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बीज

शालिनी इंटरव्यू के लिए अपनी बारी की प्रतिक्षा कर रही थी।
अचानक उसे लगने लगा कि सामने बैठी लड़की उसे अजीब नज़रों से देख रही है। दबी हुई हंसी से उसकी किसी कमी का मजाक उड़ा रही है। उसे याद आया कि बस स्टॉप पर खड़ा लड़का भी उसे ऐसे ही देख रहा था।
'कहीं मेरे पीठ के बटन खुले तो नहीं हैं या फिर चेहरे पर कुछ लगा हो?' इस प्रकार की आशंका उसके मन में घुमड़ने लगी। उसने वॉशरूम में जाकर चेक किया सब ठीक था।
लेकिन यह पहली बार नहीं हुआ था। अपने व्यक्तित्व के विषय में एक हीन भावना बचपन से उसके मन में थी। हर नज़र उसे अपने भीतर कमी खोजती सी लगती थी। हर मुस्कान तंज़ मालूम देती थी। अपनी दादी के शब्द उसे चुभते रहते थे "न शक्ल सूरत है न बाप के पास इतने पैसे। न जाने क्या होगा इसका?" बचपन में रोपा गया एक बीज हीनता का ऐसा वटवृक्ष बन गया था कि शैक्षणिक योग्यता का बल भी डगमगा जाता था।

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