसने छुआ भी नही था. सर से पांव तक लिहाफ ओढ़े सिकुड़ा हुआ पड़ा था.  सरकारी मुलाजिम था शाकिब. नदी पर बन रहे पुल का सुपरवाइज़र. भाईजान ने उसे कमरा किराए पर दिया था. उसका यहाँ कोई नही था. नर्म दिल भाईजान के कहने पर ही उसे दोनों वक्त खाना दे आती थी. उसने बताया था कि जहाँ से वह आया है वहाँ बर्फ नही पड़ती. मौसम गर्म रहता है. इसीलिए शायद बीमार हो गया.  अक्सर वह उससे बात करने की कोशिश करता था. लेकिन ज़ोहरा को पसंद नही