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संध्या आरती

अनिल जब ऑटो से उतरा तो बिल्डिंग देख कर लगा कि यहाँ तो सब साधारण फ्लैट ही होंगे। उसे आश्चर्य हुआ। महंगी जीवनशैली के आदी उसके चाचा यहाँ कैसे रहते होंगे। पर जब उससे बात हुई थी तब तो उन्होंने अपना नया पता यही बताया था।   अनिल कोई दस साल बाद इस शहर में अपने गुरूजी के समागम में हिस्सा लेने आया था। वह उन्हें बहुत मानता था। छोटी उम्र में उन्होंने सन्यास ले लिया था। सारे देश में बहुत से आश्रम थे उनके। वह चाह रहा था जल्द से जल्द अपने गुरूजी की तस्वीर रख कर संध्या आरती कर सके। जब वह सीढ़ियां चढ़ कर तीसरे फ्लोर पर पहुँचा तो उसे और अधिक आश्चर्य हुआ। यह एक कमरे का साधारण फ्लैट था। सिर्फ एक पंखा लगा था। चाचाजी फर्श पर चटाई डाले बैठे थे। "चाचाजी आपने वकालत छोड़ दी। अब आप इतने साधारण ढंग से क्यों रहते हैं ?" "वकालत मैं अभी भी करता हूँ। फीस भी पहले की तरह ही वसूलता हूँ। अपनी ज़रूरतें पूरी करने के बाद जो बचता है वह समाज की आवश्यक्ता पर खर्च कर देता हूँ।" अपने चाचा की बात सुन कर संध्या आरती करने की अनिल की इच्छा खत्म हो गई।

संघर्ष

आई.आई.टी की पढ़ाई पूरी करते ही वैभव को एक बड़ी आईटी कंपनी ने अच्छा पैकेज ऑफर किया। सारे कैंपस में वैभव की इस सफलता की चर्चा ज़ोरों पर थी। ज्वाइनिंग से पहले वैभव अपने माता पिता से मिलने जाने की तैयारी कर रहा था। आज वह उन लोगों के प्रति कृतज्ञता महसूस कर रहा था। बचपन में जब उसके जन्मदिन पर सस्ते खिलौने मिलते थे तब वह बहुत दुखी होता था। अपने दोस्तों को खिलौने दिखाने में शर्माता था। पर आज उसे एहसास हो रहा था कि उसके माता पिता ने कितनी कठिनाइयां सह कर उसे इस मुकाम तक पहुँचाया है। महंगे खिलौनों पर इतराने वाले उसके दोस्त कितने पीछे रह गए थे।

मौन आक्रोश

पोलिंग बूथ में लाइन में लगा मुन्ना अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा था। मन में एक उथल पुथल मची थी। बढ़ती महंगाई ने उसकी कमर तोड़ कर रख दी थी। पढ़ा लिखा बेटा बेरोज़गार था। जवान बेटी जब कॉलेज के लिए निकलती थी तो मन में डर रहता था कि सुरक्षित आएगी या नहीं। इन सबके बीच आज वह वोट डालने आया था। अपनी बारी आने पर भीतर गया। दस्तखत कर उंगली पर निशान लगवाया। फिर वोटिंग मशीन की तरफ चला गया। कौन सा बटन दबाना है वह पहले ही तय कर चुका था। इतने सालों के अनुभव ने बता दिया था कि सत्ता मिलने पर सभी उसके मद में डूब जाते हैं। उसने नोटा दबा दिया।

दस्तक

मनीषा बहुत देर से अपने कमरे में बैठी योजना बना रही थी कि भतीजी के  मुंडन की पार्टी में क्या क्या होना चाहिए। अभी तक उसे लगता था कि भाई और उसकी पत्नी को दुनियादारी का अनुभव नहीं है। अतः अभी भी हर काम का दायित्व उस पर ही है। हलांकि उसकी सहेली अचला ने कई बार समझाया था कि यह तुम्हारी भूल है। उन्हें उनकी ज़िंदगी जीने दो। तुमने भाई को उसके पैरों पर खड़ा कर अपना दायित्व पूरा कर लिया। अब उसे खुद सब करने दो। तुम अब अपने जीवन पर ध्यान दो। लेकिन मनीषा मानती ही नहीं थी। वह अपनी योजना बताने भाई के कमरे की तरफ बढ़ी। दस्तक देने ही जा रही थी कि भाभी की आवाज़ सुनाई पड़ी। "परी के मुंडन में जो होना है वह मेरी पसंद का होगा। तुम दीदी को समझा देना। बेवजह दखल ना दें।" मनीषा ने अपना हाथ रोक लिया। कुछ पल चुप रहने के बाद मुस्कुराई। एक जबरन ओढ़े गए बोझ से उसे छुट्टी मिल गई थी।

सच्ची पूजा

ह्रदय बाबू करीब साल भर बाद इस मंदिर में आए थे। जब भी उनके जीवन में किसी चीज़ की आवश्यक्ता होती थी तो वह इसी मंदिर में आकर देवी से उसके लिए प्रार्थना करते थे। ह्रदय बाबू पूजा का सामान लेने दुकान पर गए तो दुकानदार को देख चौंक गए। वह सरजू था। पहले छोटी सी टोकरी में रख कर मंदिर के बाहर फूल बेचता था। "ये तुम्हारी दुकान है सरजू ?" "हाँ बाबूजी इस नवरात्री के पहले दिन ही उद्घाटन किया है।" "वाह इतनी जल्दी तरक्की कर ली। कोई पूजा वगैरह करवाई थी क्या ?" "बाबूजी हम बहुत पढ़े लिखे तो हैं नहीं पर मंदिर की दीवार पर लिखा है कर्म ही पूजा है। हमने वही पूजा की है।" ह्रदय बाबू सोंच रहे थे कि मंदिर से सबसे बड़ा ज्ञान तो सरजू ने लिया है।

प्रतीक्षा

रीमा सामने बैठे सचिन को ताक रही थी। अचानक सचिन की निगाह पड़ी तो आँखों ही आँखों में उसने पूँछा 'ऐसे क्यों ताक रही हो?' रीमा ने अपनी आँखें झुका लीं। तभी अंदर जाने का बुलावा आया। भीतर पहुँच कर दोनों ने रजिस्ट्रार के सामने दस्तखत किए। गवाहों ने भी दस्तखत किए। दोनों ने एक दूसरे को फूलों की माला पहनाई। आज सचिन का पंद्रह साल का इंतज़ार खत्म हो रहा था। यह पंद्रह साल उसने बिना किसी शिकायत के अकेलेपन में बिताए थे। ताकि रीमा अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त हो सके।

भीड़ से अलग

पापा का फोन आया देख मयंक समझ गया कि आज भी वही बातें सुनने को मिलेंगी। उसे मुंबई में संघर्ष करते पाँच साल हो गए थे। नौकरी के अच्छे अवसर को छोड़ कर वह यहाँ अपना सपना पूरा करने आया था। इस बीच उसके दोस्त और चचेरे भाई बहन अपने जीवन में व्यवस्थित हो गए थे। अतः उसके पापा को लगता था कि फिल्म लाइन में काम पाने के लिए वह जो संघर्ष कर रहा है वह महज़ समय की बर्बादी है। उसके हाथ कुछ नहीं आएगा। एक दिन वह किसी और नौकरी के लायक नहीं रह जाएगा। उसने फोन उठाया तो पापा ने बताया कि उसके एक और दोस्त की शादी हो रही है। बड़े दुखी मन से वह बोले। "हमारे नसीब में पता नहीं यह सुख है भी कि नहीं कि तुम्हें सेटेल होते देखें। तुम बताओ कि आखिर हमसे ऐसा कौन सा पाप हो गया जिससे तुम पर यह फितूर चढ़  गया।" मयंक कुछ नहीं बोल सका। उन्हें कैसे समझाता कि यह उसका फितूर नहीं बल्कि दुनिया की भीड़ से हट कर अपनी अलग पहचान बनाने की उसकी छटपटाहट है।

