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जनवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आज़ादी

इस बड़े से मैदान का उपयोग धरना प्रदर्शन के लिए होता था. इसके एक कोने में एक शहीद सैनिक की विधवा अनशन पर बैठी थी. मुआवजे में मिली ज़मीन पर गुंडों ने कब्ज़ा कर लिया था और कोई सुनने वाला नही था.  दूसरी तरफ कुछ सरकारी शिक्षक अपने वेतन की मांग को लेकर धरने पर बैठे थे. कहीं छात्रों का शोर था तो कहीं बूढ़े माता पिता अपनी उस बच्ची के लिए इंसाफ मांग रहे थे जिसकी अस्मत लूट कर मार दिया गया था. मैदान के एक कोने में उस क्रातिकारी की प्रतिमा लगी थी. जिसने एक समतापूरक सुखी देश के लिए अपने प्राण गंवाए थे. अपने समाचार पत्र के लिए रिपोर्टिंग करने गया मैं यह सब देख रहा था. उस प्रतिमा पर मेरी नज़र पड़ी तो मैं सोंचने लगा कि यदि यह प्रतिमा जीवित हो जाए तो देश में फैले इस अनाचार को देख कर उसे कितना धक्का लगेगा.

प्रेरणा

पोलियोग्रस्त अविनाश का चयन आई ए.एस के लिए हुआ था. एक प्रसिद्ध न्यूज़ चैनल का रिपोर्टर उसका इंटरव्यू लेने आया था. बातचीत करते हुए उसने अविनाश से पूँछा "अपनी शारीरिक चुनौती के बावजूद आपने यह सफलता अर्जित की. इसके पीछे आपकी प्रेरणा क्या रही." अविनाश उसे उस कक्ष में ले गया जहाँ वह पढ़ाई करता था. वहाँ उसकी स्टडी टेबल के पास स्टूल पर एक मूर्ति रखी थी. उसकी ओर इशारा कर बोला "यह मूर्ति मेरी प्रेरणा है." मूर्ति कुछ अजीब थी. उसके एक कान पर हाथ रख उसे बंद किया गया था और दूसरा कान खुला था. रिपोर्टर की उलझन को देख उसने समझाया "यह मूर्ति मेरे पापा लाए थे. उन्होंने मुझे समझाया कि कुछ लोग तुम्हारी शारीरिक कमी का मज़ाक उड़ाएंगे या कुछ ऐसा कहेंगे जो तुम्हें निरुत्साहित करेगा. उनके लिए तुम इस मूर्ति की तरह अपना कान बंद रखना. दूसरा कान उन बातों के लिए खुला रखना जो तुम्हें हिम्मत दें. जो जीवन में सकारात्मकता लाएं. मैंने ऐसा ही किया." रिपोर्टर उसके जवाब से प्रभावित हुआ. उसे भविष्य की शुभ कामनाएं देकर चला गया.

मन बहलाव

वृद्धाश्रम में अपने मालिक सरीन साहब को देख कर जगत ने पूँछा "साहब आप का तो अपना बड़ा सा मकान है. आपका बेटा बहू भी आपके साथ रहते हैं. फिर आप यहाँ क्यों आए." उसकी बात सुनकर सरीन साहब सोंच में पड़ गए. पहले तो बेटा बहू केवल शब्दों से अपमानित करते थे. किंतु पिछले हफ्ते तो बात हाथ उठाने तक आ गई. उनका यकीन अब उन पर से उठ गया था. अपनी हिफाजत की सोंच कर यहाँ आ गए. सरीन साहब मन की बात दबा कर बोले "वो क्या है घर पर सब कुछ सही था. पर यहाँ सब हमउम्र हैं. अतः यहाँ मन अधिक लगेगा."

रिर्टन गिफ्ट

अमन आज किसी राजकुमार की तरह लग रहा था. आज उसका जन्मदिन था. वह अपने दोस्तों का स्वागत कर रहा था. पार्टी के लिए घर के टैरेस को बहुत सुंदर ढंग से सजाया गया था. पार्टी में बच्चों को कई गेम्स खिलाए जा रहे थे. पहले अंताक्षरी का खेल हुआ फिर म्यूज़िकल चेयर का आयोजन हुआ. उसके बाद बच्चे डांस फ्लोर पर अपने मन पसंद गानों पर दिल खोलकर झूमे. माहौल बहुत खुशनुमा था. बस एक बात थी जो अमन को खटक रही थी. हाथ बटाने के लिए उसकी मम्मी ने घर में काम करने वाली मेड कुसुम को बुला लिया था. वह अपने साथ अपने छह साल के बेटे चिंटू को लेकर आई थी. चिंटू बड़े कौतुहल से सब कुछ देख रहा था. चिंटू का इस तरह उसके दोस्तों के बीच घूमना अमन को बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था. उसने दो एक बार आंखों ही आंखों में उसे घुड़का भी पर चिंटू वहीं आस पास मंडराता रहा. केक कटा सबने अमन को जन्मदिन की बधाइयां दीं. अमन ने अपने दोस्तों के साथ फोटो खिचवाई. फिर सबने स्वादिष्ट खाने का मज़ा लिया. पार्टी समाप्त होने पर अमन ने अपने दोस्तों को रिटर्न गिफ्ट देकर विदा किया. मेहमानों के जाने के बाद अमन जन्मदिन पर मिले हुए तोहफों को देखने लगा. तोहफों के बीच

