"होली है...." के शोर के साथ एक बच्चे ने विनोद को रंग से भिगो दिया। रंग की बौछार उसे यादों की गलियों में ले गई। उसे पिछली होली याद आ गई। ससुराल में उसकी पहली होली थी। सालियों के साथ होली खेलते हुए उसकी नज़रें संध्या को ढूंढ़ रही थीं। पर कमरे में बैठी संध्या उसे तड़पाने का मज़ा ले रही थी।
संध्या को बाहर निकालने की उसे एक तरकीब सूझी।
"अच्छा अब चलता हूँ। शाम को आकर संध्या को ले जाऊँगा।" उसने एक आँख दबाते हुए तेज़ आवाज़ में कहा।
"नमस्ते जीजू शाम को इंतज़ार करेंगे।" सालियों ने भी उसका बखूबी साथ दिया।
विनोद आंगन के एक कोने में छिप गया। कुछ ही पलों में संध्या भागी हुई आई और बहनों को डांटने लगी "तुम लोगों को ज़रा भी समझ नही। बिना खाए पिए ही...."
उसकी बात पूरी होने से पहले ही विनोद ने उसे रंग से सराबोर कर दिया।
इस साल वह संध्या से दूर अकेले इस शहर में था। मीठी सी याद की इस फुहार ने उसे अंदर तक भिगो दिया।
संध्या को बाहर निकालने की उसे एक तरकीब सूझी।
"अच्छा अब चलता हूँ। शाम को आकर संध्या को ले जाऊँगा।" उसने एक आँख दबाते हुए तेज़ आवाज़ में कहा।
"नमस्ते जीजू शाम को इंतज़ार करेंगे।" सालियों ने भी उसका बखूबी साथ दिया।
विनोद आंगन के एक कोने में छिप गया। कुछ ही पलों में संध्या भागी हुई आई और बहनों को डांटने लगी "तुम लोगों को ज़रा भी समझ नही। बिना खाए पिए ही...."
उसकी बात पूरी होने से पहले ही विनोद ने उसे रंग से सराबोर कर दिया।
इस साल वह संध्या से दूर अकेले इस शहर में था। मीठी सी याद की इस फुहार ने उसे अंदर तक भिगो दिया।
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