सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

बंजर

चौधरी साहब की हवेली में आज बड़ी रौनक थी। ढोलक की थाप पूरे घर में गूँज रही थी। आज उनके घर उनकी छोटी बहू की मुहं दिखाई थी। सुनीता बहुत व्यस्त थी। सभी मेहमानों के आवभगत की ज़िम्मेदारी उसी पर थी। सभी सुनीता की तारीफ कर रहे थे। वाही थी जो अपनी छोटी चचेरी बहन प्रभा को अपनी देवरानी बना कर लाई थी। प्रभा के रूप और व्यवहार ने आते ही सब पर अपना जादू चला दिया था।
चाचा चाची के निधन के बाद प्रभा सुनीता के घर रह कर ही पली थी। सुनीता ने उस अनाथ लड़की को सदैव अपनी छोटी बहन सा स्नेह दिया था। यही कारण था कि उसे अपनी देवरानी बनाने की उसने पूरी कोशिश की थी। अपनी कोशिश में वह सफल भी हो गई।
दो वर्ष पूर्व सुनीता इस घर की बड़ी बहू बन कर आई थी। अपने सेवाभाव और हंसमुख स्वाभाव से वह सास ससुर पति देवर सबकी लाडली बन गई थी। पूरे घर पर उसका ही राज था। उसकी सलाह से ही सब कुछ होता था। कमी यदि थी तो बस यही कि अब तक वह माँ नहीं बन पाई थी। हालांकि उसके घरवालों ने कभी भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया था किंतु आस पड़ोस में होने वाली कानाफूसी उसके कान में पड़ती रहती थी।
ब्याह के कुछ महीनों के बाद ही प्रभा के पांव भारी हो गए। पूरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सुनीता भी खुश थी। प्रभा को सुनीता के माँ ना बन पाने का दुःख था। उस अनाथ लड़की को स्नेह देने वाली सुनीता ही थी। अतः जब प्रभा ने अपने बेटे को जन्म दिया तो उसे सुनीता की गोद में ही सौंप दिया।
बच्चा सबको अपनी तरफ आकर्षित करता था। अतः उसका नाम मोहन रखा गया। मोहन सुनीता को ही अपनी माँ मानता था। उसी के हांथों से खाता और उसी की गोद में सोता था।
 मोहन चार वर्ष का हो गया था। यूँ तो सब सही चल रहा था। किंतु धीरे धीरे सुनीता को यह महसूस होने लगा था कि घर में अब उसका वह स्थान नहीं रहा है जो पहले था। उस स्थान को अब प्रभा ने ले लिया है। इंसानी स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। अपनी खुशियाँ बाँट कर हम गौरवान्वित होते हैं किंतु दूसरों को ख़ुद से अधिक प्रसन्न देख हमें ईर्ष्या होती है। सुनीता के साथ भी ऐसा ही हुआ। प्रभा की ख़ुशी से अब उसे ईर्ष्या होने लगी थी।
उसकी ईर्ष्या की परिणिति क्रोध में हो रही थी। जिसका केंद्र मोहन था। उसे लगता था कि प्रभा के बढ़ते रुतबे का कारण मोहन है। जहाँ पहले उसके ह्रदय में ममता का सागर हिलोरे मारता था वहीं अब केवल विष रह गया था। वह मोहन को रास्ते से हटाने की बात सोंचने लगी थी।
जल्दी ही उसे इसका मौका भी मिल गया। उसके ससुराल में किसी करीबी रिश्तेदार की शादी थी। सभी जाने को तैयार थे किंतु तभी मोहन को ज्वर हो गया। सुनीता ने सबसे कहा कि वो लोग चले जाएँ वह मोहन की देखभाल कर लेगी। प्रभा अपने बेटे को छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी। किंतु सुनीता ने यह कह कर उसे मना लिया की वह उस पर यकीन रखे। प्रभा भारी मन से चली गई।
आधी रात को सुनीता आँगन में टहल रही थी। उसे किसी की प्रतीक्षा थी। कुछ देर बाद किसी ने धीरे से कुंडी खटखटाई। सुनीता ने द्वार खोल दिया। एक व्यक्ति ने अपनी पोटली से निकाल कर उसे एक टोकरी दी जिस पर ढक्कन लगा था। सुनीता ने उसे पैसे दिए और दरवाज़ा बंद कर लिया।
कमरे में मोहन सोया हुआ था। सुनीता ने टोकरी का ढक्कन खोल कर उसे फर्श पर रख दिया। एक काला ज़हरीला नाग निकल कर मोहन की तरफ बढ़ा।
रात के सन्नाटे को चीरती हुई एक ह्रदय विदारक चीख ने आस पड़ोस को दहला दिया " हाय मेरे लाल को सांप ने डस लिया। " देखते ही देखते लोग घर में जमा हो गए। आँगन में बैठी सुनीता अपनी छाती पीट रही थी।
मोहन के जाने से पूरा घर हिल गया था। प्रभा स्वयं को कोसती थी कि क्यों वह अपने बीमार बच्चे को छोड़ कर चली गई।
जब सुनीता के दिल में छाए ईर्ष्या के बादल छंटे और क्रोध की ज्वाला शांत हुई तब उसे एहसास हुआ कि वह क्या कर बैठी है। उसने अपने ही हांथों खुद को बाँझ बना दिया। अब वह गुमसुम रहती थी। किसी से कुछ नहीं बोलती थी। उसके भीतर के सारे भाव सूख गए थे। वो बंजर हो गई थी।


http://www.tumbhi.com/writing/short-stories/banjar/ashish-trivedi/58407#.VRJFTppF7zQ.facebook





टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ना मे हाँ

सब तरफ चर्चा थी कि गीता पुलिस थाने के सामने धरने पर बैठी थी। उसने अजय के खिलाफ जो शिकायत की थी उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई थी।  पिछले कई महीनों से गीता बहुत परेशान थी। कॉलेज आते जाते अजय उसे तंग करता था। वह उससे प्रेम करने का दावा करता था। गीता उसे समझाती थी कि उसे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। वह सिर्फ पढ़ना चाहती है। लेकिन अजय हंस कर कहता कि लड़की की ना में ही उसकी हाँ होती है।  गीता ने बहुत कोशिश की कि बात अजय की समझ में आ जाए कि उसकी ना का मतलब ना ही है। पर अजय नहीं समझा। पुलिस भी कछ नहीं कर रही थी। हार कर गीता यह तख्ती लेकर धरने पर बैठ गई कि 'लड़की की ना का सम्मान करो।'  सभी उसकी तारीफ कर रहे थे।

गुमसुम

अपने पापा के सामने बैठा विपुल बहुत उदास था. उसके जीवन में इतनी बड़ी खुशी आई थी किंतु उसके पापा उदासीन बैठे थे. तीन साल पहले हुए हादसे ने उससे उसके पिता को छीन लिया था. उसके पापा की आंखों के सामने ही नदी की तेज़ धारा मम्मी को बहा कर ले गई थी. उस दिन से उसके पिता जैसे अपने भीतर ही कहीं खो गए थे. विपुल ने बहुत प्रयास किया कि किसी तरह उनकी उस अंदरूनी दुनिया में प्रवेश कर सके. परंतु उसकी हर कोशिश नाकामयाब रही. इस नाकामयाबी का परिणाम यह हुआ कि वह स्वयं की निराशा के अंधेरे में खोने लगा. ऐसे में अपने शुभचिंतकों की बात मान कर उसने विवाह कर अपने जीवन को एक नई दिशा दी. वह निराशा के भंवर से उबरने लगा. लेकिन अपने पापा की स्थिति पर उसे दुख होता था. दस दिन पहले जन्मी अपनी बच्ची के रोने की आवाज़ उसे उसके विचारों से बाहर ले आई. वह उसके पालने के पास गया. उसकी पत्नी सो रही थी. उसने पूरे एहतियात से बच्ची को उठाया और उसे लेकर अपने पापा के पास आ गया. विपुल ने बच्ची को अपने पिता के हाथों में सौंप दिया. बच्ची उन्हें देख कर मुस्कुरा दी. कुछ देर उसै देखने के बाद उन्होंने उसे उठाया और सीने से लगा लिया. विप...

केंद्र बिंदु

पारस देख रहा था कि आरव का मन खाने से अधिक अपने फोन पर था। वह बार बार मैसेज चेक कर रहा था। सिर्फ दो रोटी खाकर वह प्लेट किचन में रखने के लिए उठा तो पारस ने टोंक दिया। "खाना तो ढंग से खाओ। जल्दी किस बात की है तुम्हें।" "बस पापा मेरा पेट भर गया।" कहते हुए वह प्लेट किचन में रख अपने कमरे में चला गया। पारस का मन भी खाने से उचट गया। उसने प्लेट की रोटी खत्म की और प्लेट किचन में रख आया। बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर वह भी अपने कमरे में चला गया। लैपटॉप खोल कर वह ऑफिस का काम करने लगा। पर काम में उसका मन नही लग रहा था। वह आरव के विषय में सोच रहा था। उसने महसूस किया था कि पिछले कुछ महीनों में आरव के बर्ताव में बहुत परिवर्तन आ गया है। पहले डिनर का समय खाने के साथ साथ आपसी बातचीत का भी होता था। आरव उसे स्कूल में क्या हुआ इसका पूरा ब्यौरा देता था। किंतु जबसे उसने कॉलेज जाना शुरू किया है तब से बहुत कम बात करता है। इधर कुछ दिनों से तो उसका ध्यान ही जैसे घर में नही रहता था। पारस सोचने लगा। उम्र का तकाज़ा है। उन्नीस साल का हो गया है अब वह। नए दोस्त नया माहौल इस सब में उसने अपनी अलग दुनि...