सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कागज़ की कश़्ती

आज कुछ बच्चों को कागज़ की नाव चलाते देख कर मुझे मेरा बचपन याद आ गया. मेरा गांव का घर और उसका आंगन. आंगन में भागता मैं और मुझे पकड़ने का प्रयास करती मेरी बड़ी बहन. उनका वह गोल चेहरा मेरी आंखों में तैरने लगा. कस कर बांधी गई दो चोटियां, कान में पहनी हुई सोने की छोटी छोटी बालियां तथा होंठों पर खेलने वाली सदाबहार मुस्कान सब कुछ साफ साफ दिखाई देने लगा. मेरे तथा मुझसे बड़े दोनों भाइयों के लिए वह माँ थीं. खासकर मेरे लिए क्योंकी दस माह की अवस्था में माँ मुझे उन्हें सौंप कर चल बसीं. हम लोग उन्हें जिज्जी कह कर बुलाते थे. एक उम्र तक जिज्जी की गोद ही मेरा सबसे आरामदायक बिस्तर था. उनके सीने से चिपट कर मुझे सबसे अच्छी नींद आती थी.  जिज्जी ने अकेले दम ही घर की सारी ज़िम्मेदारी उठा रखी थी. घर के सारे कामों के साथ साथ अपनी पढ़ाई भी करती थीं. सुबह जल्दी उठ कर पिताजी तथा हम सबका टिफिन तैयार करतीं. उसके बाद स्कूल जातीं. बड़े तथा मंझले भैय्या तो अपने काम स्वयं कर लेते थे किंतु मैं बहुत चंचल था. मुझे स्कूल के लिए तैयार करने के लिए जिज्जी को मेरे पीछे भागना पड़ता था. मैं उनसे अपनी सारी मांगें पूरी करा ल...

रौशनी

अपनी बालकनी से मिसेज मेहता ने देखा आसपास की सभी इमारतें रंगबिरंगी रौशनी से जगमगा रही थीं. कुछ देर उन्हें देखनेे के बाद वह भीतर आ गईं. सोफे पर वह आंख मूंद कर बैठ गईं. बगल वाले फ्लैट में आज कुछ अधिक ही हलचल थी. पहले इस फ्लैट में बूढ़े दंपति रहते थे. तब कहीं कोई आहट नही सुनाई पड़ती थी. लेकिन इस नए परिवार में बच्चे हैं. इसलिए अक्सर धमाचौकड़ी का शोर सुनाई पड़ता रहता है.  पहले त्यौहारों के समय उनका घर भी भरा रहता था. उन्हें क्षण भर की भी फ़ुर्सत नही रहती थी. लेकिन जब से उनका इकलौता बेटा विदेश में बस गया वह और उनके पति ही अकेले रह गए. त्यौहारों की व्यस्तता कम हो गई. फिर वह दोनों मिलकर ही त्यौहार मनाते थे. आपस में एक दूसरे का सुख दुख बांट लेते थे. पांच वर्ष पूर्व जब उनके पति की मृत्यु हो गई तब वह बिल्कुल अकेली रह गईं. तब से सारे तीज त्यौहार भी छूट गए. अब जब वह आसपास लोगों को त्यौहारों की खुशियां मनाते देखती हैं तो अपना अकेलापन उन्हें और सताने लगता है. अतः अधिकतर वह अपने घर पर ही रहती हैं. ऐसा लगा जैसे बगल वाले फ्लैट के बाहर गतिविधियां कुछ बढ़ गई हैं. वह उठीं और उन्होंने फ्लैट का दरवाज़...

