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फ़रवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - सौर

रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - सौर दिनेश को आज घर लौटने में देर हो गयी थी। जूते उतार कर वह पलंग पर लेट गया। वह बहुत थका हुआ था। आज का दिन अच्छा नहीं बीता था । काम भी और दिनों से कुछ अधिक था उस पर उसे बॉस की डांट भी खानी पड़ी। वह आँखें मूंदे लेटा था तभी उसकी पत्नी कुसुम ने उसके हाथ में एक कार्ड थमा दिया। उसने एक उचटती सी नज़र डालते हुए पूछा "क्या है।" "वो मेरी बरेली वाली मौसी हैं न उनकी छोटी बेटी की शादी है। इस महीने की 15 तारीख को। जाना पड़ेगा" " हूँ ....तो चली जाना।" कह कर दिनेश ने कार्ड एक तरफ रख दिया। " हाँ जाउंगी तो लेकिन कुछ देना भी तो पड़ेगा। मौसी हमें कितना मानती हैं। जब भी मिलाती हैं हाथ में कुछ न कुछ रख देती हैं।" " देख लो अगर तुम्हारे पास कुछ हो, कोई अच्छी साड़ी या  और कुछ, तो दे दो।" " मेरे पास कहाँ कुछ है मैं कौन रोज़ रोज़ साडियाँ या गहने खरीदती हूँ।" " तो मैं भी क्या करूं मेरी हालत तुमसे छिपी है क्या। मेरे पास कुछ नहीं है।" दिनेश ने कुछ तल्ख़ अंदाज़ में कहा। दिनेश की माँ ने अपनी बहू  की त

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - कैसे कैसे रंग

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - कैसे कैसे रंग  दरवाज़ा खोला तो सामने जो शख्स खड़ा था कुछ पहचाना सा लगा। याद करने का प्रयास कर ही रहा था की वही बोल पड़ा " क्या हुआ पहचाना नहीं मैं विशाल।" पहचान में नहीं आ रहा था। सूखे हुए पपड़ाये होंट , बिखरे बाल। पहले से कुछ दुबला हो गया था। " ओह  तुम " भीतर आओ कहकर मैं एक ओर हट गया। तकरीबन 7 साल के बाद हम मिल रहे थे। पहले तो क्या रौनक थी चहरे पर।  क्या हो गया इसे। वो आकर सोफे पर बैठ गया। " घर में और कोई नहीं है क्या।" उसने पूंछा। "हाँ पत्नी बच्चों के साथ अपने मायके गई है।" "तुम बताओ यह क्या हाल बना रखा है तुमने।" मैंने पूंछा। "बताऊँगा सब बताऊँगा पहले यदि कुछ खाने को हो तो ले आओ। सुबह से कुछ नहीं खाया।" मैंने ब्रेड और जैम लाकर उसके सामने रख दिया। "आज कल तो बस यही है।" वह ब्रेड  पर जैम लगा कर खाने लगा. उसे खाते देख कर लगा जैसे वह कई दिनों का भूखा हो। मेरे मन में उसके प्रति करुणा जाग गई। विशाल मेरे बचपन का साथी था। बचपन में हमनें कई शरारतें कीं। साथ साथ स्कूल गए फिर क

वो एक दिन

वो दिन और दिनों की तरह ही सामान्य था। बुधवार 5 जून .....किन्तु मेरे और मेरे पति सुहास के लिए एक खास दिन  था। इसी दिन पांच वर्ष पहले हमने एक दूजे का हाँथ थामा था जीवन के पथ पर साथ चलने के लिए। उस दिन की शाम के लिए हमनें कुछ प्लान बनाया था। रोज़ की तरह ही मैंने सुहास को विदा किया। फिर भाग कर बालकनी में आ गई। कुछ ही  क्षणों में सुहास बिल्डिंग से बाहर जाते दिखाई पड़े। मैंने हाथ हिला कर उन्हें विदाई दी। उन्होंने भी ऊपर देख कर हाथ हिलाया। मैं सुहास को तब तक देखती रही जब तक वह नज़रों से ओझल नहीं हो गए। मैं भीतर आकर अपना काम करने लगी। तकरीबन ग्यारह बजे होंगे की मेरे मोबाइल की घंटी बजी। मैनें फ़ोन उठाया तो मेरी ननद का था " भाभी सुहास भैया ठीक हैं  न "  उसकी आवाज में चिंता थी और वह घबराई हुई थी। " हाँ ठीक हैं ऑफिस गए हैं। क्यों क्या हुआ इतनी परेशान क्यों हो "   "आपको कुछ भी नहीं पता न्यूज़ लगा कर देखिये , मैं भी पता करती हूँ "  कहकर उसने फ़ौरन फ़ोन  काट दिया। मैंने टी .वी . खोला न्यूज़ चैनल पर एक ट्रेन के कुछ जले हुए डब्बे दिखाई दिए। लोग बदहवास से इधर उधर भाग रहे थे। एक र