बनावटी मुस्कान

फिल्म जगत के मशहूर निर्माता निर्देशक का जन्मदिन था. कई फिल्मी हस्तियां उनके बंगले पर पहुँच रही थीं. तभी अभिनेत्री लवलीन की कार आकर रुकी. कार से उतर कर लवलीन ने प्रशंसकों की तरफ मुस्कुराते हुए हाथ हिलाया और भीतर चली गई. वह अपनी बिंदास छवि के लिए इंडस्ट्री में मशहूर थी. अंदर लगभग सभी बड़े सितारे मौजूद थे. लवलीन अपनी चिरपरिचित मुस्कान और शोख़ अदाओं के साथ पार्टी में जलवे बिखेर रही थी.  सबसे मिलने के बाद वह अपना ड्रिंक लेकर एक तरफ बैठ कर सिप करने लगी. तभी उसके फोन पर उसके प्रेमी जीशान का मैसेज आया 'इट्स ओवर'. जीशान और उसके बीच पिछले तीन सालों से रिश्ता था. पिछले कई दिनों से दोनों के बीच अनबन चल रही थी. लवलीन उठ कर वॉशरूम चली गई. वह आईने के सामने खड़ी थी. उसके दिल का सूनापन उसकी आँखों से छलकने लगा. इससे पहले की वह बह कर सबके सामने आता उसने खुद को संयत किया. जब वह बाहर आई तो मुस्कान फिर उसके चेहरे पर चिपकी थी.

विरोध

बस्ती के सभी घरों का अमूमन एक ही हाल था. मर्दों को शराब पीने की लत थी. इसके चलते लगभग रोज़ ही किसी ना किसी घर में झगड़े होते थे. मर्द जो कमाते उसका अधिकांश पीने में उड़ा देते थे. जो कुछ औरतें कमाती थीं उसे भी छीन लेते. बच्चों का पेट भरना कठिन था. बस्ती की औरतें इस बात से पकेशान थीं. लेकिन कोई कुछ कर नहीं पाती थी. लेकिन संतोषी को यह सब अब और बर्दाश्त नहीं था. उसने बस्ती की औरतों को एकत्र कर उनसे मिल कर इसके विरुद्ध आवाज़ उठाने को कहा.  "पर हम क्या कर सकते हैं." एक औरत बोली. "हम नहीं तो क्या कोई बाहर वाला करेगा. बस अपने मन को पक्का कर लो. अब जब वह हम पर हाथ उठाएं तो तुम भी चुपचाप ना सहो." संतोषी के प्रयास से बस्ती की औरतों ने एकजुट होकर विरोध करने का फैसला किया. जब भी किसी घर में झगड़ा होता सब एकजुट होकर उसका विरोध करती थीं.

उजाले की ओर

आज पूरे दो साल के बाद वह जीवन की नई शुरुआत के लिए बाहर निकलने की तैयारी कर रही थी. पिछले दो साल उसके लिए बहुत कठिन थे.  वह अतीत के सागर में डूब गई. वह बेहद खूबसूरत थी. अतः उसका नाम रूपा रखा गया था. लेकिन सुंदरता के साथ साथ प्रकृति ने उसे और भी खूबियां प्रदान की थीं. वह बहुत बुद्धिमान थी. साहस से लबरेज़ थी. अपने आस पास होने वाले अन्याय के विरुद्ध बेखौफ आवाज़ उठाती थी. माँ ने कई बार समझाया था कि इस प्रकार लोगों से विरोध लेना खतरनाक हो सकता है. किंतु वह चुप बैठने वालों में नहीं थी. आई.पी.एस अधिकारी बनने की चाह लिए उसने कॉलेज में दाखिला लिया. कॉलेज में नए छात्रों के परिचय के नाम पर स्टूडेंट यूनियन का दबंग नेता और उसके चेले विद्यार्थियों को परेशान करते थे. छात्राओं के साथ अभद्र व्यवहार करते थे. रूपा ने इसका विरोध किया़. दबंगों को उसका विरोध रास नहीं आया. उन्होंने उसे धमकाया किंतु वह पीछे नहीं हटी. अपनी हार से तिलमिलाए दबंगों ने कॉलेज जाते समय उस पर तेजाब फेंक दिया. तेजाब ने उसे बुरी तरह जला दिया. उसका चेहरा बिगड़ गया. एक आँख से दिखना बंद हो गया. लंबे समय तक इलाज चला. कई सर्जरी हुईं.

