भीड़ भाड़ से मेरा मन ऊब जाता है। मैं तो आना नहीं चाहता था किंतु मेरे पुराने मित्र की बेटी की शादी थी तो आना पड़ा। ये तो अच्छा है कि सारा कार्यक्रम उनके इस फार्महाउस में हो रहा है। यह इतना बड़ा है की आप चाहें तो अपने लिए एक कोना तलाश सकते हैं। मुझे भी मिल गया।
मैं एकांत में बैठा था कि अचानक वो सामने आ गई। इतने वर्षों के बाद देखा था। कुछ क्षण लगे किंतु मैं पहचान गया। मैंने नज़रें चुराने की कोशिश की। वो ताड़ गई।
" कैसे हो तुम। पहचान तो गए होगे। "
उसके इस अचानक किये गए सवाल से मैं हड़बड़ा गया। " हाँ ठीक हूँ। तुम कैसी हो। "
" उम्र का असर दिखने लगा है। " मेरे चहरे का निरिक्षण करते हुए बोली।
" वक़्त तो अपना प्रभाव दिखाता ही है। कितना वक़्त बीत गया। "
सचमुच वक़्त ने बहुत कुछ बदल दिया था। डर कर मेरे पैरों से लिपट जाने वाली मेरी बेटी अब विदेश में अकेले रह रही थी। मेरी पत्नी और मैंने अब एक दूसरे की कमियां देखना छोड़ दिया था। अब हम शांति से एक छत के नीचे रहते थे।
पच्चीस वर्ष पूर्व उस शाम गोमती के किनारे आखिरी बार मैं वसुधा से मिला था।
" क्या मतलब है तुम्हारा कि तुम बात नहीं कर सकते । तुम ये नहीं कह पा रहे हो कि तुम मुझसे प्रेम करते हो। शेखर तुम कोई छोटे बच्चे हो जो ताउम्र पिता की ऊँगली पकड़कर चलोगे। कैसे मर्द हो। "
" मर्दों की भी अपनी मज़बूरियां होती हैं। "
" ओह " उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखों को और गोल कर के कहा " हाँ जब तुम जैसे मर्द अपनी चाहतें पूरी कर लेते हैं तो मज़बूर हो जाते हैं। "
" तो क्या जो हुआ उसमें सिर्फ मेरा ही कसूर था। " मैंने भड़कते हुए कहा।
" नहीं उसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं था। गलती तो मेरी है जो मैं तुम्हें पहचान नहीं सकी। माँ कहती थी कि तुम धोखा खाओगी। मैनें नहीं सुना और धोखा खा गई। " उसने क्रोध से मेरी तरफ देखा " मैं भले ही तुम्हें न जान पाई किंतु तुम जान लो मैं उन औरतों में नहीं हूँ जो मर्द की बेवफाई पर उसके पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाती हैं। मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी। "
एक दृढ निश्चय के साथ वह बोली " न ही इस अजन्मे को बिना किसी दोष के सजा दूँगी। इसे पैदा करूंगी और अकेले पालूंगी। "
उसकी आँखों में अपने लिए क्रोध के अतिरिक्त मैं मेरी तुच्छाता और नगण्यता साफ़ देख सकता था। फिर भी कुछ कर सकने की हिम्मत नहीं जुटा सका। मेरी शादी हो गई। मेरे और मेरी पत्नी के बीच संबंध अच्छे नहीं थे। मेरे भीतर भरी हुई कड़वाहट इसका कारण थी। ज़िंदगी बोझिल लगने लगी थी। तभी रीमा हमारे जीवन में आई। लगा ज़िंदगी इतनी भी बेरहम नहीं है। रीमा वह कड़ी थी जो हमारे रिश्ते को बांधे थी। मेरी ज़िंदगी का केंद्र रीमा थी। धीरे धीरे समय बीतने लगा। दर्द अब कुछ कम होने लगा था। कभी कभी वसुधा का ख़याल आ जाता था तो सोंचने लगता कि कैसे उसने दुनिया का सामना किया होगा। कैसे बिना बाप के उस बच्चे को अकेले पाला होगा।
वक़्त ने आज अचानक मुझे फिर उसके सामने लाकर खड़ा कर दिया। मैं उस बच्चे के बारे में जानना चाहता था किंतु साहस नहीं कर पा रहा था। वो मेरे मन के असमंजस को समझ गई।
" कोई बात है शेखर। कुछ पूंछना चाहते हो। "
मैं कुछ हिचकते हुए बोला " कहाँ है वो। कौन है। "
" क्या करोगे जान कर उसे अपना नाम दोगे। " उसने तंज़ किया।