मुखौटा

शहर के मशहूर अॉडिटोरियम में महिलाओं के सशक्तिकरण पर एक सेमीनार चल रहा था।  कई वक्ताओं ने इस विषय पर अपने विचार रखे थे।  अब शहर की जानी मानी समाज सेविका सुमित्रादेवी की बारी थी।  उनके नाम की घोषणा होते ही सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।  सुमित्रादेवी एक शानदार व्यक्तित्व की मालकिन थीं।  पोडियम पर आकर उन्होंने बोलना आरंभ किया " आज नारी घर में क़ैद कोई गुड़िया नही है जो केवल घर की शोभा बढ़ाए।  आज उसका अपना वजूद है।  वह पुरूष का साया नही बल्की उसके समकक्ष है।  बल्की कई मामलों में तो उससे बेहतर है।  " उनकी रौबदार आवाज़ पूरे हॉल में गूंज रही थी।  सभी बड़े ध्यान से उन्हें सुन रहे थे।  महिलाओं के हक़ में वह बहुत ज़ोरदार तरीके से बोल रही थीं।  उनका भाषण समाप्त हेने पर एक बार फिर तालियां बज उठीं। सुमित्रादेवी आकर अपने स्थान पर बैठ गईं।  अपना मोबाइल देखा तो डॉक्टर बेटे का संदेश था ' फिर वही परिणाम ' ।  उन्होंने उत्तर लिखा ' तो वही इलाज करो ' ।  संदेश मिलते ही उनका बेटा अपनी पत्नी के एक और गर्भपात की तैयार...

पगला भगत

ठाकुर हृदय नारायण सिंह गाँव के ज़मींदार थे।  किंतु दूसरे ज़मींदारों जैसे एब उनमें नहीं थे।  वह केवल अपनी ज़मींदारी बढा़ने के  विषय में ही सोंचते नहीं रहते थे।  उन्हें प्रजा के हितों का भी खयाल रहता था।  ज़मींदारी के काम के अलावा उनका अधिकतर वक़्त आध्यात्मिक चिंतन एवं धर्म ग्रंथों के अध्यन में ही बीतता था।  चतुर्मास में वह अमरूद के बागीचे में बने छोटे से भवन में निवास करते थे।  इसे सभी बागीचे वाले मकान के नाम से जानते थे।  इस दौरान जब तक अति आवश्यक ना हो वह किसी से भेंट नहीं करते थे।  केवल उनका विश्वासपात्र सेवक ही उनके साथ रहता था।  पीढ़ियों से ठाकुर साहब के परिवार में भगवान शिव की उपासन हो रही थी।  गाँव का भव्य शिव मंदिर इनके पुरखों का ही बनवाया हुआ था।  श्रावण मास में हर वर्ष बड़े पैमाने पर रुद्राभिषेक का आयोजन होता था।  इसका आयोजन ठाकुर साहब के प्रतिनिधित्व में ही हेता था।  इस शिव मंदिर में एक अनूठी परंपरा प्रचलित थी।  जब भी ठाकुर परिवार के तत्कालीन मुखिया की मृत्यु होती तो उनकी चिता की भस्म से शिवलिंग का श्...

प्रियतम

रूपमती महल के झरोखे पर बैठी नर्मदा को निहार रही थी। साँझ ढल रही थी।  मन बहुत  व्यथित था। बाज़ बहादुर मुग़लों से हार कर रण छोड़ कर भाग गया था। किसी भी समय अधम ख़ान महल में प्रवेश कर सकता था। डूबते हुए सूरज को देखकर रूपमती का ह्रदय भी डूब रहा था। एक प्रश्न उसके ह्रदय को विदीर्ण कर रहा था। क्या एक बार भी बाज़ बहादुर को उसका ख़याल नहीं आया। उसने एक बार भी नहीं सोंचा की उसके बाद उसकी प्रिय रानी रूपमती पर क्या बीतेगी। कैसे वह उस अधम ख़ान से ख़ुद की रक्षा करेगी। नर्मदा माँ उन दोनों के प्रेम की गवाह है। इनके तट पर न जाने कितनी ही शामें उसने और बाज़ बहादुर ने साथ बिताई हैं। कभी संगीत के स्वरों के साथ तो कभी एक दूसरे का हाथ थामे मौन सिर्फ नर्मदा की बहती धारा को देखते हुए। उसके मन में एक टीस सी उठी। कहाँ होगा उस का प्रियतम। क्या बीत रही होगी उस पर। भूखा प्यासा  जाने कहाँ भटकता होगा। उसके मन में फिर एक प्रश्न उठा ' क्या वह भी उसके बारे में इसी प्रकार चिंतित होगा। ' नियति उन दोनों के प्रेम की यह कैसी परीक्षा ले रही है। अपने प्रियतम के बिना जीना उसके लिए कठिन है। पत...

