रचनाकार: आशीष कुमार त्रिवेदी की लघुकथा - तुम बिन
सुनीता जल्दी जल्दी काम निपटा कर अपने कमरे में आ गयी। अपना फ़ोन उसने अपने पास रख लिया। वह अजय के फ़ोन का इन्तजार करने लगी। फ़ोन की घंटी बजते ही उसने फ़ोन उठा लिया। दोनों पति पत्नी एक दूसरे से अपने मन की बात करने लगे।
उनके विवाह को चार महीने ही हुए थे कि अजय को काम के लिए मुंबई जाना पड़ा। एक मोबाइल फ़ोन ही था जो उनके बीच संपर्क का सूत्र था। जिसके ज़रिये वो दोनों एक दूसरे का सुख दुःख बांट लेते थे। अक्सर अजय सुनीता को बताता की मुंबई में जीवन कितना कठिन है। आपाधापी और घुटन से भरी ज़िंदगी में अक्सर उसका मन गाँव के खुले वातावरण और सुकून भरी ज़िन्दगी के लिए तड़प उठता है। अकेलापन उसे काटने को दौड़ता है और वह चाहता है की वह उड़ कर सुनीता के पास पहुँच जाये।
सुनीता का भी यही हाल था। अजय के बिना उसे सब कुछ बेरंग लगता था। दिन भर वह स्वयं को घर के कार्यों में व्यस्त रखती किन्तु सारा काम निपटा कर जब रात को वह अपने कमरे में आती तो एक अजीब सा सूनापन उसे घेर लेता। जब भी अजय फ़ोन पर बहुत उदास होता सुनीता उसे ढाढस बंधाती। उस से कहती कि वह परेशान न हो सब कुछ सही हो जायेगा। वह अपने मन का हाल भी उसे नहीं बताती थी ताकी वह परेशान न हो।
अजय ने बहुत प्रयास किया था की उसे वहीं कोई अच्छा काम मिल जाए किन्तु उसे कोई ढंग का काम नहीं मिला। उसके पिता का स्वास्थ ठीक नहीं रहता था और कुछ ही समय में वो अवकाश ग्रहण करने वाले थे। अतः अजय के लिए जल्द से जल्द अपने पाँव पर खड़े होना ज़रूरी था। उसके फूफा कई वर्षों से मुंबई में थे। वो किसी फिल्म कंपनी के प्रोडक्शन विभाग में काम करते थे। उन्होंने अजय को आश्वाशन दिया की वह मुंबई चला आये। वो उसे वहां कोई काम दिला देंगे। अतः अजय उनके पास मुंबई चला गया।
अजय को मुंबई गए तकरीबन तीन माह हो गए थे। मौसम ने नई करवट ली थी। रेशम जैसी मुलायम लगने वाली धूप अब देह को जलाने लगी थी। होली आने वाली थी। सभी लोग होली की तैयारियों में लगे थे। सुनीता भी अपनी सास के साथ पकवान बना रही थी किन्तु होली के प्रति उसके मन में कोई उत्साह नहीं था। अजय ने अपने आने के बारे में कुछ नहीं बताया था। अजय के बिना उसके लिए होली के रंग फीके थे।
सभी ने होलिका दहन किया और एक दूसरे को होली की बधाई दी। उसके घर के बाहर चबूतरे पर गाँव के कुछ लोग फगुआ गा रहे थे । इस सारी चहल पहल में सुनीता बहुत उदास थी। वह घर के आँगन में चुप चाप बैठी थी। तभी किसी ने पीछे से उसके गलों पर गुलाल मल दिया। उसने पलट कर देखा तो उसके सामने अजय खड़ा था। वह ख़ुशी से उछल पड़ी। अजय होली के त्यौहार के लिए कुछ दिन की छुट्टी लेकर आया था। होली अपने साथ वो सारे रंग लेकर आई थी जो अजय के विरह में उसके जीवन से चले गए थे।
सुनीता जल्दी जल्दी काम निपटा कर अपने कमरे में आ गयी। अपना फ़ोन उसने अपने पास रख लिया। वह अजय के फ़ोन का इन्तजार करने लगी। फ़ोन की घंटी बजते ही उसने फ़ोन उठा लिया। दोनों पति पत्नी एक दूसरे से अपने मन की बात करने लगे।
उनके विवाह को चार महीने ही हुए थे कि अजय को काम के लिए मुंबई जाना पड़ा। एक मोबाइल फ़ोन ही था जो उनके बीच संपर्क का सूत्र था। जिसके ज़रिये वो दोनों एक दूसरे का सुख दुःख बांट लेते थे। अक्सर अजय सुनीता को बताता की मुंबई में जीवन कितना कठिन है। आपाधापी और घुटन से भरी ज़िंदगी में अक्सर उसका मन गाँव के खुले वातावरण और सुकून भरी ज़िन्दगी के लिए तड़प उठता है। अकेलापन उसे काटने को दौड़ता है और वह चाहता है की वह उड़ कर सुनीता के पास पहुँच जाये।
सुनीता का भी यही हाल था। अजय के बिना उसे सब कुछ बेरंग लगता था। दिन भर वह स्वयं को घर के कार्यों में व्यस्त रखती किन्तु सारा काम निपटा कर जब रात को वह अपने कमरे में आती तो एक अजीब सा सूनापन उसे घेर लेता। जब भी अजय फ़ोन पर बहुत उदास होता सुनीता उसे ढाढस बंधाती। उस से कहती कि वह परेशान न हो सब कुछ सही हो जायेगा। वह अपने मन का हाल भी उसे नहीं बताती थी ताकी वह परेशान न हो।
अजय ने बहुत प्रयास किया था की उसे वहीं कोई अच्छा काम मिल जाए किन्तु उसे कोई ढंग का काम नहीं मिला। उसके पिता का स्वास्थ ठीक नहीं रहता था और कुछ ही समय में वो अवकाश ग्रहण करने वाले थे। अतः अजय के लिए जल्द से जल्द अपने पाँव पर खड़े होना ज़रूरी था। उसके फूफा कई वर्षों से मुंबई में थे। वो किसी फिल्म कंपनी के प्रोडक्शन विभाग में काम करते थे। उन्होंने अजय को आश्वाशन दिया की वह मुंबई चला आये। वो उसे वहां कोई काम दिला देंगे। अतः अजय उनके पास मुंबई चला गया।
अजय को मुंबई गए तकरीबन तीन माह हो गए थे। मौसम ने नई करवट ली थी। रेशम जैसी मुलायम लगने वाली धूप अब देह को जलाने लगी थी। होली आने वाली थी। सभी लोग होली की तैयारियों में लगे थे। सुनीता भी अपनी सास के साथ पकवान बना रही थी किन्तु होली के प्रति उसके मन में कोई उत्साह नहीं था। अजय ने अपने आने के बारे में कुछ नहीं बताया था। अजय के बिना उसके लिए होली के रंग फीके थे।
सभी ने होलिका दहन किया और एक दूसरे को होली की बधाई दी। उसके घर के बाहर चबूतरे पर गाँव के कुछ लोग फगुआ गा रहे थे । इस सारी चहल पहल में सुनीता बहुत उदास थी। वह घर के आँगन में चुप चाप बैठी थी। तभी किसी ने पीछे से उसके गलों पर गुलाल मल दिया। उसने पलट कर देखा तो उसके सामने अजय खड़ा था। वह ख़ुशी से उछल पड़ी। अजय होली के त्यौहार के लिए कुछ दिन की छुट्टी लेकर आया था। होली अपने साथ वो सारे रंग लेकर आई थी जो अजय के विरह में उसके जीवन से चले गए थे।
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