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सितंबर, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वरदान

सुमित्रा देवी बड़े उत्साह से कन्याओं को भोजन करा रही थीं। स्वयं ही यह देख रही थीं कि किसी को कुछ चाहिए तो नहीं। जब सभी कन्यायें भोजन कर चुकीं तो वे सभी के पाँव छू कर उन्हें दक्षिणा देने लगीं।  अब सिर्फ एक ही कन्या बची थी जो उम्र में सबसे कम थी। सुमित्रा देवी ने उसके पाँव छू कर कहा " माता मेरी बहू उम्मीद से है। इस बार मेरी झोली में एक पोता डाल दो। " नन्ही बच्ची खिलखिला कर हंस पड़ी। शायद समाज के दोगले आचरण पर हंस रही थी।

प्रगति

मिस्टर शर्मा के ड्राइंगरूम में मेहफिल जमा थी। चाय की चुस्कियों के बीच भारत के एक विश्व शक्ति के रूप में उभरने की चर्चा चल रही थी।  दुबे जी ने एक बिस्किट चाय में डुबाते हुए कहा " अजी अब हम किसी चीज़ में पीछे नहीं रहे। बात चाहें अंतरिक्ष विज्ञान की हो या फिर व्यापार की किसी भी बात में हम अब टक्कर ले सकते हैं। वो दिन दूर नहीं जब हम विश्व की महान शक्तियों में गिने जायेंगे। " इस परिचर्चा के बीच में अचानक ही घंटी बजी और एक स्वर सुनाई दिया " आंटी जी कूड़ा " मिसेज शर्मा को बीच में यूँ उठना पसंद नहीं आया। झुंझलाकर बोलीं " इस कूड़ा लेने वाले का भी कोई वक़्त नहीं। असमय चला आता है। " बाहर आकर उन्होंने गेट खोला। दस साल का एक लड़का भीतर आया और कूड़े की बाल्टी से कूड़ा  निकाल कर एक प्लास्टिक के थैले में भरने लगा। " आस पास जो बिखरा है वह भी बटोर लो। " मिसेज शर्मा ने कहा। फिर एक प्लास्टिक का थैला ज़मीन पर रख कर बोलीं " इसमें कुछ कपड़े हैं ले लो। " बच्चे ने थैला ऐसे उठाया मानो कोई खज़ाना हो। बाहर चिलचिलाती धुप में देश का बचपन फटे पुराने में ख़ुशी तलाश रहा था।

अधूरी बाज़ी

मेरे सामने मेज़ पर शतरंज पड़ा था जो एक बाज़ी के अधूरे रह जाने की गवाही दे रहा था। मैं अभी भी जतिन दा की उपस्तिथि को महसूस कर सकता हूँ। वो पूरे उत्साह के साथ  मुझे हरा देने का दावा कर रहे हैं। शतरंज पर पड़े मोहरे उनके स्पर्श को आकुल प्रतीत हो रहे हैं जैसे वे भी उनकी तरह मुझे हराना चाहते हों। जतिन दा मेरे मौसेरे भाई थे। उम्र में मुझ से कुछ ही महीने बड़े थे किंतु उनका मेरे प्रति प्यार एक बड़े भाई की भांति था। इसीलिए मैं उन्हें जतिन 'दा' कह कर बुलाता था। वैसे हमारी मित्रता कालेज के दिनों से आरम्भ हुई थी।  हम साथ साथ घूमते, फिल्में देखते खूब मस्ती करते थे।  उन दिनों हमारे भीतर बहुत जोश था। हम अक्सर राजनीति, धर्म, सामाजिक कुरीतियों पर गर्मागर्म बहस करते। हममें उन दिनों बहुत कुछ बदलने का जूनून था। उन्हीं दिनों मुझे एक नया शौक लगा था। फोटोग्राफी का। मैं अपना कैमरा लेकर निकल जाता और जो कुछ पसंद आता उसकी तस्वीर खींच लेता। जतिन दा इन तस्वीरों को देख कर कहते कि तुम्हें फोटोग्राफी की अच्छी समझ है। इसे छोड़ना नहीं। हँसते खेलते ना जाने कब कालेज के दिन ख़त्म हो गए। कालेज की पढ़ाई के बाद हम दोन