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मार्च, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

घटिया

"यह आयोजक लोग भी सस्ती लोकप्रियता के लिए किसी को भी बुला लेते हैं।" सामने खड़े उपन्यासकार कंवलजीत को देख एक साहित्यकार महोदय मुंह बनाते हुए बोले। दूसरे साहित्यकार महोदय ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा "इसका नया उपन्यास पढ़ा आपने। कितना घटिया है। कहता है कि समाज की सेक्स संबंधी कुंठाओं पर चोट है।" दोनों लोग ठठा कर हंसने लगे। तभी एक नवयुवती कुछ जल्दी में वहाँ से गुजरते हुए उनसे टकरा गई। हाथ में पकड़े कागज़ जमीन पर गिर गए। दोनों की आँखें उन्हें उठाने झुकी युवती के शरीर पर दौड़ने लगीं।

केंद्र बिंदु

पारस देख रहा था कि आरव का मन खाने से अधिक अपने फोन पर था। वह बार बार मैसेज चेक कर रहा था। सिर्फ दो रोटी खाकर वह प्लेट किचन में रखने के लिए उठा तो पारस ने टोंक दिया। "खाना तो ढंग से खाओ। जल्दी किस बात की है तुम्हें।" "बस पापा मेरा पेट भर गया।" कहते हुए वह प्लेट किचन में रख अपने कमरे में चला गया। पारस का मन भी खाने से उचट गया। उसने प्लेट की रोटी खत्म की और प्लेट किचन में रख आया। बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर वह भी अपने कमरे में चला गया। लैपटॉप खोल कर वह ऑफिस का काम करने लगा। पर काम में उसका मन नही लग रहा था। वह आरव के विषय में सोच रहा था। उसने महसूस किया था कि पिछले कुछ महीनों में आरव के बर्ताव में बहुत परिवर्तन आ गया है। पहले डिनर का समय खाने के साथ साथ आपसी बातचीत का भी होता था। आरव उसे स्कूल में क्या हुआ इसका पूरा ब्यौरा देता था। किंतु जबसे उसने कॉलेज जाना शुरू किया है तब से बहुत कम बात करता है। इधर कुछ दिनों से तो उसका ध्यान ही जैसे घर में नही रहता था। पारस सोचने लगा। उम्र का तकाज़ा है। उन्नीस साल का हो गया है अब वह। नए दोस्त नया माहौल इस सब में उसने अपनी अलग दुनि

सिस्टम

ट्रेन एक घंटा लेट स्टेशन पहुँची। अब अधिक समय नही था। विनय ने प्लेटफार्म पर लगे नल पर मुंह धोया और स्टेशन के बाहर आकर रिक्शा पकड़ लिया। रात भर ट्रेन में ठुस ठुसा कर जैसे तैसे सफर किया था। पर एक कप चाय पीने का भी वक्त नही था।  भागते दौड़ते परीक्षा केंद्र पहुँचा तो पता चला कि पर्चा लीक हो जाने के कारण परीक्षा निरस्त हो गई। ना जाने कितने परीक्षार्थी दूर दूर से आए थे। सब परेशान थे। वह भी निराश था। पिछले कई महीनों से परीक्षा की तैयारी के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहा था। सोंचता था कि परीक्षा पास कर यदि सरकारी नौकरी लग गई तो घर की गरीबी दूर हो जाएगी।  दूसरी गाड़ी आने में अभी चार घंटे थे। कहीं जाने का ठिकाना नही था। वह बेमकसद सड़क पर चलने लगा। मन खिन्न था। पर्चा लीक होने में उसकी या उसके जैसे अन्य लोगों की क्या गलती थी। उन्हें क्यों परेशान किया गया। अब उसे क्रोध आने लगा था। तभी सड़क पर एक जुलूस निकला। हाथों में तख्तियां पकड़े कुछ लोग सिस्टम की नाकामी के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। उसकी भी मुठ्ठियां भिंच गईं। वह भी जुलूस में शामिल हो गया। कुछ ही दूर पर पुलिस ने जूलूस को आगे बढ़ने से रोका। लोगों के जबर

अपने

रेड लाइट पर कार रुक गई। पिछली सीट पर बैठे मखीजा जी ने खिड़की के बाहर देखा। स्कूल यूनीफॉर्म में एक बच्चा मोटरसाइकिल पर बैठा था। उसने अपने पिता को कस कर पकड़ रखा था। मखीजा जी ने सामने की तरफ देखा। जैसे अपने बेटे के चेहरे में कुछ तलाश रहे हों। बेटे ने झुंझलाते हुए अपनी पत्नी से कहा "कह रहा था थोड़ा जल्दी करो। मुझे दफ्तर के लिए देर हो जाएगी।" "तुम हर बात का दोष मुझे क्यों देते हो। मेरी भी आज मीटिंग है। देर मेरी वजह से नहीं हुई" बहू ने पीछे देखते हुए कहा। मखीजा जी फिर से बाहर देखमे लगे। ग्रीन लाइट पर कार पुनः चल दी। कुछ ही मिनटों में वह गंतव्य पर पहुँच गए। मखीजा जी ने सीट पर रखा बैग उठा कर कंधे पर लाद लिया। बिना  कुछ कहे ओल्ड एज होम के भीतर चले गए।

गहरी सांस

सर्वाधिक ऊंचे टावर की सबसे ऊपरी मंज़िल पर बैठा मानव अपनी तरक्की का जायज़ा ले रहा था। सामने स्क्रीन पर उसे बाहर का दृश्य दिखाई पड़ रहा था। ऊंची ऊंची इमारतें, ओवरब्रिज, सड़कों पर लगा गाड़ियों का लंबा जाम। इन सब के बीच कहीं भी उसे पेंड़ पौधे नही दिखे। स्मार्ट सिटी के निर्माण में उनकी ही बलि दी गई थी। उसे गर्मी सी महसूस हुई। एक बटन के स्पर्श मात्र से कमरे का तापमान बदल गया।  उसने स्क्रीन से नज़र हटाई तो सामने खाली पड़ा पानी का जग मुंह चिढ़ा रहा था। आज उस छोटे से जग को भरने की भी हैसियत नही रही। मोबाइल ने भी चेतावनी दी कि अब उसके पास कुछ ही शुद्ध सांसें बची हैं। रिफिल का समय हो गया है। पर आजकल तो उसकी भी किल्लत है। अचानक ना जाने कैसी सनक सवार हुई कि वह उठ कर टैरेस पर आ गया। चेहरे पर लगा ऑक्सीजन मास्क हटाया और एक गहरी सांस ली। दोनों फेफड़े पूरी तरह से भर गए। एक अर्से के बाद उसने दिल खोल कर सांस लेने की अपनी इच्छा पूरी की थी। यह इच्छा अंतिम साबित हुई।

साथी

रौनक समझ नही पा रहा था कि अचानक दीपा का मूड उखड़ क्यों गया। अभी तक तो पार्टी में सब से हंस हंस कर बात कर रही थी। उसने दीपा से पूंछा "क्या तबीयत ठीक नही है।" "हाँ सर में दर्द है।" दीपा ने नजरें चुराते हुए कहा। "ठीक है घर चलते हैं।" कह कर रौनक मेज़बान से इजाज़त लेने चला गया। एक आदमी नशे में उसके पास आया। सर से पैर तक उसे घूरने लगा। उसकी नज़रें दीपा को चुभ रही थीं। "तो अब गृहस्ती वाली हो गई हो।" बेशर्मी से हंसते हुए उसने दीपा को छूने की कोशिश की। तभी रौनक ने उसका हाथ पकड़ कर झटक दिया "मर्यादा में रहिए।" उसने दीपा का हाथ पकड़ा और बाहर चल दिया। दीपा अभिभूत थी। चार साल पहले रौनक इसी तरह उसे उन अंधेरों से बाहर निकाल लाया था।

सपने

शैलेंद्र निशा के साथ कॉलेज कैंटीन में चाय पीने जा रहा था। तभी निशा की नज़र रोहन पर पड़ी। "हाय लुकिंग हैंडसम। यह जैकेट तो बहुत सुंदर है।" निशा ने चहकते हुए कहा। "थैंक्स ऑनलाइन शॉपिंग से खरीदा है।" रोहन ने इतराते हुए कहा। "कॉलेज में तुम ही एक लड़के हो जिसे फैशन की समझ है।" "तो इसी बात पर मेरे साथ कॉफी पीने चलोगी।" "बिल्कुल" निशा फौरन उसके साथ चल दी। शैलेंद्र ठगा सा खड़ा था। उसी समय उसका फोन बज उठा। उसके पिता का फोन था। उन्होंने उसके खाते में पैसे डलवाए थे। शैलेंद्र ने तुरंत अपने लिए ऑनलाइन एक जैकेट का आर्डर दे दिया।

