वो दिन और दिनों की तरह ही सामान्य था। बुधवार 5 जून .....किन्तु मेरे और मेरे पति सुहास के लिए एक खास दिन था। इसी दिन पांच वर्ष पहले हमने एक दूजे का हाँथ थामा था जीवन के पथ पर साथ चलने के लिए। उस दिन की शाम के लिए हमनें कुछ प्लान बनाया था। रोज़ की तरह ही मैंने सुहास को विदा किया। फिर भाग कर बालकनी में आ गई। कुछ ही क्षणों में सुहास बिल्डिंग से बाहर जाते दिखाई पड़े। मैंने हाथ हिला कर उन्हें विदाई दी। उन्होंने भी ऊपर देख कर हाथ हिलाया। मैं सुहास को तब तक देखती रही जब तक वह नज़रों से ओझल नहीं हो गए।
मैं भीतर आकर अपना काम करने लगी। तकरीबन ग्यारह बजे होंगे की मेरे मोबाइल की घंटी बजी। मैनें फ़ोन उठाया तो मेरी ननद का था " भाभी सुहास भैया ठीक हैं न " उसकी आवाज में चिंता थी और वह घबराई हुई थी। " हाँ ठीक हैं ऑफिस गए हैं। क्यों क्या हुआ इतनी परेशान क्यों हो " "आपको कुछ भी नहीं पता न्यूज़ लगा कर देखिये , मैं भी पता करती हूँ " कहकर उसने फ़ौरन फ़ोन काट दिया। मैंने टी .वी . खोला न्यूज़ चैनल पर एक ट्रेन के कुछ जले हुए डब्बे दिखाई दिए। लोग बदहवास से इधर उधर भाग रहे थे। एक रिपोर्टर बोल रही थी 'आज सुबह करीब नौ बज के दस मिनट पर मुंबई की लोकल ट्रेन में ज़बरदस्त बम धमाके हुए। कई लोगों के मारे जाने की आशंका है। हालात नाज़ुक हैं चारों तरफ अफरा तफरी का माहौल है। अभी तक किसी भी आतंकवादी संघठन ने धमाकों की ज़िम्मेदारी नहीं ली है।'
मैं सन्न रह गयी कुछ देर तक कुछ भी समझ नहीं आया। मैंने खुद को झझकोरा और उन्हीं कपड़ों में घर से बाहर निकल गयी।
सुहास की तलाश में पूरे दिन इधर से उधर भटकती रही। शाम को जब निराश हो गयी तो सुहास मिले। एक अस्पताल के मुर्दाघर में। जीवन भर साथ निभाने का वादा करके मुझे अकेला छोड़ कर चले गए थे। मैं टूट चुकी थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेरी ननद और उसके पति ने मुझे संभाला।
समाचारपत्रों एवं टी . वी . कार्यक्रमों में देश की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर कई सवाल उठाये गए। बढ़ते हुए आतंकवाद पर चिंता जताई गयी। आतंकवाद को मुह तोड़ जवाब देने की कसमें खाई गयीं। लोगों ने कैंडिल मार्च निकाले, नेतओं ने बयानबाजियां कीं फिर धीरे धीरे सब कुछ शांत हो गया। ज़िन्दगी अपने ढर्रे पर लौट आई। वह हादसा महज़ एक तारीख बन कर रह गया।
मेरी ज़िन्दगी भी आगे बढ़ गयी। जीवन की राह पर मैंने अकेले चलना सीख लिया। रोज़ की ज़द्दोज़हद अब मुझे उतना परेशान नहीं करती है। किन्तु आज भी किसी गहरे ज़ख्म के निशान की तरह मेरे ज़ेहन में चस्पा है वो एक दिन। जो अक्सर टीस देता है।
http://www.tumbhi.com/artifactDetails.html?actionFlag=getArtifactDetails&artifactId=40998
मैं भीतर आकर अपना काम करने लगी। तकरीबन ग्यारह बजे होंगे की मेरे मोबाइल की घंटी बजी। मैनें फ़ोन उठाया तो मेरी ननद का था " भाभी सुहास भैया ठीक हैं न " उसकी आवाज में चिंता थी और वह घबराई हुई थी। " हाँ ठीक हैं ऑफिस गए हैं। क्यों क्या हुआ इतनी परेशान क्यों हो " "आपको कुछ भी नहीं पता न्यूज़ लगा कर देखिये , मैं भी पता करती हूँ " कहकर उसने फ़ौरन फ़ोन काट दिया। मैंने टी .वी . खोला न्यूज़ चैनल पर एक ट्रेन के कुछ जले हुए डब्बे दिखाई दिए। लोग बदहवास से इधर उधर भाग रहे थे। एक रिपोर्टर बोल रही थी 'आज सुबह करीब नौ बज के दस मिनट पर मुंबई की लोकल ट्रेन में ज़बरदस्त बम धमाके हुए। कई लोगों के मारे जाने की आशंका है। हालात नाज़ुक हैं चारों तरफ अफरा तफरी का माहौल है। अभी तक किसी भी आतंकवादी संघठन ने धमाकों की ज़िम्मेदारी नहीं ली है।'
मैं सन्न रह गयी कुछ देर तक कुछ भी समझ नहीं आया। मैंने खुद को झझकोरा और उन्हीं कपड़ों में घर से बाहर निकल गयी।
सुहास की तलाश में पूरे दिन इधर से उधर भटकती रही। शाम को जब निराश हो गयी तो सुहास मिले। एक अस्पताल के मुर्दाघर में। जीवन भर साथ निभाने का वादा करके मुझे अकेला छोड़ कर चले गए थे। मैं टूट चुकी थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेरी ननद और उसके पति ने मुझे संभाला।
समाचारपत्रों एवं टी . वी . कार्यक्रमों में देश की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर कई सवाल उठाये गए। बढ़ते हुए आतंकवाद पर चिंता जताई गयी। आतंकवाद को मुह तोड़ जवाब देने की कसमें खाई गयीं। लोगों ने कैंडिल मार्च निकाले, नेतओं ने बयानबाजियां कीं फिर धीरे धीरे सब कुछ शांत हो गया। ज़िन्दगी अपने ढर्रे पर लौट आई। वह हादसा महज़ एक तारीख बन कर रह गया।
मेरी ज़िन्दगी भी आगे बढ़ गयी। जीवन की राह पर मैंने अकेले चलना सीख लिया। रोज़ की ज़द्दोज़हद अब मुझे उतना परेशान नहीं करती है। किन्तु आज भी किसी गहरे ज़ख्म के निशान की तरह मेरे ज़ेहन में चस्पा है वो एक दिन। जो अक्सर टीस देता है।
http://www.tumbhi.com/artifactDetails.html?actionFlag=getArtifactDetails&artifactId=40998
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें