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मार्च, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

डायरी

मैं अपनी यह पुश्तैनी हवेली बेंचने आया हूँ। कुछ कागज़ात पर दस्तखत करने के बाद यह सौ साल पुरानी हवेली बिक जायेगी। मुझे बताया गया कि एक बंद कमरे से कुछ सामान मिला है। कुछ पुराना फर्नीचर था। उनमें एक आराम कुर्सी थी। इसे मैंने अपने दादाजी  की तस्वीर में देखा था। एक छोटा सा संदूक भी था। जिसमें एक कपडे में लिपटी डायरी राखी थी। पापा ने बताया था दादाजी को डायरी लिखने कि आदत थी। अपने दादाजी के विषय में मैं बहुत कम जानता था। सिर्फ इतना ही कि वह गांधी जी से बहुत प्रभावित थे और उन्होनें देश एवं समाज कि सेवा का प्रण लिया था। कुछ घंटे मुझे इसी हवेली में बिताने थे।  मैंने वह आराम कुर्सी आँगन में रखवा दी। उस पर बैठ कर मैं डायरी के पन्ने पलटने लगा। डायरी लगातार नहीं लिखी गई थी। कभी कभी छह माह का अंतराल था। जिस पहले पन्ने पर नज़र टिकी उस पर तारीख थी.… 7  जून 1942 कभी कभी सोंचता हूँ क्या मेरा जीवन सिर्फ इस लिए है कि मैं धन दौलत स्त्री पुत्र का सुख भोगूं  और चला जाऊं। एक अजीब सी उत्कंठा मन में रहती है। जी करता है कि सब कुछ छोड़ दूं। जब अपने आस पास गरीब अनपढ़ लोगों को कष्ट भोगते देखता हूँ तो स्वयं के संपन्

मर्यादा

महारानी अरुंधती अपने महल  की खिड़की पर खड़ी थीं। बसंत ऋतु थी। पवन के मंद मंद झोंके उन्हें स्पर्श कर रहे थे। उनके ह्रदय में रोमांच और उद्विग्नता के मिले जुले भाव थे। उन्होंने जो राह चुनी थी वह काँटों से भरी हुई थी किन्तु अपने ह्रदय पर अब उनका वश नहीं रहा था। उन्हें बेसब्री से अर्ध रात्रि का इंतज़ार था। उन्होंने पास में सोये हुए कुंवर का माथा चूमा। एक मुस्कान उनके चहरे पर खिल उठी। युवावस्था में अभी प्रवेश ही किया था कि उनका विवाह अपने से दोगुनी उम्र के महाराज अजित सिंह के साथ हो गया।  उनकी बड़ी रानी उन्हें संतान का सुख दिए बिना ही चल बसी थीं। अतः सभी की अपेक्षाएं नई रानी से जुड़ी थीं। किन्तु बहुत समय बीत जाने पर भी कोई खुश खबरी नहीं मिली। लोगों में राज्य के उत्तराधिकार को लेकर तरह तरह की बातें  होने लगीं। । राज्य वैद्य ने बताया की खोट महारानी में नहीं थी। महाराज बहुत चिंतित रहने लगे थे। किसी को गोद लेना एक समाधान  था किन्तु स्वयं की कमी को वह दूसरों के सामने नहीं लाना चाहते थे। एक रात्रि वो एक निर्णय के साथ अंतःपुर में आये। कुछ क्षण शांत रहने के बाद गंभीर स्वर में बोले " महारान

क्या होता गर..........

जसवंत कमरे में अकेला था। वो सारी आवाज़ें धीरे धीरे तेज़ होती जा रही थीं। सब कुछ उसकी आँखों के सामने नाच रहा था। जैसे परदे पर कोई चलचित्र  चल रहा हो। सन 84 की वह दोपहर आज भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। बलवाइयों की भीड़ उसके घर में घुस आई थी। वह अपने कमरे में था। उसके पापाजी, बीजी और छोटी बहन को उन्होंने अपने कब्ज़े में कर लिया था। कोई चिल्लाया " अरे वो जसवंत नहीं है। ढूंढो साले को यही कहीं छिपा होगा।" जसवंत ने जब अपनी तरफ बढ़ते कदमों की आवाज़ सुनी तो वह डर से थर थर कांपने लगा। अपनी जान बचाने के लिए वो बेसमेंट में बने स्टोररूम कि तरफ भागा। वहाँ एक पुराने ट्रंक में छिप गया। बलवाइयों ने उसे बहुत खोजा लेकिन सामान के पीछे छिपे उस पुराने ट्रंक पर किसी का ध्यान नहीं गया। जो कुछ भी हो रहा था उसकी आवाज़ उस तक पहुँच रही थी। " कहीं नहीं मिला साला। लगता है बाहर भाग गया। " " कोई बात नहीं उसे बाद में देख लेंगे। अभी सब को यहाँ आँगन में ले आओ। इन्होने हमारी प्रधानमन्त्री को मारा है। इन्हें ऐसा सबक सिखाएंगे कि इनकी कई नस्लें याद रखेंगी।"  " क्या बिगाड़ा है हमने तुम्हारा। क्यो