चुनाव के मौसम में वाद विवाद चर्चाओं का दौर शबाब पर था। टी.वी. स्क्रीन पर एक गोले में समाज को हिन्दू, मुस्लिम, दलित सवर्ण कई वर्गों में बाँट कर किसके कितने वोट हैं इस पर चर्चा चल रही थी।
विभा ने टी.वी. बंद कर दिया। उसकी परेशानी कुछ और ही थी। दो दिन पहले ही वह अपनी ससुराल में शादी का एक कार्यक्रम निपटा कर लौटी थी। वापस आई तो पता चला कि उसकी ग़ैरहाज़िरी में उसके महिला क्लब के सदस्यों ने बच्चों के एक फैंसी ड्रेस कम्पटीशन की योजना बना डाली। जिसका आयोजन परसों शाम ही होना है। वक़्त काम था इसलिए उसने तय किया कि वह अपने चार साल के बेटे आयुष को इस बार प्रतियोगिता में शामिल नहीं करेगी। किंतु उस गोल मटोल से नठखट बालक ने अपनी शैतानियों से सबका मन मोह रखा था। इसलिए उसकी सभी सहेलियां पीछे पड़ गईं कि चाहें जो हो आयुष को प्रतियोगिता के लिए तैयार करना ही होगा।
विभा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। बहुत सोंचने पर एक विचार उसके मन में आया। पिछली बार जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण मंदिर समिति की ओर से भी ऐसी ही प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। उसने आयुष को कृष्ण की तरह सजाया था। इस बार भी उसे कृष्ण की तरह सजाएगी। उसने अलमारी से वो बक्सा निकाला जिसमें सारा सामान था। 'एक बार देख लेती हूँ कि सब कुछ ठीक है कि नहीं' यह सोंच कर उसने आयुष को तैयार किया। सर पर मोर पंख वाला मुकुट, गले में मोतियों की माला, पीला दुपट्टा सब कुछ सही था। फिर भी कुछ कम लग रहा था। उसने ध्यान से देखा कृष्ण की बंसी नहीं थी। सारा बक्सा छान मारा जहाँ जहाँ उम्मीद थी देख लिया। किंतु बांसुरी नहीं मिली। अब बिना बंसी के कृष्ण का श्रृंगार कैसे पूरा होगा।
ग़फ़्फ़ूर को उम्मीद थी कि आज उसकी कमाई अच्छी होगी। वैसे तो चुनाव के समय रैलियों और रोड शो के कारण माहौल मेले जैसा ही रहता है। किंतु आज जिनकी रैली थी पूरे मुल्क में उनकी लहर ज़ोरों पर थी। उन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी।
पिछली दो पीढ़ियों से उसके यहाँ बांसुरी बनाने का काम किया जा रहा था। बांस के टुकड़े में वह स्वर के प्राण फूंक देता था। आज के लिए उसने ढेर सारी बांसुरी बनाई थीं। उसने बांसुरी से भरा एक थैला ख़ुद उठाया और एक अपने दस साल के बेटे इमरान के कंधे पर लटका दिया। तय हुआ था की दोनों गली मुहल्लों से गुज़रते हुए पैदल उस जगह पहुंचेंगे जहाँ रैली होनी थी। इमरान बांसुरी बजता हुआ आगे आगे चलने लगा। वह बंसी की ऐसी मीठी तान छेड़ता था कि सुनने वाला द्वापर युग में पहुँच जाता था।
विभा का मूड खराब हो गया था। उसकी सारी योजना पर पानी फिर गया था। उदास होकर वह बाहर बरामदे में आकर बैठ गई। तभी बांसुरी की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वह भाग कर दरवाज़े पर आई। देखा तो गली के मोड़ पर एक लड़का बांसुरी बजाता चला आ रहा था। " ए भइया ज़रा इधर आना" उसने ज़ोर से पुकारा।
इमरान ने सुना तो वह उस ओर भगा। एक बांसुरी बिकने की संभावना से वह खुश हो गया। ग़फ़्फ़ूर भी उसके पीछे आ गया।
विभा ने पूंछा " कितने की है"
" दस रूपए की"
" ठीक ठीक बोलो"
" ठीक ही है आंटी, इतनी महंगाई है, दस रुपये बहुत नहीं हैं" इमरान ने समझाया
" एक दे दो" विभा ने उसे दस रूपए का नोट देते हुए कहा
इमरान के हाथ से बांसुरी लेकर नन्हें कान्हा पूरी तरह सज गए थे। खुश होकर ताली बजा बजा कर ठुमकने लगे।
http://www.rachanakar.org/2014/06/blog-post_2780.html
विभा ने टी.वी. बंद कर दिया। उसकी परेशानी कुछ और ही थी। दो दिन पहले ही वह अपनी ससुराल में शादी का एक कार्यक्रम निपटा कर लौटी थी। वापस आई तो पता चला कि उसकी ग़ैरहाज़िरी में उसके महिला क्लब के सदस्यों ने बच्चों के एक फैंसी ड्रेस कम्पटीशन की योजना बना डाली। जिसका आयोजन परसों शाम ही होना है। वक़्त काम था इसलिए उसने तय किया कि वह अपने चार साल के बेटे आयुष को इस बार प्रतियोगिता में शामिल नहीं करेगी। किंतु उस गोल मटोल से नठखट बालक ने अपनी शैतानियों से सबका मन मोह रखा था। इसलिए उसकी सभी सहेलियां पीछे पड़ गईं कि चाहें जो हो आयुष को प्रतियोगिता के लिए तैयार करना ही होगा।
विभा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। बहुत सोंचने पर एक विचार उसके मन में आया। पिछली बार जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण मंदिर समिति की ओर से भी ऐसी ही प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। उसने आयुष को कृष्ण की तरह सजाया था। इस बार भी उसे कृष्ण की तरह सजाएगी। उसने अलमारी से वो बक्सा निकाला जिसमें सारा सामान था। 'एक बार देख लेती हूँ कि सब कुछ ठीक है कि नहीं' यह सोंच कर उसने आयुष को तैयार किया। सर पर मोर पंख वाला मुकुट, गले में मोतियों की माला, पीला दुपट्टा सब कुछ सही था। फिर भी कुछ कम लग रहा था। उसने ध्यान से देखा कृष्ण की बंसी नहीं थी। सारा बक्सा छान मारा जहाँ जहाँ उम्मीद थी देख लिया। किंतु बांसुरी नहीं मिली। अब बिना बंसी के कृष्ण का श्रृंगार कैसे पूरा होगा।
ग़फ़्फ़ूर को उम्मीद थी कि आज उसकी कमाई अच्छी होगी। वैसे तो चुनाव के समय रैलियों और रोड शो के कारण माहौल मेले जैसा ही रहता है। किंतु आज जिनकी रैली थी पूरे मुल्क में उनकी लहर ज़ोरों पर थी। उन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी।
पिछली दो पीढ़ियों से उसके यहाँ बांसुरी बनाने का काम किया जा रहा था। बांस के टुकड़े में वह स्वर के प्राण फूंक देता था। आज के लिए उसने ढेर सारी बांसुरी बनाई थीं। उसने बांसुरी से भरा एक थैला ख़ुद उठाया और एक अपने दस साल के बेटे इमरान के कंधे पर लटका दिया। तय हुआ था की दोनों गली मुहल्लों से गुज़रते हुए पैदल उस जगह पहुंचेंगे जहाँ रैली होनी थी। इमरान बांसुरी बजता हुआ आगे आगे चलने लगा। वह बंसी की ऐसी मीठी तान छेड़ता था कि सुनने वाला द्वापर युग में पहुँच जाता था।
विभा का मूड खराब हो गया था। उसकी सारी योजना पर पानी फिर गया था। उदास होकर वह बाहर बरामदे में आकर बैठ गई। तभी बांसुरी की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वह भाग कर दरवाज़े पर आई। देखा तो गली के मोड़ पर एक लड़का बांसुरी बजाता चला आ रहा था। " ए भइया ज़रा इधर आना" उसने ज़ोर से पुकारा।
इमरान ने सुना तो वह उस ओर भगा। एक बांसुरी बिकने की संभावना से वह खुश हो गया। ग़फ़्फ़ूर भी उसके पीछे आ गया।
विभा ने पूंछा " कितने की है"
" दस रूपए की"
" ठीक ठीक बोलो"
" ठीक ही है आंटी, इतनी महंगाई है, दस रुपये बहुत नहीं हैं" इमरान ने समझाया
" एक दे दो" विभा ने उसे दस रूपए का नोट देते हुए कहा
इमरान के हाथ से बांसुरी लेकर नन्हें कान्हा पूरी तरह सज गए थे। खुश होकर ताली बजा बजा कर ठुमकने लगे।
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