अपनी लड़ाई

रजनी ने लगभग सारी तैयारी कर ली थी। वह आखिरी बार उसका निरीक्षण कर रही थी। तभी उसकी माँ कमरे में आईं। "बिटिया नौकरी के लिए इतनी दूर जाना आवश्यक है क्या ? जब तक  मैं और तुम्हारे पापा ज़िंदा हैं तुम्हें फिक्र करने की क्या ज़रूरत है।" रजनी ने उन्हें बैठा कर प्यार से समझाया। "आप दोनों तो मेरी ताकत हैं। पर मम्मी हर एक को अपनी ज़िंदगी की लड़ाई खुद लड़नी चाहिए। आप लोगों ने मुझे इस लायक बनाया है।" उसने मेज़ पर रखी अपने स्वर्गीय पति की तस्वीर उठा कर बैग में रख ली। अब वह अपनी मंज़िल पर जाने को तैयार थी।

नौकरी

धीरे धीरे उम्र निकलती जा रही थी पर विवेक अभी तक बेरोज़गार था। शुरू से मेधावी रहे विवेक ने कॉलेज के बाद तय कर लिया था कि वह सरकारी नौकरी ही करेगा। इसलिए सरकारी नौकरी के लिए परीक्षाएं देता रहता था। किंतु परीक्षा परिणाम आने में बहुत समय लगता था। कभी कभी परीक्षा निरस्त भी हो जाती थी। परीक्षा पास कर भी ले तो साक्षात्कार में रह जाता था। लोगों ने समझाया कि सरकारी नौकरी की ज़िद छोड़ कर प्राइवेट सेक्टर में नौकरी कर ले। पर विवेक नहीं माना। अब एक नौकरी के लिए साक्षात्कार था। वह पूरे मन से तैयारी कर रहा था। तभी उसका दोस्त राजेंद्र आ गया। उसने बताया कि खबर है कि इस नौकरी के लिए लेनदेन कर पहले ही सेटिंग हो चुकी है। विवेक की उम्मीद चरमरा गई। पर फिर भी वह तैयारी में जुट गया।

कविता

स्नेहा को जब पता चला कि स्कूल मैगज़ीन में शिक्षक के ऊपर लिखी उसकी कविता की जगह रश्मी की कविता छप रही है तो वह चिढ़ गई। वह सीधा टंडन मैम के पास पहुँच गई जिन्होंने यह निर्णय लिया था। "मैम मैंने इतनी मेहनत कर दो पेज की कविता लिखी थी। सारिका मैम ने तो खूब तारीफ की थी। पर आपने रश्मी की केवल आठ लाइनों की कविता चुन ली। क्यों ??" टंडन मैम ने उसे प्यार से बैठाते हुए कहा। "बेटा कविता लंबी नहीं गहरी होनी चाहिए। तुमने अच्छा लिखा है। पर रश्मी ने कम शब्दों में दिल को छुआ है।"

निकट का लक्ष्य

बारहवीं कक्षा के अब कुछ ही महीने शेष थे पर विनय समझ नहीं पा रहा था कि वह किस दिशा में जाए। अपनी समस्या ले कर वह अपने चचेरे भाई के पास गया। उसकी बात सुन कर वह बोले। "देखो यह तो सही है कि तुम्हें कोई ना कोई राह चुननी पड़ेगी। यह चुनाव तुम्हें पहले कर लेना चाहिए था। किंतु अभी तो तुम्हारा सारा ध्यान निकट के लक्ष्य पर होना चाहिए।" "वो क्या भइया..." "सब कुछ बारहवीं के नतीजे पर निर्भर है। तुम अभी सारा ध्यान उधर लगाओ।" विनय को बात समझ आ गई। वह बारहवीं में अच्छे अंक लाने की तैयारी करने लगा।

डूबा हुआ शहर

दो दिनों से लगातार पानी बरस रहा था। चारों तरफ पानी ने त्राहि त्राहि मचा रखी थी। घर में पानी भर गया तो मरियम छत पर आकर मदद की राह देखने लगी। "हे प्रभू ये कैसी विपदा आ गई। मेहनत से संजोई हुई गृहस्ती बर्बाद हो गई। अब तो रहम करो।" तभी छत के ऊपर सेना का हैलीकॉप्टर मंडराता नज़र आया। प्रभू ने उसकी रक्षा के लिए दूत भेजे थे। वह हैलीकॉप्टर द्वारा लटकाई रस्सी पकड़े ऊपर जा रही थी। दूर तक शहर पानी के नीचे सोया हुआ था।  मरियम समझ नहीं पा रही थी। यह प्रकृति का क्रोध था या इंसानी लालच का परिणाम।

कठिन फैसला

ज्योती के लिए आसान नहीं था किंतु अपने फैसले पर पहुँच कर उसके दिल को बहुत सुकून मिला था। कविता मौसी ने उसके लिए बहुत कुछ किया। उसका सुरक्षित वर्तमान उनका ही उपकार था। अनाथ होने के बाद जब सारे रिश्तेदार उससे किनारा कर गए थे तब मौसी उसका सहारा बनी थीं। जबकी उनका उससे कोई रिश्ता नहीं था। वह उसकी माँ की सहेली थीं। कविता मौसी की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। वह बहुत बीमार थीं। ज्योती ने उन्हें अपने पास रखने का फैसला किया था। यह फैसला उसकी ससुराल में किसी को मंजूर नहीं था। उसके पति का कहना था कि मदद करनी है तो उन्हें किसी अच्छे वृद्धाश्रम में भिजवा दो। लेकिन ज्योती मौसी के उपकार नहीं भुला सकती थी। वह उन्हें घर ले आई।

मंज़िल

दीपक जल्दी जल्दी कपड़ों में प्रेस कर रहा था। अपने पापा के आने से पहले वह सब काम खत्म कर देना चाहता था। पहले इस दुकान पर उसके पापा ही कपड़े प्रेस करते थे। पर उनकी बीमारी के कारण पिछले दो महीनों से वह भी उनकी मदद करता था। वह फुटबॉल का दीवाना था। फुटबॉल के ज़रिए एक दिन दुनिया जीतना चाहता था। वह इसके लिए जी तोड़ मेहनत कर रहा था। उसे सामने से पापा आते दिखाई दिए। उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई। अब वह फुटबॉल प्रैक्टिस के लिए जा सकेगा। भले ही उसकी राह में कई रोड़े हों पर उसकी मंज़िल स्पष्ट थी।

सूबे का मुखिया

अपने राज्य में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त करने के बाद सूबे के मुखिया अब सुदूर राज्यों में पार्टी का जनाधार बढ़ाने में व्यस्त थे। एक पत्रकार ने सवाल किया। "सर आप अपना राज्य छोड़ कर सुदूर राज्यों में पार्टी का प्रचार क्यों कर रहे हैं?" मुखिया जी ने जवाब दिया। "मैं पार्टी का एक कर्मठ कार्यकर्ता हूँ। जो पार्टी फैसला करे वही करता हूँ।" "तो सर जनता का फैसला..." "हम उसका सम्मान करते हैं।" कह कर मुखिया जी चले गए।

मन की दूरी

लता मौसी चलने लगीं तो मुकेश और रचना भावुक हो गए। मौसी दोनों को आशीर्वाद देकर अपने घर लौट गईं। हफ्ते भर पहले जब वह आईं थीं तो पति पत्नी किसी को भी उनका आना अच्छा नहीं लगा था। दोनों के रिश्ता उस समय बहुत तल्ख था। आपस में बाततीत बंद थी। लेकिन मौसी के सामने सामान्य रहना पड़ता था। अनुभवी मौसी भी सब भांप गईं। जानबूझ कर दोनों को एक दूसरे के सामने कर देती थीं। एक दिन दोनों को यह कह कर कमरे में बिठा दिया कि जो मन में दबा रखा  है एक दूसरे से कह दो। करीब दो घंटे तक दोनों एक दूसरे से अपनी अपनी शिकायत करते रहे। अगले दिन से दोनों सचमुच सामान्य हो गए। अपनी ज़िंदगी में दोनों इस कदर खो गए थे कि आपस में लड़ने का भी समय नहीं रह गया था। यह दोनों के मन में दूरी पैदा कर रहा था। मौसी ने अचानक आकर दूरी कम कर दी थी।

ट्रेनिंग

ट्रेनिंग के अंत में रूपेश को बेस्ट पर्फार्मर का खिताब मिला। उसे लेते हुए उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया। ब उसे ट्रेनिंग के लिए चुना गया था तब वह बहुत परेशान था। उसे लग रहा था कि कंपनी ने उसे ये किस बवाल में फंसा दिया। इस उम्र में यह कठिन ट्रेनिंग वह कैसे करेगा। पर कंपनी की बात तो माननी ही थी। इसलिए उसने मन पक्का कर ट्रेनिंग शुरू की। उसके धैर्य और परिश्रम ने हवाओं का रुख मोड़ दिया। आरंभ में कठिन लगने वाली ट्रेनिंग में उसने सबसे बढ़िया प्रदर्शन किया।

स्कूटी

नीरजा ने अपने फोन पर तस्वीर दिखाते हुए कहा। "देखिए पापा वर्मा अंकल की बेटी ने डांस में यह कप जीता है। मेरा भी बहुत मन था कि मैं भी सोसाइटी के फंक्शन में भाग लूं।" उसके पापा ने सवाल किया। "तो फिर भाग क्यों नहीं लिया? तुमने भी तो कथक सीखा है।" नीरजा ने एक आह भर कर जवाब दिया। "समय कहाँ रहता है पापा। पहले बस में धक्के खाते कॉलेज जाओ। फिर बस से कोचिंग। कितना समय तो बस में ही बेकार हो जाता है। प्रैक्टिस के लिए समय नहीं बचता। उसके पास तो स्कूटी है। बहुत समय बचता है।" नीरजा के पापा कुछ सोंच कर बोले। "कितने तक की आएगी स्कूटी? कौन सी स्कूटी लोगी?" सुनते ही नीरजा अखबार का वह पन्ना ले आई जिसमें उसकी मनपसंद स्कूटी का विज्ञापन था।

वीर का बलिदान

रत्ना भाग कर अपने खेत पहुँची तो देखा कि उसके पति का चचेरा भाई मंगलू उस पर कब्ज़ा कर रहा है। रत्ना ने रोका तो वह बोला। "खेत गिरवी रख कर कर्ज़ा लिया था। अभी तक चुकाया नहीं है।" "अबकी फसल पर चुका देंगे।" मंगलू कुटिल हंसी हंसते हुए बोला। "तुम क्या चुकाओगी। जिसने लिया था वह तो बिना चुकाए सिधार गया।" रत्ना ने तमाशबीन गांव वालों की तरफ उम्मीद से देखा। सब चुप खड़े रहे। उसे वह दिन याद आ गया जब सरहद पर शहीद उसके पति की अर्थी उठाते हुए यही गांव वाले नारा लगा रहे थे। 'हे वीर तेरा बलिदान याद रखेगा हिंदुस्तान'

खुद से वादा

पार्टी में सारी चीज़ें योगिता के मनपसंद थीं। लज़ीज़ पकवानों की खुशबू नथुनों के ज़रिए उसके मन पर हावी हो रही थी। सामने सजे पकवानों को देख कर उसने झट से एक प्लेट उठा ली। उसने समोसे की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि वापस खींच लिया। प्लेट वापस रख दी। वज़न कम करने के अपने वादे को वह यूं नहीं तोड़ सकती।

आने वाला समय

तरुण को परेशान देख उसके चाचा ने पूँछा। "क्या बात है? किस सोंच में हो?" "अरे चाचा क्या बताएं। बड़ा बुरा वक्त आ गया है। अच्छाई तो जैसे रही ही नहीं।" चाचा ने पूँछा। "क्यों ऐसा क्या हो गया?" "अब देखिए ना वर्मा जी जैसे भले आदमी को उनके अपनों ने धोखा दिया। आज गैर उन्हें सहारा दे रहे हैं। लगता है कि आने वाला समय इससे भी खराब होगा।" चाचा ने गंभीरता से कहा। "बेटा ना बीता कल बहुत अच्छा था और ना आज बहुत खराब है। गैरों ने ही सही पर वर्मा जी को किसी ने सहारा दिया है ना। अच्छाई और बुराई तो हर समय में होते हैं। ऐसे ही हम अच्छाई को बना कर रखेंगे तो आने वाला समय भी अच्छा होगा।"

खाली हाथ

विभा ने कॉलबेल बजाई। कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। बहन ने एक फीकी मुस्काने से स्वागत किया। वह भीतर जाकर बैठ गई। बैग नीचे अपने पैर के पास रख लिया। बच्चे नहीं दिख रहे थे। पहले जब भी वह आती थी तो बच्चे दरवाज़े पर ही राह देखते मिलते थे। "दीदी बच्चे घर पर नहीं हैं क्या?" "वो टेस्ट हो रहे हैं। इसलिए पढ़ रहे थे।" बहन के बुलाने पर बच्चे आए। दोनों की नजरें कुछ खोजती हुई विभा के पाँव के पास रखे बैग पर टिक गईं। विभा ने बैग से दो चॉकलेट्स निकाल कर उनकी तरफ बढ़ा दिए। 'थैंक्यू' कह कर दोनों अपने कमरे में चले गए। बहन चाय बनाने चली गई। पहले जब वह आती थी तब एक सूटकेस तो केवल तोहफों से भरा होता था। तब वह अमीर घर की बहू थी। आज अपना वजूद तलाशती एक तलाकशुदा।

मैं भी एक दिन

रोज़ की तरह चेतन हवाई अड्डे के पास बनी टी स्टॉल पर चाय पीते हुए वहाँ काम करने वाले गुड्डू से बात कर रहा था। एक हवाई जहाज ऊपर से उड़ा तो गुड्डू बड़े चाव से उसे देखने लगा।  चेतन ने उससे पूँछा। "यहाँ तो दिन में कई बार हवाई जहाज निकलते हैं। फिर तुम हर बार इतने चाव से क्या देखते हो?" "वो भइया मैं सोंचता हूँ कि जहाज में बैठे लोगों में से कोई ऐसा भी होगा जो कभी मेरी तरह गरीब रहा होगा।" कहते हुए उसकी आँखों में चमक आ गई।  "शायद एक दिन मैं भी....."

इमरती

बीना छोटी सी बात को लेकर रूठ गई थी। उसे मनाने के लिए उसके पति उसकी पसंदीदा इमरती लेकर आया। पैकेट टेबल पर रख वह बीना से मनुहार करने लगा कि नाराज़गी छोड़ कर गर्मा गर्म इमरती खा ले। लेकिन वह टस से मस नहीं हुई। हार कर वह अपना मोबाइल लेकर बैठ गया। सामने टेबल पर इमरती का पैकेट था। बीना कभी उसे देखती कभी अपने पति को। लेकिन वह अपने फोन में व्यस्त था। दरवाज़ा खुला था। अचानक एक बंदर भीतर घुस आया। तेज़ी से इमरती के पैकेट पर झपटा और उसे लेकर भाग गया। बीना सिर्फ चिल्लाती रह गई। "हाय बंदर मेरी इमरती ले गया।"

ठिकाना

घर के बागीचे में चाय पीते हुए विमला ने अपने जेठ से कहा। "देखिए भइया हमने कितने चाव से घर बनाया था। अब दोनों बच्चे बाहर हैं। वहीं अपना ठिकाना बना लेंगे। क्या लाभ इस घर का।" उसके पति ने भी उसका समर्थन किया।  विमला के जेठ ने हंस कर कहा। "चिड़िया अपना घोंसला अंडे सेने के लिए बनाती है। फिर उसमें से बच्चे निकलते हैं। एक दिन उनके पंखों में आसमान छूने की ताकत आ जाती है। तब चिड़िया उन्हें घोंसले में कैद नहीं करती है।" विमला और उसके पति बात का अर्थ समझ गए।

पलटू

रंजन की गुप्ता जी पर नज़र पड़ी। उनके बेटे ने फाइव स्टार होटल की अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर अपना रेस्टोरेंट खोलने का निश्चय किया था। इस बात से गुप्ता जी नाराज़ थे। मुंह देखी बात करने के आदी रंजन ने उन्हें देखते ही संवेदना दिखानी शुरू कर दी। "अब क्या कहा जाए आज की पीढ़ी को। सोंचने विचारने की तो ज़रूरत ही नहीं समझते। हर समय हवा में किले बनाते रहते हैं।" रंजन की बात सुनते ही गुप्ता जी अपने बेटे के बचाव में आ गए। "मैं शुरुआत में उसके फैसले से खुश नहीं था। लेकिन समीर ने सब अच्छी तरह से सोंच कर ही फैसला लिया है।" गुप्ता जी का मूड देख कर रंजन फौरन बोला। "हाँ ये तो है। समीर बहुत समझदार है। मेहनती भी है। तभी तो इतना आगे तक बढ़ पाया। वह अपना रेस्टोरेंट भी अच्छे से चलाएगा।"

