राजू अपने पिता के काम में हाथ बटा रहा था। उनका सड़क के किनारे ये छोटा सा ढाबा है। इसी के सहारे उनका परिवार चलता है और राजू और उसकी बहन की पढ़ाई भी। रोज़ शाम कुछ घंटे वह यहाँ अपने पिता की मदद करता है। फिर घर जाकर देर रात तक पढाई। सुबह स्कूल जाने से पहले वह घरों में दूध डबल रोटी अंडे आदि पहुँचाने का काम करता है। अपना काम निपटा कर जब वह घर लौटा तो दरवाजे पर ही उसकी बहन ने यह दुःखद समाचार सुनाया 'अब्दुल बाबा नहीं रहे ' उसने ना कुछ खाया ना पिया। रात को पढ़ भी नहीं सका। सिर्फ उनके चित्र को देख कर रोता रहा। उन दिनों जब वह यह सोंच कर उदास रहता था कि वह गरीब है और कुछ नहीं कर सकता तब अब्दुल बाबा से ही उसे प्रेरणा मिली। कैसे अखबार बांटने वाला एक साधारण लड़का इतना बड़ा वैज्ञानिक बन गया। इतने बड़े जनतंत्र का राष्ट्रपति बन गया। उस व्यक्तित्व ने उसे इतना प्रेरित किया कि वह ना जाने कब अब्दुल बाबा बन गए। भोर हो रही थी और राजू के भीतर कहीं एक दृढ निश्चय उदित हो रहा था। ज़मींदोज़ होना या चिता में जलना तो जिस्म की नियति है। विचार तो अमर होते हैं। सत्कर्म ध्रुव तारे की भांति सदा लोगों को राह दिखाते है
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