मन का डर
शाम ढल रही थी। अपने पति के नाम का दिया जला कर ललिता वहीं बैठ गई। अपने पति को याद करने लगी। हमेशा सबकी मदद को तैयार रहते थे। मोहल्ले में किसी के घर में भी गमी हो जाती थी तो उसके दरवाज़े पर ज़रूर हाज़िर होते थे।
दो साल पहले उनके मकान के पीछे वाली लाइन में रहने वाले धवन साहब की मौत हो गई। उनके घर से खास परिचय भी नहीं था। खबर सुनते ही जाने को तैयार हो गए थे। रात में तेज़ बुखार था। दवा खाकर सोए थे। ललिता ने कहा कि कभी आना जाना नहीं रहा। कल रात बुखार था। मत जाइए। सुनते ही बोले कि भले ही किसी की खुशी में ना जाओ। पर गमी में ज़रूर जाना चाहिए। यही तो वक्त होता है जब लोगों की सहानुभूति की ज़रूरत होती है।
अपनी बात कहकर निकल गए थे। घाट तक साथ गए थे।
ललिता की आँखें भर आईं। पति के जाने का दुख तो था ही। पर इस बात का भी अफसोस था कि जब उनकी अर्थी उठी तब बड़ी मुश्किल से चार कंधे मिले। कोई दरवाज़े पर भी नहीं आया। सब अपने अपने गेट से झांकते रहे।
उसने अपने आंसू पोंछे। किसे दोष दे और क्यों दे। समय ही ऐसा है। एक वायरस ने सबके मन में डर बैठा दिया है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें