रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - ईदी
फैज़ अपने कमरे में आईने के सामने खड़ा तैयार हो रहा था। तभी निखत ने कमरे में प्रवेश किया " ईद मुबारक भाईजान।" "ईद मुबारक" कह कर फैज़ ने अपनी छोटी बहन को गले लगा लिया।
फिर उसे छेड़ते हुए कहा " काट आई सबकी जेबें, बटोर ली ईदी"
" कहाँ भाईजान सब के सब कंजूस हैं। बड़े अब्बू तो अभी तक सिर्फ ५० रुपये पर अटके हैं। आजकल ५० रुपये में कहीं कुछ होता है। लेकिन आप सस्ते में नहीं छूटेंगे। मुझे तो नया स्मार्ट फ़ोन चाहिए। मेरी सारी फ्रेंड्स के पास है।"
" ठीक है दिला दूंगा।"
" थैंक्स भाईजान" कह कर निखत उसके गले से झूल गई।
अख्तर साहब तखत पर लेटे थे। अब शरीर साथ नहीं देता है। बड़ी जल्दी थक जाते हैं। अपनी कोई औलाद नहीं है। छोटे भाइयों के बच्चों को दिलो जान से चाहते हैं। सभी उन्हें बड़े अब्बू कह कर बुलाते हैं। सभी बच्चों को ईदी बाँट कर वो तखत पर आँख मूँद कर लेट गए। सिर्फ फैज़ ही बचा है। पर उसे क्या दें। इतनी बड़ी कंपनी में इतने ऊंचे ओहदे पर है, वो भी इतनी कम उम्र में। सारी बिरादरी में नाम रोशन कर दिया उसने। बचपन में कितना शरारती था। उन्हें तो लगता था नालायक कुछ नहीं कर पायेगा। पर अब जब भी लोगों को उसके बारे में बताते हैं तो फक्र से सीना चौड़ा हो जाता है। आँखों के पोर नाम हो जाते हैं और अक्सर आवाज़ लरज़ जाती है।
अख्तर साहब अपनी आँखें मूंदे लेटे थे तभी फैज़ ने कमरे में प्रवेश किया " ईद मुबारक बड़े अब्बू"
अख्तर साहब ने आँखें खोलीं और उठ कर फैज़ के गले लग गए " ईद मुबारक, खुदा तुम्हें खूब तरक्की दे।"
फैज़ ने उन्हें तखत पर बैठा कर उनके सामने अपनी हथेली पसार दी।
" ये क्या " अख्तर साहब ने अचरज से पूंछा।
" मेरी ईदी "
" पर" अख्तर साहब ने कुछ सकुचाते हुए कहा
" पर क्या बड़े अब्बू आपने सबको ईदी दी किन्तु मुझे नहीं दी। लाइये निकालिए मेरी ईदी।"
अख्तर साहब कुछ समय तक उसे देखते रहे। फिर अपने कुरते की जेब से एक ५० रुपये का नोट निकाल कर फैज़ को दे दिया। नोट देते हुए वो ख़ुशी से गदगद थे। आज भी उनके फैज़ को उनकी ईदी की इतनी कद्र थी।
फैज़ की आँखों में भी चमक थी जैसे कभी दस बरस के फैज़ की आँखों में होती थी।
फैज़ अपने कमरे में आईने के सामने खड़ा तैयार हो रहा था। तभी निखत ने कमरे में प्रवेश किया " ईद मुबारक भाईजान।" "ईद मुबारक" कह कर फैज़ ने अपनी छोटी बहन को गले लगा लिया।
फिर उसे छेड़ते हुए कहा " काट आई सबकी जेबें, बटोर ली ईदी"
" कहाँ भाईजान सब के सब कंजूस हैं। बड़े अब्बू तो अभी तक सिर्फ ५० रुपये पर अटके हैं। आजकल ५० रुपये में कहीं कुछ होता है। लेकिन आप सस्ते में नहीं छूटेंगे। मुझे तो नया स्मार्ट फ़ोन चाहिए। मेरी सारी फ्रेंड्स के पास है।"
" ठीक है दिला दूंगा।"
" थैंक्स भाईजान" कह कर निखत उसके गले से झूल गई।
अख्तर साहब तखत पर लेटे थे। अब शरीर साथ नहीं देता है। बड़ी जल्दी थक जाते हैं। अपनी कोई औलाद नहीं है। छोटे भाइयों के बच्चों को दिलो जान से चाहते हैं। सभी उन्हें बड़े अब्बू कह कर बुलाते हैं। सभी बच्चों को ईदी बाँट कर वो तखत पर आँख मूँद कर लेट गए। सिर्फ फैज़ ही बचा है। पर उसे क्या दें। इतनी बड़ी कंपनी में इतने ऊंचे ओहदे पर है, वो भी इतनी कम उम्र में। सारी बिरादरी में नाम रोशन कर दिया उसने। बचपन में कितना शरारती था। उन्हें तो लगता था नालायक कुछ नहीं कर पायेगा। पर अब जब भी लोगों को उसके बारे में बताते हैं तो फक्र से सीना चौड़ा हो जाता है। आँखों के पोर नाम हो जाते हैं और अक्सर आवाज़ लरज़ जाती है।
अख्तर साहब अपनी आँखें मूंदे लेटे थे तभी फैज़ ने कमरे में प्रवेश किया " ईद मुबारक बड़े अब्बू"
अख्तर साहब ने आँखें खोलीं और उठ कर फैज़ के गले लग गए " ईद मुबारक, खुदा तुम्हें खूब तरक्की दे।"
फैज़ ने उन्हें तखत पर बैठा कर उनके सामने अपनी हथेली पसार दी।
" ये क्या " अख्तर साहब ने अचरज से पूंछा।
" मेरी ईदी "
" पर" अख्तर साहब ने कुछ सकुचाते हुए कहा
" पर क्या बड़े अब्बू आपने सबको ईदी दी किन्तु मुझे नहीं दी। लाइये निकालिए मेरी ईदी।"
अख्तर साहब कुछ समय तक उसे देखते रहे। फिर अपने कुरते की जेब से एक ५० रुपये का नोट निकाल कर फैज़ को दे दिया। नोट देते हुए वो ख़ुशी से गदगद थे। आज भी उनके फैज़ को उनकी ईदी की इतनी कद्र थी।
फैज़ की आँखों में भी चमक थी जैसे कभी दस बरस के फैज़ की आँखों में होती थी।
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