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जून, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अंतिम पड़ाव

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - अंतिम पड़ाव अचानक मोबाइल फ़ोन की घंटी बजने लगी। जिसका फ़ोन था वह कुछ झेंप सा गया। फ़ोन लेकर दूसरी तरफ कोने में चला गया। सब लोग जुनेजा साहब की अंतिम यात्रा में शमशान घाट पर इकट्ठे हुए थे। चिता को अग्नि देने की तैयारियां चल रही थीं। संस्कारों में कुछ वक़्त लग रहा था। सभी इस फ़िराक में थे कि जल्द ही फुर्सत पाकर अपने- अपने घर लौटें। अतः समय काटने के लिए लोग धीमे स्वर में बातचीत कर रहे थे। बातों का काफिला महंगाई की मार, राजनीति के गिरते स्तर से होता हुआ कुछ विशेष व्यक्तियों के चरित्र की चीर फाड़ तक आ पहुंचा था।  जुनेजा साहब के बड़े पुत्र ने उन्हें मुखाग्नि दी। चिता धू  धू  कर जलने लगी। कुछ ही समय में समस्त माया, मोह, मान प्रतिष्ठा, अहंकार को पोषित करने वाला शरीर राख बन जाने वाला था। धीरे धीरे लोग वहां से निकलने लगे। छल प्रपंच, राग द्वेष, हार जीत के संसार में वापस जाने के लिए। एक दिन वे भी यहाँ आयेंगे कभी वापस न लौटने के लिए।

संघर्ष

वो सारे चहरे उसके नज़दीक आ रहे थे। धीरे धीरे आवाजें भी साफ़ सुनाई देने लगी थीं। उसे लगने लगा था कि आज वह इन चेहरों को पहचान लेगी। उन आवाजों में से कोई नाम अवश्य उभर कर आएगा। बस वह कुछ ही दूर है अपनी मंजिल से। किन्तु अचानक ही चहरे धुंधले पड़ने लगे। आवाजें मद्धिम हो गयीं। वह अँधेरे में इधर भटकने लगी। घबराहट में वह चीख पड़ी। उसकी नीद खुल गई। वह पसीने से भीगी हुई थी। नर्स भागी हुई आई और उसे पानी पिलाया। फिर उसे तसल्ली देने लगी " घबराओ मत सब ठीक हो जाएगा।"  वह फिर से लेट गयी। आँखों से आंसू छलक पड़े। छः महीने हो गए वह अपनी ही पहचान से अन्जान है। जब कोई उसे आत्मीयता से देखता है तो वह परेशान हो उठती है कि कहीं वह उसका कोई अपना तो नहीं है। उसके इर्द गिर्द सभी व्यक्तियों का एक नाम है। उनकी एक पहचान है। सिर्फ वही अनाम है। अपनी पहचान से दूर है। उसे महसूस होता है इंसान के लिए उसका नाम और पहचान कितने ज़रूरी हैं। उसके लिए इस तरह जीना बहुत ही कष्टप्रद है। वह भीतर ही भीतर घुट रही है।  उसके जेहन में कुछ चहरे हैं। कुछ आवाजें उसके मन में बसी हैं। किन्तु उन चेहरों को वह पहचान नहीं पाती है। उन

मोहनी

मूर्तिकार ने अपने जीवन की सर्वोत्तम रचना पूर्ण की और उसे निहारने लगा। "सुंदर लगता है अभी बोल उठेगी" अपनी रचना को देख कर अनायास ही उसके मुख से निकल गया। श्रम से क्लांत वह भूमि पर लेट गया और एकटक उसे देखने लगा। देखते देखते ही वह सो गया। रात्रि के तीसरे प्रहार अचानक उस प्रस्तर की प्रतिमा में कम्पन हुआ और वह एक सुंदर यवती में बदल गयी। उसकी कांति से चारों तरफ उजाला हो गया। उसने मूर्तिकार को प्रेम भरे नेत्रों से देखा। एक प्रेयसी की भांति भूमि पर बैठ कर वह उसका माथा सहलाने लगी। मूर्तिकार की नींद टूटी तो उसने देखा की उसकी रचना जीवित हो गयी है। उसे देख कर वह बोला "तुम तो और अधिक सुंदर हो। मेरे मन को मोह रही हो। आज से तुम्हारा नाम मोहनी है।" मूर्तिकार और मोहनी ने मिलकर एक घर बसाया। अपने समर्पण और प्रेम से मोहिनी ने मूर्तिकार का जीवन खुशियों से भर दिया। दोनों सुखपूर्वक एक दूसरे के साथ जीवन बिताने लगे। बहुत वर्ष बीत गए। समय के साथ साथ मोहिनी का प्रेम और गहरा हो गया। किन्तु मूर्तिकार का मोहिनी के लिए आकर्षण कम होने लगा। उसका मन चंचल भंवरे की भांति इधर उधर भटकने लगा। एक दिन वह

उम्मीद

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - उम्मीद रज़िया बेगम आकर थाने में बैठ गईं। इन्स्पेक्टर सक्सेना किसी की शिकायत सुन रहे थे। उन्होंने रज़िया बेगम को देखा और मन ही मन भुनभुनाये ' फिर आ गईं मानती ही नहीं।' फिर अपने काम में लग गए। पिछले छह महीने से रोज़ रज़िया बेगम थाने के चक्कर लगा रही हैं। एक दिन अचानक ही उनके बुढ़ापे का सहारा उनका जवान बेटा दानिश कहीं गायब हो गया। उसी के बारे में पूछताछ करने वो थाने आती हैं। अपना काम निपटा कर इन्स्पेक्टर सक्सेना रज़िया बेगम से बोले " खाला क्यों रोज़ रोज़ परेशान होती हैं। जब भी हमें कोई खबर मिलेगी हम आपको भिजवा देंगे।" रज़िया बेगम ने उनकी तरफ इस प्रकार  देखा जैसे वो उनसे कोई मकसद छीन ले रहे हों " सही कहा बेटा लेकिन इस बेवा के जीवन में अपने बेटे के इंतजार के अलावा और कोई मकसद ही नहीं बचा है। इसलिए रोज़ इस बूढ़े जिस्म को इस उम्मीद से घसीट कर यहाँ लाती हूँ की शायद कोई अच्छी खबर मिले। फिर मायूस होकर जब यहाँ से जाती हूँ तो दिल को फिर तसल्ली देती हूँ की कल फिर जाकर देखूंगी की शायद कोई खबर हो। एक उम्मीद के सहारे ही तो इसे चला रही हू

रावण वध

छुट्टी का दिन था । मैं आराम से चाय की चुस्कियां लेते हुए अखबार पढ़ रहा था। वही पुरानी  खबरें हत्या, लूटपाट, अपहरण, पोलिटिकल स्कैम्स। सिर्फ हेडलाइंस पढ़कर अखबार बंद कर दिया। तभी मेरा पाँच वर्ष का बेटा  मोहन मेरे पास आकर बैठ गया और बोला " पापा आज क्या है।" मैंने समझाते हुए कहा " आज दशहरा है। आज के दिन भगवान् रामचंद्र ने रावण  का वध कर के बुराई  का अंत किया था।" मोहन ने पूंछा " रावण क्या बुरा इंसान था।" मैंने कहा " हाँ वह एक बुरा इंसान था। इसी लिए आज के दिन बुराई के प्रतीक रावण , कुंभकर्ण, एवं मेघनाथ के पुतले जलाते हैं। ताकि बुराई  का नाश हो।" मोहन बहुत ध्यान से मेरी बातें सुन रहा था।  कुछ देर कुछ सोचने की मुद्रा में बैठा रहा फिर बोला " अच्छा, तो क्या पुतले जलाने से बुराई  ख़त्म हो जाती है।" मैं अवाक् रह गया उस मासूम ने कितना प्रासंगिक प्रश्न किया था। सैकड़ों वर्षों से हम सिर्फ प्रतीकों को ही जला रहे हैं। जब की ज़रुरत अपने भीतर बसे रावण का वध करने की है।