परिवार

दयाराम खुश थे। एक अर्से के बाद उनके तीनों बच्चे इकठ्ठे हुए थे। सभी डाउनिंग टेबल पर खाना खा रहे थे। यह वक्त उनके परिवार में आपसी बातचीत का होता था। दयाराम प्रतीक्षा कर रहे थे कि पहले की तरह उनकी बड़ी बिटिया ही बातों का सिलसिला शुरू करेगी। उन्होंने उसकी तरफ देखा तो वह अपने फोन में मैसेज पढ़ रही थी। वह चुपचाप खाने लगे। खाते हुए उन्होंने अपनी मझली बेटी से दाल का डोंगा देने को कहा। पर वह ना जाने किन विचारों में उलझी थी कि उसने ध्यान नहीं दिया।  बेटे के फोन की घंटी बजी। 'एक्सक्यूज़ मी' कह कर वह अपनी प्लेट के साथ कमरे में चला गया। दयाराम ने खुद ही दाल परोसी और खाने लगे।

ज़िद

बंटी ने देखा कि जो खिलौना उसने पापा से ज़िद करके मंगाया था वह उसका छोटा भाई मोनू बिना उसकी इजाज़त के खेल रहा है। उसने खिलौना वापस रखने को कहा। इस पर मोनू ने उलटा जवाब दिया। "पापा ने कहा था कि यह दोनों के लिए है। मैं नहीं दूँगा।" उसकी इस धृष्टता पर आठ साल के बंटी के भीतर का बड़ा भाई आहत हो गया। गुस्से से उबलते हुए वह खिलौना छीनने लगा। मोनू भी झुकने को तैयार नहीं था। छीना झपटी में खिलौना दो टुकड़ों में टूट गया।  अब दोनों के मन में एक ही सवाल था कि पापा से क्या कहेंगे।

कोच सर

मेहुल पिछले कुछ दिनों से प्रैक्टिस में ध्यान नहीं दे पा रहा था। इस बात से उसके कोच नाराज़ थे। आज उसके क्लब का मैच था। उसके टीम की स्थिति अच्छी नहीं थी। पर उसने अच्छी गेंदबाज़ी करके अपनी टीम को मैच जिता दिया। सब उसकी तारीफ कर रहे थे। पर मेहुल की निगाह अपने कोच सर पर थी।  कोच सर ने उसके पास आकर शाबासी दी। मेहुल का मन नाच उठा।

तसल्ली

नर्स ऑपरेशन से पहले कुछ दवाएं देने आई तो देखा कि मि. दत्त कुछ परेशान हैं। "घबराइए नहीं सर डॉ. खान माने हुए सर्जन हैं।" मि. दत्त को ऑपरेशन की चिंता नहीं थी। उनकी निगाहें दरवाज़े पर लगी थीं। तभी घर से कुछ आवश्यक सामान लेकर लौटी पत्नी के साथ ही उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई।

अंजान खतरा

एस. पी. चंदा सिंह ने इंस्पेक्टर मूलचंद से पूँछा। "अब तो तुम्हारी बेटी साल भर की होने वाली होगी।" "हाँ मैडम बहुत शरारती भी हो गई है। अपनी मासूम हरकतों से सबका मन मोह लेती है। सबका खिलौना बनी रहती है।" एस. पी. चंदा ने सोंचते हुए कहा। "वो तो मासूम है पर उसका खयाल रखो। उसे खिलौना ना बनने दो।" इंस्पेक्टर मूलचंद सोंच में पड़ गए। तभी खबर मिली की चार साल की एक बच्ची का नग्न शव झाड़ियों में पड़ा मिला है।

सीख

रजत बड़ी उम्मीद के साथ अपने न्यूज़ चैनल के एडिटर के सामने खड़ा था। "सर उस दिन निर्माणाधीन पुल के गिरने से हुए हादसे को मैंने पर्त दर पर्त उधेड़ दिया है। आज शाम प्राइम टाइम में यह न्यूज़ न्यूज़ चलाइए।” एडिटर महोदय ने बड़े दार्शनिक अंदाज़ में कहा। "तुम एक अच्छे रिपोर्टर हो। पर अभी तुम्हें यह सीखना है कि लोग क्या देखना चाहते हैं।" "सर क्या लोगों को सच्चाई पता नहीं चलनी चाहिए ?" एडिटर ने मुस्कुरा कर कहा। "दिन भर धक्के खाकर जब लोग घर लौटते हैं तो उन्हें खबर में भी डेली सोप का मज़ा चाहिए। आज़ राजनीति के मंच पर दिनभर जो रेसलिंग हुई उस पर पंकज ने अच्छी रिपोर्ट बनाई है।" रजत उनकी बात सुनकर हैरान था। "घबराओ नहीं मेहनती हो सीख जाओगे।"

विरासत

विधायक प्रमिला सिंह अपने क्षेत्र के दौरे पर आई थीं। मंच पर से अपनी जनता को संबंधित कर वह बोलीं। "आज बहुत दिनों के बाद अपने घर आई हूँ। पर इस बार अकेली नहीं आई हूँ। आपके बेटे और बहू को भी साथ लाई हूँ।" मंच पर बैठे उनके बेटे ने खड़े होकर सबका अभिवादन किया। लेकिन बहू वैसे ही बैठी रही। प्रमिला सिंह ने उसकी तरफ देखा तो वह चेहरे पर फीकी सी मुस्कान लेकर खड़ी हो गई। जब तीनों गेस्टहाउस पहुँचे तो उनके बेटे ने अपने कुर्ते को सूंघकर मुंह बनाया। ना चाहते हुए भी कितनों को गले लगाना पड़ा था। प्रमिला सिंह ने समझाते हुए कहा। "राजनीति में जानता को खुश रखना पड़ता है। यही चीज़ें वोट दिलाती हैं। इस बार मुझे पूरी उम्मीद है कि पार्टी तुम्हें भी टिकट देगी। अभी से इन सब की आदत डाल लो।" उनकी बहू भी आकर बेटे से दूरी बना कर बैठ गई। "और हाँ चुनाव होने तक अपने बीच की दूरी पर भी पर्दा डाल दो।"

आत्मिक सुख

विभूति बाबू के रिटायरमेंट को करीब छह महीने बीत गए थे। उनके कमरे में चारों तरफ साहित्यिक किताबें रखी थीं। वह कागज़ कलम लेकर कुछ लिख रहे थे। तभी उनके चचेरे भाई उनसे मिलने आए। "अभी तक तक कलम घिसने से जी नहीं भरा ?" अपने भाई के प्रश्न के जवाब में विभूति बाबू बोले। "तब तो दूसरों का हिसाब लिखते थे। पर अब अपने मन की शांति के लिए लिख रहा हूँ।" "अब इस उम्र में लेखक बनने की क्या सूझी।" "जब तक जीवन चले और शरीर साथ दे तब तक कर्म तो करना ही है। मन में पुरानी दबी इच्छा थी। उसे पूरा करने का अब वक्त मिला है। अपनी तरफ से कोशिश है कि कुछ अर्थपूर्ण कर सकूं।"

स्वागत

जीत के ढोल नगाड़े बजाते हुए वह लोग दरवाज़े पर आ गए। "बेदाग छुड़ा लाया तुम्हारे बेटे को। स्वागत करो इसका।" दरवाज़े पर थाली लिए खड़ी रुक्मणी ने अपने पति की आज्ञा का पालन करते हुए बेटे को तिलक लगाया। स्वागत के बाद वह अपने कमरे में आ गई। घुसते ही आदम कद आईने में खुद की छवि दिखाई दी। उसने आँखें नीची कर लीं। धन बल ने फिर एक लड़की की लुटी हुई अस्मत का तमाशा बना दिया था।