जीवन धारा

जब मि . गुप्ता ने कैफे में प्रवेश किया तब मि . खान और मसंद का ठहाका उनके कानों में पड़ा। उन्हें देखकर मि .खान बोले " आओ भाई सुभाष आज देर कर दी।" मि . गुप्ता ने बैठते हुए कहा " अभी तक रघु नहीं आया, वो तो हमेशा सबसे पहले आ जाता है।" मि . मसंद बोले " हाँ हर बार सबसे पहले आता है और हमें देर से आने के लिए आँखें दिखाता है, आज आने दो उसे सब मिलकर उसकी क्लास लेंगे।" एक और संयुक्त ठहाका कैफे में गूंज उठा। तीनों मित्र मि . मेहता का इंतज़ार कर रहे थे। मि . मेहता ही थे जिन्होंने चारों मित्रों को फिर से एकजुट किया था। चारों कॉलेज के ज़माने के अच्छे मित्र थे। कॉलेज में उनका ग्रुप मशहूर था। किन्तु वक़्त के बहाव ने इन्हें अलग कर दिया। रिटायरमेंट के बाद मि . मेहता ने खोज बीन कर बाकी तीनों को इक्कठा किया। इत्तेफाक से सभी मित्र एक ही शहर में थे। सभी पहली बार इसी कैफे में मिले थे। उसके बाद यह कैफे ही उनका अड्डा बन गया। हर माह की बीस तारीख को सभी यहीं मिलते। आपस में हंसी मजाक करते। कुछ पुरानी यादें ताज़ा करते। मि .खान की शायरी और मि .मसंद के चुटकुले इन महफिलों को चार चाँद लगाते

स्कूल बैग

नेहा स्कूल बैग को अपनी छाती से चिपकाए बिस्तर पर बैठी थी. उसे देख कर विपिन के दिल में एक टीस सी उठी. वह सुबह उसके जीवन में गहरा अंधेरा लेकर आई थी. वह उस सुबह को याद बारे करने लगा. उनकी बेटी सोनाली के स्कूल का पहला दिन था. नई यूनीफॉर्म में सजी वह खिलखिलाती हुई पूरे घर में घूम रही थी. विपिन उसकी तस्वीरें ले रहा था. "अब फोटो खींचना बंद करो. स्कूल बस का समय हो रहा है. इसे बिठा कर आओ." नेहा ने उसे टोंका.  नेहा को बॉय कर सोनाली विपिन का हाथ पकड़ कर बड़े उत्साह से स्कूल के लिए चल दी. उसका स्कूल बैग और वॉटर बॉटल विपिन ने पकड़ रखी थी. घर से कुछ ही दूर पर दोनों सड़क किनारे फुटपाथ पर खड़े होकर बस का इंतज़ार करने लगे. एक पपी को देख कर सोनाली हाथ छुड़ा कर उसकी तरफ भागी. विपिन उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ा ही था कि अचानक एक बेकाबू कार सोनाली को कुचलते हुए चली गई. देखते ही देखते उसकी दुनिया उजड़ गई. नेहा को जब यह खबर मिली वह बदहवास सी भागती वहाँ पहुँची. सोनाली का शव देख कर चीख पड़ी. पास पड़े स्कूल बैग को छाती से लगा कर रोने लगी. उस दिन आखिरी बार वह रोई थी. उसके बाद ना वह रोई और ना ही कुछ बोली.

अधूरी इच्छा

जया असमंजस की स्थिति में थी. समझ नही पा रही थी कि प्रस्ताव स्वीकार करे या मना कर दे. वह जितना सोंचती थी उतना ही उलझ जाती थी.  जया को लग रहा था कि उसका बीता हुआ कल जैसे आज उसकी बेटी का वर्तमान बन कर उसके सामने खड़ा था. वह अतीत में खो गई. "बाउजी मुझे अभी विवाह नही करना है. मैं और पढ़ना चाहती हूँ." जया ने सहमते हुए अपने पिता से कहा.  पिता जी ने अपनी निगाहें उस पर जमाते हुए कहा "देखो बिटिया हमें जितना पढ़ाना लिखाना था पढ़ा दिया. हमारे यहाँ लड़कियों को अधिक पढ़ाने का रिवाज़ नही है." जया चुप हो गई. वह अभी शादी के लिए बिल्कुल भी तैयार नही थी. इसी साल तो उसने बारहवीं पास की थी. उसकी सभी सहेलियां आगे कॉलेज की पढ़ाई करने वाली थीं. उसकी भी बहुत इच्छा थी कॉलेज जाने की. उसकी इच्छा शिक्षिका बनने की थी. पर इसी बीच उसकी बुआ ने बाऊजी को यह रिश्ता सुझा दिया. उसे उदास देख कर उसके पिता ने अपने पास बैठा कर उसे समझाया "बिटिया मेरी आर्थिक स्थिति तो तुमसे छिपी नही है. बड़ी भाग्यशाली हो जो तुम्हें ऐसा घर मिला है." उसके सर पर हाथ रख कर बोले "अब जो समय बचा है उसमें अपनी

कश्ती

सुमन बहुत परेशान थी. माता पिता समाज सबके विरोध की परवाह किए बिना उसने अशोक का हाथ थामा था. जिस पर सबसे अधिक भरोसा कर अपना सब कुछ छोड़ा था वही दगाबाज़ निकला. उसे बीच मझधार में छोड़ कर भाग गया. अब या तो स्वयं को हालातों के भंवर में डुबो देती या फिर किनारा पाने के लिए हाथ पैर मारती. हार मानने की बजाय उसने संघर्ष का पथ चुना. उसकी मेहनत रंग लाई. अपनी कश्ती की पतवार अब उसके हाथ में थी.

अपना ठिकाना

विनय को मकान पसंद आया. उस अकेले के लिए पर्याप्त जगह थी. उसने आवश्यक अग्रिम राशि जमा कर दी. अविवाहित विनय ने अपने छोटे भाइयों को पुत्रवत पाला था. उन्हें उनके पैरों पर खड़ा करने के लिए अपने सुखों का भी त्याग किया था. जीवन भर किराए के मकान में रहे. उनके परम मित्र राजेश अक्सर कहते थे "भाइयों के लिए कुछ करना बुरा नहीं पर अपने बारे में भी सोंचो. कल जब यह दोनों अपनी गृहस्ती बसा लेंगे तो तुम क्या करोगे. कहाँ रहोगे." लेकिन विनय अपने तर्क देते थे "मैं तो अकेली जान हूँ. दोनों भाइयों को बेटे की तरह पाला है. किसी के भी साथ रह लूँगा." "ईश्वर करे आपका भरोसा सही निकले लेकिन मैं तो दुनिया का चलन देखते हुए कह रहा था." राजेश उन्हें दुनिया की सच्चाई दिखाने की कोशिश करते थे. दोनों भाइयों ने अपनी अपनी गृहस्ती बसा ली. अवकाशग्रहण के बाद वह कभी एक के यहाँ तो कभी दूसरे के यहाँ जाकर रहते. कुछ दिन तो ठीक लगा परंतु धीरे धीरे उन्हें एहसास होने लगा कि यह व्यवस्था ठीक नहीं. प्रत्यक्ष तौर पर तो कोई कुछ नहीं कहता था लेकिन अक्सर ही अपने व्यवहार से दोनों भाई उन्हें इस बात का आभास कराते क

अपना हक

रविवार का दिन था फिर भी नवीन जल्दी उठ गया. तैयार होकर वह अपनी मम्मी से बोला "मैं अपने दोस्तों के पास जा रहा हूँ." "इतनी जल्दी अभी तो नाश्ता भी नहीं किया." उसकी मम्मी ने प्रश्न किया.  "आज हम सब पार्क में धरने पर बैठेंगे. कुछ खाएंगे नहीं." नवीन गंभीरता से बोला. "क्यों धरने पर क्यों बैठोगे." उसकी मम्मी आश्चर्य से बोलीं. "हमारे पास और कोई चारा नहीं है. खेलने के लिए एक पार्क था. वहाँ भी पौधे लगाकर आप लोगों ने हमारा खेलना बंद करवा दिया. हमें भी खेलने की जगह चाहिए." कह कर वह चला गया. उसके जाने पर उसकी मम्मी सोंच में पड़ गईं. सचमुच यदि खेलने की जगह नहीं बचेगी तो बच्चों का विकास कैसे हो पाएगा.

प्रतीक्षा

"कौन है." उर्मिला देवी ने चौंक कर पूँछा. "कोई नहीं है अम्मा तुम चुपचाप लेटी रहो." मंझली बहू ने झल्लाते हुए कहा. थोड़ी थोड़ी देर में उर्मिला देवी चौंक कर यही सवाल करती थीं. शरीर जर्जर हो चुका था. आँखों से भी अधिक नहीं दिखता था. पर हर समय उनके कान दरवाज़े पर होने वाली आहट पर लगे रहते थे. उन्हें अपने छोटे बेटे का इंतज़ार था. यह इंतज़ार उन्हें अपने लिए नहीं था. उनका बेटा अपनी छह माह की गर्भवती पत्नी को छोड़ कर ना जाने कहाँ चला गया था. वह तो प्रतीक्षा में थीं कि वह लौट आए तो उसे डांट कर कहें कि क्यों अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़ कर चले गए थे. बहू और पोती को उसके सुपुर्द कर वह चैन से मर सकें.

श्रद्धांजलि

अपना पहला काव्य संग्रह हाथ में लिए हुए रमा अतीत के गलियारे में विचरने लगी. ब्याह को अभी तीन महीने ही हुए थे. एक दिन वह अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी कि तभी मुकेश ने आवाज़ दी "कहाँ हो रमा. मेरा पर्स नहीं मिल रहा है."  लिखना छोड़ कर वह उठी और अलमारी से पर्स निकाल कर ले आई. " यह तुमने लिखा है." उसकी डायरी पढ़ते हुए मुकेश बोला. "हाँ पर आपने मेरी डायरी क्यों पढ़ी."  "पढ़ी तभी तो तुम्हारे इस गुण के बारे में पता चला. बहुत अच्छा लिखती हो जारी रखो." उस दिन के बाद मुकेश उसे हर समय लिखने को प्रेरित करता. उसी ने उसकी एक कविता टाइप कर एक पत्रिका में छपने के लिए भेजी थी. उसके बाद तो रमा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. पहले पत्रिकाओं में छपना शुरू हुईं फिर उसने कवि सम्मेलनों में भाग लेना आरंभ किया. दिन पर दिन उसकी ख्याति बढ़ने लगी. लेकिन इस सफर में मुकेश का साथ छूट गया. दुख की इस घड़ी में मुकेश के शब्द उसे प्रेरणा देते 'हर किसी के पास यह हुनर नहीं होता. तुम लिखना मत छोड़ना.' रमा उसकी प्रेरणा से आगे बढ़ती रही. आज उसकी मेहनत इस किताब के रूप में साकार हुई

