सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

तुमको देखा तो ये ख़याल आया

सुकेतु सुबह से ही असमंजस की स्तिथि में था। बार बार वह फ़ोन उठता था फिर नंबर मिलाये बिना ही रख देता था। जब से वह मुग्धा से मिला था उसका यही हाल था।
अपनी पत्नी सुहासिनी की मृत्यु के  बाद से सुकेतु बहुत उदास रहने लगा था। अभी  उसने सुहासिनी के साथ जीवन का सफ़र शुरू ही किया था कि  मृत्यु  के क्रूर हाथों ने उसे छीन लिया। जीवन के सफ़र में वह अकेला रह गया। उसके लिए यह सफ़र एकदम बेरंग और बोझिल हो गया। वह इस राह पर अकेला चलने लगा। कितना प्रयास किया उसकी माँ ने की वह दोबारा घर बसा ले किन्तु वह दोबार जीवन शुरू करने को तैयार नहीं था।
सुकेतु प्रारंभ से ही कुछ रिज़र्व नेचेर का था किन्तु पत्नी की मृत्यु के बाद तो वह और चुप रहने लगा। कुछ गिने चुने लोगों को ही उसके जीवन में प्रवेश की अनुमति थी। उन्हीं में एक थी मेधा। मेधा से अक्सर वह अपने दिल की बात कर लिया करता था। मेधा ने ही उसे मुग्धा से मिलाया था। मेधा के घर पर लंच पार्टी थी। वह सबसे अलग बागीचे में खड़ा फूलों को निहार रहा था। " इनसे मिलो ये हैं मुग्धा " मेधा ने उससे इंट्रोड्यूस कराते हुए कहा। सुकेतु ने नज़रें उठा कर देखा हलके रंग की सलवार कमीज पहने  एक सांवली लड़की सामने खड़ी थी। उसकी सादगी उस की खूबसूरती को और बढा  रही थी। "फूल अपनी छोटी सी ज़िन्दगी में भी लोगों को कितना सुख दे जाते हैं। मुझे भी फूल बहुत पसंद हैं।" मुग्धा ने मुस्कुराते हुए कहा। दोनों बागीचे में बैठ कर बातें करने लगे। सुकेतु को उसकी बातों में गहराई नज़र आई। वह बहुत खुली सोंच की सुलझी हुई लड़की थी। वह उससे पहली बार मिला था किन्तु उसके साथ बहुत सहज महसूस कर रहा था। उसके व्यक्तित्व में एक ठहराव था।मुग्धा एक कंपनी में लीगल एडवाईज़र के पद पर काम कर रही थी। चलते समय मुग्धा ने उसे अपना नंबर भी दिया।
घर आकर वह मुग्धा के बारे में ही सोंचता रहा। सुहासिनी के जाने के बाद पहली बार उसे ऐसा लगा जैसे उसके जीवन में किसी की ज़रुरत है। वह मुग्धा से और जान पहचान बढ़ाना चाहता था। कई बार उसने मुग्धा का नंबर मिलाना चाहा किन्तु संकोचवश मिला नहीं पाया। वह अपने फैसले पर विचार करने लगा। आखिरकार उसने मन में पक्का फैसला कर मुग्धा का नंबर मिलाया। " हेल्लो मैं सुकेतु, याद है हम मेधा के घर पर मिले थे। ......क्या हम फिर मिल सकते हैं ........हाँ आज शाम को ठीक रहेगा ......ठीक है तो आज शाम मिलते हैं।" उसने फ़ोन रख दिया और शाम का इंतज़ार करने लगा।









टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ना मे हाँ

सब तरफ चर्चा थी कि गीता पुलिस थाने के सामने धरने पर बैठी थी। उसने अजय के खिलाफ जो शिकायत की थी उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई थी।  पिछले कई महीनों से गीता बहुत परेशान थी। कॉलेज आते जाते अजय उसे तंग करता था। वह उससे प्रेम करने का दावा करता था। गीता उसे समझाती थी कि उसे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। वह सिर्फ पढ़ना चाहती है। लेकिन अजय हंस कर कहता कि लड़की की ना में ही उसकी हाँ होती है।  गीता ने बहुत कोशिश की कि बात अजय की समझ में आ जाए कि उसकी ना का मतलब ना ही है। पर अजय नहीं समझा। पुलिस भी कछ नहीं कर रही थी। हार कर गीता यह तख्ती लेकर धरने पर बैठ गई कि 'लड़की की ना का सम्मान करो।'  सभी उसकी तारीफ कर रहे थे।

गुमसुम

अपने पापा के सामने बैठा विपुल बहुत उदास था. उसके जीवन में इतनी बड़ी खुशी आई थी किंतु उसके पापा उदासीन बैठे थे. तीन साल पहले हुए हादसे ने उससे उसके पिता को छीन लिया था. उसके पापा की आंखों के सामने ही नदी की तेज़ धारा मम्मी को बहा कर ले गई थी. उस दिन से उसके पिता जैसे अपने भीतर ही कहीं खो गए थे. विपुल ने बहुत प्रयास किया कि किसी तरह उनकी उस अंदरूनी दुनिया में प्रवेश कर सके. परंतु उसकी हर कोशिश नाकामयाब रही. इस नाकामयाबी का परिणाम यह हुआ कि वह स्वयं की निराशा के अंधेरे में खोने लगा. ऐसे में अपने शुभचिंतकों की बात मान कर उसने विवाह कर अपने जीवन को एक नई दिशा दी. वह निराशा के भंवर से उबरने लगा. लेकिन अपने पापा की स्थिति पर उसे दुख होता था. दस दिन पहले जन्मी अपनी बच्ची के रोने की आवाज़ उसे उसके विचारों से बाहर ले आई. वह उसके पालने के पास गया. उसकी पत्नी सो रही थी. उसने पूरे एहतियात से बच्ची को उठाया और उसे लेकर अपने पापा के पास आ गया. विपुल ने बच्ची को अपने पिता के हाथों में सौंप दिया. बच्ची उन्हें देख कर मुस्कुरा दी. कुछ देर उसै देखने के बाद उन्होंने उसे उठाया और सीने से लगा लिया. विप...

केंद्र बिंदु

पारस देख रहा था कि आरव का मन खाने से अधिक अपने फोन पर था। वह बार बार मैसेज चेक कर रहा था। सिर्फ दो रोटी खाकर वह प्लेट किचन में रखने के लिए उठा तो पारस ने टोंक दिया। "खाना तो ढंग से खाओ। जल्दी किस बात की है तुम्हें।" "बस पापा मेरा पेट भर गया।" कहते हुए वह प्लेट किचन में रख अपने कमरे में चला गया। पारस का मन भी खाने से उचट गया। उसने प्लेट की रोटी खत्म की और प्लेट किचन में रख आया। बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर वह भी अपने कमरे में चला गया। लैपटॉप खोल कर वह ऑफिस का काम करने लगा। पर काम में उसका मन नही लग रहा था। वह आरव के विषय में सोच रहा था। उसने महसूस किया था कि पिछले कुछ महीनों में आरव के बर्ताव में बहुत परिवर्तन आ गया है। पहले डिनर का समय खाने के साथ साथ आपसी बातचीत का भी होता था। आरव उसे स्कूल में क्या हुआ इसका पूरा ब्यौरा देता था। किंतु जबसे उसने कॉलेज जाना शुरू किया है तब से बहुत कम बात करता है। इधर कुछ दिनों से तो उसका ध्यान ही जैसे घर में नही रहता था। पारस सोचने लगा। उम्र का तकाज़ा है। उन्नीस साल का हो गया है अब वह। नए दोस्त नया माहौल इस सब में उसने अपनी अलग दुनि...