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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नन्हा सपना

सलोनी अपनी नई स्कूल ड्रेस में बहुत खुश थी। कंधे पर नया बस्ता था। नई किताबों की महक उसके नथुनों में भरी थी। स्कूल जाने का उसका सपना पूरा हो रहा था।  अचानक बस का हॉर्न बजा। सारिका बेबी ने उसके हाथ से अपना स्कूल बैग लिया। अपनी मम्मी को बाय कर बस में बैठ गई। सलोनी अपने सपने से बाहर आ गई। यह सपना वह अक्सर ही देखती थी।

कदमों की आहट

वह जानता था कि उसकी चलाई गोली सही निशाने पर लगी थी। उसे तसल्ली हुई कि एक और खतरा कम हुआ। पिछले दो घंटे से मुटभेड़ जारी थी। दोपहर को उन्हें खबर मिली थी कि कैंप पर आतंकी हमला हुआ है। वह अपने साथियों के साथ उनका मुकाबला करने आया था। दोनों साथी मुटभेड़ में मारे जा चुके थे। वह भी बुरी तरह घायल था। वह दो तरफा लड़ाई लड़ रहा था। एक आतंकियों से दूसरी अपनी टूटती सासों से। पर वह दोनों मोर्चों पर डटा था। तभी किसी आतंकी के पास आते कदमों की आहट सुनाई पड़ी। उसने अपनी टूटती शक्ती को समेटा और ट्रिगर दबा दिया। किंतु सांसों की डोर टूट गई।

समय के अनुसार

गुप्ता जी अपने मित्र के प्रश्न की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह जानते थे कि एक अर्से के बाद मिले उनके प्रिय मित्र उनके जीवन के नए बदलाव के विषय में जानने को उत्सुक थे। इसी कारण उन्होंने भोजन के बाद टहलने जाने का प्रस्ताव रखा था। गुप्ता जी की प्रतीक्षा जल्दी ही समाप्त हो गई। "आपने विवाह कब किया?" उनके मित्र ने पूँछा। "छह महीने हो गए।" "क्या यह आवश्यक था। मेरा मतलब है इस उम्र में..." "आवश्यक ना होता तो ना करता। रही उम्र की बात तो इस आयु में ही किसी के साथ की सबसे अधिक ज़रूरत होती है।" "हाँ लेकिन हमारे समाज में यह बात इतनी सहज नहीं है।" गुप्ता जी कुछ सोंच कर बोले। "समाज की मान्यताएं समय और आवश्यक्ता के हिसाब से बदलती हैं। आज जिस प्रकार समाज बदला है पारिवारिक ढांचा भी बदल गया है। ऐसे में कब तक मैं अपने एकाकीपन की शिकायत अपने बच्चों से करता।" उनका उत्तर सुन कर उनके मित्र सोंच में पड़ गए। वह भी एकाकीपन का शिकार थे।

बहार का मौसम

अगले कमरे से आ रही ठहाकों की आवाज़ में जगत न्यूज़ नहीं सुन पा रहे थे। उन्होंने टीवी बंद कर दिया और जाकर सबके साथ बैठ गए। बीते दिनों की बातें चल रही थीं। "पापा आपको याद है बचपन में जब हम घूमने गए थे तब मम्मी खो गई थीं।" बेटे ने याद दिलाते हुए कहा। "अच्छी तरह याद है। लोगों के बच्चे खोते हैं पर मेरे बच्चों की माँ खो गई थी।" बच्चों में एक ठहाका गूंज उठा। "बेकार की बात मत करो। खोई नहीं थी। बस थोड़ा पीछे रह गई थी।" पत्नी ने नाराज़ होते हुए कहा। "बस इतना पीछे कि ढूंढ़ने में आधा घंटा लगा था।" इसी तरह की बातों में काफी समय बीत गया। तभी पोतियों ने याद दिलाया कि घूमने भी जाना है। सब तैयार होने के लिए चले गए। जगत अचानक उदास हो गए। बहार के इस मौसम के बस दो दिन बचे थे। उसके बाद एक साल का इंतज़ार था।