अब्दुल बाबा

राजू अपने पिता के काम में हाथ बटा रहा था। उनका सड़क के किनारे ये छोटा सा ढाबा है। इसी के सहारे उनका परिवार चलता है और राजू और उसकी बहन की पढ़ाई भी। रोज़ शाम कुछ घंटे वह यहाँ अपने पिता की मदद करता है। फिर घर जाकर देर रात तक पढाई। सुबह स्कूल जाने से पहले वह घरों में दूध डबल रोटी अंडे आदि पहुँचाने का काम करता है। अपना काम निपटा कर जब वह घर लौटा तो दरवाजे पर ही उसकी बहन ने यह दुःखद समाचार सुनाया 'अब्दुल बाबा नहीं रहे ' उसने ना कुछ खाया ना पिया। रात को पढ़ भी नहीं सका। सिर्फ उनके चित्र को देख कर रोता रहा। उन दिनों जब वह यह सोंच कर उदास रहता था कि वह गरीब है और कुछ नहीं कर सकता तब अब्दुल बाबा से ही उसे प्रेरणा मिली। कैसे अखबार बांटने वाला एक साधारण लड़का इतना बड़ा वैज्ञानिक बन गया। इतने बड़े जनतंत्र का राष्ट्रपति बन गया। उस व्यक्तित्व ने उसे इतना प्रेरित किया कि वह ना जाने कब अब्दुल बाबा बन गए। भोर हो रही थी और राजू के भीतर कहीं एक दृढ निश्चय उदित हो रहा था। ज़मींदोज़ होना या चिता में जलना तो जिस्म की नियति है। विचार तो अमर होते हैं। सत्कर्म ध्रुव तारे की भांति सदा लोगों को राह दिखाते है...

रानी बिटिया

आखिर वो दिन आ ही गया जिसका सपना मैं वर्षों से देख रहा था। जब पहली बार मैंने उसे अपनी गोद में उठाया था तब से ही मैं उसे इस रूप में देखना चाहता था । जब उसका जन्म हुआ था परिवार में बहुतों के चेहरे मुर्झा गए थे। किन्तु मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी। पता नहीं जब उसे इस रूप में देखूँगा तो ख़ुद को संभाल पाऊँगा या नहीं। ख़ुशी के साथ साथ एक घबराहट भी है। मुझसे दूर जा रही है। पता नहीं कब उसे देख पाऊँगा। वह  आ कर मेरे सामने खड़ी हो गई। मेरी आँखों से आंसू छलक पड़े। वह बहुत सुंदर दिख रही थी। पुलिस ऑफिसर की वर्दी उस पर खूब फ़ब  रही थी। मैंने उसे आने वाले जीवन के लिए आशीर्वाद दिया। http://www.tumbhi.com/writing/short-stories/rani-bitiya/ashish-trivedi/60085#.VZymUEamyIA.facebook

छत

आज ही निखिल अपने पिता के अंतिम संस्कार निपटा कर लौटा है। बिस्तर पर लेटे  हुए दिमाग में न जाने कितना कुछ चल रहा है। बहुत जल्दी ही वह अपने पैरों पर खड़ा हो गया था और घर से दूर एक स्वतंत्र जीवन जी रहा था। व्यस्तता के कारण घर कम ही जा पाता था। जाता भी था तो बहुत कम समय के लिए। उसमें भी बहुत सा समय पुराने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने में बीत जाता था। कुछ ही समय वह अपने पिता के साथ बैठ पाता था। जिसमें वह उससे उसकी कुशल पूँछते और कुछ नसीहतें देते। आज अचानक उसे बहुत खालीपन महसूस हो रहा था। अचानक उसे लगा जैसे कमरे की छत गायब हो गई है और वह खुले आसमान के नीचे असुरक्षित बैठा है। 

विषधर

बात अंग्रेज़ी राज की है। लाला दर्शनलाल पुराने रईसों में थे। उनके बाप दादा बहुत दौलत छोड़कर गए थे। अन्य रईसों की तरह वह भी शौक़ीन मिज़ाज़ थे। शौक पूरे करने के लिए दिल खोल कर खर्च करते थे। उनकी दो पत्नियां थीं।  प्रभावती और लीलावती। दोनों सगी बहनें थीं किन्तु उनमें बहनों जैसा प्रेम नहीं था। प्रभावती लीलावती से दस वर्ष बड़ी थी। जब वह सोलह साल की हुई तब उसका विवाह दर्शनलाल से हुआ। वो घर की मालकिन बन गई। छुटपन में जब लीलावती अपनी बहन के घर आती थी तो प्रभावती उसे अपने पूरे नियंत्रण में रखती थी। लीलावती को यह अच्छा नहीं लगता था। लीलावती ने जब यौवन में कदम रखा तो रूप और लावण्य में वह प्रभावती से कहीं अधिक थी। लाला दर्शनलाल उस पर लट्टू हो गए। प्रभावती से उन्हें कोई संतान भी नहीं थी। वो लीलावती से ब्याह करना चाहते थे। दैवयोग से उनके ससुर का देहांत हो गया। उन्होंने अपनी सास के समक्ष प्रस्ताव रखा। पहले तो वह हिचकिचाईं। किंतु बाद में उन्होंने पूरा गणित लगा कर सोंचा कि यदि वह कहीं और लीलावती का ब्याह करेंगी तो बहुत दहेज देना पड़ेगा। जिसके बाद उनके अपने निर्वाह के लिए कुछ नहीं बचेग...

कीमत

मिडिलक्लास मोहल्ले के एक दुमंज़िले मकान के सामने फुटपाथ पर चार रोटियां पड़ी थीं। शायद रात की बची हुई होंगी। घर की मालकिन ने यह सोंच कर कि गाय या कुत्ता खा लेगा रख दी होंगी। गली के दूसरे मोड़ से एक कबाड़ी आवाज़ लगाता हुआ दाखिल हुआ। मकान के सामने पहुँच कर वह ठिठका। फिर रोटियों को उठा कर उन्हें अपने गमछे में लपेट कर आगे बढ़ गया। 

आइना

गौतम देश के माने हुए चित्रकारों में था।  देश विदेश की जानी मानी  आर्ट गैलरियों में उसकी कलाकृतियों  का प्रदर्शन होता था। बड़े बड़े उद्योगपति, राजनेता, फ़िल्मी हस्तियां एवं अन्य गणमान्य लोग उसकी पेंटिंग्स खरीदते थे। कला के क्षेत्र में उसका बहुत सम्मान था। इस स्थान पर पहुँचने के लिए उसने कड़ी मेहनत की थी। उसका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। माता पिता की इच्छा उसे इंजीनियर बनाने की थी। किंतु उसका झुकाव तो कला की तरफ था। अतः सबकी नाराज़गी के बावजूद उसने फाइन आर्ट्स में दाखिला लिया। उसके विचारों में एक ताज़गी थी। जो उसकी पेंटिंग्स में भी झलकती थी। इसलिए हर कोई उन्हें पसंद करता था। वह भी पूरी मेहनत और लगन के साथ काम करता था। जल्द ही उसकी बनाई पेंटिंग्स का प्रदर्शन आर्ट गैलरियों में होने लगा। वह सफलता की सीढ़ियां चढने लगा।  इन्हीं दिनों उसकी मुलाकात रेहान से हुई। रेहान एक गरीब घर का लड़का था। वह कला का पुजारी था और गौतम को अपना आदर्श मानता था। गौतम ने उसकी आगे बढ़ने में सहायता की। उसे देश के प्रतिष्ठित फाइन आर्ट्स कॉलेज में प्रवेश दिलाया। रेहान भी ...

रक्त बीज

मानव एक सीधा साधा व्यक्ति था। एक छोटी सी दुकान चलाता था। इतनी आमदनी हो जाती थी कि वह और उसका परिवार सुख से रह सकें। जीवन में किसी प्रकार की कमी महसूस नहीं होती थी। लेकिन अपने आस पास फैले अन्याय , अत्याचार , भ्रष्टाचार से उसका दिल दुखता था। वह इस सब को मिटाने के लिए कुछ करना चाहता था। एक बार उसकी दुकान के पास की मिठाई की दुकान पर कुछ बदमाशों ने खूब उत्पात मचाया। दुकान के मालिक को पीटा और रुपये लूट लिए। वो आदमी स्थानीय बाहुबली नेता के थे अतः उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। मानव से यह बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने कुछ दुकानदारों को एकत्रित कर इसका विरोध किया। बात न सुने जाने पर अनशन किया। अंत में वह उस दुकानदार को न्याय दिलाने में सफल हो गया। सारे बाज़ार में उसकी धाक जम गई। वह वहाँ के व्यापारियों का नेता बन गया। धीरे धीरे उसकी ख्याति बढ़ने लगी। इससे प्रेरित होकर उसने पार्षद का चुनाव लड़ा और जीत गया। इस तरह वह राजनीति के गलियारे में पहुँच गया। उसके पास अधिकार आ गया। अब वह लोगों की भलाई के काम कर सकता था। लेकिन इसी के साथ कई प्रलोभन भी आये। जिनसे वह बच नहीं सका। उसने सोंचा यदि लोगों क...

कद

भीड़ भाड़ से मेरा मन ऊब जाता है। मैं तो आना नहीं चाहता था किंतु मेरे पुराने मित्र की बेटी की शादी थी तो आना पड़ा। ये तो अच्छा है कि सारा कार्यक्रम उनके इस फार्महाउस में हो रहा है। यह इतना बड़ा है की आप चाहें तो अपने लिए एक कोना तलाश सकते हैं। मुझे भी मिल गया। मैं एकांत में बैठा था कि अचानक वो सामने आ गई। इतने वर्षों के बाद देखा था। कुछ क्षण लगे किंतु मैं पहचान गया।  मैंने नज़रें चुराने की कोशिश की। वो ताड़ गई। " कैसे हो तुम। पहचान तो गए होगे। " उसके इस अचानक किये गए सवाल से मैं हड़बड़ा गया। " हाँ ठीक हूँ। तुम कैसी हो। " " उम्र का असर दिखने लगा है। " मेरे चहरे का निरिक्षण करते हुए बोली। " वक़्त तो अपना प्रभाव दिखाता ही है। कितना वक़्त बीत गया। " सचमुच वक़्त ने बहुत कुछ बदल दिया था। डर कर मेरे पैरों से लिपट जाने वाली मेरी बेटी अब विदेश में अकेले रह रही थी। मेरी पत्नी और मैंने अब एक दूसरे की कमियां देखना छोड़ दिया था। अब हम शांति से एक छत के नीचे रहते थे। पच्चीस वर्ष पूर्व उस शाम गोमती के किनारे आखिरी बार मैं वसुधा से मिला था। " क्या मतलब है त...

मुक्ति

नौ द्वारों वाला एक घर था। इस घर पर सात असुर भाइयों का कब्ज़ा था। इन्होने गृहस्वामी को अपना दास बना रखा था। सब उसे अपने इशारों पर नचाते थे। सबसे बड़े असुर का नाम हवस था। वह जितना भी भोग करता उतना ही और विकराल हो जाता था।   उसकी तृप्ति के लिए गृहस्वामी इधर उधर भटकता फिरता था। किंतु  उसकी तृप्ति किसी भी प्रकार नहीं होती थी। दूसरे असुर का नाम लोलुपता था। अधिकाधिक भक्षण उसकी आदत थी। उसका प्रेमिका थी जीभ। उसके वशीभूत वह नाना प्रकार के व्यंजनों का स्वाद लेता था किन्तु उसकी यह प्रेमिका सदैव नए स्वाद के लिए आतुर रहती थी। तीसरे असुर को ज़्यादा से ज़्यादा संग्रह करने की आदत थी। उसका खज़ाना जितना बढ़ता उसे उतना ही कम लगता था। अभिमान नामक असुर सदैव गर्व से दहाड़ता रहता था। आालस क्रोध ईर्ष्या ये अक्सर उसे अपनी गिरफ्त में लिए रहते थे। गृहस्वामी इनसे बहुत परेशान था वह मुक्ति चाहता था। उसके पास अपार शक्ति थी किंतु इन असुरों की दासता करते हुए वह उसे भूल गया था। अतः एक दिन जब वह बहुत व्याकुल था उसने इन असुरों से मुक्ति पाने का प्राण किया और तप करने बैठ गया। कठोर तपस्या से उसके...

भंवर

नितिन सोफे पर लेटे हुए अपने ड्रिंक की चुस्कियां ले रहा था। उसका मन कुछ विचलित सा था। सोनिया भी पास में आकर बैठ गई और उसके बालों में अपनी उंगलियां फिराने लगी। नितिन उसकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया। पिछले कई दिनों से वह उसकी बेचैनी महसूस कर रही थी। इसलिए वह उससे बात करना चाहती थी। " कुछ दिनों से परेशांन लग रहे हो। "  सोनिया ने पूंछा। " हमारी ज़िन्दगी बारे में सोंच रहा था। अभी तक हम कुछ भी हांसिल नहीं कर पाए। " " ऐसा क्यों सोंचते हो क्या कमी है हमारे पास।  अच्छा जॉब , घर, गाडी हर एक चीज़ है जो आरामदायक जीवन के लिए चाहिए। " सोनिया ने तसल्ली देनी चाही। नितिन और भड़क गया। " इससे क्या होता है। कहीं न कहीं हम रेस में पिछड़े हैं। उस रॉबिन को देखो हमारे साथ कॉलेज में था। कुछ भी नहीं था उसके पास। कितनी बार तो मैंने पैसों से उसकी मदद की। पर आज देखो कहाँ है। उसके सामने तो हम कुछ भी नहीं हैं। " " फिर भी हम खुश हैं।  हमें क्या कमी है। " " मैं उनमें नहीं हूँ जो नीचे देखते हैं। मैं ऊपर देखता हूँ। मुझे सबसे ऊपर जाना है। " नितिन ने उत्तेजित होक...

गट्टू बाबू

बचपन में एक खिलौना देखा था। मिट्टी के एक बड़े से गोले पर स्प्रिंग से जुड़ा हुआ एक छोटा गोला। बड़े गोले पर रंग से हाथ पैर बने थे। छोटा गोला सर था। बस कुछ इसी तरह दिखते हैं गट्टू बाबू। विशाल गोलाकार शरीर और उस पर इधर उधर हिलती उनकी मुंडी। गट्टू बाबू की दो प्रेमिकाएं हैं। एक उनकी जीभ। जिसे वे जितना अधिक रसास्वादन कराते हैं वह उतनी ही अधिक अतृप्त रहती है। दूसरी है निद्रा। जो अक्सर दबे पांव आकर उन्हें अपने आलिंगन में बाँध लेती है। अपने खाकर आसानी से पचा लेने के गुण के कारण वो दूर दूर तक मशहूर हैं। उनके इस गुण की सर्वोत्तम व्याख्या उनके साढ़ू चुन्नी लाल इस तरह से करते हैं की यदि संसार भर की खाद्य सामग्री एकत्रित कर गट्टू बाबू को परोसी जाए तो मिनटों में वह उनके उदर के किस कोने में समा जायेगी कोई नहीं बता सकता है। इस पर भी गट्टू बाबू बिना डकारे थोड़ा और मिलेगा क्या ? के भाव से निहारते नज़र आएंगे। लोग उन्हें दावत में नहीं बुलाते हैं। अकेले एक बारात का खाना तो वही खा जाएंगे। खा खा कर उनका शरीर किसी बड़े से भण्डारगृह की भांति हो गया है। हाथ पांव चलना बहुत कठिन  लगता है। शरीर पर बैठ...

ययाति

डॉक्टर व्योम दुनिया के जाने माने वैज्ञानिक थे। अपने आविष्कारों के कारण वो कई राष्ट्रिय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके थे। देश एवं विदेश में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी। एक छोटे से हिल स्टेशन में लोगों से दूर उनका मैनसन था। यहाँ एक गुप्त प्रयोगशाला थी। इसमें सबसे छुपा कर डॉक्टर व्योम अपने नए आविष्कार में व्यस्त थे। चिर यौवन की प्राप्ति। डॉक्टर व्योम बहुत ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे। जीवन के सभी सुखों का भोग अंत तक करने की उनकी इच्छा थी। किंतु प्रकृति का चक्र है। इसमें मनुष्य अपने यौवनकाल में ही सांसारिक सुखों का सर्वाधिक उपभोग कर सकता है। यौवन ढलने के साथ साथ इन्द्रियां शिथिल पड़ने लगती हैं। डॉक्टर व्योम उसी अवस्था को प्राप्त हो चके थे। अतः अपने यौवन को पुनः प्राप्त करना चाहते थे। युवावस्था से ही डॉक्टर व्योम बहुत आत्मकेंद्रित थे। प्रेम में उनका विश्वास नहीं था। स्त्री पुरुष के बीच का संबंध वो केवल शारीरिक सुख तक ही मानते थे। अतः उन्होंने विवाह नहीं किया था। कॉलेज के ज़माने में रोहिणी नाम की लड़की से उनका संबंध हुआ था। किंतु रोहिणी उनसे प्रेम करती थी। उस...

