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मुठ्ठी की रेत

बाबूजी अपना चश्मा ढूंढ़ रहे थे. उन्होंने नौकरानी से पूंछा तो वह हंसते हुए बोली "यह क्या आपके गले में लटक रहा है."
उनकी भूलने की आदत की वजह से ही बहू ने दोनों कमानियों पर डोरी बांध दी थी कि चश्मा गले में पड़ा रहेगा. इधर उधर नहीं होगा. लेकिन उन्हें यह भी याद नहीं रहा.
वह अखबार लेकर बैठे तो बेसन भूने जाने की सोंधी खुशबू ने उनका ध्यान भटका दिया. बहू बेसन के लड्डू बना रही थी. डायबिटीज़, ब्लडप्रेशर आदि के कारण वह यह सब नहीं खा सकते थे. मन में एक टीस सी उठी. खाने के कितने शौकीन थे वह. पत्नी से नित नई चीज़ों की फरमाइश करते रहते थे. पर अब तो पाचन शक्ति  भी वैसी नहीं रही. खाने पीने में ज़रा सी गड़बड़ी स्वास्थ पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है. उन्होंने अपना मन अखबार में लगाने का प्रयास किया. वही पुरानी खबरें. दिन पर दिन छोटे होते अक्षर भी अब पढ़ने में मुश्किल पैदा करते थे. उन्होंने अखबार बंद करके रख दिया.
अपने कमरे में आकर बैठ गए. कल से भीतर का साहित्य प्रेमी जोर मार रहा था. किताबों से भरी अलमारी गवाह थी कि पढ़ने का कितना शौक था उन्हें. वह उठे और किताबों पर नज़र डालने लगे. उनकी निगाह जयशंकर प्रसाद की कामायनी पर टिक गई. शादी की पहली रात उनकी पत्नी ने भेंट की थी. किताब लेकर वह बाहर बॉलकनी में आ गए. आराम कुर्सी पर बैठ कर कामायनी पढ़ने लगे. कुछ समय बाद बहू बाहर आई तो देखा किताब उनकी गोद में खुली पड़ी थी और वह सो रहे थे. बहू ने एहतियात से किताब उठा ली ताकि उनकी नींद ना टूट जाए.

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