सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गाँठ

बहुत कश्मकश के बाद विनीता ने फोन मिलाया। उधर से आवाज़ आई 'हैलो'। विनीता ने कुछ कहना चाहा किन्तु कह नहीं पाई। उसका गला रुंध गया। 
" हैलो, विनीता क्या हुआ, कुछ बोलती क्यों नहीं? तुम ठीक तो हो न? " 
विनीता ने बहुत रोका किन्तु बाँध टूट गया। वह फोन पर रोने लगी। 
" विनीता तुम रो क्यों रही हो? क्या बात है? बताओ न। अच्छा ठहरो मैं वहाँ आता हूँ। "
दो साल पहले उसने और रंजन ने अपनी राहें जुदा कर ली थीं। न जाने क्यों हालात उनके खिलाफ हो गए थे।एक राह पर चलते हुए उनके बीच तल्खियां पैदा हो गयी थीं। इसलिए दोनों अलग हो गए। 
अभी कुछ दिन पहले ही उसने अपने वक्ष पर एक गाँठ देखी थी।  जांच कराने पर पता चला कि उसे ब्रेस्ट कैंसर है। यूँ तो ज़िन्दगी में उसने कई संघर्ष अकेले ही जीते थे। किन्तु इस समय जीवन मुट्ठी में फँसी रेत की  तरह था जो तेजी से फिसलती जा रही थी। अतः वह धैर्य नहीं रख सकी। इस समय उसे किसी के साथ की बहुत ज़रुरत थी।  विनीता जानती थी कि सच्चे प्रेम का अर्थ यदि उसने किसी के साथ जाना है तो वह रंजन ही है। अतः दुःख  की इस घड़ी  में उसने रंजन को ही पुकारा।
दरवाज़े कि घंटी बजी। विनीता ने दरवाज़ा खोला। सामने रंजन था। 
" ये क्या हो गया है तुम्हें। चेहरा मुरझा गया है। " 
विनीता उसके वक्ष से लिपट गई। उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। उनके साथ उसके भीतर जमा हुआ दुःख भी बाहर निकल रहा था। रंजन उसे सांत्वना दे रहा था। सारी रात यूँ ही बीत गई। उनके रिश्ते में पड़ी गाँठ अब खुल गयी थी। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ना मे हाँ

सब तरफ चर्चा थी कि गीता पुलिस थाने के सामने धरने पर बैठी थी। उसने अजय के खिलाफ जो शिकायत की थी उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई थी।  पिछले कई महीनों से गीता बहुत परेशान थी। कॉलेज आते जाते अजय उसे तंग करता था। वह उससे प्रेम करने का दावा करता था। गीता उसे समझाती थी कि उसे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। वह सिर्फ पढ़ना चाहती है। लेकिन अजय हंस कर कहता कि लड़की की ना में ही उसकी हाँ होती है।  गीता ने बहुत कोशिश की कि बात अजय की समझ में आ जाए कि उसकी ना का मतलब ना ही है। पर अजय नहीं समझा। पुलिस भी कछ नहीं कर रही थी। हार कर गीता यह तख्ती लेकर धरने पर बैठ गई कि 'लड़की की ना का सम्मान करो।'  सभी उसकी तारीफ कर रहे थे।

गुमसुम

अपने पापा के सामने बैठा विपुल बहुत उदास था. उसके जीवन में इतनी बड़ी खुशी आई थी किंतु उसके पापा उदासीन बैठे थे. तीन साल पहले हुए हादसे ने उससे उसके पिता को छीन लिया था. उसके पापा की आंखों के सामने ही नदी की तेज़ धारा मम्मी को बहा कर ले गई थी. उस दिन से उसके पिता जैसे अपने भीतर ही कहीं खो गए थे. विपुल ने बहुत प्रयास किया कि किसी तरह उनकी उस अंदरूनी दुनिया में प्रवेश कर सके. परंतु उसकी हर कोशिश नाकामयाब रही. इस नाकामयाबी का परिणाम यह हुआ कि वह स्वयं की निराशा के अंधेरे में खोने लगा. ऐसे में अपने शुभचिंतकों की बात मान कर उसने विवाह कर अपने जीवन को एक नई दिशा दी. वह निराशा के भंवर से उबरने लगा. लेकिन अपने पापा की स्थिति पर उसे दुख होता था. दस दिन पहले जन्मी अपनी बच्ची के रोने की आवाज़ उसे उसके विचारों से बाहर ले आई. वह उसके पालने के पास गया. उसकी पत्नी सो रही थी. उसने पूरे एहतियात से बच्ची को उठाया और उसे लेकर अपने पापा के पास आ गया. विपुल ने बच्ची को अपने पिता के हाथों में सौंप दिया. बच्ची उन्हें देख कर मुस्कुरा दी. कुछ देर उसै देखने के बाद उन्होंने उसे उठाया और सीने से लगा लिया. विप...

केंद्र बिंदु

पारस देख रहा था कि आरव का मन खाने से अधिक अपने फोन पर था। वह बार बार मैसेज चेक कर रहा था। सिर्फ दो रोटी खाकर वह प्लेट किचन में रखने के लिए उठा तो पारस ने टोंक दिया। "खाना तो ढंग से खाओ। जल्दी किस बात की है तुम्हें।" "बस पापा मेरा पेट भर गया।" कहते हुए वह प्लेट किचन में रख अपने कमरे में चला गया। पारस का मन भी खाने से उचट गया। उसने प्लेट की रोटी खत्म की और प्लेट किचन में रख आया। बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर वह भी अपने कमरे में चला गया। लैपटॉप खोल कर वह ऑफिस का काम करने लगा। पर काम में उसका मन नही लग रहा था। वह आरव के विषय में सोच रहा था। उसने महसूस किया था कि पिछले कुछ महीनों में आरव के बर्ताव में बहुत परिवर्तन आ गया है। पहले डिनर का समय खाने के साथ साथ आपसी बातचीत का भी होता था। आरव उसे स्कूल में क्या हुआ इसका पूरा ब्यौरा देता था। किंतु जबसे उसने कॉलेज जाना शुरू किया है तब से बहुत कम बात करता है। इधर कुछ दिनों से तो उसका ध्यान ही जैसे घर में नही रहता था। पारस सोचने लगा। उम्र का तकाज़ा है। उन्नीस साल का हो गया है अब वह। नए दोस्त नया माहौल इस सब में उसने अपनी अलग दुनि...