"ये क्या मम्मीजी आपने चाय नहीं पी." अनीता जी की बहू ने उनसे पूँछा.
"मैं ठंडी चाय नहीं पीती. इसे ले जाओ." अनीता जी ने रुष्ट स्वर में कहा.
बहू बिना कुछ बोले चाय का प्याला लेकर चली गई. अनीता को पता था कि बहू गर्म चाय ही लेकर आई थी. जिसे उन्होंने जानबूझ कर नहीं पिया. अपनी बहू को परेशान करने का यह उनका तरीका था.
बेटे ने उनकी चुनी हुई लड़की के बजाय अपनी पसंद से शादी की. तब से अनीता नाराज़ थी. अपना सारा क्रोध बहू पर निकालती थी. हर समय उसके काम में कमियां निकालती रहती थी.
उनके सारे तानों को बहू चुपचाप सह लेती थी. वह कोई दब्बू नहीं थी. उसकी सोंच थी कि इस तरह वह अपने प्रति उनकी सोंच को बदल देगी. अतः अनीता जितनी उग्र होती बहू उतनी ही विनम्र बन जाती. इस बात से अनीता और चिढ़ जाती थी.
एक दिन आंगन में चलते हुए अनीता का पैर फिसल गया. कमर में गहरी चोट आ गई. डॉक्टर ने कुछ दिन तक हिलने डुलने को भी मना कर दिया. सारा काम बिस्तर पर ही होता था. बेटा उनकी सेवा करता था किंतु कुछ काम ऐसे थे जिसमें बहू ही मदद कर सकती थी. बहू पूरे मनोयोग से उनकी सेवा करती थी. बहू के इस सेवा भाव को देख कर अनीता की सोंच बदलने लगी. वह मन ही मन बहू के प्रति अपने व्यवहार के लिए शर्मिंदा होती थी.
एक दिन उसने अपने व्यवहार के लिए बहू से माफी मांगी. बहू ने विनम्रता से कहा "मैंने छोटी सी आयु में अपनी माँ को खो दिया था. आप में मैंने सदैव अपनी माँ को ही देखा है." यह कह कर उसने उन्हें गले लगा लिया.
उसकी बात सुन अनीता की आंखें छलक पड़ीं. अपनी नफ़रत के चलते वह इस निर्मल प्रेम से इतने दिनों वंचित रही.
"मैं ठंडी चाय नहीं पीती. इसे ले जाओ." अनीता जी ने रुष्ट स्वर में कहा.
बहू बिना कुछ बोले चाय का प्याला लेकर चली गई. अनीता को पता था कि बहू गर्म चाय ही लेकर आई थी. जिसे उन्होंने जानबूझ कर नहीं पिया. अपनी बहू को परेशान करने का यह उनका तरीका था.
बेटे ने उनकी चुनी हुई लड़की के बजाय अपनी पसंद से शादी की. तब से अनीता नाराज़ थी. अपना सारा क्रोध बहू पर निकालती थी. हर समय उसके काम में कमियां निकालती रहती थी.
उनके सारे तानों को बहू चुपचाप सह लेती थी. वह कोई दब्बू नहीं थी. उसकी सोंच थी कि इस तरह वह अपने प्रति उनकी सोंच को बदल देगी. अतः अनीता जितनी उग्र होती बहू उतनी ही विनम्र बन जाती. इस बात से अनीता और चिढ़ जाती थी.
एक दिन आंगन में चलते हुए अनीता का पैर फिसल गया. कमर में गहरी चोट आ गई. डॉक्टर ने कुछ दिन तक हिलने डुलने को भी मना कर दिया. सारा काम बिस्तर पर ही होता था. बेटा उनकी सेवा करता था किंतु कुछ काम ऐसे थे जिसमें बहू ही मदद कर सकती थी. बहू पूरे मनोयोग से उनकी सेवा करती थी. बहू के इस सेवा भाव को देख कर अनीता की सोंच बदलने लगी. वह मन ही मन बहू के प्रति अपने व्यवहार के लिए शर्मिंदा होती थी.
एक दिन उसने अपने व्यवहार के लिए बहू से माफी मांगी. बहू ने विनम्रता से कहा "मैंने छोटी सी आयु में अपनी माँ को खो दिया था. आप में मैंने सदैव अपनी माँ को ही देखा है." यह कह कर उसने उन्हें गले लगा लिया.
उसकी बात सुन अनीता की आंखें छलक पड़ीं. अपनी नफ़रत के चलते वह इस निर्मल प्रेम से इतने दिनों वंचित रही.
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