ऐ ज़िंदगी

गिरीश अनमना सा खिड़की के बाहर देख रहा था। "बेटा खाना लगा दूँ। भूख लगी होगी।" उसकी माँ ने सर पर हाथ फेरते हुए पूंछा। "मन नही है। आप खा लीजिए।" माँ उसकी मनःस्थिति समझती थीं। उन्होंने अधिक ज़ोर नही दिया। गिरीश का अब किसी भी काम में मन नही लगता था। उसके लिए ज़िंदगी जैसे ठहर सी गई थी। निरुद्देश्य सा वह खिड़की के बाहर देख रहा था। तभी बंदरों का एक दल आकर उछल कूद करने लगा। दल में नर मादा बच्चे सभी थे। वह सामने वाले नीम के पेंड़ पर और बिजली के तारों पर झूल रहे थे। पर उनमें से एक बंदर कुछ अलग था। गिरीश ने ध्यान से देखा। उसकी एक बांह क्षतिग्रस्त थी। वह केवल एक ही बांह का प्रयोग कर पा रहा था। लेकिन फिर भी वह निष्क्रिय नही बैठा था। बाकी सबकी तरह वह अपनी एक बांह से झूला झूल रहा था। गिरीश ने अपनी व्हीलचेयर घुमाई और किचन में काम करती हुई माँ के पास गया। "मम्मी खाना लगा दीजिए। खाने के बाद आज कुछ लिखूंगा।"

होशियारी

टेस्ट की कॉपियां दिखाते हुए अध्यापक ने दीपक को खड़ा कर पूंछा "यह क्या लिखा है तुमने। जो जवाब मैंने कॉपी में लिखवाय था वह क्यों नही लिखा।" "सर मैंने विषय को समझ कर अपने शब्दों में लिख दिया है। पर मैटर पूरा है।" दीपक ने उत्साह से कहा। "वाह भाई आप तो बहुत समझदार हैं। अपने शब्दों में लिखते हैं।" अध्यापक ने उपहासपूर्ण ढंग से कहा। सभी छात्र हंसने लगे। "कल तक जो मैंने लिखाया है रट कर हूबहू लिख कर दिखाओ। ज़्यादा होशियारी ना करो।" अपमानित महसूस करते हुए दीपक ने धीरे से सिर हिला कर उनकी बात स्वीकार कर ली।

रिमोट कार

जमुना अपने बेटे गुड्डू का हाथ पकड़े घर वापस लौट रही थी। त्यौहार के कारण हर घर में काम अधिक था। वह बहुत थकी हुई थी। "मम्मी रौशन भइया के पास कितनी अच्छी मोटर कार है। रिमोट से चलती है। चाहें जिधर घुमा लो। गोल गोल चक्कर भी काटती है।" अपनी बात कह कर गुड्डू ने अपनी माँ की तरफ देखा। लेकिन वह बिना कुछ बोले चलती रही। उसने बात आगे बढ़ाई "वो कार उस बड़ी वाली दुकान में मिलती है जहाँ अपने आप चलने वाली बिजली की सीढ़ी होती है।" "पर वह दुकान बड़े लोगों के लिए होती है। हम गरीबों के लिए नही।" जमुना ने उसे समझाया। वह समझ रही थी कि गुड्डू ऐसी बातें क्यों कर रहा है। पर उसकी इच्छा कैसे पूरी करती। वह मन ही मन दुखी हो रही थी। वह उसे लेकर उस ठेले पर गई जहाँ प्लास्टिक के सस्ते खिलौने बिक रहे थे। उसने गुड्डू को एक प्लास्टिक की कार दिला दी। गुड्डू ने अपनी कार को देखा फिर अपनी माँ को। उसके चेहरे को पढ़ कर बोला "अच्छी है।" जमुना का हाथ पकड़े वह घर जा रहा था किंतु उसके दिमाग में रिमोट कार घूम रही थी।

नेकी

शगुनी बुआ ने दुलारी के पेट को टटोल कर कहा "बच्चा ठीक है। पर तुम अपना खयाल रखा करो।" दुलारी ने अपनी आँखें झुका लीं। अपने आंचल के कोने में बंधे रुपए उसे देती हुई शगुनी बुआ बोलीं "अपने लिए दूध फल मंगवा लेना। मैं जाकर देखूं उस नसीमुद्दीन के लड़के का क्या हाल है।"