मासूम

शहर के बड़े अस्पताल के I.C.U में  चाइल्ड स्टार आयुष ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रहा था। डाक्टरों के अनुसार अत्यधिक थकान और नींद की कमी के कारण ऐसा हुआ था। तीन साल पहले आयुष एक आम बच्चा था जो स्कूल जाता था , दोस्तों के साथ मस्ती करता था। उसके पिता एक कंपनी में काम करते थे और माँ एक गृहणी थीं। एक मिडिलक्लास परिवार था। लेकिन आयुष बहुत खुश था। उसने स्कूल के वार्षिक समारोह में एक प्ले में हिस्सा लिया जहां एक विज्ञापन निर्माता ने उसे देखा। उसने आयुष के माता पिता को उसे एक विज्ञापन फिल्म में काम करने देने को राज़ी कर लिया। अपनी पहली विज्ञापन फिल्म से ही आयुष चर्चित हो गया। फिर तो उसके लिए कई ऑफर्स आने लगे। काम इतना मिलाने लगा कि उसके पिता ने नौकरी छोड़ उसका काम संभाल लिया। विज्ञापन फिल्मों के अलावा आयुष डेली सोप , अवार्ड फंक्शन में भी दिखने लगा। उसके पिता प्रयास करते कि उसे अधिक से अधिक काम मिल सके। देखते देखते आयुष स्टार बन गया। काम के साथ साथ पैसा भी आया। उसका परिवार अब शहर के पॉश इलाके में रहता था। घर में किसी चीज़ की कमी नहीं रह गई थी। आयुष का कमरा ढेर सारे खिलौनों से भरा था। किंतु ...

बंजर

चौधरी साहब की हवेली में आज बड़ी रौनक थी। ढोलक की थाप पूरे घर में गूँज रही थी। आज उनके घर उनकी छोटी बहू की मुहं दिखाई थी। सुनीता बहुत व्यस्त थी। सभी मेहमानों के आवभगत की ज़िम्मेदारी उसी पर थी। सभी सुनीता की तारीफ कर रहे थे। वाही थी जो अपनी छोटी चचेरी बहन प्रभा को अपनी देवरानी बना कर लाई थी। प्रभा के रूप और व्यवहार ने आते ही सब पर अपना जादू चला दिया था। चाचा चाची के निधन के बाद प्रभा सुनीता के घर रह कर ही पली थी। सुनीता ने उस अनाथ लड़की को सदैव अपनी छोटी बहन सा स्नेह दिया था। यही कारण था कि उसे अपनी देवरानी बनाने की उसने पूरी कोशिश की थी। अपनी कोशिश में वह सफल भी हो गई। दो वर्ष पूर्व सुनीता इस घर की बड़ी बहू बन कर आई थी। अपने सेवाभाव और हंसमुख स्वाभाव से वह सास ससुर पति देवर सबकी लाडली बन गई थी। पूरे घर पर उसका ही राज था। उसकी सलाह से ही सब कुछ होता था। कमी यदि थी तो बस यही कि अब तक वह माँ नहीं बन पाई थी। हालांकि उसके घरवालों ने कभी भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया था किंतु आस पड़ोस में होने वाली कानाफूसी उसके कान में पड़ती रहती थी। ब्याह के कुछ महीनों के बाद ही प्रभा के पांव भार...

आग

मदन रूपवान और धनवान था। अभी कुछ समय पूर्व ही उसने यौवन में कदम रखा था। उसे अपने पुरुष होने का अभिमान था। कालेज के प्रथम वर्ष का प्रारम्भ हुआ था। कोएड कालेज में पढने वाली लड़कियां उसके लिए रूप और यौवन से भरे पात्र के अतिरिक्त कुछ नहीं थीं जिन्हें वह पी जाना चाहता था। इन्हीं में एक थी कामिनी। उसके रूप के आगे सभी की चमक फीकी पड़ जाती थी। मदन ने उस पर अपना प्रभाव डाल कर उसे अपनी तरफ आकर्षित कर लिया। उसे एक सहृदय मित्र समझकर कामिनी उसके साथ खुल कर व्यवहार करती थी। किंतु अवसर पाकर मदन ने उसके इस खुले व्यवहार का फायदा उठाया। अपनी तृप्ति कर वह एक भ्रमर की भांति दूसरे फूलों पर मंडराने लगा। अपनी पहली कामयाबी से उसका अभिमान और बढ़ गया। उसके लिए सभी स्त्रियां केवल मन बहलाव का सामान बन गईं। कालेज के बाद उसने अपने पैतृक व्यापार को ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। इससे उसकी मान प्रतिष्ठा और बढ़ गई। उसका अभिमान पहले से और बढ़ गया। उसके संपर्क में आने वाली स्त्रियों को कभी उनकी मज़बूरी का फायदा उठाकर तो कभी लालच देकर अपनी उस वासना को शांत करने की कोशिश करता जो और अधिक बढती जाती थी। उसकी सुंदर सुशील पत्नी...

चाय

लता इस समय तन और मन से बहुत थकी हुई थी। पिछले १५ दिनों से वह अपने पति की सेवा में लगी थी। उसका दुःख बांटने वाला कोई नहीं था। उसने जनरल वार्ड में इधर से उधर नज़र दौड़ाई। बगल वाले बेड के पास एक मुस्लिम महिला बैठी थी। कई दिनों से वह भी अपने मरीज़ की तीमारदारी में लगी थी।  वह प्लास्टिक के कप में चाय डाल रही थी। लता ने अपनी नज़रें वहां से हटा लीं। "लीजिये चाय पी लीजिये" लता ने नज़रें उठा कर देखा वही महिला चाय का प्याला लिए खड़ी थी। लता कुछ सकुचाई। उसने फिर कहा ले लीजिये। लता ने कप हाथ में पकड़ लिया। दोनों के बीच आगे कोई बातचीत नहीं हुई किंतु चाय के प्याले के साथ बिन कहे बहुत सम्प्रेषित हो गया। चाय की चुस्कियों के साथ लता हमदर्दी और प्रेम के घूँट भर रही थी। तन से अधिक मन की थकान दूर हो गई। 

गर्त

पत्नी उसके सामने गिड़गिड़ा रही थी।  यही कुछ पैसे थे उसके पास। इन्हीं के सहारे पूरा महीना काटना था। उसका पांच वर्ष का बेटा सहमा सा अपनी के पीछे छिपा था। उसने एक नहीं सुनी। पत्नी के हाथ से पैसे छीन लिए और निकल गया। पांच वर्ष पूर्व उसने इस नशे को चखा था जब ज़िंदगी का नशा पूरे शबाब पर था। उसका बिजनेस अच्छा चल रहा था। सुन्दर सुशील पत्नी थी जो जल्द ही उसकी संतान को जन्म देने वाली थी। सब कुछ सही चल रहा था। बस एक ही गलत बात ने सब कुछ बिगाड़ दिया। ज़िन्दगी के नशे की जगह इस नशे ने ले ली। ये नशा धीरे धीरे उसका सब कुछ निगल गया। उसका बिजनेस ,पारिवारिक सुख। उसके भीतर की सारी संवेदनाओं को भी इसने सोख लिया। अब वो एक खोखला शरीर मात्र रह गया है। उसने अपनी ज़िंदगी को इस नशे के पास गिरवी रख दिया है। अब रोज़ एक पुड़िया की शक्ल में उसे किश्तों में वापस मिलती है। धीरे धीरे वो एक अँधेरे गर्त में उतर गया जहाँ से लौटना बहुत कठिन है। http://www.tumbhi.com/writing/short-stories/gart/ashish-trivedi/56752#.VKtzwEgFgF0.facebook