उसकी गोद में किताब यूँ है खुली पड़ी थी। प्याले में पड़ी पड़ी चाय भी ठंडी हो गई थी। किंतु ऊषा अपने विचारों में खोई हुई थी। एक कश्मकश उसके दिल में चल रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि हाँ करे या ना।
वैसे कोई बड़ी बात नहीं थी। उसके सहकर्मी अनुज ने उसके सामने डिनर पर चलने का प्रस्ताव रखा था। यह पहली बार था जब उसे अपने बारे में कोई फैसला करना था। अब तक तो उसका जीवन दूसरों के बारे में सोचने में ही गुज़र गया। पिता के ना रहने पर परिवार क़ा बोझ उसके कन्धों पर आ गया। जब तक ज़िम्मेदारियाँ पूरी हुईं उम्र का एक हिस्सा गुजर चुका था। उसके पास उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं था।
वह एकदम अकेली थी। उसने अपने इर्द गिर्द एक मज़बूत दीवार सी खड़ी कर ली थी। कोई भी उस दीवार के पार झांक नहीं सकता था। उसने अपनी सारी भावनाओं को कुचल कर स्वयं को रुटीन में बंधी ज़िन्दगी के सुपुर्द कर दिया था।
इस साल के एकेडेमिक सेसन की शुरुआत में अनुज ने स्कूल ज्वाइन किया। उसके आने से स्टाफ़रूम के माहौल में एक ताज़गी सी आ गई। उसका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक था। सभी से खुल कर मिलना, हंस कर बात करना, सबके सुख दुःख में शामिल होना ये सारी बातें सबका मन मोह लेती थीं। उसने लाख कोशिश की किंतु ख़ुद को उस आकर्षण से बचा नहीं पाई।
उसके इर्द गिर्द खींची गई दीवार में दरारें पड़ने लगी थीं और उनके बीच से अनुज भीतर झांकने लगा। जिस जीवन को उसने बंजर ज़मीन का टुकड़ा बना लिया था उसमें अनुज ने आशा और सम्भावनाओं के फूल खिला दिए थेेेे। धीरे धीरे वह बदलने लगी थी। अब चलते फिरते ख़ुद को आईने में निहार लेती थी। कस कर बाँधी जाने वाली चोटी अब खुल चुकी थी।
अचानक ही उस दिन अनुज ने उसके सामने डिनर का प्रस्ताव रख दिया। वह ऐसी परिस्तिथी के लिए तैयार नहीं थी। उसे असमंजस में पड़ा देख कर अनुज ने उसे आश्वासन दिया " कोई बात नहीं आपके पास संडे दोपहर तक क़ा समय है। इत्मिनान से सोंच कर फोन कर दीजियेगा। "
आज सुबह से ही वह परेशान थी कि क्या करे। किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था। उसने खुली हुई किताब को बंद कर दिया। उठ कर कमरे की खिड़कियां खोल दीं। बाहर बालकनी में आकर खड़ी हो गई। बहुत सुहानी शाम थी। उसने एक नए निश्चय के साथ सूरज के लाल गोले को देखा फिर अपने फोन पर नंबर डॉयल करने लगी।
http://www.tumbhi.com/writing/short-stories/naya-aasmaan/ashish-trivedi/53671#.U7uF2pK_oT8.facebook
वैसे कोई बड़ी बात नहीं थी। उसके सहकर्मी अनुज ने उसके सामने डिनर पर चलने का प्रस्ताव रखा था। यह पहली बार था जब उसे अपने बारे में कोई फैसला करना था। अब तक तो उसका जीवन दूसरों के बारे में सोचने में ही गुज़र गया। पिता के ना रहने पर परिवार क़ा बोझ उसके कन्धों पर आ गया। जब तक ज़िम्मेदारियाँ पूरी हुईं उम्र का एक हिस्सा गुजर चुका था। उसके पास उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं था।
वह एकदम अकेली थी। उसने अपने इर्द गिर्द एक मज़बूत दीवार सी खड़ी कर ली थी। कोई भी उस दीवार के पार झांक नहीं सकता था। उसने अपनी सारी भावनाओं को कुचल कर स्वयं को रुटीन में बंधी ज़िन्दगी के सुपुर्द कर दिया था।
इस साल के एकेडेमिक सेसन की शुरुआत में अनुज ने स्कूल ज्वाइन किया। उसके आने से स्टाफ़रूम के माहौल में एक ताज़गी सी आ गई। उसका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक था। सभी से खुल कर मिलना, हंस कर बात करना, सबके सुख दुःख में शामिल होना ये सारी बातें सबका मन मोह लेती थीं। उसने लाख कोशिश की किंतु ख़ुद को उस आकर्षण से बचा नहीं पाई।
उसके इर्द गिर्द खींची गई दीवार में दरारें पड़ने लगी थीं और उनके बीच से अनुज भीतर झांकने लगा। जिस जीवन को उसने बंजर ज़मीन का टुकड़ा बना लिया था उसमें अनुज ने आशा और सम्भावनाओं के फूल खिला दिए थेेेे। धीरे धीरे वह बदलने लगी थी। अब चलते फिरते ख़ुद को आईने में निहार लेती थी। कस कर बाँधी जाने वाली चोटी अब खुल चुकी थी।
अचानक ही उस दिन अनुज ने उसके सामने डिनर का प्रस्ताव रख दिया। वह ऐसी परिस्तिथी के लिए तैयार नहीं थी। उसे असमंजस में पड़ा देख कर अनुज ने उसे आश्वासन दिया " कोई बात नहीं आपके पास संडे दोपहर तक क़ा समय है। इत्मिनान से सोंच कर फोन कर दीजियेगा। "
आज सुबह से ही वह परेशान थी कि क्या करे। किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था। उसने खुली हुई किताब को बंद कर दिया। उठ कर कमरे की खिड़कियां खोल दीं। बाहर बालकनी में आकर खड़ी हो गई। बहुत सुहानी शाम थी। उसने एक नए निश्चय के साथ सूरज के लाल गोले को देखा फिर अपने फोन पर नंबर डॉयल करने लगी।
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