सुहानी रात

फिल्म देख कर लौटती हुई अनन्या बहुत खुश थी। टहलते हुए वह बस स्टैंड की तरफ जा रही थी।  इस रोमांटिक मौसम में उसे राकेश की याद आने लगी। उसने फोन निकाल कर मैसेज किया 'लव यू, मिस यू।' अचानक एक मोटरसाइकिल तेज़ी से उसके बगल से निकल गई। गुस्से में उस तरफ देख कर वह चिल्लाई "दिखता नही है।" फोन बैग में रख वह बस स्टैंड की ओर बढ़ने लगी। तभी वह  मोटरसाइकिल उसकी बगल में आकर रुक गई। पीछे बैठे लड़के ने  अपना हाथ उसके कंधे पर रख उसे अपनी तरफ खींचा। उसके हाथ अनन्या को इधर उधर छूने लगे। वह खुद को छुड़ाने का प्रयास कर रही थी। दोनों लड़के उसकी हालत पर हंस रहे थे। कुछ देर उसे परेशान करने के बाद दोनों अपनी जीत के नशे में चिल्लाते हुए भाग गए। दर्शकजन भी अपने रास्ते चल दिए।

ढीट

शकुंतला काम पर जाने के लिए तैयार हो रही थी। उसकी सास अपनी पड़ोसन से शिकायत करने लगी "मेरे बेटे को गए अभी दिन ही कितने हुए हैं। पर इसने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए। चाय की दुकान खोल कर बैठी है। दिन भर कितने मर्द आते हैं वहाँ। पर ढीट सुनती ही नही।" "इसे ही कलजुग कहते हैं।" पड़ोसन ने उसकी सास से हमदर्दी दिखाते हुए कहा। शकुंतला ने बच्चों समय से तैयार होकर स्कूल जाने की हिदायत दी और दुकान चली गई।

रक्षा

संडे के मनपसंद लंच के बाद नितिन सोफे पर अलसाया हुआ लेटा टीवी देख रहा था। सर्दियां शुरू हो रही थीं। उसे हल्की हल्की ठंड लग रही थी। किंतु आलस के मारे वह उठ नही रहा था। टीवी पर एक पुरानी फिल्म आ रही थी। उसे देखते देखते ना जाने कब उसकी आँख लग गई। वह ईसाइयों के कब्रिस्तान में खड़ा था। कुछ समझ नही पा रहा था कि वहाँ कैसे पहुँचा। उसकी निगाह एक कब्र पर पड़ी। देखने से लगता था जैसे कुछ ही दिनों पहले बनी हो। ना जाने कौन सी शक्ति थी जो उसे उस कब्र की ओर खींच रही थी। परेशान सा वह उस कब्र की ओर गया। वह कब्र पर लगे पत्थर पर मृतक का नाम पढ़ने ही वाला था कि तभी... "नितिन उठो। सोफे पर क्यों सो रहे हो।" उसकी पत्नी धरा ने उसे उठा दिया। आँख खोलने के बाद वह बौखलाया सा इधर उधर देखने लगा। कुछ क्षण लगे उसे यह समझने में कि वह कहाँ है। उसकी इस हरकत को देख धरा ने पूँछा "यह इधर उधर क्या देख रहे हो। सोना है तो बेडरूम में जाकर कंबल ओढ़ कर सो। बाहर अचानक मौसम खराब हो गया है। यहाँ ठंड लग जाएगी।" यह कह कर उसने टीवी बंद कर दिया। "मैं कुछ देर बाहर टहल कर आता हूँ।" "क्या...."

पछतावा

वरुण बिस्तर पर बैठे हुए सोच में डूबा था। उसने मम्मी को फोन पर अपनी सहेली से पैसों की मदद मांगते सुन लिया था। उसके इलाज पर बहुत पैसा खर्च हो रहा था। उनकी जमा पूंजी खत्म हो गई थी। अतः अब दूसरों से मदद मांगनी पड़ रही थी।  इस एक्सीडेंट के लिए वह स्वयं ही ज़िम्मेदार था। अपनी मम्मी से छिपा कर वह दोस्तों के साथ स्टंट करता था। उन लोगों के लिए ऐसा करना बहादुरी की निशानी थी। आए दिन होने वाली दुर्घटनाओं से भी वह कुछ सीखने को तैयार नही थे।  अब वह बोर्ड परीक्षा में भी नही बैठ पाएगा। उसकी कोचिंग पर कितना खर्च किया था मम्मी ने। पैसों के साथ साथ साल भी बर्बाद हो गया। यह सब सोच कर उसका दिल भर आया। मम्मी ने जब उसके सर पर हाथ फेरा तो वह रोने लगा। "बेटा जो हो गया वह बदला नही जा सकता। पर समझदारी इसी में है कि इस स्थिति से सबक लो।" "मम्मी मुझे सबक मिल गया है। मैं झूठी शान के लिए अपने आप को मुसीबत में नही डालूंगा।"