कंधा

विश्वनाथ बाबू अपने बेटे प्रत्यूष की तरक्की देख कर बहुत खुश थे. महज़ आठ सालों में महानगर में अपना फ्लैट ले लेना तथा रहन सहन का अच्छा स्तर बनाए रखना कोई मामूली बात नहीं थी. जब से वह आए थे देख रहे थे कि घर के हर काम में प्रत्यूृष बहू के साथ बराबर हाथ बंटा रहा था.  डिनर के बाद उन्होंने देखा कि वह अकेले ही रसोई का सामान समेट रहा था. बहू अपने लैपटॉप पर दफ्तर का कोई काम कर रही थी. उसका घर के कामों लगना उन्हें अच्छा नहीं लगा. अतः उन्होंने प्रत्यूष को अपने पास बुला कर कहा "यह क्या घर के काम में तुम क्यों पड़ते हो. यह काम तो बहू का है." प्रत्यूष उन्हें समझाते हुए बोला "पापा हमने काम का बंटवारा नहीं किया है. बल्कि  घर की जिम्मेदारियां दोनों की साझा हैं. हम मिल कर गृहस्ती चलाते हैं. यह तरक्की जो आप देख रहे हैं उसमें रेनू का सहयोग मुझसे कम नहीं है. हम दोनों ही एक दूसरे का सहारा हैं" विश्वनाथ बाबू उसकी बात पर मनन करने लगे.

खत

मेहुल जब घर लौटा तो लेटरबॉक्स में उसके लिए एक पत्र था. भीतर आकर उसने पत्र खोला और पढ़ने लगा. 'मैं इतने सालों के बाद तुम्हें पत्र लिख रही हूँ क्योंकी इस मुश्किल घड़ी में मैं तुम्हारे अलावा किसी पर यकीन नहीं कर सकती हूँ. मुझे कैंसर है. मेरे पास अधिक दिन नहीं हैं. मुझे चिंता सिर्फ अपनी छह साल की बेटी की है. वह मानसिक रूप से अक्षम है. उसके पिता से मेरा संबंध विच्छेद हो चुका है. नशे के आदी उस व्यक्ति से मैं कोई उम्मीद नहीं कर सकती. इसलिए उसकी ज़िम्मेदारी तुम्हें सौंपना चाहती हूँ. निशा' निशा और मेहुल का रिश्ता बिना किसी नाम के भी मजबूत था. इतने दिनों में भी उसकी गर्माहट कम नहीं हुई थी. पत्र में निशा का पता भी था. पत्र बंद कर मेहुल नेट पर अगली फ्लाइट की जानकारी लेने लगा.

अस्तित्व

जूही ने पढ़ते पढ़ते अचानक ही किताब बंद कर दी़. उपन्यास की नायिका अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही थी. उसका अपना अस्तित्व भी तो बड़े घर की बहू के टैग में सिमट कर रह गया था. 'तुम इसकी रक्षा के लिए क्या कर रही हो.' अचानक उठे इस प्रश्न ने उसके मन में हलचल मचा दी.  विवाह से पहले उसकी छोटी सी ही सही अपनी पहचान थी. एक नर्सरी स्कूल की अध्यापिका थी वह. अपने अनुसार जीवन जी रही थी. जब इतने बड़े घर से रिश्ता आया तो माता पिता उसकी किस्मत को सराहने लगे. इतने बड़े घर की बहू बनने की बात से वह भी खुश थी.  विवाह के बाद ही वह जान पाई कि इस खुशी के बदले उसे क्या खोना पड़ा था. वह इस बड़े घर की प्रतिष्ठा के पिंजरे में कैद होकर रह गई थी. अपनी मर्ज़ी से कुछ भी नहीं कर सकती थी.  कई दिनों से उसका मन उसे धीरे धीरे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कह रहा था. लेकिन आज यह उपन्यास पढ़ते हुए उसके मन ने यह ज्वलंत प्रश्न उठा दिया. इसलिए पुस्तक बंद कर वह इस प्रश्न पर मनन करने लगी.

पतंग

घर का माहौल तनाव पूर्ण था. विपिन और उसकी पत्नी अपने किशोरवय के बेटे के आज के व्यवहार से बहुत दुःखी थे. समाज में जो कुछ हो रहा था उसे देखते हुए विपिन ने घर में कड़ा अनुशासन बना रखा था. उसके बेटे मयंक को इंटरनेट मोबाइल फोन कुछ भी प्रयोग करने की इजाज़त नहीं थी. वह स्कूल और कोचिंग के अलावा कहीं आता जाता भी नहीं था. विपिन का मानना था कि इस तरह से ही इस नाज़ुक उम्र में वह मयंक को भटकने से रोक सकता है.  वैसे तो मयंक भी उसकी हर बात मानता था. अपनी पढ़ाई पर उसका पूरा ध्यान था. किंतु कभी कभी विपिन का यह अनुशासन उसे बुरा लगता था. आज उसके सबसे अच्छे दोस्त का जन्मदिन था. एक रेस्त्रां में उसने अपने दोस्तों को दावत दी थी. मयंक ने जाने की इजाज़त मांगी तो विपिन ने मना कर दिया. मयंक को इसका बुरा लगा और जीवन में पहली बार उसने ऊँची आवाज़ में इसका विरोध किया. विपिन उसके इस बर्ताव से दंग रह गया. विपिन की बहन जो उसके घर आई हुई थी ने समझाते हुए कहा "देखो विपिन इस उम्र के में बच्चों को वैसे ही आसमान में उड़ने देना चाहिए जैसे कि पतंग. अनुशासन की डोर हमारे हाथ में रहे लेकिन ना तो इतनी ढीली हो कि पतंग नियंत्

बंद मुठ्ठी

रश्मि सारा काम निपटा कर अपनी किताब लेकर बैठ गई. कुछ ही दिनों में बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं आरंभ होने वाली थीं. वह जी जान से तैयारी में जुटी थी. पढ़ लिख कर कुछ कर दिखाने की लगन थी उसके मन में. यही लगन थी कि इतनी समस्याओं के बावजूद भी उसने हिम्मत नहीं हारी थी.  आज फिर जब वह स्कूल से लौट रही थी तब लल्लन ने फिर उसका रास्ता रोक लिया. आए दिन वह उसे छेड़ता था. बस्ती में सभी अनपढ़ थे. ऐसे में एक लड़की का पढ़ना उन्हें रास नहीं आता था.  उस उसकी माँ उसका सपना पूरा करने में  उसके साथ थी. सदैव उसे आगे बढ़ने का हौसला देती थी. नहीं तो उसके शराबी बाप ने कब का पैसों के लालच में उसकी शादी अपने बूढ़े दोस्त से करा दी होती.  रश्मि इन सारी तकलीफों से घबराती नहीं थी. इस अंधेरे में भी उसके मन में आशा का इंद्रधनुष खिला था. सूरज को मुठ्ठी में कर लेने का सपना था.

ज़िद

इंस्पेक्टर रजत को फिर से ट्रांसफर लेटर मिल गया. अभी छह महीने पहले ही वह इस शहर में आया था. यहाँ आते ही उसने यहाँ के स्थानीय बाहुबली नेता के काले धंधों के बारे में पड़ताल करनी शुरू कर दी. उसने उनके विरूद्ध कई सबूत जुटा लिए थे. पर कोई भी कार्यवाही से पहले उसका ट्रांसफर हो गया. यह कोई पहली बार नहीं था. उसकी कर्तव्य परायणता के बदले उसे कई जगहों से ट्रांसफर किया जा चुका था. उसे इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था. वह पूरी तरह अकेला था. वह जानता था कि कभी ऐसा भी हो सकता है कि कोई गोली उसे दुनिया से ही उठा दे. परंतु उसकी ज़िद के सामने यह डर भी बौना था.

मान

विभा के माथे पर सदैव सिंदूरी बिंदी सजी रहती थी. वह बड़े चाव से इसे लगाती थी. उसके लिए यह प्रतीक थी उसके सुखी  वैवाहिक जीवन की. उसके प्रेम की और उस आपसी समझ की जो उसकी गृहस्ती का आधार थी. यदि उसकी गृहस्ति की तुलना किसी साम्राज्य से करें तो वह उसके तख़्त पर बैठी साम्राज्ञी थी. उसी का सिक्का चलता था. उसके पति एक प्रतिष्ठित उद्योगपति थे. समाज के रसूखदार लोगों में उनका उठना बैठना था. वह भी उसे पूरा मान सम्मान देते थे. गृहस्त जीवन के तीन क्षेत्रों धर्म अर्थ एवं काम तीनों में बराबर की साझेदार थी. उसे अपने पति पर बहुत अभिमान था. उनकी सफलता में वह स्वयं को भागीदार मानती थी. कई बिजनेस क्लांइट्स तथा अन्य रसूखदार लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने में उसके द्वारा आयोजित लंच तथा डिनर पार्टियों का बड़ा हाथ था. सामाजिक कार्यक्रमों में भी वह अपने पति के साथ जाती थी. अक्सर पत्र पत्रिकाओं में उसके पति के विषय में अच्छे लेख निकलते थे. जिन्हें वह काट कर बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से सहेज कर रखती थी. उन्हें मिले सारे पुरस्कारों को भी उसने बहुत सुंदर ढंग से सजाया था. किंतु इधर छपी कुछ खबरें उसे अच्छी नही लगी

अो राही

राजेश स्टेशन पर उतरा. ऑटो वाले को पैसे देकर अंदर जाने लगा. तभी नज़र फुटपाथ पर लगे किताबों के ढेर पर पड़ी. एक तख़्ती टंगी थी जिस पर लिखा था 'सस्ते में किताबें'. ट्रेन आने में अभी समय था. उसने सोंचा एक आध किताब ले लूँ. शायद इसी से मन बहल जाए. वह उस ढेर में से किताबें चुनने लगा. दुकानदार एक सत्रह अठ्ठारह साल का लड़का था. अलग रखे एक ढेर से किताब उठाते हुए बोला "यह देखिए साहब अकेले सफर करने वाले यह बहुत पसंद करते हैं." राजेश ने उस पर दृष्टि डाली तो उसे गुस्सा आ गया. डपट कर बोला "उसे रखो मैं खुद ढूंढ़ लूँगा." खोजते हुए एक कविता संग्रह उसने चुन लिया. कवि का नाम उसने पहले कभी नही सुना था. पैसे चुका कर उसने किताब बैग में रख ली. ट्रेन में बैठे हुए वह अपनी ज़िंदगी के बारे में सोंचने लगा. इन दिनों बहुत परेशान था. व्यापार में उसे बड़ा नुकसान हुआ था. इस नुकसान की खीझ वह अक्सर अपनी पत्नी पर उतारता था. नतीजा यह हुआ कि वह उसे छोड़ कर अपने मायके में रहने चली गई. अब टूटे रिश्ते को फिर से जोड़ने का प्रयास करने जा रहा था. मानसिक रूप से बहुत परेशान था वह. आत्मविश्वास पूर

धोखा

मानसी ने देखा कि रीना अभी तक वहीं बैठी है. "क्या बात है तैयार क्यों नहीं हो रही. तुम्हें अंकल के पास छोड़ कर मुझे मीटिंग में जाना है." मानसी की माँ उसके साथ ही रहती थीं. अतः वह रीना को लेकर बेफिक्र रहती थी. किंतु एक महीने से वह उसके भाई के घर रह रही थीं. उसकी गर्भवती भाभी की देखभाल के लिए. इसलिए उसने कुछ दिनों से घर पर रह कर काम करना शुरू कर दिया था. लेकिन जब ऑफिस में कोई जरूरी मीटिंग होती थी तो उसे जाना पड़ता था. ऐसे में वह रीना को अपने दूर के अंकल के पास छोड़ आती थी. रीना अभी भी वैसे ही बैठी थी. मानसी ने डांटा "सुनती क्यों नहीं मुझे देर हो रही है." "मैं वहाँ नहीं जाऊँगी. अंकल गंदे हैं." कह कर रीना रोने लगी. रोते हुए वह भय से कांप रही थी.  बात जब मानसी की समझ में आई तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई. अपने काम की व्यस्तता में वह समझ ही नहीं पाई कि क्यों उसकी बच्ची इतनी चुप रहती है. क्यों उसके खिलौने उपेक्षित पड़े हैं.

शफ़ा

"डॉक्टर साहब आप तो देवता हैं. मैने तो उम्मीद छोड़ दी थी. पर आपने मेरी बच्ची को बचा लिया." उस गरीब बूढ़े ने हाथ जोड़ कर कहा. डॉ. मोहन ने विनम्रता से कहा "मैने तो बस अपना फर्ज़ निभाया है. बाकी ज़िंदगी देना तो ईश्वर के हाथ में है. डॉ. मोहन कई सालों से गरीब असहाय लोगों के लिए मुफ्त दवाखाना चला रहे थे. सभी का कहना था की उनके हाथ में शफ़ा है. मरते हुए को भी जिला सकते हैं. उन्हें ढेरों आशीर्वाद देकर बूढ़ा चला गया. उसके जाने के बाद डॉ. मोहन उठे और दीवार पर लटके चित्र को निहारने लगे. तस्वीर में एक किशोर का मुस्कुराता चेहरा दिखाई पड़ रहा था. उनकी आंखें नम हो गईं. उन्होंने पुराना हार उतार कर नया हार तस्वीर पर चढ़ा दिया.

अपनी राह

नकुल असमंजस की स्थिति में था. उसके पास दो विकल्प थे. पिता चाहते थे कि वह उनकी लॉ फर्म में उनके साथ वकालत करे. जबकी राजनीति में ऊँचा स्थान रखने वाली माँ की इच्छा थी कि अपने आकर्षक व्यक्तित्व तथा व्यवहार कुशलता का प्रयोग कर राजनीति में अपनी पहचान बनाए.  नकुल का झुकाव दोनों में से किसी भी तरफ नहीं था. बचपन से ही उसने अपने आस पास वैभव और प्रभुता का माहौल देखा था. अपने माता पिता को इस वैभव तथा प्रभुता की रक्षा के लिए परेशान होते देखा था. अतः वह कुछ ऐसा करना चाहता था जिसमें उसे आत्मिक शांति मिल सके. अनिर्णय की स्थिति में वह अपने कमरे में इधर से उधर टहल रहा था. तभी उसका मित्र चंदन उससे मिलने के  लिए आया. चंदन एक पत्रकार था. सांसारिक दृष्टि से नकुल और चंदन में कोई समानता नहीं थी. वह एक साधारण परिवार का लड़का था. पत्रकारिता उसका पेशा नहीं बल्कि जीवन का उद्देश्य था. अपने आदर्शों से समझौता ना कर पाने के कारण अपने अन्य साथियों की भांति वह सफलता अर्जित नहीं कर पाया था. उम्र में भी वह नकुल से बड़ा था. किंतु फिर भी दोनों एक दूसरे के मित्र थे. चंदन नकुल की दुविधा के विषय में जानता था. कुर्सी पर बैठते