जीवन और श्र्वास

आलाप और रागिनी छोटे से शहर के बड़े गायक थे। दोनों की म्यूज़िकल नाइट्स शहर में धमाल मचा रही थीं। दोनों का रिश्ता ऐसा था जैसे कि जीवन का श्वास से। अपना शहर जीत लेने के बाद इच्छा मुंबई की मायानगरी में किस्मत आज़माने की हुई। दोनों फिल्मों के लिए गाने लगे। पहले साथ साथ फिर अपने अपने रास्ते पर बढ़ने लगे। ना जाने कब रास्तों में फासले आ गए। इस फासले को अहम की गर्म हवा ने भर दिया। जीवन श्वास से पृथक अपना अस्तित्व तलाशने लगा।

दिल का सुकून

करीब छह महीने के बाद सुरेंद्र दो दिनों के लिए घर आया था। बाहर बरामदे में ही माँ बैठी मिल गईं। वह वहीं उनके हालचाल लेने बैठ गया। माँ ने अपना वही पुराना दुखड़ा सुनाना आरंभ कर दिया। माँ के पास से भीतर आया तो पत्नी की भौहें पहले से ही तनी हुई थीं। "खुद तो वहाँ जाकर आराम से बैठ गए। यहाँ तो मुझे सारी खिटखिट सहनी पड़ती है।" सुरेंद्र दो दिनों के लिए दिल का सुकून पाने आया था। पर अब सोंच रहा था कि यह दो दिन कैसे काटेगा।

बिट्टी

बिट्टी को एक पॉलीथीन का थैला पकड़ाते हुए उसकी माँ ने कहा। "हम उधर झाड़ू लगा के कूड़ा इकट्ठा कर आए हैं। सब इसमें भर दे।" थैला लेकर बिट्टी उस तरफ दौड़ पड़ी। उसकी माँ इस बड़े अंग्रेज़ी स्कूल के आहते में सफाई का काम करती थी। मदद के लिए उसे भी साथ ले आती थी। कूड़ा उठाते हुए बिट्टी वहीं जाकर खड़ी हो गई जहाँ अक्सर खड़ी हो जाती थी।  यह स्कूल का प्लेग्राउंड था। जिसके चारों तरफ लोहे के तार से बनी जालीदार चारदिवारी थी। बिट्टी जाली से प्लेग्राउंड में झांकमे लगी। "काम छोड़ कर वहाँ काहे खड़ी है।" अपनी माँ की डांट सुन कर बिट्टी अपने काम में लग गई।  "वहाँ ऐसा क्या है जो ताका करती है।" बिट्टी की माँ ने गुस्से से पूँछा। बिट्टी चुप रही। वह साफ धुली यूनीफॉर्म पहने बच्चों को खेलते देख कर उनके बीच खुद के होने की कल्पना कर रोमांचित होती थी।

माँ

सुमन ने जो किया उसके लिए सभी  उसकी तारीफ कर रहे थे। उसने एक दुधमुंहे अनाथ बच्चे की माँ बनना स्वीकार किया था। "सुमन तुमने तो समाज के लिए एक आदर्श पेश किया है। ना जाने वो कैसी माँ होगी जिसने इतने छोटे बच्चे को बेसहारा छोड़ दिया था।" यह कहते हुए सुमन की सहेली ने उसे गले लगा लिया। सुमन के भीतर कई सालों से एक नन्हें से बच्चे के रोने की आवाज़ गूंज रही थी। अपने कलेजे पर पत्थर रख कर वह उसे रोता छोड़ आई थी। यह सोंच कर वह रांतों को जागती रहती थी कि ना जाने उसकी आवाज़ किसी ने सुनी भी थी या नहीं।

मुस्कान

दिल्ली के इस प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला पाकर स्नेहा बहुत खुश थी। कॉलेज का पहला दिन कैंपस में घूमने एक दूसरे से जान पहचान करने में ही बीत गया। जब वह हॉस्टल आई तो अकेलेपन ने उसे घेर लिया। उसे अपने परिवार की याद आने लगी। सुबह जब उसकी रूममेट आई तो वह कॉलेज के लिए निकल रही थी। उससे बातचीत तो नहीं हुई किंतु उसके हावभाव से लगा था कि वह किसी अमीर घर से है और ज्यादा मिलना जुलना पसंद नहीं करती है। वह अभी मुंह हाथ धोकर बैठी ही थी कि उसकी रूममेट आ गई। वह किसी से फोन पर बात कर रही थी। स्नेहा भी अपने फोन में लग गई। "हैलो....मैं सबरीना हूँ। सुबह हमारी बात नहीं हो पाई।" स्नेहा की रूममेट उसकी तरफ देख कर मुस्कुरा रही थी। स्नेहा ने भी अपना परितय दिया। पहले कुछ औपचारिक बाते हुईं। लेकिन थोड़ी ही देर में दोनों खुल कर बात कर रही थीं। स्नेहा ने महसूस किया कि सबरीना की एक मुस्कान ने कितनी जल्दी अजनबीपन को खत्म कर दिया।

मसखरा

मसखरा स्टेज पर अजीबोगरीब हरकतें कर सबको हंसा रहा था। लोग मैजिक शो से अधिक शो के बीच में होने वाले मसखरे के खेल को पसंद करते थे। सब उसके खेल को देख कर लोटपोट हुए जा रहे थे। तभी मसखरे की नज़र सामने की पंक्ति में अपने पिता के साथ बैठी एक छोटी सी बच्ची पर पड़ी। वह खुश होकर ताली बजा रही थी।  बच्ची को देख कर मसखरे के सामने एक और बच्ची का चेहरा घूम गया जिसे कुछ ही दिन पहले दफनाया था। उसकी आँखों से झरझर आंसू बहने लगे। रोते हुए भी उसने अपनी उल्टी सीधी हरकतें जारी रखीं। सब इसे उसका नया खेल समझ कर जोर जोर से तालियां बजा रहे थे।

ध्यानी बाबा

इधर कुछ दिनों से राम जानकी का छोटा सा मंदिर भक्तों के आकर्षण का केंद्र बना था। मंदिर में कहीं से एक बंदर आ गया था जो चौबीसों घंटे मंदिर की चौखट पर बैठा रहता था। देख कर ऐसा लगता था जैसे ध्यान में लीन हो। लोग के बीच वह ध्यानी बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। सब कहते थे कि कोई सिद्ध महात्मा वानर योनि में पैदा हो गए हैं। मंदिर का पुजारी उनकी सेवा करता था। अपनी मनोकामना लेकर दूर दूर से लोग उनके दर्शन को आते थे। चढ़ावा चढ़ाते थे। एक निसंतान जोड़ा अपनी फरियाद लेकर आया था। पत्नी ने अपना दुख बाबा से कहा तो अचानक वह कुछ चैतन्य हुए। पुजारी बोला। "बाबाजी ने आपकी सुन ली। वह ध्यान से उठे हैं। यह उनके भोजन का समय हैं।" वह भीतर गया और बाबाजी के विशेष लड्डुओं की थाली लाकर उनके समक्ष रख दी। लड्डू खाकर बाबाजी पुनः ध्यानलीन हो गए।

च्यवनप्राश का डब्बा

बेटा बहू महीने के सामान लेकर लौटे थे। जाने से पहले जब दोनों लिस्ट बना रहे थे तब महेश को याद आया कि घर से वह च्यवनप्राश का जो डब्बा लेकर आए थे वह खत्म हो गया है। वह कहने ही जा रहे थे कि लिस्ट में डब्बा भी जोड़ लें पर संकोचवश कह नहीं पाए।  सामान निकालते हुए बेटे ने कहा। "पापा आप शायद भूल गए थे। मंजू ने याद दिलाया कि आपका च्यवनप्राश भी खत्म हो गया है।" उसने च्यवनप्राश का डब्बा निकाल कर सामने मेज़ पर रख दिया।

अड़ियल

"मैं कहती हूँ माफी मांगो इनसे। ये तुम्हारे पापा हैं।"  ज्योती ने सात साल की सुहाना को डांटा। "मैं माफी नहीं मांगूंगी। यह मेरे पापा नहीं हैं।" ज्योती को गुस्सा आ गए। उसने एक थप्पड़ लगा दिया। सुहाना रोती हुई अपने कमरे में चली गई। ज्योती सौरभ से माफी मांगते हुए बोली। "आई एम सॉरी यह लड़की दिन पर दिन बद्तमीज़ और अड़ियल होती जा रही है।" सौरभ ने ज्योती को समझाते हुए कहा। "वह बद्तमीज़ नहीं हैं। हमें उसे समझना होगा। पिता को खोने के बाद अब वह इस बात से डरती है कि मैं कहीं उसकी माँ भी ना छीन लूं। हमें धैर्य रखना होगा।