फाग

"होली है...." के शोर के साथ एक बच्चे ने विनोद को रंग से भिगो दिया। रंग की बौछार उसे यादों की गलियों में ले गई। उसे पिछली होली याद आ गई। ससुराल में उसकी पहली होली थी। सालियों के साथ होली खेलते हुए उसकी नज़रें संध्या को ढूंढ़ रही थीं। पर कमरे में बैठी संध्या उसे तड़पाने का मज़ा ले रही थी। संध्या को बाहर निकालने की उसे एक तरकीब सूझी।  "अच्छा अब चलता हूँ। शाम को आकर संध्या को ले जाऊँगा।" उसने एक आँख दबाते हुए तेज़ आवाज़ में कहा।  "नमस्ते जीजू शाम को इंतज़ार करेंगे।" सालियों ने भी उसका बखूबी साथ दिया।  विनोद आंगन के एक कोने में छिप गया। कुछ ही पलों में संध्या भागी हुई आई और बहनों को डांटने लगी "तुम लोगों को ज़रा भी समझ नही। बिना खाए पिए ही...." उसकी बात पूरी होने से पहले ही विनोद ने उसे रंग से सराबोर कर दिया। इस साल वह संध्या से दूर अकेले इस शहर में था। मीठी सी याद की इस फुहार ने उसे अंदर तक भिगो दिया।

जांच जारी है

राज दरबार में एक एक कर फरियादी अपनी शिकायत कर रहे थे। पहले व्यक्ति ने आकर प्रणाम किया और अपनी व्यथा कहने लगा। "मेरी जमीन पर दबंगों ने जबरन कब्ज़ा कर लिया है। मैंने शिकायत की थी पर कुछ हुआ नही।" "जांच जारी है। अपराधियों को बख्शा नही जाएगा।" दूसरा एक ग्रामीण था। डरते हुए बोला। "हमें रोजगार देने की जो योजना बनी थी उसमें बहुत धांधली हो रही है हूजूर। कोई सुनवाई नही है।" "जांच जारी है। अपराधियों को बख्शा नही जाएगा।" इसके बाद एक मजबूर बाप आया। कुछ ना कर पाने की लाचारी चेहरे पर साफ झलक रही थी। "मेरी बच्ची को रसूख़दार लोगों ने अगवा कर...." कहते हुए वह रो पड़ा।  आस पास की आँखें भी नम हो गईं। "जांच जारी है। अपराधियों को बख्शा नही जाएगा।" सामने सिंहासन पर एक तोता बैठा था।

याचक

मास्टर सोमनाथ अपने शिष्य विमल के बंगले में बैठे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। नौकर ने चाय रखते हुए बताया कि साहब स्नान कर पूजा कर रहे हैं। पूजा समाप्त होते ही आएंगे। जब भी वह यहाँ आते हैं उन्हें पूरा सम्मान मिलता है। अध्यापन का कार्य उनके लिए महज़ नौकरी नही था। उन्होंने सदैव अपने शिष्यों के चरित्र निर्माण पर ध्यान दिया। यही कारण था कि उनके अधिकांश शिष्य जीवन में बहुत सफल थे।  चाय पीते हुए वह सोच रहे थे कि अपनी बात विमल से कैसे करेंगे। इसी उहापोह में थे कि विमल ने आकार चरण स्पर्श किया। उसे आशीर्वाद देते हुए उनके मन में एक संकोच था। आज तक उन्होंने किसी से कुछ नही मांगा था। किंतु परिवार तथा परिस्थिति के दबाव में आज वह याचक की तरह खड़े थे।

परफ्यूम की गंध

रेवा अपना सामान समेट रही थी। पिछली बार जाते हुए कुछ चीज़ें छूट गई थीं।  मनीष चुपचाप उसे देख रहा था। उनका छह साल का रिश्ता समाप्त हो गया था। आज के बाद वह फिर कभी यहाँ नही आएगी। फिर भी ना जाने क्यों उसे एक क्षीण सी उम्मीद थी कि शायद वह अपना निर्णय बदल दे। सब कुछ पैक कर लेने के बाद रेवा बोली "थैंक्स मनीष अब चलती हूँ।" "एक कप कॉफी भी नही पिओगी।" "दो घंटे में मेरी फ्लाइट है।" रेवा जा चुकी थी। मनीष कमरे में अकेला खड़ा था। हवा में सिर्फ उसके परफ्यूम की गंध रह गई थी।

घटिया

"यह आयोजक लोग भी सस्ती लोकप्रियता के लिए किसी को भी बुला लेते हैं।"  सामने खड़े उपन्यासकार कंवलजीत को देख एक साहित्यकार महोदय मुंह बनाते हुए बोले। दूसरे साहित्यकार महोदय ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा "इसका नया उपन्यास पढ़ा आपने। कितना घटिया है। कहता है कि समाज की सेक्स संबंधी कुंठाओं पर चोट है।" दोनों लोग ठठा कर हंसने लगे। तभी एक नवयुवती कुछ जल्दी में वहाँ से गुजरते हुए उनसे टकरा गई। हाथ में पकड़े कागज़ जमीन पर गिर गए। दोनों की आँखें उन्हें उठाने झुकी युवती के शरीर पर दौड़ने लगीं।

फंदा

नीरज के सामने मेज़ पर पड़ी तस्वीरें उसके दामाद की बेवफाई की कहानी कह रही थीं। उसकी बेटी उसकी कमज़ोरी थी। इसी बात का फायदा उसके दामाद ने उठाया। बड़ी चालाकी से उसने बेटी के ज़रिए उसे निशाना बनाया।  अपनी धन संपत्ति की उसे परवाह नही थी। लेकिन बेटी के टूटे हुए दिल के टुकड़े उसका कलेजा चीरेंगे।

अपडेट

भीड़ इकठ्ठी देख मानव मोटरसाइकिल एक तरफ खड़ी कर देखने लगा। खून से लथपथ एक आदमी सड़क पर पड़ा था। कुछ लोग उसे पीट कर यहाँ छोड़ गए थे। मानव ने अपना मोबाइल निकाला और उस आदमी का वीडियो बना कर सोशल एकांउट पर पोस्ट कर दिया। घर पहुँच कर उसने चेक किया कि उसकी पोस्ट पर कितने लाइक और कमेंट आए हैं।

तांक-झांक

उसे दो साल हो गए थे सोसाइटी में आए किंतु कोई भी उसके बारे में कुछ नही जानता था. सिवाय उसके नाम 'अविनाश' के जो उसके फ्लैट के बंद दरवाजे पर लगी पट्टी पर लिखा था. सभी उसके बारे में जानने को उत्सुक थे. उसके जीवन के रहस्य को बाहर लाना चाहते थे. लेकिन वह सभी की पहुँच से बाहर था. अब तो लगता था कि सोसाइटी वालों के लिए उसके अलावा कोई अन्य जिज्ञासा नही बची थी. आज सोसाइटी की मीटिंग थी. वह कभी भी मीटिंग में नही आता था. लेकिम आज उसे वहाँ देख कर सब हैरान थे . मीटिंग सम्प्त होने के बाद वह सेक्रेटरी के पास गया और बोलने की इजाजत मांगी. हाथ जोड़ कर उसने सबको नमस्कार किया और फिर बोलना शुरू किया "आप सभी के लिए मैं अनबूझी पहेली हूँ. सभी जानना चाहते हैं कि मेरे फ्लैट के बंद दरवाजे के पीछे मैंने क्या राज़ छिपा रखा है. कोई गहरा राज़ नही है. बात बस इतनी है कि मुझे मेरी निजता बहुत प्यारी है. अनावश्यक ना मैं किसी के जीवन में दखल देता हूँ ना ही अपने जीवन में किसी का दखल पसंद करता हूँ. प्रकृति ने मुझे ऐसा ही बनाया है. अतः आप लोग जिज्ञासा का कोई और कारण ढूंढ लें." सभी चुपचाप सर झुकाए थे.

आत्मशक्ति

महेश गांव की ऊबड़ खाबड़ पगडंडी पर पैदल साइकिल लिए अपने घर जा रहा था। एक दिन और सरकारी अधिकारियों से मिलने और झूठे आश्वासनों में बीत गया था। पिछले कई महीनों से वह अपनी जमीन के लिए लड़ाई लड़ रहा था। गांव के एक दबंग ने उस पर जबरन कब्ज़ा कर लिया था। सूरज डूब रहा था। लेकिन उसकी उम्मीद का सूरज अभी भी चमक रहा था। कल फिर से कोशिश करेगा इस निश्चय के साथ वह अपनी साइकिल पकड़े चला जा रहा था।