मैं चुप हो गया। मेरे भीतर वो हिम्मत नहीं थी।
" मम्मी मुझे आइसक्रीम खानी है। " एक तेईस चौबीस साल का लड़का एक छोटे बच्चे की तरह ज़िद कर रहा था। तभी एक पुरुष आया जो उसे फुसला कर ले गया। जाते जाते वह वसुधा को तसल्ली दे गया की वह फिक्र न करे वह सब संभाल लेगा।
मैंने प्रश्न भरी दृष्टि से वसुधा को देखा।
एक आह भरते हुए उसने कहना शुरू किया " तुमसे अलग होकर मैं लखनऊ छोड़ कर दिल्ली आ गई। लोगों के बेकार के सवालों से बचने के लिए। बड़ा कठिन दौर था। खुद के पैरों पर खड़ा होना। एक संतान को जन्म देना। उसे अकेले पालना। जैसे जैसे वैभव बड़ा होने लगा यह बात साफ़ हो गई कि वह दूसरे बच्चों की तरह नहीं है। "
कुछ रुक कर फिर बोली " उस समय लगता था जैसे सारी दुनिया ही मेरी दुश्मन हो गई है। मुझे तोड़ देना चाहती है। उसी समय रितेश ने मेरे जीवन में कदम रखा। मैं किसी पर भी यकीन करने की स्तिथि में नहीं थी। किन्तु रितेश ने प्रेम और हमदर्दी से मेरा विश्वास जीत लिया। हम दोनों ने शादी कर ली। मुझसे अधिक वैभव का ख़याल उसने रखा। उसे कभी पिता की कमी महसूस नहीं हुई। "
उसी समय रितेश वहां आ गया। वसुधा के कंधे पर हाथ रख कर बोला " सब ठीक है। वैभव सब के साथ बहुत खुश है। " मेरी तरफ देख कर बोला " लगता है आप दोनों बहुत दिनों बाद मिले हैं। " यह कह कर उसने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने भी अपना हाथ बढ़ा दिया " मैं रितेश वसुधा का पति। "
" आप लोग बात कीजिये मैं चलता हूँ। " यह कह कर वह जाने लगा।
" नहीं मैं भी चलती हूँ। हमने बहुत बातें कर लीं। अब इन्हें कुछ देर अकेला रहने दें। " यह कह कर वसुधा भी उसके साथ चली गई।
मैं स्वयं को बहुत छोटा महसूस कर रहा था। रितेश का कद मुझसे काफी ऊंचा था।
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मैं एकांत में बैठा था कि अचानक वो सामने आ गई। इतने वर्षों के बाद देखा था। कुछ क्षण लगे किंतु मैं पहचान गया। मैंने नज़रें चुराने की कोशिश की। वो ताड़ गई।
" कैसे हो तुम। पहचान तो गए होगे। "
उसके इस अचानक किये गए सवाल से मैं हड़बड़ा गया। " हाँ ठीक हूँ। तुम कैसी हो। "
" उम्र का असर दिखने लगा है। " मेरे चहरे का निरिक्षण करते हुए बोली।
" वक़्त तो अपना प्रभाव दिखाता ही है। कितना वक़्त बीत गया। "
सचमुच वक़्त ने बहुत कुछ बदल दिया था। डर कर मेरे पैरों से लिपट जाने वाली मेरी बेटी अब विदेश में अकेले रह रही थी। मेरी पत्नी और मैंने अब एक दूसरे की कमियां देखना छोड़ दिया था। अब हम शांति से एक छत के नीचे रहते थे।
पच्चीस वर्ष पूर्व उस शाम गोमती के किनारे आखिरी बार मैं वसुधा से मिला था।
" क्या मतलब है तुम्हारा कि तुम बात नहीं कर सकते । तुम ये नहीं कह पा रहे हो कि तुम मुझसे प्रेम करते हो। शेखर तुम कोई छोटे बच्चे हो जो ताउम्र पिता की ऊँगली पकड़कर चलोगे। कैसे मर्द हो। "
" मर्दों की भी अपनी मज़बूरियां होती हैं। "
" ओह " उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखों को और गोल कर के कहा " हाँ जब तुम जैसे मर्द अपनी चाहतें पूरी कर लेते हैं तो मज़बूर हो जाते हैं। "
" तो क्या जो हुआ उसमें सिर्फ मेरा ही कसूर था। " मैंने भड़कते हुए कहा।