भरोसा

लतिका ने गाना समाप्त कर भैरोंमल की तरफ उम्मीद से देखा. उसकी माँ तुलसी ने पूंछा "भइया कैसा लगा." "बहुत खूब. आवाज़ में कशिश है. यह तो धूम मचा देगी." "अब सब तुम्हारे भरोसे है भइया. तुम्हारे बहनोई के जाने से तो रोटी के भी लाले हैं." तुलसी ने हाथ जोड़ कर कहा. "मेरी बड़ी पहचान है फिल्म लाइन में. मेरे साथ भेज दो. जिंदगी बन जाएगी." भैरोंमल ने आश्वासन दिया. भैरोंमल तुलसी का दूर का भाई था. कई सालों से मुंबई में था. कहता था फिल्मलाइन के लोगों में उसका उठना बैठना था. तंगहाली झेल रही तुलसी को उम्मीद थी कि उसकी बेटी के हुनर के बदले वह उसे फिल्मलाइन में काम दिला देगा. उसने लतिका को भैरोंमल के साथ भेज दिया. आंखों में सपने संजोए लतिका पूरे भरोसे से उसके साथ आ गई. लेकिन शोहरत की चकाचौंध के बदले उसे जिल्लत के अंधेरे मिले. एक बियर बार में उसका हुनर बेकार हो रहा था.

धड़कन

ईसाइयों के कब्रिस्तान में खड़ा विवान कब्रों पर लगे पत्थरों को पढ़ रहा था. एक कब्र पर लिखे नाम पर उसकी निगाह ठहर गई 'मार्वन डिसूज़ा'. वह कब्र के पास गया. घुटनों के बल बैठ कर उसने प्रार्थना की. उसके दिल की हर धड़कन कब्र में सोए व्यक्ति का आभार व्यक्त कर रही थी.  विवान के दिल का केवल कुछ हिस्सा ही काम कर पा रहा था. डॉक्टरों ने ह्रदय प्रत्यारोपड़ की सलाह दी थी. एक सड़क दुर्घटना में सर पर लगी चोट के कारण मार्वन की मृत्यु हो गई. उसकी इच्छानुसार उसके शरीर के महत्वपूर्ण अंग दान कर दिए गए. उसका दिल आज विवान के सीने में धड़क रहा था.

आंचल

मीरा कमल को खाना खिला रही थी. उसने कस कर मीरा का आंचल पकड़ रखा था.  "छोड़ो बेटा मैं एक और रोटी लेकर आती हूँ." "नहीं मैं भी चलूँगा तुम्हारे साथ." मीरा ने प्यार से अपने उन्नीस साल के बेटे के सर पर हाथ फेरा. जिस्म से बड़ा हो चुका कमल दिमागी तौर पर एक बच्चा ही था. कल जब मीरा नए साल पर उसे मंदिर लेकर गई थी तब कुछ पलों के लिए कमल का हाथ उससे छूट गया था. वह बहुत घबरा गया था. तब से वह सजग था. मीरा को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ रहा था. मीरा ने उसे समझाया "घबराओ नहीं मैं कहीं नहीं जाऊँगी. तुम्हारे साथ ही रहूँगी."  कमल ने अपना सर उसकी गोद में छुपा लिया.

ढाई फुटिया

बस्ती में उसकी दुकान थी. यहाँ रोजमर्रा का सामान मिलता था. उसके छोटे कद के कारण सभी उसे ढाई फुटिया कहते थे. यह बात उसे बुरी लगती थी फिर भी खुद को दुख में डुबो लेने की बजाय वह सदा प्रसन्न रहता था. उसके मन में जो भी भाव उत्पन्न होते उन्हें शब्दों में पिरोकर छोटी छोटी कविताओं की शक्ल में अपनी डायरी में लिख लेता था. कोई भी उसके इस हुनर के बारे में नहीं जानता था सिवाय मेनका के. मेनका एक म्यूज़िकल ग्रुप की सदस्य थी. यह ग्रुप छोटे शहरों कस्बों तथा गांव में अपना कार्यक्रम करने जाता था. मेनका का गला तो अच्छा था ही किंतु अपने नृत्य के कारण वह अधिक प्रसिद्ध थी. पुराने और नए फिल्मी गानों पर जब वह नाचती थी तो लोग आहें भरने लगते थे. अपने क्षेत्र में उसकी किसी फिल्मी हिरोइन से कम शोहरत नहीं थी.  एक मेनका ही थी जो उसकी लिखी कविताओं को ध्यान से सुनती और तारीफ भी करती थी. मेनका सदैव उसे पवन कह कर ही बुलाती थी. पवन को उसकी यह बात बहुत अच्छी लगती थी. वह मेनका में एक सच्चा हमदर्द और दोस्त देखता था. मेनका के प्रोत्साहन से वह अपने लेखन पर और अधिक ध्यान देने लगा था.  स्थानीय समाचार पत्र के साहित्य स्तंभ में उ