ब्रेकिंग न्यूज़

सत्ताधारी दल के स्वास्थ मंत्री गहरी सोंच की मुद्रा में बैठे थे। सरकारी अस्पताल में नकली दवाओं के वितरण के मामले ने तूल पकड़ लिया था। जिसे विपक्षी दल हवा दे रहे थे। सबसे अधिक मुखर नेता भवानी लाल मंत्री जी के सामने बैठे थे। मंत्री जी ने सामने रखी फाइल की तरफ इशारा करते हुए कुछ गंभीर स्वर में भवानी लाल से कहा। "देखिए भवानी जी जिस हमाम में सब नंगे हों वहाँ तेरी भी चुप मेरी भी चुप सबसे अच्छी पालिसी है। आपकी भी कई कमज़ोर नसें हमारे हाथ में हैं। फिर हम सत्ता में हैं। आप समझ सकते हैं हम ज़्यादा ज़ोर से आपकी नस दबा सकते हैं।" फाइल देख कर भवानी लाल एसी कमरे में माथे का पसीना पोंछने लगे। उनके जाने के बाद मंत्री जी के पीए ने कहा। "सर यह तो मान गए। लेकिन दवाओं वाला मामला मीडिया पर गर्म है।" मंत्री जी मुस्कुरा कर बोले। "कोई बात नहीं आज ही हम जनता को नई ब्रेकिंग न्यूज़ दे देंगे।"

परवाह

जेलर कैदियों के काम का निरीक्षण कर रहे थे। यहाँ फर्नीचर बनाने का काम होता था। दीपक अपना काम करने में व्यस्त था। वह हमेशा चुप रहता था। कभी किसी से बात नहीं करता था।  दीपक हथौड़ी से एक कुर्सी में कील ठोंक रहा था। चूक होने के कारण हथौड़ी उसके अंगूठे पर लगी और तेजी से खून बहने लगा। जेलर भाग कर उसके पास आए। अपनी जेब से रुमाल निकाल कर उसके अंगूठे पर बाँध दिया। दीपक खून से सने उस रुमाल को देख रहा था। सड़क पर पले बढ़े दीपक का खून झगड़ों के दौरान ना जाने कितनी बार बहा था। किंतु पहली बार किसी ने उसकी परवाह की थी।

बड़ा अफसर

सुनीता ने पहले अपने सामने रखे अदालती कागज़ को देखा फिर सामने बैठे अपने पति को देखा। सचमुच पहले से रंगत बहुत बदल गई थी। अब वह एक आई ए एस अधिकारी था। सुनीता ने अपने गहने दिए थे उसे कि शहर जाकर परीक्षा की सही तरह से तैयारी कर सके। उसके पति ने समझाते हुए कहा। "दस्तखत कर दो। घबराओ मत, उसके बाद भी मैं तुम्हारा पूरा खयाल रखूंगा।" तभी उसका फोन बजा। कॉलर का नाम देख कर चेहरे पर मुस्कान आ गई। वह एक तरफ जाकर बात करने लगा। "मेरे बिना जी नहीं लग रहा है।.....हाँ जल्दी लौटूँगा। बस मेरा काम हो जाए।" बात करके जब वह सुनीता के पास आया तो उसने कागज़ उसके हाथ में थमा दिया।  "तो दस्तखत कर दिया...."  उसका पति कागज़ देखने लगा। "नहीं किया। कम पढ़ी हूँ। बेवकूफ नहीं।" सुनीता का चेहरा स्वाभिमान की आभा से जगमगा रहा था।

तमाशबीन

‌‌सामने सड़क पर भीड़ जमा देख कर जैश झल्ला उठा। उसे पहले से ही देर हो गई थी। जाने कया तमाशा हो रहा है। अब इन लोगों को हटा कर रास्ता बनाना पड़ेगा। वह गाड़ी से उतर कर भीड़ को हटा कर देखने गया कि माजरा क्या है। बीस बाइस साल का एक लड़का घायल पड़ा था। जैश फौरन उस लड़के के पास गया। उसे अपनी कार में डाल कर अस्पताल की तरफ भागा। उसका बड़ा भाई भी तमाशबीनों से घिरा सड़क पर पड़े पड़े मर गया था।

घमंडी

श्रवण ट्रेन में अपने सामने बैठे व्यक्ति को देख कर मुस्कुराया। उसकी आदत थी कि वह अपने साथ यात्रा कर रहे व्यक्ति से दोस्ती कर लेता था। अक्सर इसकी शुरुआत मुस्कुराहट से होती थी। पर आज सामने वाले व्यक्ति ने कोई जवाब नहीं दिया। श्रवण ने एक दो इधर उधर की बातें भी शुरू कीं किंतु वह व्यक्ति अपने में ही गुम रहा। श्रवण ने मन ही मन उसे घमंडी करार दिया। वह भी मैगज़ीन पढ़ने लगा। करीब एक घंटे बाद उस व्यक्ति का मोबाइल बजा। वह किसी से बात करने लगा।  "मैं कल सुबह तक पहुँच पाऊँगा। तब तक इंतज़ार करना..." कहते हुए उसकी आवाज़ भर्रा गई। अपनी बात समाप्त कर उसने फोन रख दिया। श्रवण की तरफ देख कर बोला। "आज दोपहर मेरी पत्नी दुर्घटना में मर गई। घर पर सब मेरे पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" श्रवण को अपनी सोंच पर बहुत शर्मिंदगी हुई। वह उसके दुख के निजी पलों में अनजाने ही घुसने का प्रयास कर रहा था।

दिग्दर्शक

नंदिनी कई वर्षों के बाद अपने गांव आई थी। वह एक नामी न्यूज़ चैनल की पत्रकार थी। गांव वालों ने उस स्कूल में उसके सम्मान का कार्यक्रम आयोजित किया था जहाँ कभी वह पढ़ती थी। नंदिनी महसूस कर रही थी कि इन वर्षों में गांव की सोंच में बदलाव आया है। अब स्कूल में लड़कियों की संख्या लड़कों के लगभग बराबर थी। यही नहीं अब वह अपने सपनों के बारे में भी बात करने लगी थीं।  वह बच्चों से बात कर रही थी तभी एक लड़की उसके पास आकर बोली। "थैंक्यू दीदी.." नंदिनी ने आश्चर्य से पूँछा "क्यों??" "दीदी आज आपने जो कुछ किया है उसने हमारे लिए रास्ता खोल दिया है। अब हमारे माता पिता को भी यकीन है कि अवसर मिले तो लड़कियां भी बहुत कुछ कर सकती हैं।"

मोड़

विश्वनाथ बाबू ने पार्क में कदम रखा तो पाया कि सुभाष अभी तक नहीं आए। उन्होंने मन में सोंचा कि आज मैंने सुभाष को हरा दिया। रोज़ मुझे देर से आने के लिए टोंकता था। इससे पहले कि वह अपनी खुशी दिखाते उनके मित्र ने आगे बढ़ कर गले लगा लिया। "सुभाष कल रात हमें छोड़ कर चला गया।" विश्वनाथ बाबू बेंच पर बैठ गए। कुछ देर दोनों दोस्त चुप रहे। "ज़िंदगी में हर किसी के सामने यह मोड़ तो आना ही है। चलो चल कर उसे अंतिम विदाई दे आएं।" यह कह कर वह चलने को उठ खड़े हुए।

पुष्पांजली

जगत नारायण पास के एक गांव से एक बाल विवाह रुकवा कर लौटे। हमेशा की तरह उन्होंने अपनी बेटी की तस्वीर पर फूल चढ़ाए। तस्वीर में बारह तेरह साल की एक लड़की का मुस्कुराता चेहरा था। उन्हें फूल चढ़ाते देख कर उनके सहयोगी ने पूँछा। "जगत बाबू आप जब भी किसी बच्ची को बाल विवाह से बचाते हैं तो अपनी बेटी की तस्वीर पर फूल क्यों चढ़ाते हैं?" जगत नारायण की आँखें भींग गईं। अपनी बेटी की गुहार कानों में गूंजने लगी। 'बाबा मेरी शादी मत करवाओ। मुझे अभी पढ़ना है.." जगत नारायण ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी। कच्ची उम्र में बेटी को जान गंवानी पड़ी।

