सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मोहनी

मूर्तिकार ने अपने जीवन की सर्वोत्तम रचना पूर्ण की और उसे निहारने लगा। "सुंदर लगता है अभी बोल उठेगी" अपनी रचना को देख कर अनायास ही उसके मुख से निकल गया। श्रम से क्लांत वह भूमि पर लेट गया और एकटक उसे देखने लगा। देखते देखते ही वह सो गया।
रात्रि के तीसरे प्रहार अचानक उस प्रस्तर की प्रतिमा में कम्पन हुआ और वह एक सुंदर यवती में बदल गयी। उसकी कांति से चारों तरफ उजाला हो गया। उसने मूर्तिकार को प्रेम भरे नेत्रों से देखा। एक प्रेयसी की भांति भूमि पर बैठ कर वह उसका माथा सहलाने लगी। मूर्तिकार की नींद टूटी तो उसने देखा की उसकी रचना जीवित हो गयी है। उसे देख कर वह बोला "तुम तो और अधिक सुंदर हो। मेरे मन को मोह रही हो। आज से तुम्हारा नाम मोहनी है।"
मूर्तिकार और मोहनी ने मिलकर एक घर बसाया। अपने समर्पण और प्रेम से मोहिनी ने मूर्तिकार का जीवन खुशियों से भर दिया। दोनों सुखपूर्वक एक दूसरे के साथ जीवन बिताने लगे। बहुत वर्ष बीत गए। समय के साथ साथ मोहिनी का प्रेम और गहरा हो गया। किन्तु मूर्तिकार का मोहिनी के लिए आकर्षण कम होने लगा। उसका मन चंचल भंवरे की भांति इधर उधर भटकने लगा। एक दिन वह एक नए पुष्प पर जा बैठा।
मोहिनी को जब इस बात का पता चला तो वह बहुत दुखी हुई। उसने मूर्तिकार से शिकायत की " प्रिय मैं तो आपकी सहचरी हूँ फिर आपने मेरे साथ  ऐसा क्यों किया।"  मूर्तिकार को उसका प्रश्न करना आखर गया। उसका अहम् आहत हुआ।  क्रोध में बोला   " तुम मेरी रचना हो, मेरी संपत्ति तुम्हें आपत्ति का अधिकार नहीं है।" यह कह कर वह पैर पटकता हुआ घर से चला गया।
मोहिनी का ह्रदय विदीर्ण हो गया। उसके ह्रदय के सारे भाव लुप्त हो गए। वह निढाल हो भूमि पर बैठ गयी और पुनः पत्थर की बन गयी। मूर्तिकार के घर की सारी कांति विलीन हो गई।

http://www.tumbhi.com/writing/short-stories/mohini/ashish-trivedi/44299#.U8YHX-7ybWE.facebook

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ना मे हाँ

सब तरफ चर्चा थी कि गीता पुलिस थाने के सामने धरने पर बैठी थी। उसने अजय के खिलाफ जो शिकायत की थी उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई थी।  पिछले कई महीनों से गीता बहुत परेशान थी। कॉलेज आते जाते अजय उसे तंग करता था। वह उससे प्रेम करने का दावा करता था। गीता उसे समझाती थी कि उसे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। वह सिर्फ पढ़ना चाहती है। लेकिन अजय हंस कर कहता कि लड़की की ना में ही उसकी हाँ होती है।  गीता ने बहुत कोशिश की कि बात अजय की समझ में आ जाए कि उसकी ना का मतलब ना ही है। पर अजय नहीं समझा। पुलिस भी कछ नहीं कर रही थी। हार कर गीता यह तख्ती लेकर धरने पर बैठ गई कि 'लड़की की ना का सम्मान करो।'  सभी उसकी तारीफ कर रहे थे।

गुमसुम

अपने पापा के सामने बैठा विपुल बहुत उदास था. उसके जीवन में इतनी बड़ी खुशी आई थी किंतु उसके पापा उदासीन बैठे थे. तीन साल पहले हुए हादसे ने उससे उसके पिता को छीन लिया था. उसके पापा की आंखों के सामने ही नदी की तेज़ धारा मम्मी को बहा कर ले गई थी. उस दिन से उसके पिता जैसे अपने भीतर ही कहीं खो गए थे. विपुल ने बहुत प्रयास किया कि किसी तरह उनकी उस अंदरूनी दुनिया में प्रवेश कर सके. परंतु उसकी हर कोशिश नाकामयाब रही. इस नाकामयाबी का परिणाम यह हुआ कि वह स्वयं की निराशा के अंधेरे में खोने लगा. ऐसे में अपने शुभचिंतकों की बात मान कर उसने विवाह कर अपने जीवन को एक नई दिशा दी. वह निराशा के भंवर से उबरने लगा. लेकिन अपने पापा की स्थिति पर उसे दुख होता था. दस दिन पहले जन्मी अपनी बच्ची के रोने की आवाज़ उसे उसके विचारों से बाहर ले आई. वह उसके पालने के पास गया. उसकी पत्नी सो रही थी. उसने पूरे एहतियात से बच्ची को उठाया और उसे लेकर अपने पापा के पास आ गया. विपुल ने बच्ची को अपने पिता के हाथों में सौंप दिया. बच्ची उन्हें देख कर मुस्कुरा दी. कुछ देर उसै देखने के बाद उन्होंने उसे उठाया और सीने से लगा लिया. विप...

केंद्र बिंदु

पारस देख रहा था कि आरव का मन खाने से अधिक अपने फोन पर था। वह बार बार मैसेज चेक कर रहा था। सिर्फ दो रोटी खाकर वह प्लेट किचन में रखने के लिए उठा तो पारस ने टोंक दिया। "खाना तो ढंग से खाओ। जल्दी किस बात की है तुम्हें।" "बस पापा मेरा पेट भर गया।" कहते हुए वह प्लेट किचन में रख अपने कमरे में चला गया। पारस का मन भी खाने से उचट गया। उसने प्लेट की रोटी खत्म की और प्लेट किचन में रख आया। बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर वह भी अपने कमरे में चला गया। लैपटॉप खोल कर वह ऑफिस का काम करने लगा। पर काम में उसका मन नही लग रहा था। वह आरव के विषय में सोच रहा था। उसने महसूस किया था कि पिछले कुछ महीनों में आरव के बर्ताव में बहुत परिवर्तन आ गया है। पहले डिनर का समय खाने के साथ साथ आपसी बातचीत का भी होता था। आरव उसे स्कूल में क्या हुआ इसका पूरा ब्यौरा देता था। किंतु जबसे उसने कॉलेज जाना शुरू किया है तब से बहुत कम बात करता है। इधर कुछ दिनों से तो उसका ध्यान ही जैसे घर में नही रहता था। पारस सोचने लगा। उम्र का तकाज़ा है। उन्नीस साल का हो गया है अब वह। नए दोस्त नया माहौल इस सब में उसने अपनी अलग दुनि...