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रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - सुबह की सैर

रचनाकार: आशीष त्रिवेदी की लघुकथा - सुबह की सैर

शाम के समय मि . मलिक बाहर बरामदे में बैठ कर  अखबार पढ़  रहे थे तभी उनकी बेटी रश्मी चाय लेकर आई। चाय का प्याला पकड़ते हुए उन्होंने पूछा " कुछ सोंचा आगे क्या करना है।" रश्मी वहीं कुर्सी पर बैठ गई   " सोचना क्या है अब मैं वहाँ वापस नहीं जाऊंगी। सोच रही थी कि अपने पुराने ऑफिस जाकर पता करूं शायद कोई काम बन जाए।"    "पूरी ज़िन्दगी का सवाल है जो भी फैसला लेना सोच समझ कर लेना।"  मि . मालिक ने समझाया। " "इस बार फैसला मेरे हाथ में है पापा सोच समझकर ही लूंगी।" यह कह कर रश्मी चली गई।
मि . मलिक सोच में पड़ गए। रश्मी क्या कहना चाहती थी। क्या वो अपनी इस स्तिथि के लिए उन्हें दोष दे रही थी। उन्होंने तो सब कुछ देख परख कर ही किया था। रश्मी और दामाद के बीच सब सही चल रहा था। किन्तु पिछले एक वर्ष से उनके बीच तनाव बढ़ गया। वजह क्या थी रश्मी ने कभी खुल कर नहीं बताया। बस एक दिन अचानक घर छोड़ कर मायके आ गई।
मि . मलिक और संघर्ष का पुराना सम्बन्ध था। पिता के असामायिक निधन के कारण छोटी उम्र में ही घर की ज़िम्मेदारी उनके कंधे पर आ गई। अतः उन्हें घर चलाने के लिए नौकरी करनी पड़ी। किन्तु जीवन में कुछ करने की चाह के कारण उन्होंने काम के साथ साथ पढ़ाई भी ज़ारी रखी। बड़े परिश्रम से उन्होंने अपने लिए एक मुकाम बनाया। तिनका तिनका जोड़कर उन्होंने यह गृहस्ती बनायी थी। किन्तु अब सब कुछ बिखरता सा लगता है।
बेटा राकेश  कुछ ख़ास नहीं कर सका। अपने जीवन की जमा पूँजी से उन्होंने उसे व्यापार शुरू कराया किन्तु उसका मन उसमे भी नहीं लगता है। आए दिन दुकान बंद रहती है। कितनी बार उन्होंने समझाया कि उस पर उसके बीवी बच्चे की ज़िम्मेदारी है। अतः अपनी ज़िम्मेदारी समझे किन्तु वह ध्यान नहीं देता है। आज भी सुबह सुबह ही वह अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर अपनी ससुराल चला गया।
चाय पीकर मि . मलिक किसी काम से बाहर चले गए । लौटने में रात के ९ बज गए। खाना खाने बैठे तो पता चला की राकेश अभी तक वापस नहीं आया है। खाना खाकर वो राकेश के लौटने की प्रतीक्षा करने लगे। उनकी पत्नी भी साथ थीं। करीब दस बजे जब राकेश लौटा तो मि . मलिक ने उसे बुलाकर समझाते हुए कहा " आज भी दुकान नहीं खोली। इस तरह कैसे चलेगा। ऐसे तो एक दिन दुकान बंद हो जायेगी। अपनी ज़िम्मेदारी समझो। यह सब तुम्हे ही संभालना है।"  राकेश कुछ नहीं बोला चुप चाप अपने कमरे में चला गया किन्तु उसकी पत्नी वहीं रुक गई " ऐसा नहीं की हमें अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं किन्तु हमारा भी अपना जीवन है। माना  की पैसे आप ने लगाए हैं किन्तु बात बात में टोकना ठीक नहीं।" यह कह कर वह तेज़ी से अपने कमरे में चली गई।
मि .  मालिक अवाक रह गए। उन्होंने अपनी पत्नी की ओर कुछ ऐसे देखा जैसे कह रहे हों कि  देखा तुमने।
" मैं तो पहले ही कह रही थी कि चल कर सो जाओ। सब अपना भला बुरा समझने के लायक हैं। किन्तु आप तो किसी की सुनते नहीं हैं। क्या ज़रुरत है उनके बीच दखल देने की।" यह कह कर वह भी सोने चली गयीं।
मि . मालिक भी आकर लेट गए किन्तु उन्हें नीद नहीं आ रही थी। मन में विचारों का बवंडर चल रहा था। उनके मन में पीड़ा थी। उन्हें ऐसा लग रहा था कि सब कुछ रेत की तरह हाथों से फिसलता जा रहा है। हर कोई उन्हें ही दोष देता है। जिसके साथ पैंतालिस वर्ष बिताये आज वो भी उन्हें ही गलत ठहरा रही है। बहुत देर तक यही सब सोचते हुए न जाने कब उन्हें नींद आ गई।
घडी का अलार्म सुन कर वह जागे। सुबह के पांच बजे थे। आज मन और तन दोनों थके हुए थे। किन्तु उनका नियम पिछले पच्चीस वर्षों से कायम था। वो उठे तैयार हुए अपनी टोपी लगाई और बेंत हाथ में लेकर सुबह की सैर को चल दिए। सुबह की ताज़ी हवा ने मन की सारी पीड़ा हर ली। सब कुछ भूल कर वो सैर करने लगे।





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