वंडर ब्वॉय

ईशान डेली सोप की अपनी शूटिंग करके लौटा तो अपना नया खिलौना देख कर खुशी से उछल पड़ा। सारी थकान भूल कर वह उसके साथ खेलने लगा।  तभी उसकी मम्मी हाथ में अखबार लेकर आई। "देखो ईशान इस पेपर में तुम्हारी कितनी तारीफ छपी है। तुम्हें वंडर ब्वॉय कहा गया है।" ईशान ने उचटी सी नज़र डाली और अपने खिलौने में व्यस्त हो गया। "ये क्या तुम खिलौने से खेल रहे हो। हमें अवॉर्ड फंक्शन में चलना है। वहाँ बहुत से मीडिया वाले होंगे।" अपनी मम्मी की बात सुनकर ईशान उदास हो गया। उसे उदास देख कर उसकी मम्मी ने कहा। "बेटा खिलौना कहाँ भागा जा रहा है। बाद में खेल लेना।" ईशान हिसाब लगाने लगा कि अपनी शूटिंग के शेड्यूल में अब उसे दोबारा वक्त कब मिलेगा।

पंचायत

आज ग्राम प्रधान यशोदा के आंगन में पंचायत बैठी थी। मामला उनके घर का ही था। सभी लोग आंगन में मौजूद थे। घर का नौकर आंगन के कोने में लगी सूखी बेल को काट कर उसकी जगह नई बेल रोप रहा था। यशोदा ने अपराधी सुरेखा जो बहू की चचेरी बहन थी को संबोधित कर कहा। "तुमने मेरे बेटे पर डोरे डाल कर उसे अपने प्रेम जाल में फंसा लिया। एक बार भी अपनी बहन का खयाल नहीं किया। अब तुम्हें मेरे बेटे से शादी कर मेरी बहू की सूनी गोद भरनी पड़ेगी।" यशोदा की बहू अपनी सास के इस न्याय पर दंग रह गई।

अपराधबोध

चंद्रेश बियर बार के सामने अनिश्चय में खड़ा था। वह इससे पहले कभी किसी बार में नहीं गया था। लेकिन आज मन बहुत खिन्न था। वह भीतर चला गया।  आज फिर छोटे भाई का फोन आया था कि भाभी को अपने साथ शहर ले जाकर किसी डॉक्टर को दिखाओ। दिन पर दिन उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही है। पर वह कैसे समझाता कि वह यहाँ बड़ी मुश्किल से गुज़ारा कर पा रहा है। यहाँ तो सही से रहने की व्यवस्था भी नहीं है।  चंद्रेश को मानसी का खयाल आया। यहाँ के आपाधापी से भरे जीवन में एक वही तो थी जिसके साथ वह कुछ पल सुकून के बिता लेता था। इस समय वह मानसी का साथ चाहता था। पर वह तो कॉल सेंटर में नाइट ड्यूटी करती थी। अतः वह मन बहलाने के लिए यहाँ आ गया। मानसी का चेहरा याद आते ही मन में अपराधबोध जागा। उसने अपने शादी शुदा होने की बात उसे नहीं बताई थी। कुछ ही देर में बार बालाओं का नृत्य शुरू हुआ। मद्धम रौशनी में एक चेहरे पर उसकी निगाह अटक गई। गिलास हाथ से फिसलते फिसलते रह गया।  उस बार बाला की आँखों में भी अपना सच सामने आ जाने की शर्मिंदगी थी।

दस्तक

सकीना अपनी आपा के घर से निकली। अस्र की नमाज़ का वक्त होने वाला था। अतः सही समय पर घर पहुँचना चाहती थी। आपा उसे सिलाई का काम दिलवा देती थीं। आज भी इसी सिलसिले में आई थी। पाँच साल की आयशा और आठ साल का इमरान अपनी अम्मी के साथ थे। अभी कुछ ही दूर चले थे कि नन्हीं आयशा पूँछ बैठी। "अम्मी खाला क्या कह रही थीं कि अब्बा भाग गए। अब नहीं लौटेंगे।" उसकी बात सुनकर परेशान सकीना चिल्ला पड़ी। "चुप कर बहुत ज़ुबान चलने लगी है तेरी।" आयशा सहम गई। इमरान अपनी अम्मी का दर्द समझता था। वह छोटी बहन को बहलाने लगा। आयशा पेट में थी तभी शाहिद काम के लिए खाड़ी के मुल्क चला गया था। कह गया था कि जल्दी ही सही इंतज़ाम कर उसे और इमरान को भी ले जाएगा। लेकिन आयशा के जन्म के पाँच साल बाद भी वह नहीं लौटा। एक मोबाइल नंबर दिया था। जो कभी नहीं लगा। सब सकीना को ही दोष देते। सही से पूँछताछ भी नहीं की कि शौहर कहाँ जा रहा है। कहाँ ठहरेगा। लेकिन सकीना तो उसके प्यार में दीवानी थी। तभी तो अब्बा अम्मी सबकी मर्ज़ी के खिलाफ जाकर उससे निकाह किया था। अचानक ना जाने कहाँ से आकर उसके मोहल्ले में रहने लगा था। बताता था कि द

उम्मीद

सतपाल अपने घर के मोड़ पर आकर रुक गया। उसे लग रहा था कि आज वह कुछ जल्दी ही घर पहुँच गया। लेकिन मन ने कहा कि समय तो उतना ही लगा है पर वक्त ठीक नहीं चल रहा। तभी तो वह अपने ही घर जाने से कतरा रहा है। रोज़ वह सुबह काम के लिए निकलता और शाम को घर लौट आता था। किंतु आज पगार मिलनी थी। वह डर रहा था कि किस प्रकार घर में उम्मीद से राह देखते लोगों का सामना करेगा। कैसे उन्हें बताएगा कि उसकी नौकरी चली गई थी। पिछले एक महीने से वह काम पर नहीं बल्कि काम की तलाश में जा रहा था। जो आज भी नहीं मिला।

दो पंक्षी

लीला का ध्यान कमरे के रौशनदान पर तिनका तिनका जोड़ कर बनाए गए घोंसले पर गया। उसने राकेश से कहा कि उसे यह मकान पसंद है। राकेश को कमरा कुछ ठीक नहीं लगा। कुछ बंद सा था। रसोई के लिए कमरे के कोने में ही एक छोटा सा प्लेटफार्म था। धुआं निकलने की भी सही व्यवस्था नहीं थी। लेकिन अभी जेब के लिए यही बहुत अधिक था। उसने नम आँखों से लीला को देखा। लीला ने घोंसले की तरफ इशारा कर कहा। "देखो उस पक्षी ने तिनका तिनका जमा कर अपना आशियाना बना लिया है। एक दिन हम भी बना लेंगे।" समान जाति ना होने के कारण पति पत्नी को अपना गांव छोड़ आशियाने के लिए भटकना पड़ रहा था।

दिल की राहत

जैसे तैसे एक प्याला चाय पीकर लता रसोई में चली गई। कुछ देर में उसका पति आ जाएगा। उसे आते ही खाना चाहिए। फिर उसे दूसरे काम पर जाना होगा। जहाँ से आधी रात गए लौटेगा। वह स्वयं भी कुछ देर पहले काम से लौटी थी। दोनों पति पत्नी की ज़िंदगी भाग दौड़ में उलझी थी। पर मजबूरी थी। अपना घर खरीदने के लिए कर्ज़ लिया था। अब उसकी किस्तें चुकाने के लिए तो मेहनत करनी ही पड़ेगी। फिर अपनी छह महीने की बच्ची का भविष्य भी देखना है। उसे संभालने के लिए सास साथ में रहती हैं। रोज़ लता को उलाहना सुनना पड़ता है कि बुढ़ापे में बहू का सुख तो मिलता नहीं है। बच्ची की ज़िम्मेदारी अलग से उठानी पड़ती है। काम करते हुए लता ने पालने में खेलती अपनी बच्ची को देखा। वह उसकी ओर देख कर मुस्कुरा रही थी। लता उसके पास गई और झुक कर उसका माथा चूम लिया। बच्ची की मुस्कान ही तो थी जो इस आपाधापी में दिल को राहत देती थी।

.मौका

नरेश ऑफिस में उससे मिलने आए अपने रिश्तेदार से बात कर रहा था। "कहिए क्या हाल चाल हैं? सब ठीक है।" "ठीक ही है सब। बस मयंक की फिक्र होती है। उसी सिलसिले में तुमसे मिलने यहाँ आया था। तुम देख लो अगर अपने ऑफिस में कोई काम दे सको।" नरेश कुछ सोंचने लगा। उसे सोंच में पड़ा देख कर उसके मेहमान ने कहा। "भइया गलती तो इंसान से ही होती है। कुछ देर के लिए वह राह भटक गया था। पर सुबह का भूला गर शाम को लौट आए तो उसे माफ कर देना चाहिए।" नरेश ने इंटरकॉम पर दो कप चाय भिजवाने का आदेश देने के बाद कहा। "मुझसे जो हो सकेगा ज़रूर करूँगा।" कुछ ही देर में ऑफिस ब्वाय चाय लेकर आया। नरेश के मेहमान ने उसे ध्यान से देखा। ऑफिस ब्वाय के जाते ही वह बोले। "शायद तुम नहीं जानते। यह जेल की सज़ा काट चुका है। इसका हिसाब कर दो।" उनकी बात सुनकर नरेश बोला। "जानता हूँ। पर वह भी शाम होते ही घर लौट आया है।"

ख़ूनी लाल

होली के दिन सुबह से ही चहल पहल थी। शादी के बाद परंपरा के मुताबिक़ रश्मी की पहली होली मायके में हुई थी। अतः इस बार ससुराल में उसका पहला अवसर था। यहाँ होली बहुत धूम धाम के साथ मनाई जाती थी। सारी तैयारियां हो चुकी थीं।   बंगले के लॉन में होली का जश्न चल रहा था। लोग रंग खेल रहे थे। ढोल बज रहा था।   रश्मी  अपने कमरे में  चुप चाप बैठी थी तभी उसके पति ने गुलाल लगा कर उसे होली की बधाई दी।  "तुम यहाँ क्यों हो ? बाहर चल कर होली खेलो। " रश्मी समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। ढोल के शोर में भी उसके कानों में बरसों पुरानी अपनी असहाय चीखें गूँज रही थीं।  होली के हुड़दंग का लाभ उठाकर उसके करीबी ने सदा के लिए गुलाल का रंग ख़ूनी लाल कर दिया था। 

मानदंड

"भइया आप को कभी अफसोस नहीं होता है। यदि आप चाहते तो बहुत कुछ हासिल कर सकते थे। पर इन लोगों के लिए आपने पूरा जीवन खपा दिया।" अपने फुफेरे भाई का सवाल सुन कर शैलेश ने गंभीर स्वर में जवाब दिया। "दुनिया के मानदंड के हिसाब से यकीनन मैं एक नाकामयाब व्यक्ति हूँ। पर यदि मेरे मन की बात सुनो तो मैं खुद को सबसे सफल इंसान मानता हूँ।" कुछ ठहर कर आगे बोले। "इन नन्हें बच्चों के हंसते मुस्कुराते चेहरे मेरी कामयाबी का ईनाम हैं। अन्यथा इनका बचपन छीनने में समाज ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।" यह बात कहते हुए शैलेश के चेहरे पर छाया संतोष देख कर उनके भाई को अपना सवाल बेमानी लगा।

जलन

रेश्मा ने आखिरी वक्त में गोली चला रहे सुखबीर को धक्का दे दिया। गोली लक्ष्य से चूक गई।  "ये क्या किया भाभी। इसी नामुराद ने तुम्हारी मांग उजाड़ी थी।" "तो अब तुम इसकी नई ब्याहता को विधवा बनाना चाहते हो।" "भाभी तुम्हारा दुख देख कर कलेजा फटता है।" "जानती हूँ पर यह घाव दूसरे को घाव देकर नहीं भरेगा। जिस आग में मैं जल रही हूँ भइया मैं नहीं चाहती कि एक और निर्दोष उसमें जले।"

छुट्टी

भाटिया साहब अभी अभी अपने बेटे के स्कूल से लौटे थे। वही पुरानी शिकायत कि पढ़ता नहीं है। यही हाल रहा तो पास होना मुश्किल है। भाटिया साहब परेशान थे। ट्यूशन भी लगा रखा है फिर भी नतीजा वही। तभी उनका ड्राइवर आकर खड़ा हो गया।  "सर दो दिनों की छुट्टी चाहिए।" "छुट्टी किस लिए।" भाटिया साहब ने सवाल किया। "वो मेरी बेटी का पौलीटेक्निक में दाखिला हो गया है। उसे ही भेजने जाना है।" "तुम्हारी बेटी इतना पढ़ गई।" "जी बस आप लोगों का आशीर्वाद इसी तरह बना रहे तो कुछ समय में अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी।" भाटिया साहब ने बेमन से छुट्टी दे दी। ड्राइवर के जाने के बाद उन्होंने अपने दोस्त को फोन किया। "कोई अच्छा ड्राइवर बताओ।" "पर तुम्हारा ड्राइवर तो इतने सालों से अच्छा काम कर रहा है।" दोस्त ने फोन पर प्रश्न किया। "काहे का अच्छा। बूढ़ा हो गया है। काम ठीक से करता नहीं है। ऊपर से आए दिन छुट्टी मांगता रहता है।"

दिया

गुप्ता जी पार्क में आए तो अभी भी वह नहीं आई थीं। पहले दो दिन भी वह प्रतीक्षा कर लौट गए थे। वह बैठ कर इंतज़ार करने लगे। पत्नी की मृत्यु को एक वर्ष होने वाला था। पहले हर शाम वह अपनी पत्नी के साथ घर में लगाए हुए छोटे से बागीचे में बैठ कर चाय पीते थे। पर पत्नी के ना रहने पर शाम का वह समय जैसे काटने को दौड़ता था। अतः उन्होंने घर के पास बने इस पार्क में आना शुरू किया। यहीं उनकी मुलाकात सविता जी से हुई। दोनों ने ही एक दूसरे के एकाकीपन को पहचान लिया। हमदर्दी उन्हें एक दूसरे के समीप ले आई। रोज़ शाम वह इसी पार्क में एक दूसरे के साथ कुछ समय बताते थे। कभी कुछ बातचीत करते तो कभी बिना कुछ बोले एक दूसरे के साथ को महसूस करते। गुप्ता जी ने घड़ी देखी। प्रतीक्षा करते हुए आधा घंटा निकल गया था। उन्हें चिंता होने लगी। कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई। बेचैनी में वह इधर उधर टहलने लगे। तभी सविता जी आती दिखाई दीं। "कहाँ रह गई थीं आप। दो दिनों से आई भी नहीं।" गुप्ता जी ने परेशान होकर पूँछा। बेंच पर बैठते हुए सविता जी बोलीं। "दरअसल पोते को बुखार था। इसलिए नहीं आ पाई। आज कुछ ठीक था तो आ गई।"

अपना फर्ज़

सुमित्रा ने रोज़ की तरह भगवद् गीता के पाँच श्लोक पढ़ कर पुस्तक रख दी। यह उनका बरसों पुराना नियम था। इस तरह वह कई बार पूरी गीता समाप्त कर चुकी थीं।  उनके उठने पर रामदेई ने कहा। "अम्मा जी सारा काम हो गया। वह हमारे पैसे दे दो। लड़के की फीस देनी है।" सुमित्रा ने भीतर से लाकर पैसे दे दिए। पैसे देते हुए वह बोलीं। "तू इतना कष्ट सह कर बेटे को पढ़ा रही है। एक दिन वह तुझे भूल जाएगा। मेरे बेटे को ही देखो। बहू के आते ही मतवाला हो गया।" रामदेई कुछ दार्शनिक अंदाज़ में बोली। "उसकी वह जाने अम्मा। हम तो अपना फरज निभा रहे हैं। बाकी तो देने वाला ईश्वर है।" यह कह कर वह चली गई।