स्टोर रूम में पड़े पुराने एल्बम के पन्ने पलते हुए एक तस्वीर पर मेरी निगाह अटक गयी। झुर्रियों वाला एक चेहरा मुझे देख रहा था। मेरा मन वर्षों की दूरियां पार कर कुछ ही क्षणों में मुझे मेरे बचपन में ले गया। जहाँ छोटा सा मैं अपनी बूढी दादी की गोद में बैठा हुआ उसके हाथ से दूध भात खा रहा था।
मैं भाई बहनों में सबसे छोटा था। अतः अजिया का बड़ा दुलारा था। रात को उसके साथ उसकी खटोली पर लेट कर उनसे कहानी सुनाने की जिद करता था। अपनी कहानियों के द्वारा वह मुझे एक अनोखे संसार की सैर कराती थीं। मेरा बाल मन उन कथाओं के चरित्रों के साथ कभी डर कर सहम जाता तो कभी ख़ुशी से झूमने लगता। कितनी कुशलता से वह उन कहानियों में नीति की बातों को गूँथ देती थीं। अक्सर ही मैं कहानी पूरी होने से पहले सो जाता था। अगले दिन कक्षा में बैठे बैठे मैं सोंचता रहता की राजकुमारी उस दुष्ट राक्षस के चंगुल से बच पाई या नहीं। मेरा मन बेचैन होने लगता और मैं सोंचता की कब घर पहुँचूँ और अजिया से कहानी का अंत सुनूँ। अजिया नाराज़ होतीं " तू कभी कहानी पूरी नहीं सुनता फिर मेरी जान खाता है।" फिर दोपहर को आराम करते समय मुझे अपने साथ लिटा कर बाकी की कहानी सुनातीं। मेरे मन में उठाने वाले कौतुहल अजिया के पास जाकर शांत हो जाते। उस वक़्त दुनियां में यदि मुझे किसी पर सबसे ज्यादा यकीन था तो अजिया पर। वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त थीं।
जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया अजिया की और भी खूबियाँ मुझे नज़र आने लगीं। मेरे पिता फौज में थे और घर से बाहर रहते थे। उनकी अनुपस्तिथि में अजिया ही परिवार को संभालती थीं। अधिक पढ़ी लिखी नहीं थी किन्तु बड़ी कुशलता से घर की जिम्मेदारियां निभाती थीं। मजाल था की घर में किसी मर्द के न होने के कारण कोई कुछ ऊंची नीची बात कह जाए। घर में क्या आना है क्या नहीं, किस रिश्तेदार के घर शादी ब्याह के अवसर पर क्या देना है सब कुछ वही निर्धारित करती थीं। अम्मा तो बस एक सिपाही की तरह उनके हुक्म का पालन करतीं थीं।
धीरे धीरे अजिया का शरीर शिथिल पड़ने लगा। अब अधिकांश समय वह अपनी खटोली पर बिताती थीं। मुझसे कहतीं " अब तो तू अपनी अजिया के पास आता ही नहीं, आ कुछ देर मेरे पास बैठ। मैं तुझे अच्छी सी कहानी सुनाऊंगी " किन्तु किशोरावस्था की ओर बढ़ता मेरा मन अब उन कहानियों में नहीं लगता था। वह तो गली में खेलते मेरे साथियों की ओर भागता था। " अभी नहीं अजिया मेरे दोस्त मेरी राह देख रहे होंगे।" कहकर मैं बाहर भाग जाता था।
अजिया अब पूर्णतया अशक्त हो चुकी थीं। पिताजी भी अब रिटायर होकर घर आ गए थे। वही उनकी देखभाल करते थे। देह बिलकुल जर्जर हो चुकी थी। आँखों से भी कम सुझाई देता था। घर की सारी चिंताओं से खुद को अलग कर अजिया अब सिर्फ राम राम जपा करतीं और राम जी से प्रार्थना करती की अब उन्हें अपने पास बुला लें।
मेरा दसवीं का नतीजा बहुत अच्छा रहा था। पिताजी भी बहुत खुश थे। अतः उनकी इज़ाज़त लेकर मैंने अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने का प्लान बनाया। मैं तैयार होकर निकल ही रहा था तभी अजिया ने मुझे पुकारा। मैं उनकी खटोली के पास जाकर बैठ गया। उन्होंने धीरे से अपना कांपता हुआ हाँथ उठाया और मेरे सर पर रख दिया " बड़ा अच्छा नतीजा आया है तेरा, खूब तरक्की कर, आ कुछ देर मेरे पास बैठ। " मैं परेशानी में पड़ गया " अजिया अभी तो मैं अपने दोस्तों के साथ बहार जा रहा हूँ लेकिन जब लौट कर आऊँगा तो तुम्हारे साथ तुम्हारी खटोली पर लेटूंगा। "
देर शाम जब मैं घर लौटा तो घर का माहौल कुछ बदला हुआ था। आँगन में बैठी अम्मा रो रही थी। दीदी ने बताया की अजिया को रामजी ने अपने पास बुला लिया। पिताजी पड़ोस से बुआ को फ़ोन करने गए हैं। अगली सुबह चार कन्धों पर सवार होकर अजिया ने हमेशा के लिए घर छोड़ दिया। उसी दिन रात जब सब सो गए मैं अजिया की खटोली पर जाकर लेट गया। अजिया जो बचपन में मेरी सबसे अच्छी मित्र थीं उनसे कितना दूर हो गया था मैं। खटोली पर पड़े हुए मैं फूट फूट कर रोने लगा।
कुछ बूँदें मेरे हाथ पर भी गिरीं। मैंने देखा की वो तस्वीर मेरे आंसुओं से भीग गयी थी। मैंने रुमाल से उसे पोंछा और एल्बम बंद करके रख दिया।
http://www.tumbhi.com/writing/short-stories/aziya-/ashish-trivedi/41926#.U7uIm3-vPgA.gmail
मैं भाई बहनों में सबसे छोटा था। अतः अजिया का बड़ा दुलारा था। रात को उसके साथ उसकी खटोली पर लेट कर उनसे कहानी सुनाने की जिद करता था। अपनी कहानियों के द्वारा वह मुझे एक अनोखे संसार की सैर कराती थीं। मेरा बाल मन उन कथाओं के चरित्रों के साथ कभी डर कर सहम जाता तो कभी ख़ुशी से झूमने लगता। कितनी कुशलता से वह उन कहानियों में नीति की बातों को गूँथ देती थीं। अक्सर ही मैं कहानी पूरी होने से पहले सो जाता था। अगले दिन कक्षा में बैठे बैठे मैं सोंचता रहता की राजकुमारी उस दुष्ट राक्षस के चंगुल से बच पाई या नहीं। मेरा मन बेचैन होने लगता और मैं सोंचता की कब घर पहुँचूँ और अजिया से कहानी का अंत सुनूँ। अजिया नाराज़ होतीं " तू कभी कहानी पूरी नहीं सुनता फिर मेरी जान खाता है।" फिर दोपहर को आराम करते समय मुझे अपने साथ लिटा कर बाकी की कहानी सुनातीं। मेरे मन में उठाने वाले कौतुहल अजिया के पास जाकर शांत हो जाते। उस वक़्त दुनियां में यदि मुझे किसी पर सबसे ज्यादा यकीन था तो अजिया पर। वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त थीं।
जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया अजिया की और भी खूबियाँ मुझे नज़र आने लगीं। मेरे पिता फौज में थे और घर से बाहर रहते थे। उनकी अनुपस्तिथि में अजिया ही परिवार को संभालती थीं। अधिक पढ़ी लिखी नहीं थी किन्तु बड़ी कुशलता से घर की जिम्मेदारियां निभाती थीं। मजाल था की घर में किसी मर्द के न होने के कारण कोई कुछ ऊंची नीची बात कह जाए। घर में क्या आना है क्या नहीं, किस रिश्तेदार के घर शादी ब्याह के अवसर पर क्या देना है सब कुछ वही निर्धारित करती थीं। अम्मा तो बस एक सिपाही की तरह उनके हुक्म का पालन करतीं थीं।
धीरे धीरे अजिया का शरीर शिथिल पड़ने लगा। अब अधिकांश समय वह अपनी खटोली पर बिताती थीं। मुझसे कहतीं " अब तो तू अपनी अजिया के पास आता ही नहीं, आ कुछ देर मेरे पास बैठ। मैं तुझे अच्छी सी कहानी सुनाऊंगी " किन्तु किशोरावस्था की ओर बढ़ता मेरा मन अब उन कहानियों में नहीं लगता था। वह तो गली में खेलते मेरे साथियों की ओर भागता था। " अभी नहीं अजिया मेरे दोस्त मेरी राह देख रहे होंगे।" कहकर मैं बाहर भाग जाता था।
अजिया अब पूर्णतया अशक्त हो चुकी थीं। पिताजी भी अब रिटायर होकर घर आ गए थे। वही उनकी देखभाल करते थे। देह बिलकुल जर्जर हो चुकी थी। आँखों से भी कम सुझाई देता था। घर की सारी चिंताओं से खुद को अलग कर अजिया अब सिर्फ राम राम जपा करतीं और राम जी से प्रार्थना करती की अब उन्हें अपने पास बुला लें।
मेरा दसवीं का नतीजा बहुत अच्छा रहा था। पिताजी भी बहुत खुश थे। अतः उनकी इज़ाज़त लेकर मैंने अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने का प्लान बनाया। मैं तैयार होकर निकल ही रहा था तभी अजिया ने मुझे पुकारा। मैं उनकी खटोली के पास जाकर बैठ गया। उन्होंने धीरे से अपना कांपता हुआ हाँथ उठाया और मेरे सर पर रख दिया " बड़ा अच्छा नतीजा आया है तेरा, खूब तरक्की कर, आ कुछ देर मेरे पास बैठ। " मैं परेशानी में पड़ गया " अजिया अभी तो मैं अपने दोस्तों के साथ बहार जा रहा हूँ लेकिन जब लौट कर आऊँगा तो तुम्हारे साथ तुम्हारी खटोली पर लेटूंगा। "
देर शाम जब मैं घर लौटा तो घर का माहौल कुछ बदला हुआ था। आँगन में बैठी अम्मा रो रही थी। दीदी ने बताया की अजिया को रामजी ने अपने पास बुला लिया। पिताजी पड़ोस से बुआ को फ़ोन करने गए हैं। अगली सुबह चार कन्धों पर सवार होकर अजिया ने हमेशा के लिए घर छोड़ दिया। उसी दिन रात जब सब सो गए मैं अजिया की खटोली पर जाकर लेट गया। अजिया जो बचपन में मेरी सबसे अच्छी मित्र थीं उनसे कितना दूर हो गया था मैं। खटोली पर पड़े हुए मैं फूट फूट कर रोने लगा।
कुछ बूँदें मेरे हाथ पर भी गिरीं। मैंने देखा की वो तस्वीर मेरे आंसुओं से भीग गयी थी। मैंने रुमाल से उसे पोंछा और एल्बम बंद करके रख दिया।
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