" नहीं उसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं था। गलती तो मेरी है जो मैं तुम्हें पहचान नहीं सकी। माँ कहती थी कि तुम धोखा खाओगी। मैनें नहीं सुना और धोखा खा गई। " उसने क्रोध से मेरी तरफ देखा " मैं भले ही तुम्हें न जान पाई किंतु तुम जान लो मैं उन औरतों में नहीं हूँ जो मर्द की बेवफाई पर उसके पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाती हैं। मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी। "
एक दृढ निश्चय के साथ वह बोली " न ही इस अजन्मे को बिना किसी दोष के सजा दूँगी। इसे पैदा करूंगी और अकेले पालूंगी। "
उसकी आँखों में अपने लिए क्रोध के अतिरिक्त मैं मेरी तुच्छाता और नगण्यता साफ़ देख सकता था। फिर भी कुछ कर सकने की हिम्मत नहीं जुटा सका। मेरी शादी हो गई। मेरे और मेरी पत्नी के बीच संबंध अच्छे नहीं थे। मेरे भीतर भरी हुई कड़वाहट इसका कारण थी। ज़िंदगी बोझिल लगने लगी थी। तभी रीमा हमारे जीवन में आई। लगा ज़िंदगी इतनी भी बेरहम नहीं है। रीमा वह कड़ी थी जो हमारे रिश्ते को बांधे थी। मेरी ज़िंदगी का केंद्र रीमा थी। धीरे धीरे समय बीतने लगा। दर्द अब कुछ कम होने लगा था। कभी कभी वसुधा का ख़याल आ जाता था तो सोंचने लगता कि कैसे उसने दुनिया का सामना किया होगा। कैसे बिना बाप के उस बच्चे को अकेले पाला होगा।
वक़्त ने आज अचानक मुझे फिर उसके सामने लाकर खड़ा कर दिया। मैं उस बच्चे के बारे में जानना चाहता था किंतु साहस नहीं कर पा रहा था। वो मेरे मन के असमंजस को समझ गई।
" कोई बात है शेखर। कुछ पूंछना चाहते हो। "
मैं कुछ हिचकते हुए बोला " कहाँ है वो। कौन है। "
" क्या करोगे जान कर उसे अपना नाम दोगे। " उसने तंज़ किया।
मैं चुप हो गया। मेरे भीतर वो हिम्मत नहीं थी।
" मम्मी मुझे आइसक्रीम खानी है। " एक तेईस चौबीस साल का लड़का एक छोटे बच्चे की तरह ज़िद कर रहा था। तभी एक पुरुष आया जो उसे फुसला कर ले गया। जाते जाते वह वसुधा को तसल्ली दे गया की वह फिक्र न करे वह सब संभाल लेगा।
मैंने प्रश्न भरी दृष्टि से वसुधा को देखा।
एक आह भरते हुए उसने कहना शुरू किया " तुमसे अलग होकर मैं लखनऊ छोड़ कर दिल्ली आ गई। लोगों के बेकार के सवालों से बचने के लिए। बड़ा कठिन दौर था। खुद के पैरों पर खड़ा होना। एक संतान को जन्म देना। उसे अकेले पालना। जैसे जैसे वैभव बड़ा होने लगा यह बात साफ़ हो गई कि वह दूसरे बच्चों की तरह नहीं है। "
कुछ रुक कर फिर बोली " उस समय लगता था जैसे सारी दुनिया ही मेरी दुश्मन हो गई है। मुझे तोड़ देना चाहती है। उसी समय रितेश ने मेरे जीवन में कदम रखा। मैं किसी पर भी यकीन करने की स्तिथि में नहीं थी। किन्तु रितेश ने प्रेम और हमदर्दी से मेरा विश्वास जीत लिया। हम दोनों ने शादी कर ली। मुझसे अधिक वैभव का ख़याल उसने रखा। उसे कभी पिता की कमी महसूस नहीं हुई। "
उसी समय रितेश वहां आ गया। वसुधा के कंधे पर हाथ रख कर बोला " सब ठीक है। वैभव सब के साथ बहुत खुश है। " मेरी तरफ देख कर बोला " लगता है आप दोनों बहुत दिनों बाद मिले हैं। " यह कह कर उसने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने भी अपना हाथ बढ़ा दिया " मैं रितेश वसुधा का पति। "
" आप लोग बात कीजिये मैं चलता हूँ। " यह कह कर वह जाने लगा।
" नहीं मैं भी चलती हूँ। हमने बहुत बातें कर लीं। अब इन्हें कुछ देर अकेला रहने दें। " यह कह कर वसुधा भी उसके साथ चली गई।
मैं स्वयं को बहुत छोटा महसूस कर रहा था। रितेश का कद मुझसे काफी ऊंचा था।
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